खंडहर और इमारत / विमलेश त्रिपाठी

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{ यह कहानी हरिवंश राय बच्चन, निर्मल वर्मा और नवल को आभार सहित... }

ऐसी कोई खास बात नहीं हुई थी कि इतना उद्विग्न हुआ जाता।

कई बार की ही तरह इस बार भी कुछ हुआ था। लेकिन कई बार न होकर इस बार वे ऐसे उद्विग्न हो रहे थे जैसे किसी ने सिर्फ मौत की धमकी ही न दी हो मौत को साक्षात उनके सामने खड़ा कर दिया हो।

ऐसा नहीं है कि इस बार कोई अनहोनी हो गई हो या जिसकी पूर्व कल्पना उनके थके हुए दिमागी तंतुओं को और न थका गई हो। ऐसा शुरू के कुछ बाद से ही होना शुरू हो गया था और उसका होना आज भी बदस्तूर जारी था। जैसे वे उम्र का बढ़ना और बालों का सफेद होना नहीं रोक पाए थे वैसे ही उनका इस तरह से बेचैन होना भी न छुटा था।

कई बार अक्सर अकेले में भीड़ भरे सन्नाटे में या सन्नाटे के शोर में वे मन की झुर्रियाँ नोच-नोच कर, कि उद्विग्नता के कारणों की परतें उधेड़-उधेड़ कर अपने हथेलियों पर परसारते थे और उनका मूल्यांकन करते हुए थक कर चूर हो जाते थे। और जब तक वे किसी खास निष्कर्ष पर पहुँचते उससे पहले कभी तो कोई परिचित सा लगता चेहरा उनसे टकरा जाता और दाँत निपोरते हुए दुआ-सलाम कर लेता और कभी उनकी झखड़ी सायकिल किसी मोटर या वाहन से टकराते-टकराते बचती। ऐसे में उनके कान कुछ रटे-रटाए संवाद या उपदेश सुन लेते। इससे उनके कानों को तो कोई फर्क न पड़ता था लेकिन कानों के रास्ते मन तक पहुँचा संवाद उन्हें नए सिरे से परेशान करना जरूर शुरू कर देता था। फिर होता यह था कि वे नई उपजी परेशानी और हथेलियों पर पसरी हुई बिखरी स्मृतियों को समेटने का दयनीय प्रयास शुरू करते थे और यह कर भी न पाते थे कि अचानक घर तक पहुँचाने वाली गली का मोड़ दिखाई पड़ जाता था। वे अंदर तक काँप जाते थे। इस डर से कि कोई उनके इस रूप को देख न ले या कोई उल्टी-सीधी बात न कह दे, वे फिर से वही काली बाबू बन जाते - धीर-गंभीर और एकदम घरेलू किसी पालतू पशु की तरह।

घर से निकटता के दौरान वे सोचने लगते कि एक बंडल ठांकुनी पत्ता, दो बंडल पालक, लहसून के दो पोटे और जेलुसील एमपीएस का एक पत्ता लेना कहीं भूल तो नहीं गए? वे अचानक अपने झोले को टटोलना शुरू कर देते। उन्हें लगता कि वे जरूर कुछ भूल गए हैं। वे इस बार बेहद निराश हो जाते। उनके दिल के ऊपरी हिस्से पर कैसा तो भारीपन महसूस होने लगता। उन्हें सचमुच यकीन हो जाता था कि डाबर का लाल दंत मंजन लेना वे जरूर भूल गए हैं। सपन दा के मोदीखाने से उन्होंने मंजन लिया तो था ...तब वे जरूर उसे अपने झोले में रखना भूल गए हैं। इसके बाद वे निराशा और बेचैनी में सपनदा के मोदीखाने की दूकान की तरफ चल पड़ते थे। चार कदम चलकर ही हाँफने लगते और होता यह था कि सपनदा उन्हें देखकर ही समझ जाता था कि काली बाबू को फिर कोई भ्रम हुआ है।

उनके आते ही वह पूछता - क्यों काली बाबू, कुछ भूल गए क्या?

- वह मंजन शायद मैंने अपने झोले में नहीं रखा - काली बाबू एक रुआँसी दृष्टि से देखने लगते।

- अरे, मेरे सामने ही तो रखा था आपने झोले में। वह खुद झोला टटोलता और डाबर का लाल दंतमंजन झोले में न मिलकर काली बाबू के लंबे कुरते की दाईं थगली में मिलता। काली बाबू बुरी तरह से झेंप जाते। ऐसा कई बार होता था। और उन्हें लगता कि ऐसी हर घटना के बाद वे और बूढ़े होते जा रहे हैं। हालाँकि उनकी उम्र ऐसी नहीं थी।

आज फिर एक बात हो गई थी जो ऐसी ही कई बातों से इतर नहीं थी। जैसे कि उनकी पत्नी पत्नी की तरह न होते हुए भी पत्नी से इतर नहीं थी। उनका बच्चा बच्चे की तरह न होते हुए भी बच्चे से इतर नहीं था। पर पता नहीं क्यों कई बार वह बच्चा काली बाबू को अपने से भी ज्यादा बूढ़ा लगता था और पत्नी के चेहरे की झुर्रियाँ उनकी माँ के चेहरे से भी अधिक गहरी और बोझिल दिखाई पड़ती थीं।

