खजाना / गोवर्धन यादव

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" तुम पर मैं कई दिनों से नज़र रख रहा हूँ। बडी सुबह ही तुम समुद्र-तट पर आ जाते हो और देर शाम को घर लौटते हो?

"मुझे अच्छा लगता है, यहाँ आकर।"

"कभी समुद्र की गहराई में उतरे भी हो कि नहीं?"

"नहीं ...एक बार भी नहीं?"

"फ़िर समझ लो तुम्हारी पूरी ज़िन्दगी बेकार में गई. यदि तुम एक बार भी समुद्र में उतरते तो तुम्हारे हाथ नायाब खजाना लग सकता था। क्या तुम्हारा ध्यान इस ओर कभी नहीं गया ।? आख़िर तुम करते क्या हो इतनी सुबह-सुबह आकर?"

"बडी सुबह मैं इसी इरादे से आता हूँ, लेकिन आसपास पडा कूडा-कचरा देख कर सोचने लगता हूँ कि पहले इसे साफ़ कर दूं, फ़िर इतमीनान पानी में उतरूंगा। बस इसी में शाम हो जाती है।"

" आख़िर यह सब करने से तुम्हें मिलता क्या है? ।

"कुछ नहीं, बस मन की शांति।"

"बकवास...सब बकवास" ।

"शांति से बढकर और कोई चीज हो सकती है क्या।" ।उसने इत्मिनान से उत्तर दिया था।