खण्डित स्वप्न / रूपसिह चंदेल
कॉलेज में आज भी मीटिंग देर से समाप्त हुई. जब वे घर पहुंची, साढ़े जीन बज रहे थे. दरवाजा खोलते ही नौकरानी पूछ बैठी, “बीबीजी, आज फिर देर कर दी.....” लेकिन उसकी बात का उत्तर दिए बिना उससे जल्दी खाना लगा देने के लिए कहकर बिना कपड़े बदले ही वह बाथरूम चली गयीं और जब बाहर निकलीं, उनके चेहरे से दिन भर की थकान के चिन्ह मिट चुके थे.
पेट में चूहों को धमाचैकड़ी करते दो घंटे से अधिक हो चुके थे. वे सीधे डाइनिंग रूम में जा पहुंचीं. रोजाना की भांति रामकली ने टेबुल पर खाना सजा दिया था.वे खाना शुरू ही करने वाली थीं कि रामकली ने उन्हें एक लिफाफा पकड़ा दिया. बोली, “मुआ डाकिया लिफाफा दे ही नहीं रहा था. कहता था मेम सा‘ब के नाम है, मैं उन्हीं को दूंगा. बड़ी मुश्किल से माना.” कहकर वह उनकी प्रतिक्रया जानने के लिए उनकी ओर देखने लगी. लेकिन दीपाली ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की. वे उलट-पलटकर लिफाफे को देखती रहीं.
आखिर उन्होंने लिफाफा खोल डाला. उसमें जो कुछ था, उसे देख उनका मन उद्वेलित हो उठा, मानो सरोवर के स्थिर जल में कंकड़ फेंक दिया गया हो.उन्होंने कागजों को मेज पर रख दिया और रामकली को वहां से जाने के लिए कहा. उसके जाने के बाद सिर को कुर्सी से टिकाकर वे सोचने लगीं, ‘तो विजय के साथ संबन्धों की यही अंतिम परिणति होनी थी.... इतने दिनों में ही सब कुछ बेमानी हो गया --- प्रेम...रिश्ते....इंसानियत....’ और वे धीरे-धीरे अतीत की अंधेरी गुफाओं में धंसती चलीं गयीं.
उन दिनों वे एम ए फाइनल में थीं. प्रतिवर्ष की भांति उस वर्ष भी कॉलेज के वार्षिकोत्सव के अवसर पर छात्र संघ की ओर से एक नाटक मंचित होना था. नाटक था ‘आभिज्ञान शाकुन्तल’. छात्रसंघ के सामने एक गंभीर संमस्या पैदा हो गयी -- शकुन्तला की भूमिका को लेकर. कॉलेज की कोई भी छात्रा उस भूमिका के लिए तैयार न थी. वार्षिकोत्सव के दिन निकट आते जा रहे थे, रिहर्सल शुरू हो चुकी थी, लेकिन शकुन्तला का स्थान रिक्त था. तभी एक दिन छात्र संघ के अध्यक्ष महेन्द्र के साथ विजय उनके पास आए. काफी देर तक वे शकुन्ला के अभिनय के लिए उन्हें समझाते रहे. उन्होंने दूसरे दिन अपना निर्णय बताने के लिए कहकर उन्हें टाल दिया था.
लेकिन कॉलेज से घर वापस जाते समय पूरे रास्ते वे सोचती रहीं कि वे शकुन्तला का अभिनय कर सकती हैं या नहीं.... और घर तक पहुंचते-चहुंचते इस निर्णय पर पहुंची कि वे यह अभिनय कर सकेंगी. और दूसरे दिन महेन्द्र और विजय को उन्होंने अपनी स्वीकृति दे दी थी.
वार्षिकोत्सव के दिन नाटक मंचित हुआ. दुष्यन्त का अभिनय विजय कर रहे थे. नाटक बहुत सफल रहा था. नगर में दोनों के अभिनय की चर्चा थी. समाचारपत्रों ने विशेष प्रशंसात्मक टिप्पणियों के साथ उन दोनों के चित्र प्रकाशित किये थे. नाटक की सफलता के बाद वे और विजय अनायास ही एक-दूसरे के निकट आ गये थे. विजय उनके सहपाठी थे और उसके बाद प्रायः ही उनके घर आने लगे थे. धीरे-धीरे वे महसूस करने लगी थीं कि वे वास्तव में ही शकुन्तला हैं और विजय दुष्यन्त. एक दिन वे फूलबाग में टहल रहे थे. टहलते हुए अचानक विजय रुक गये और दोनों कन्धों के पास उन्हें पकड़कर बोले, “दीपा, मैं तुमसे बहुत दिनों से एक बात कहना चाह रहा था. “
“कहो.” उन्होंने जिज्ञासा-भरी नजरें विजय के चेहरे पर गड़ा दी थीं.