आजकल काली बाबू को नींद नहीं आ रही थी। ऐसा नहीं है कि रोज नींद नहीं आती है और आज भी नहीं आ रही है तो कोई बहुत ही महत्वपूर्ण बात हो गई है। कि कल सुबह अखबार बेचने वाले काले लड़के को चिल्लाते हुए सुना जा सकता है - पढ़िए, कल रात काली बाबू को नींद नहीं आई - और सुबह आज तक चैनल पर एक गोरी लड़की को थोड़ा उदास स्वर में कहते सुना जा सके कि आज की खास खबर यह है कि कल रात कालीचरण मजूमदार को नींद नहीं आई। ऐसा भी नहीं है कि कल सूकरा ग्वाला दूध देने के लिए आए तो दूध मापते हुए काली बाबू से धीमे स्वर में पूछे - साहेब सुने हैं कि कल रात में नींद नहीं आई। ...और सुबह लंगड़ा साधू 'टाका माटी माटी टाका' (रुपया माटी है और माटी रुपया) की जगह नींद पर एक बहस शुरू करे और अचानक पंचम सुर में गाने लगे - निंदिया ना आए मोहे अब तो बुला ले...। ऐसा कुछ भी नहीं है। लेकिन यह बात सौ फीसदी सच है कि कई दिनों से काली बाबू को नींद नहीं आ रही है और उससे भी आगे हजार फीसदी सच यह कि उनको आज भी सचमुच नींद नहीं आएगी। हो सकता है आज बहुत सी ऐसी चीजें आएँ जिनसे काली बाबू हमेशा पीछा छुड़ाने के लिए भागते फिरते हैं। कोई कसैली गंध जो उनकी आत्मा से निकलकर चारों ओर फैल जाने के लिए छटपटाती है... कोई ग्रंथि जो उनकी छाती पर करैत की तरह फेंटा मार कर बैठ जाती है... कोई बात जो वाक्य की शक्ल तक आते-आते मर गई थी... कोई शब्द जिसका जन्म से पहले ही गर्भपात हो गया था... इत्यादि।

लेकिन आज कुछ खास नहीं हुआ था। कुछ भी ऐसा नहीं कि पहले न हुआ हो। एक लगभग छोटी और उबाऊ जिंदगी में काली बाबू ने मन के असंख्य कोनों की परिक्रमा की थी... कई खाली जगहों की पड़ताल भी... और चाहते हुए भी उनकी भरपाई वे न कर सके थे। अंततः यह न कर पाने का मलाल भी अन्य कई चीजों की तरह उनकी आत्मा में कहीं गहरे धँस गया था और अब यह मलाल भी कई-कई शक्लें अख्तियार कर उनसे सवाल पूछने लगा था। यह अक्सर तब होता था जब वे बेहद उदासी के क्षण में बिस्तर पर होते थे। उनकी आँखों में नींद नहीं होती थी और सरोज एक बेपरवाह, अकेली और गहरी नींद में होती थी... जैसे उनकी कई-कई शक्लों की डरावनी और बोझिल स्मृतियों से सरोज का कोई लेना-देना न हो। यह सच था कि सरोज की काली बाबू से इतर कई समस्याएँ थी जिन्हें वे सदैव अपने कांधे पर महसूस करते थे। और कोई होता तो शायद उसके लिए सारी बातें एक स्वाभाविक प्रक्रिया की तरह होतीं। लेकिन काली बाबू को यह सच सच्चाई की शिद्दत तक महसूस होता था कि उन्होंने सरोज ही नहीं अपनी माँ और बच्चे के साथ भी ज्यादती की है। और इसमें किसी तरह के संदेह की कोई गुंजाइश न थी कि सबकी परेशानियों के अपराधी वे स्वयं को महसूस करते थे। उनके नादान मन को अपनी इस नादानी का तनिक भी इल्म नहीं था।

यूँ हुआ यह होगा, जैसा कि अक्सर होता है, कि सरोज ने उनके घर में घुसते ही ग्लुकोज का ग्लास उनके सामने रख दिया होगा और एक फीका चेहरा लिए खड़ी हो गई होगी। क्या हुआ, तबीयत कैसी है तुम्हारी - उन्होंने पूछा होगा। सरोज ने कोई जवाब नहीं दिया होगा और एक निराश सी मुस्कान हवा में छोड़कर चली गई होगी। काली बाबू ग्लुकोज को भूल गए होंगे और हवा में तैरती उस निराश मुस्कान से उलझते-उलझते स्मृतियों की गर्त में कई गुना गहरे धँस गए होंगे। इसके बाद की सारी चीजें उन्हें निराश-निराश सी लगने लगी होंगी। फिर नींद की शक्ल भी उन्हें निराश ही लगी होगी। इसलिए निराश नींद की निराश अभ्यर्थना भी उन्होंने न की होगी और किसी पुरानी डायरी, पुराने फोटो के एलबम... ताड़ के सूख गए किसी फूल या ऐसी ही किन्हीं जानी या अनजानी चीजों में खो गए होंगे। और हुआ यह होगा कि एक जमाने से आती हुई नींद एक जमाने बाद आनी बंद हो गई होगी और आज भी उनकी नींद का न आना एक लंबे घटनाक्रम की निरंतरता होगी।

काली बाबू रात के दस बजे कविता की एक किताब पलट रहे होंगे। या कह सकते हैं कि सेल्फों में सजी पड़ी असंख्य किताबों के जंगल से वे एक उदास किताब चुनते होंगे। और जितनी उदास किताब नहीं लगेगी उससे अधिक उदासी उनके मन में होगी और जितना ध्यान उनकी किताब पर होगा उससे अधिक इस बात पर कि बासन की खड़खड़ाहट किस क्षण पानी की छप-छप आवाज में बदलती है और छप-छप की आवाज कब पायल की करुण ध्वनि में... और कब सरोज आकर कहती है - अब तक जगे हो?

तो सरोज जब आती है तो जाहिर है कि पसीन से तर होगी और थकावट भरे चेहरे से एक बार काली बाबू को देखती होगी। देखना उसका सामान्य नहीं होगा और इस तरह से उसका देखना काली बाबू को एक गहरी आत्मग्लानि से भर देगा। आगे की घटना यह होगी कि कोई घटना नहीं होगी। सरोज थोड़ी देर पंखे के नीचे बैठी सुस्ताएगी, फिर ड्राइंग रूम से पानी का एक ग्लास लाएगी। इसके बाद दवाइयों से भरी एक सफेद पॉलिथीन लेकर बैठ जाएगी और एक-एक कर कई दवाइयाँ पानी के साथ निगलती जाएगी। यह करने के बाद वह आईने के सामने खड़ी होकर थोड़ी देर अपने मुरझाए हुए चेहरे को खोई हुई दृष्टि से देखेगी और जल्दी ही ऊब जाएगी। जैसे जीवन की आपा-धापी में खो गए किसी मूल्यवान चीज को याद कर रही हो... और एक कंघी लेकर अपने उलझे हुए बालों को आहिस्ता-आहिस्ता सँवारने लगेगी। काली बाबू उसकी एक-एक हरकत को गंभीर आँखों से देखेंगे और पहले से और अधिक उदास हो जाएँगे जैसे वे भी समय की कई दहलीजों के पार चले गए हों और उनकी आँखें एक भूखी बेचैनी से किसी खो गए या छूट गए उसी वस्तु की तलाश कर रही हों जिसकी याद अभी-अभी सरोज कर रही होती है। इसके बाद सरोज अपनी साड़ी उतारेगी, उसे सम्हाल कर दीवार के हैंगर में टाँगेगी और अधखुली ब्लाउज और पेटीकोट में काली बाबू की तरफ देखती हुई एक अजीब विरक्त नजरों से पूछेगी - आप पढ़ेंगे अभी...? तब काली बाबू कई दहलीजों के पार से लौटकर कुछ कहने की कोशिश करेंगे कि लाइट बुझ चुकी होगी... और सरोज उनके समानांतर एक लाश की तरह सोई पड़ी होगी।

सचमुच आज भी ऐसा ही कुछ हुआ था। आदमी को जिस तरह आदमी की आदत पड़ जाती है वैसे ही उसे रोजमर्रा की घटनाओं की भी आदत पड़नी चाहिए... और रोज घटने वाली एक ही तरह की घटनाएँ घटनाओं की तरह न लगकर जीवन की एक जरूरी हिस्सा की तरह लगनी चाहिए। लेकिन काली बाबू एक ही जीव हैं कि इस सत्य से अब तक पराजित नहीं हुए हैं और आज भी हर रोज घटने वाली एक ही तरह की घटना उन्हें नए सिरे से परेशान करती है, कुछ और उदासी की ओर धकेल देती है। ऐसा नहीं कि सुबह नया बवाल हो गया हो। ठीक समय पर ही वे उठे थे। रोज की तरह सुबह से बोझिल पहचान हुई थी। सिर कुछ और भारी लगा था। हाथ-पैर मे ऐसे दर्द हो रहा था जैसे सदियों से हो रहा हो। जैसे सदियों से ऐसी ही सुबह हो रही हो। और ऐसे ही वे सदियों से सरोज की सुबह-सुबह मंत्रों की भुनभुनाहट सुन रहे हों और ऐसे ही सोये न होने पर भी जागने का यथार्थ अभिनय कर रहे हों।

काली बाबू उठे तो उन्होंने देखा कि सरोज रोटी और थोड़ी सी सब्जी लेकर ताबड़तोड़ खाए जा रही है। हलाँकि बिस्तर छोड़ने का उनका मन नहीं कर रहा था। फिर भी वे उठते हैं और जल्दी से हाथ-मुँह धोकर तैयार हो जाते हैं कि पता नहीं कब वह कह देगी कि आप सोए रहिए ऐसे ही ...आपको मेरी परेशानियों से कोई लेना-देना नहीं है... और काली बाबू को लगे कि अब एक पल भी जिंदा नहीं रहना चाहिए और मजबूरी में फिर भी जिंदा रहें। इसीलिए सरोज जब तक पूरी तरह से तैयार होकर आती है उससे पहले ही वे दरवाजे पर खड़े रहते हैं और उसके टिफिन आदि का झोला कांधे पर लटकाए जल्दी से सीढ़ियाँ उतरने लगते हैं। पैर में असह्य दर्द होने के बावजूद भी वे रास्ते भर जल्दी-जल्दी चलने की कोशिश करते हैं। रास्ते में मन ही मन किसी अज्ञात से प्रार्थना करते है कि 6.30 की लोकल ट्रेन न छूटे। यदि वह छूट गई तो अगली ट्रेन आधे घंटे बाद आएगी ...और इस आधे घंटे में सरोज ट्रेन छूटने के लिए न केवल उन्हें जिम्मेवार ठहराएगी बल्कि उनके अंदर मौजूद या नहीं मौजूद इतने नकारात्मक तत्वों की याद दिलाएगी कि उन्हें लगेगा कि अभी जमीन फटती और उसमें वे समा जाते।