“यह, मैं नहीं जानता कि तुम मेरे बारे में क्या सोचती हो, लेकिन सच मानों तुम्हें लेकर मैं तमाम स्वप्न....” आगे वह कुछ बोल न पाये थे.
वे भी उस क्षण भावुक हो उठी थीं. बिना बोले ही विजय की आंखों में कितनी ही देर तक देखती रही थीं और उन्होंने उन आंखों में साकार होने के लिए मचलते हजारों स्वप्न देखे थे.
क्षणभर बाद उन्हें झकझोरते हुए विजय ने पूछा था, “पागलों की तरह क्या देख रही हो, दीपा ?”
“कुछ नहीं.... अच्छा, अब चला जाये. बहुत देर हो गयी..”
और दोनों चल पड़े थे.
उस दिन के बाद विजय का अधिकांश समय उनके साथ ही बीतने लगा था. विजय के प्रस्ताव पर उन्होंने ‘कम्बाइंड स्टडी’ शुरू कर दी थी. कॉलेज से वह सीधे उनके घर आ जाते और रात देर तक पढ़ने के पश्चात घर जाते. समय तेजी से खिसकात रहा और परीक्षा सिर पर आ गयी. और एक दिन वह भी सम्पन्न हो गयी. परीक्षा के अंतिम दिन घर लौटते हुए विजय उन्हें एक रेस्टारेण्ट में ले गये. कॉफी पीते हुए उन्होंने सीधे शादी का प्रस्ताव रख दिया. वे उस समय फिर क्षणभर के लिए कहीं खो-सी गयी थीं. कप में पड़ी कॉफी ठंडी हो गयी. विजय भी कॉफी पीना भूलकर निर्निमेष उनके चेहरे पर आ-जा रहे भावों को देखते रहे थे. जब बेयरे ने आकर पूछा, “साब, और कुछ चाहिए ? “ तब दोनों की तन्द्रा दूर हुई थी.
“अरे, कॉफी तो ठंडी हो गयी. तुमने पी क्यों नहीं ?”
“आपने भी तो नहीं पी....” “अरे हां....” फिर बेयरे को दो और कॉफी का आर्डर देकर विजय बोले, “दीपा, तुमने कोई उत्तर नहीं दिया.”
“क्या उत्तर देना इतना आसान है ?”
“यह सब कुछ तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है. यदि तुम चाहोगी....”
“लेकिन विजय, क्या हमारे मां-बाप इतनी आसानी से तैयार हो जायेंगे ?”
“मैं तुम्हारे ममी-पापा के विषय में नहीं बता सकता, लेकिन मेरे ममी-पापा को कोई आपत्ति न होगी.”
वे कुछ सोचती रह गयी थीं. तभी बेयरा आ गया था. थोड़ी देर के लिए उत्तर देने से वे बच गयी थीं. लेकिन बिल चुकता करने के बाद जब दोनों रिक्शा पर सवार हुए विजय ने पुनः पूछ लिया, “क्या सोचा तुमने, दीपा ?”
“कुछ दिन सोचने दो.”
“ठीक है.”
लेकिन विजय के प्रस्ताव को वे अधिक दिनों तक टाल न सकीं थीं. विजय के असीम प्यार प्रदर्शान ने उन्हें स्वीकृति के लिए विवश कर दिया था. विजय को पा जाने की लालसा उनके अन्दर तीव्रतर हो उठी थी. उन्होंने अपना निर्णय ममी-पापा को बता दिया. लेकिन जैसी कि आशा थी, वही हुआ. विजय के साथ विवाह करना उन लोगों को स्वीकार न था. दो पीढि़यों के मध्य विचारों की टकराहट शुरू हो गयी थी. जैसे-जैसे ममी-पापा उनकी गतिविधियों को प्रतिबन्धित करते जा रहे थे, उनके मन में विजय के साथ विवाह करने का निश्चय दृढ़ होता जा रहा था.
और एक दिन लावा फूट ही पड़ा था. पापा का रुद्र रूप उन्होंने उस दिन पहली बार देखा था. उलटा-सीधा कहने के बाद उस दिन अंत में वे बोले थे, “दीपू, अगर तूने उसके साथ शादी की तो इस घर के दरवाजे तेरे लिए सदैव के लिए बन्द हो जायेंगे.” हथियार तो उन्होंने डाल दिए थे, किन्तु रूढि़वादी ऐंठ उनमें तब भी शेष थी.
जिस दिन परीक्षाफल घोषित हुआ, विजय दौड़ते हुए उन्हें प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने की बधाई देने आए थे. लेकिन उस समय पापा ने विजय का जो अपमान किया, उससे वे बौखला उठी थीं, किन्तु किसी प्रकार अपने को संयत किये रही थीं. उस क्षण उन्होंने उस घर को शीघ्र ही छोड़ देने का निर्णय किया था और उसके ठीक बीसवें दिन उन्होंने विजय के साथ ‘कोर्ट मैरिज’ कर ली थी.
विजय उन दिनों समाचारपत्रों में रिक्त स्थान देखने लगे थे. कई जगह आवेदन भी किया लेकिन कहीं से काई उत्तर नहीं आया. वे स्वयं पी-एच.डी. करने के विषय में सोचने लगी थीं. एक दिन जब परिवार के सब लोग शाम की चाय ले रहे थे, उन्होंने अपनी इच्छा जाहिर की. उनकी बात सुनते ही विजय के ममी-पापा एक साथ बोल उठे थे, “बहू, हमारी सामर्थ्य न तो अब विजय को आगे पढ़ाने की है और न ही तुम्हे.”
पापा तो इतना ही कहकर चुप हो गये थे, किन्तु ममी आगे बोली थीं, “हां, अगर तुम्हारे पापा चाहें तो तुम्हें पढ़ा सकते हैं. उनके पास धन की कोई कमी भी तो नहीं.....”
“लेकिन ममी, अब उनसे कुछ भी अपेक्षा करना क्या उचित है ?”
“क्या बात कह रही हो, बहू? मां -बाप आखिर मां-बाप ही होते हैं. थोड़े दिनों बाद बच्चों को माफ कर देते हैं. उन्हें कितनी सरलता से मेरा हीरा जैसा बेटा दामाद के रूप में मिल गया है. वह भी बिना दहेज. सोच बहू, अगर वे तुम्हारी शादी कहीं और करते तो.... खैर, तू तो खुद ही समझदार है, पढ़ी-लिखी है.”
“छोडिए भी ममी इन बातों को, “ कहकर विजय उठकर वहां से चले गये थे. वे भी रुक न पायी थीं. कमरे में जाकर बेड पर ढह गयी थीं. रात विजय की आहट पाकर उनकी नींद खुली थी. लेकिन उनसे बिना कोई बात किए बत्ती बुझाकर वह भी लेट गये थे.
उस दिन के बाद उस घर का वातावरण तनावपूर्ण हो उठा था. विजय के अतिरिक्त सभी उनसे कम बातें करने लगे थे और विजय को भी उनसे बात करने का वक्त कहां मिलता था. वह सुबह के निकले शाम को घर में प्रवेश करते थे. घर में सबके होते हुए एकाकीपन उन्हें डसता रहता था. शादी के बाद पूरे आठ महीने हो चुके थे विजय को भटकते हुए, लेकिन कहीं भी नौकरी नहीं मिली थी. एक सुबह अखबार में रिक्त स्थान देखते हुए वह उछल पड़े थे. डी.ए.वी. में लेक्चरर की पोस्ट निकली थी. उनके कन्धे झकझोरते हुए वह बोले थे, “दीपा, तुम आवेदन कर दो. तुम्हें यह पोस्ट मिल सकती है.”
घर के वातावरण ने उन्हें उबा दिया था. विजय की ममी का व्यवहार उनके प्रति दिन-प्रतिदिन अत्यधिक रूखा और कड़वा होता जा रहा था. छोटी-छोटी’-सी बात में वह उन्हें प्रताडि़त करने लगती थीं. उन दिनों वास्तव में वे भयंकर मानसिक तनाव में जी रही थीं. यह उनके लिए एक सुखद अवसर था. उन्होंने आवेदन किया और साक्षात्कार में बिना किसी सिफारिश के चुन ली गयीं. लेकिन उनका नौकरी करना भी विजय के ममी-पापा को पसन्द नहीं आया. एक दिन उनके कॉलेज से लौटते ही उन लोगों ने स्पष्ट घोषणा की थी, “नौकरीपेशा बहू के लिए इस घर में कोई जगह नहीं है. यदि नौकरी करनी है तो जाकर रहो अपने पिता के घर.”
एक ओर था भविष्य और दूसरी ओर था वर्तमान का कलहपूर्ण जीवन. उन्होंने विजय से बात की. लेकिन विजय ने कोई उत्तर नहीं दिया. आखिर कई दिनों की कलह के बाद उन्होंने विजय से स्पष्ट कह दिया, “अब वे उस घर में नहीं रह सकतीं. अलग मकान की व्यवस्था करेंगी.” विजय फिर भी चुप रहे थे.