...और सचमुच जमीन नहीं फटती और उसमें वे सचमुच नहीं समाते। हाँ, हृदय उनका सचमुच फट जाता है... क्योंकि 6.30 की लोकल ट्रेन सचमुच छूट जाती है। और काली बाबू स्टेशन से ऐसे लौटते हैं जैसे श्मशान में अपनी चिता की राख देखकर आए हों।

वे लौटते हैं और अब लगभग रोज से अधिक बेमन से अपने कार्यालय जाने की तैयारी करेंगे। प्रबुद्ध चुप-चाप कमरे के कोने में एक टेबल के पास बैठा होमवर्क या ऐसा ही कुछ करता हुआ दिखेगा। वह उनका उतरा हुआ चेहरा एक बार ध्यान से देखेगा और कुछ कहते-कहते रुक जाएगा। काली बाबू रोज की तरह कुछ सुनते-सुनते रह जाएँगे। कुछ ही देर बाद प्रबुद्ध असहाय सा उनके सामने खड़ा हो जाएगा और वे समझ जाएँगे कि अब उसके स्कूल जाने का समय हो गया है। काली बाबू अपने मैले-कुचैले कपड़े में से सबसे कम दुर्गंध वाला एक कपड़ा निकालेंगे, उसे पहनने के बाद बगल में नाक ले जा कर गंध की जाँच करेंगे। एक मटमैली कल्पना उनके जेहन में घूम जाएगी कि मुरली मनोहर आज मुझसे भी अधिक गंदा और दुर्गधों वाला कपड़ा पहन कर आएगा। आज चंदना बासु से एक सुरक्षित दूरी बनाकर रखनी होगी। उसके नाक सुड़कने का अंदाज ऐसा है कि जिसको पता नहीं चलना चाहिए उसे भी पता चल जाएगा कि काली बाबू आज कितने महक रहे हैं। सोचते हुए ही काली बाबू अपनी झखड़ी सायकिल निकालते हैं। न चाहते हुए भी उस पर सवार होते हैं। प्रबुद्ध को हमेशा की तरह आगे बैठाना चाहकर भी पीछे ही बैठता हुआ देखते हैं। ...और हाँफने की हद तक हाँफते हुए भी सायकिल का पैडल मारते चले जाते हैं... कि जैसे जीना न चाहते हुए भी जीते चले जा रहे हैं...

पूरे रास्ते बाप-बेटे के बीच कोई बात नहीं होती। ऐसा नहीं है कि रोज बात होती थी और आज ही नहीं हुई। ऐसा अक्सर होता है। जैसे काली बाबू की सायकिल अक्सर खराब रहती है और उसे चलाते वक्त वे अक्सर हाँफते हैं। वैसे ही अक्सर बीच रास्ते रामधनी की सायकिल दुकान मिलती है और वह अक्सर कहता है - बाबूजी सायकिलवा टाल हो गई है, इसे बेच दिजिए। वे अक्सर एक भारी मुस्कान से जवाब देने की कोशिश करते हैं और अक्सर मुस्कान के आते-आते वे दूर निकल जाते हैं... इस तरह भारी मुस्कान के अक्सर बाद एक भारी झेंप उठती है। ऐसा अक्सर होता है।

अक्सर दफ्तर जाते हुए रास्ते में चंदना बासु मिलती है। अक्सर उसे रास्ते में देखकर काली बाबू ऐसे चलने का अभिनय करने लगते हैं जैसे किसी गहरी सोच में हों और चंदना बासु को उन्होंने देखा ही न हो। ऐसे में उनके चेहरे की झुर्रियाँ सिमटकर उन्हें दुनिया के सबसे चिंतित और दुखी आदमी की शक्ल प्रदान करती हैं। और ठीक चंदना बासु बस की छड़ पकड़ती नहीं कि वे सामान्य आदमी की शक्ल में आने की कोशिश में अपने चेहरे की झुर्रियाँ फैलाते हैं। तब उनके चेहरे पर जमी हुई उदासी की परत पर दुख के सच और हँसी के मिथ का एक ऐसा कॉकटेल दिखाई पड़ता है जिसे शब्दों में बाँधने की भाषा दुनिया के किसी लेखक के पास नहीं होगी।

खैर तो अक्सर चेहरे के कॉकटेल के साथ काली बाबू दफ्तर पहुँचते हैं। रोज की तरह किसी अनजान सी दुनिया में समाए, छूट गई कुछ सुखद और कुछ बोझिल स्मृतियों को गठरी में बाँधे। और रोज की तरह अक्सर ही फिर लौटते हैं घर की ओर - रोज के जरूरी समानों की सूची मन में दुहराते... स्वयं को आश्वस्त करते कि आज वे कुछ भी नहीं भूले... फिर से सपन दा की अर्थ भरी मुस्कान को सहना नहीं है... और एक असह्य झेंप से बच जाना है। लेकिन सब कुछ को सोचते हुए भी सरोज के चेहरे का रंग। वही विरक्ति से भरी हुई आँखें, वही उदासी की परत घर के चारों ओर लिपटी हुई। प्रबुद्ध का बूढ़ा लगता हुआ चेहरा... एक पकी हुई गंभीर उसकी फीकी हँसी... और सरोज की सिकुड़ी हुई भौंहें जो समय के चक्र के साथ बढ़ती ही गई हैं और बढ़ती गई हैं कालीचरण मजूमदार की बैचैन दुनिया की अंतहीन सीमाएँ... और जैसे नींद के सीमांत लघु से लघुतर होते गए हैं।

यही होता है। यही होना स्वभाविक भी है। सचमुच रात आधी है - काली बाबू की आधी-अधूरी जिंदगी के आधे-अधूरे सपनों की तरह... सचमुच नींद नहीं आ रही है... और काली बाबू कभी मौन कभी मुखर हो बुदबुदाते हैं...

जागता मैं आँख फाड़े / हाय सुधियों के सहारे / जबकि दुनिया नींद के / जादू भवन में खो गई है...

धत्ततेरे कि यह नींद से शुरू होकर सिर्फ नींद न आने की बारंबारता - जब लेखक ही ऊब रहा है तो आप पाठकों को धैर्य कहाँ। अच्छा छोड़िए, आइए हम कालीचरण मजूमदार के मन की तंतुओं में प्रवेश करते हैं - टीक तो? घबराइए नहीं, यह आपके लिए मुश्किल नहीं है। और फिर... मैं हूँ ना।

चार साल। नहीं, पाँच साल... नहीं-नहीं, चार साल के ऊपर तो प्रबुद्ध की उम्र ही हो रही है... चार साल दस महीने या ऐसा ही कुछ के लगभग हो गए या बीत गए। ...अब कोई कैसे हिसाब लगा सकता है कि काल की इस लंबी यात्रा में क्षण के कितने शक्ल और उनकी शक्लों के कितने रंग होंगे। लेकिन क्षण की शक्लें अगर होती हैं तो काली बाबू को बराबर याद है कि किस क्षण वे बेहद खुश थे और उन्हें गहरी नींद आती थी और कब क्षण ने उदास होना शुरू किया था... और होते होते एक दम से उनके रंग सरोज की शक्ल की तरह ही उदास और डरावने हो गए थे... और कब नींद की गहरी परछाईं एक- एक कदम बढ़ाती हुई किस खंडहर में समा गई थी।

उदाहरण के लिए पंछियों की पहली गुंजन जैसे आकाश की छाती पर सबेरा आँक देती है वैसे ही सरोज ने कालीचरण मजूमदार के जीवन में एक शब्द आँका था। यह शब्द उनके लिए एक बच्चे का आवाज के संसार में पहले प्रवेश की तरह था। बिलकुल अप्रत्याशित-अजनबी कि शब्दों को कौतुहल की दृष्टि से देखना था और किसी भी सुनने वाले को पागलपन की हद तक उत्फुल्लित कर देने वाली किलकारी भरनी थी। यह पहला समय था कि अकेलेपन की चीख के बीच कालीचरण मजूमदार ने सपनों की बाँह थामी थी - जिंदगी को सपनों से और सपनों को जिंदगी से गर्म करना शुरू किया था।

मसलन, जब पहली बार उन्होंने सरोज की हथेलियों में सौंपने के लिए गुलाब खरीदा था। गुलाब से जुड़े सभी प्रतीकार्थ उनके जेहन में सरसराने लगे थे, तब गर्व अपनी काव्यात्मक समझ पर न होकर एक अनजाने स्फुरण पर था जो हृदय के किन्हीं सिराओं से निकली थी और एक जमाने से परकटे परिंदे की तरह ठिठकी हुई हवा में अचानक गुलाब की मदहोश गंध तैरने लगी थी। वह एक ऐसा क्षण था कि सरोज उनकी आत्मा की पुकार बनती हुई उनके अव्यक्त भाव को अपनी छाती पर सहती हुई दिखने लगी थी...

सरोज कहती - तुम दुनिया के सबसे अच्छे पुरुष हो। कालीबाबू के मन से दुख का एक कण झर जाता था और विह्वल आँखों से वे सरोज की तरफ देखते रह जाते थे। कुछ क्षण के खामोश लम्हों के बाद वे पूछ ही बैठते थे - क्यूँ सरोज, मैं इतना साधारण कि अभी भी माथे पर गाँव की मटमैली परत अटकी हुई दिखती है। तुम महानगर में पली बढ़ी... ऐसा क्या खास है मुझमें।

क्योंकि तुम ऐसे पुरुष हो जिसके अंदर का जानवर सबसे कम खतरनाक है। - सरोज उनके मटमैले और कुछ धँसे हुए दाहिने गाल पर हल्की सी चपत लगा देती।

तुम्हें क्या लगता है माँ मुझे पसंद करेंगी। - सरोज के गालों का गुलाबी वृत थोड़ा गहरा जाता। कालीचरण मजूमदार उस वृत में गोल-गोल चक्कर लगाने लगते कि भविष्य के कुछ अदृश्य मंसूबों में उलझ जाते। समय की सरसराहट जैसे एक पल के लिए रुक जाती।

मैंने तुमसे एक सवाल पूछा है। - सरोज उन्हें झकझोर देती।

क्यों नहीं। तुम सुंदर हो, सुशील हो। पढ़ी-लिखी समझदार हो। - काली बाबू कहते। लेकिन इतना कहने में वे अपने भीतर एक अजीब दबाव सा महसूस करते। माँ का झुर्राया चेहरा एकबारगी जेहन में गूँज जाता।

यदि मैं एडजस्ट नहीं कर पाई तो? मतलब माँ की छवि तुमने जो रखी है मेरे सामने उससे तो लगता है कि वे थोड़ी रूढ़िवादी हैं... फिर मैं नौकरी भी करना चाहती हूँ। - सरोज की आँखों में आशंका के बादल मँडराने लगते।

मैं तो कहता हूँ कि तुम अपने घरवालों की पसंद से शादी कर लो। शायद अधिक खुश रह सकोगी। - काली बाबू के चेहरे पर मौजूद मलिनता इस बार और गहरी हो जाती।