लेकिन वे निर्णय कर चुकी थीं अलग रहने का. आखिर विजय को झुकना पड़ा. ब्रम्हनगर में दो कमरों की जगह किराये पर लेकर उस घर को भी उन्होंने एक दिन छोड़ दिया. किराये के मकान में आने के बाद उन्होंने विजय को आई. ए.एस. में बैठने के लिए प्रोत्साहित किया. उनकी सलाह विजय को पसन्द आयी और वह आई.ए.एस. की तैयारी में जुट गये. उस मकान में आने के चार महीने पश्चात विजय और उनके प्रेम का प्रतीक विभु पैदा हुआ. उन दिनों विजय आईएएस की परीक्षा देने गये हुए थे. कितनी परेशानियां उठानी पड़ी थीं उन्हें. दोनो घरों के दरवाजे उनके लिए बन्द थे. असहाय-सी उन्होंने पड़ोसी की कुण्डी खटखटाई थी. उस दिन उन्हें पहली बार एहसास हुआ था कि कभी-कभी गैर अपनों से अच्छे होते हैं.
पड़ोसी ने उन्हें अस्पताल पहुंचाया था जहां रातभर उसकी पत्नी उनके साथ रही थी. पैदा होने के बाद विभु पर प्रथम दृष्टि पड़ते ही चीखकर उन्होंने आंखें बन्द कर ली थीं और नर्स से बोली थीं “सिस्टर, इस मांस के लोथड़े को ले जाइये. यह मेरा बच्चा नहीं है.... नहीं...” और वे बेहोश हो गयी थीं.
लेकिन होश आने पर नर्स और पड़ोसिन के समझाने के बाद विभु को गोद में लेकर न जाने कितनी देर उसे देखती रही थीं. विभु का नीचे का भाग अपंग था. उसे अपनी छाती से लगाकर वे फूट-फूटकर रोती रही थीं.
दूसरे दिन विजय लौट आए थे. सीधे अस्पताल पहुंचकर उन्होंने पहले विभु को देखना चाहा था, लेकिन, उन्होंने केवल ऊपर का भाग ही उन्हें दिखया था. काफी देर तक बातें करने के बाद जब विजय उनके लिए फल और दूध लेने के लिए चलने लगे, उसी समय नर्स आ गयी और विभु की सफाई करने के लिए जैसे ही उसने ऊपर से कपड़े हटाए, विजय की दृष्टि विभु के पर पड़ी थी. विजय के मुंह से भी एकदम चीख निकल गयी थी, “दीपा, यह क्या है ?”
“तुम्हारे घर में मुझे मिली मानसिक यन्त्रणा का परिणाम....” वे फूट-फूटकर रोने लगी थीं. नर्स ने विभु को संभालने के लिए उन्हें डपट दिया था और आंसू पोंछकर वे उसे गोद में उठाने लगी थीं. विजय कब चले गये, उन्हें पता नहीं चला था.
विजय आई.ए.एस. में सिलेक्ट हो गये थे. प्रशिक्षण के लिए उन्हें मसूरी जाना था. जाने से एक दिन पहले बोले, “दीपा, तुम अकेले विभु और नौकरी दोनों कैसे संभाल पाओगी ?”
“मैं कल एक आया के लिए बात कर आयी हूं. वह दिनभर विभु की देखभाल किया करेगी. तुम चिन्ता न करों. थोड़े दिनों की बात है. जब तुम्हारी कहीं पोस्टिंग हो जायेगी तब मैं नौकरी छोड़ दूंगी.”
विजय कुछ सोचने लगे थे.
“तब तक विभु भी कुछ बड़ा हो जायेगा. तब हम दिल्ली या कहीं और इसका इलाज करवायेंगे. इसके इलाज के लिए भी तो पैसों की जरूरत होगी. विभु ठीक हो जाएगा.... ठीक हो जाएगा न, विजय. “ विजय की छाती से लगकर उन्होंने पूछा था.
“क्यों नहीं ठीक होगा. इससे अधिक खराब केसेज ठीक हो जाते हैं.”
“विजय, उस दिन की कल्पना करो जब तुम किसी दफ्तर के इन्चार्ज होगे, हम सब एक साथ रह रहे होंगे. विभु स्कूल जाया करेगा और रात में हम तीनों एक साथ बैठकर भोजन किया करेंगे. कितना अच्छा होगा तब....” आंखें बन्द किये वे बोली थीं.