- और यह प्यार... सरोज विह्वल और भर्राए स्वर में कहती और इस बार उन दोनों के बीच में एक गहरी खामोशी आकर बेठ जाती और बहुत देर तक बैठी रहती। ऐसा अक्सर होता।

फिर एक दिन इस अक्सर होने को समाप्त होना था। सो यह होने के बाद सरोज अपना सबकुछ छोड़ काली बाबू की हो गई। माँ का बहुत जमाने से बहू के लिए तरसना खत्म हुआ। हालाँकि माँ अपने घर के लिए घरेलू बहू की कामना रखती थीं लेकिन बेटे की इच्छा के आगे यह कामना और इसी तरह की कई इच्छाओं का त्याग किया। शुरू की कुछ झिझक के बाद उन्होंने सरोज को स्वीकार कर लिया।

घर में एक साथ दो औरतों की आवाज का कोरस काली बाबू को सुखद लगता। किताबें सुखद लगतीं। जिंदगी सचमुच जिंदगी की तरह लगती।

फिर कुछ दिनों बाद आँगन में किसी मेहमान के आने की गंध है - काली बाबू को अपना गुमनाम जन्मदिन याद आ रहा है। अपने गुमनाम जन्मदिन की गुमनाम कथा सरोज को भावुक उत्साह में सुनाते हैं - सरोज देर रात तक उनकी कथा सुनती है - अतीत की जमीन पर भविष्य के सैकड़ों अंकुर फूट रहे हैं - खूब हँसते हैं काली बाबू... हँसी का अर्थ न जानते हुए प्रबुद्ध हँसता है। बिना आवाज के भीतर कहीं पूरा संसार हँसता है। दीवारों की ओट में माँ के चेहरे की झुर्रियाँ हँसती हैं। तस्वीर में पिता की आँखें हँसती है।

छूट गए क्षण के चेहरे का एक सच यह भी है।

और एक क्षण यह कि घड़ी की टिक-टिक आवाज दिल पर धाँय-धाँय लगती है और आज एक जमाने बाद उनके जेहन में किसी लेखक की बहुत जमाने पहले पढ़ी हुई कुछ पंक्तियाँ गूँजती हैं -

'कुछ संबंधों से हम बाहर नहीं निकल सकते - कोशिश करें, तो निकलने की कोशिश में मांस के लोथड़े बाहर आ जाएँगे, खून में टिपटिपाते हुए...'

ऐसा नहीं है कि कालीचरण मजूमदार ने क्षण के बिगड़ते चेहरे की मरम्मत के बारे में न सोचा हो या कि जीवन के कई संभावित रास्तों में से एक एकांत रास्ता न चुना हो जहाँ संबंधों को सड़ जाने से पहले ही एक अकेला निवास बनाया जा सकता है और शुरुआती भीगी नम तारीखों के दरवाजे से फिर किसी उजाले के उगने का इंतजार शुरू कर देनी होती हो। कि पिछले सुख की करिश्माई संगीत और इसके अनंतर धमनियों में बजने लगे किसी दर्दनाक शोक गीत को किसी दुःस्वप्न की तरह भूल जाने की कवायद में जिंदगी काट देनी होती हो। यह सच है कि शुरू के दिनों में बाहर निकलने की कोशिश बेताबी की हद तक होती थी और इस मुहिम में पता नहीं कितने मांस के लोथड़े निकले थे काली बाबू के। प्रबुद्ध के सोच की तो एक सीमा है। पर सरोज क्या कभी सोचती है या कि सोच सकती है?

प्रबुद्ध के जन्म के कुछ दिन पहले से ही घर में आवाजों का कोरस कम होने लगा था। जब वे दफ्तर से लौटते तो सरोज के चेहरे पर एक विरक्त-सा भाव देखते। माँ उदास सी बॉलकनी में बैठी हुई मिलतीं। क्या हुआ का भाव चेहरे पर लिए वे एक बार माँ की ओर देखते थे और धम्म से चेयर पर बैठ जाते थे। माँ धीरे से उठतीं थीं और किचेन की ओर चली जातीं थीं। माँ जब लौटतीं थीं तो हाथ में पानी का ग्लास होता था। वे धीरे से पूछ लेतीं थीं - चाय बना दूँ?

नहीं, तुम रहने दो सरोज बना देगी। - वे कहते और आँखें जैसे सरोज को टटोलने लगतीं। जब माँ की ओर नजर जातीं तो लगता कि माँ की आँखें चीख-चीख कर कुछ कहना चाहती हैं । वे अंदर तक दहल जाते थे।

तबीयत कैसी है तुम्हारी? - वे सरोज के सामने खड़े होते।

आपको मेरी तबीयत की परवाह है? दिन भर बाहर काम करो घर के काम अलग। फिर भी कहा जाता है कि मैं तो सोई रहती हूँ। - सरोज कहती थी और आँख से टप-टप आँसू निकलने शुरू हो जाते थे।

काली बाबू को उस समय सरोज का रोना बर्दाश्त नहीं होता। कैसा तो अपराधबोध उनके भीतर धुँआ-धुँआ-सा उठने लगता है और उनकी साँस रुकने-रुकने को आ जाती है। माँ के उपर क्रोध का एक बीज जन्म लेता है। एक मन कहता - माँ क्यों ऐसा करती है? दूसरा समझाता - माँ ऐसा नहीं कर सकती। उनके बारे में ऐसा सोचना उन्हें और आत्मग्लानि से भर जाता है। वे चुप रहते हैं कुछ भी बोले बिना आकर बॉलकनी में खड़े हो जाते हैं। बाहर लंगड़ा साधू चबूतरे पर बैठा कुछ बुदबुदा रहा होता है। जैसे समय के बिगड़ने लगे चेहरे की पूर्व सूचना दे रहा हो।

ज्यादा सोचते नहीं काली। - माँ की बुझी हुई आवाज है। हाथ में खाने की थाली है। पिता के न रहने के बाद माँ कम ही बोलती हैं। बचपन में ही पैदा हुआ माँ-बेटे के बीच संवादहीनता का एक झीना परदा अब भी लटक रहा है। काली बाबू माँ की ओर मुड़ते हैं। आँखें पूछती हैं - तुमने खाया? ...और आँखें जवाब देती हैं - तुम दोनों खा लो।

आँखें हहरती हैं और आँखें सांत्वना देती हैं।

- सरोज क्यूँ? तुम तो ऐसे न सोचती थी। चलो कुछ खा लो। - इतना कहने के लिए काली बाबू हिम्मत जुटा लेते हैं।

- तुम खा लो मुझे भूख नहीं।

- क्यूँ कर रही हो यह सब। बच्चे पर असर पड़ेगा।

- ये बच्चा मेरे जीवन की सबसे बड़ी भूल है।

काँप जाते हैं अंदर तक काली बाबू। क्या यह सब माँ के कारण। उस बूढ़ी और असहाय-सी माँ के कारण जिसने काली बाबू को अपनी कोख से जन्म दिया है।

फिर प्रबुद्ध के आ जाने के कुछ दिन बाद।

- कहाँ जाओगी?

- अब मुझे जाने दो। तुम्हारा घर बस गया है। मुझे तो पहले ही जाना था। चली जाती तो शायद अच्छा होता। पर बच्चे के होने तक...।

- तुमने तो कहा था कि तुम साथ रहोगी। ...मैं सरोज को समझाऊँगा।

- कुछ चीजें जैसी हैं वैसी ही रहती हैं। उन्हें चाहकर भी बदला नहीं जा सकता। फिर गाँव घर की चीजें बिला रही हैं उन्हें भी तो देखना है। तू ज्यादा चिंता में मत रह। मुझे तेरी फिकर है।

एक आँख रोकती थी दूसरी चाहकर भी रुक नहीं पा रही थीं। माँ जा रही थीं और उनके साथ काली बाबू के बचपन से जवानी तक का समय जा रहा था। निःशब्द।

एक सच यह भी है।

और काली बाबू बॉलकनी में खड़े हैं अक्सर खड़े रहने की तरह। बाहर-भीतर और हर जगह गहरी नींद की परत है। बाहर चबूतरे पर लंगड़ा साधू बैठा है - चुप और गंभीर - टकटक आँखों से देखता। और जब उसके देखने का कोण कालीचरण मजूमदार की ओर होता है तो आँखें कुछ भुनभुनाने लगती हैं... कि वह उठता है और पंचम सुर में गाना शुरू करता है - निंदिया ना आए मोंहे अब तो बुला ले... चरणों में चरणों में...।

काली बाबू और अधिक उदास हो जाते हैं। वे सचमुच तय नहीं कर पा रहे हैं कि नींद न आने का किसका इतिहास ज्यादा बड़ा है। पीड़ा के किस महाकाव्य के पन्ने अधिक हैं। क्या ऐसा कोई वक्त आएगा उनके जीवन में कि वे अपनी पीड़ा को एक पागल राग में बह जाने देंगे... जैसे लंगड़ा साधू कर रहा है... कि कर सकता है। और उन्हें लगता है कि बॉलकनी में खड़े-खड़े ही एकांत की कई घाटियाँ, दुख के कितने बीहड़ और हँसी की मुस्कराती रह गई कितनी तस्वीरों को पारकर वे अब फिर से एक भयानक दुनिया के नक्शे में दुबकने जा रहे हैं। उनकी चेतना का कोई अहसास चार बजने की सूचना देता है - और सचमुच चार बज जाता है - कोई एक मटमैली आवाज बिस्तर की याद दिलाती है - और सचमुच वे बिस्तर पर सावधान की मुद्रा में पड़े हैं - नींद की ऐसी अभ्यर्थना... कि एकांत से लड़ने का यह नुस्खा...

...और अब एक आवाज... फिर दूसरी आवाज... फिर तीसरी... और...

- सोए नहीं...

- हूँ...

- सुबह उठना है न जल्दी...

- हूँ...

- साढ़े छः बजे की ट्रेन...

- हूँ...

- पापा... स्कूल

- हूँ...

- बाबूजी सईकिलवा ठो टाल हो गई है...

- काली मुझे तेरी फिकर है...

- मैं जा रही हूँ हमेशा के लिए...

- और प्रबुद्ध?

- मैंने भूल किया, मुक्त करो मुझे...

- और प्यार...?

- भूल जाओ...

- निंदिया ना आए मोहे...

...और

एक असाध्य शून्य...

दूसरी बार जब कालीचरण मजूमदार से मिला था तब भी वे उदास थे। पर यह पहले से अधिक खतरनाक उदासी थी। संसार अब बाहर हँसने लगा था और मन की कई-कई परतों तक कुछ चीख और सन्नाटा भर गया था। चेहरे के बेतरतीब दृश्य में हँसी का एक मद्धिम टुकड़ा अभी-भी फँसा हुआ रह गया था - जो कभी-कभी चमकीला होने की असफल कोशिश करता-सा दिखता था। एक काँधे पर झोला लटकाए, एक बंडल ठांकुनी पत्ता, दो बंडल पालक, लहसून के दो पोटे और जेलुसिल एम.पी.एस. का एक पत्ता या ऐसी ही कुछ चीजें खरीद कर धीरे-धीरे घर की ओर लौट रहे थे कालीचरण मजूमदार - जैसे जीवन से मौत की तरफ का रास्ता जानबूझ कर तय कर रहे हों। दूसरी बार ऐसे ही मिला था कालीचरण मजूमदार से।

अब जब कि तीसरी बार कालीचरण मजूमदार के सामने खड़ा हूँ तो यह तय नहीं कर पा रहा हूँ कि वे सचमुच वही हैं जिनसे पहले भी मिलता आया हूँ और जिनके मन के अँधेरे गर्तों में भटकते हुए उजालों के कुछ फड़फड़ाते कबूतरों की खोज में आपके साथ भटकता रहा हूँ...? उजालों के कबूतर मेरे हाथ नहीं लगते। बहुत ही गंदले और झुर्राये हुए पर कितने मुक्त चेहरे से रूबरू हूँ। कितना मुक्त भाव है... जैसे सिर्फ गा नहीं रहे हों ...राग में स्वयं को बह जाने दे रहे हों... लंगड़ा साधू के कंधे पर हाथ डाले एकांत की सीढ़ियाँ पार करते। कभी चौपाल पर कभी नंगी सड़क पर, दोनों झूम-झूम गा रहे हैं... निंदिया ना आए मोहे अब... तो बुला ले ...चरणों में चरणों में... कुछ शरारती बच्चों का हुजूम उनके पीछे चलता जा रहा है... उस हुजूम में प्रबुद्ध कहीं नहीं दिखता...

क्या इसी को काली बाबू की मुक्ति मान लेनी चाहिए। क्या एक अविरल समर्पण ?? ? एकांत प्यार करते हुए और एक स्थान पर प्यार और समर्पण की परिभाषा ढूँढ़ते हुए कोई इतना मुक्त हो सकता है कि उसे मुक्ति का अहसास तक न हो...? क्या इसे एक बिडंबना कहकर बचा जा सकता है कि बच सकता है कोई...? क्या ईश्वर, यदि उसका अस्तित्व है, इतना निर्मम हो सकता है... कोई भी कथाकार इतना निर्मम हो सकता है...??

नहीं, मुझे सचमुच इसकी पड़ताल करनी चाहिए। कृपया आप मेरे साथ आएँ, आपको मेरे साथ चलना ही होगा। लेकिन जरा रुकिए। इससे पहले मैं एक बात आपको बताना चाहता हूँ। यह बात बताना मैं इसलिए जरूरी सम-ाता हूँ कि कहीं न कहीं इसका ताल्लुक काली बाबू से है।

कहानी अभी बाकी है दोस्तों

इन मुलाकातों से इतर बीस साल पहले से मैं कालीचरण मजूमदार के एकांत अँधेरे खंडहर का साक्षी रहा हूँ। एक दिन उनकी माँ गायत्री देवी समय के सँकरे रास्ते से जगह बनाती हुई दृश्य और अदृश्य की सीमाओं के पार चली गई थीं... दो जोड़ी आँखों के आँसू बहकर पत्थरों में ढल गए थे - उन्ही दिनों कालीचरण मजूमदार ने किसी करार पर दस्तखत किए थे... वह एक ऐसा करार था जिसे हमारी सभ्यता ने विकास के किन्हीं चरणों में स्त्री-पुरुष के साथ रहने या अलग हो जाने के लिए बनाया था।

एक तूफान आया था। ऐसी बारिशें हुई थीं जैसे कि प्रलय के अनैतिहासिक और कालहीन समय को दुहरा रही हो... और काली बाबू खंडहर के बाहर निकल गए थे - एक ऐसे मनुष्य की तरह जो चेतना के सारे सीमांतों को पार कर गया हो। बारिश थी कि थमने का नाम न लेती थी और एक मनुष्य इन्हीं के बीच चल रहा था लगातार - अथक - चेतना के पार - निःशब्द...।

मेरा नाम प्रबुद्ध नहीं था - और मुझे एक स्त्री एक दिन एक गली के एक अँधेरे गट्ठर में छोड़ गई थी - उस भटकते आदिम मनुष्य की नजर बारिश की पानी से धुलकर चमकती एक शिशु की त्वचा पर पड़ी थी... वह मैं था... जो कुछ क्षण पहले ही इस निर्मम धरती पर उतरा था।

उसने काँपते हाथों से शिशु को उठाया था और ब्रह्म की तरह मुख से उच्चरित किया था - प्रबुद्ध...!!!

प्रलय की बारिशें एक दिन खत्म होनी थीं, सो हुई थीं। और खंडहर जहाँ से कथा की शुरुआत हुई थी, समय के एक निश्चित अंतराल के बाद वह एक इमारत में तब्दील हो गया था।

बीस साल के इस कथा समय में उस इमारत में कई प्रबुद्ध आकर रहने लगे थे - एक छोटी सी दुनिया जैसा कुछ बन गया था। हम सारे प्रबुद्धों को कालीचरण मजूमदार समय के मसीहा जैसे लगते थे।

लेकिन जिस समय भी वे कथा में आह्लादित होकर कहते थे - प्रबुद्... उस समय उनकी आँखों में खंडहर की एक तस्वीर कौंध जाती थी जिसे कोई नहीं देख पाता था... वह सिर्फ मुझे दिखाई पड़ती थी...

या फिर आपको...???