“बहुत अच्छा लगा करेगा दीपा, लेकिन तुम अधिक कल्पनाएं मत किया करो. “ उनके कान में चिकोटी काटते हुए विजय ने कहा था. “मेरी तैयारी की भी चिन्ता करोगी या बातें ही करती रहोगी.” वे विजय की तैयारी में जुट गयी थीं.
मसूरी पहुंचकर विजय ने कई पत्र लिखे, जिनमें अपने प्रशिक्षण तथा प्रशिक्षणार्थियों के विषय में ही विस्तार से चर्चा की. वे भी हर पत्र का उत्तर देती रहीं और अपनी तथा विभु की चिन्ता न करने के विषय में उन्हें लिखती रहीं. कभी-कभी विजय के पत्र आने में देर हो जाती तब वह लगातार कई पत्र लिखकर उन्हें लापरवाही की याद भी दिला देती थीं.
एक बार लगभग पन्द्रह दिन तक विजय का कोई पत्र नहीं आया. उन्होंने भी सोच लिया कि इस बार वे तब तक पत्र नहीं लिखेंगी जब तक विजय का पत्र नहीं आता. आखिर एक दिन उनका पत्र आया, जिसमें माफी मांगते हुए उन्होंने लिखा था, “दीपा, आजकल पढ़ाई तथा अन्य कार्यक्रमों में व्यस्त रहने के कारण तुम्हें पत्र नहीं लिख पाया. मैं जानता हूं तम्हें अवश्य बुरा लग रहा होगा. भविष्य में ऐसा कभी नहीं होगा.....यहां मेरे साथ लखनऊ की नीतासिंह भी प्रशिक्षण प्राप्त कर रहीं हैं. मेरी अच्छी मित्र बन गई हैं. कभी अवसर मिलने पर तुमसे मिलवाऊंगा. तुम उन्हें अव्श्य पसन्द करोगी.”
उस पत्र में न तो विजय ने यह पूछा था कि वे कैसी हैं और न ही विभु के विषय में एक शब्द लिखा था. उन्हें यह अच्छा न लगा. उन्होंने कई दिनों बाद पत्र का उत्तर दिया. लेकिन विजय उनसे दस हाथ आगे निकले. उन्होंने एक महीने बाद उनके पत्र का उत्तर दिया. वह भी केवल चार पंक्तियों में. इन्हीं दिनों विभु बीमार हो गया, उसकी बीमारी में वे इस कदर उलझीं कि विजय को लिख नहीं पायीं. शहर के अच्छे से अच्छे डॉक्टर को दिखाने के बाद भी वे विभु को बचा न सकीं. विभु उन्हें छोड़कर चला गया. विभु की मृत्यु ने उन्हें अन्दर से तोड़ दिया.
विभु की मृत्यु का समाचार विजय को देते हुए उन्होंने लिखा कि वह चाहे एक दिन के लिए घर आएं, किन्तु आएं अवश्य. लेकिन विजय नहीं आये. काफी दिनों बाद उनका पत्र आया जबलपुर से. उनकी वहां पोस्टिंग हो गयी थी. लेकिन उसमें उन्होंने केवल अपनी पोस्टिंग की सूचना ही दी थी. विभु की मृत्यु के विषय में एक शब्द भी न लिखा था. वही विजय का अंतिम पत्र था. उनका मन विजय से मिलने के लिए परेशान था. लेकिन विश्वविद्यालय की परीक्षाएं निकट थीं, जिससे वे उनसे मिलने भी नहीं जा सकती थीं.
समय तेजी से गुजरता जा रहा था. उनकी परेशानी भी बढ़ती जा रही थी. जबलपुर के पते पर विजय को लिखे उनके अनेक पत्र अनुत्तरित रहे थे. और एक दिन उन्होंने निर्णय किया कि न तो वे विजय को पत्र लिखेंगी और न ही उनसे मिलने जाएंगी. उन्होंने अपने को पूरी तरह अध्ययन और अध्यापन में लगा दिया. दो वर्ष का समय कब और कैसे बीत गया, पता नहीं चला. दो वर्ष बाद उन्हें जो कुछ मिला, वह उनके सामने था तलाक के कागजातों के रूप में, जिसके साथ विजय का संक्षिप्त पत्र था, जिसमें उन्होंने कागजातों को हस्ताक्षर करके तुरंत लौटा देने का मात्र अनुरोध किया था.
उन्होंने एक नजर सामने रखी खाली प्लेटों पर डाली, जिसे ठीक उनके सामने नित्यप्रति की भांति रामकली ने सजा रखा था.
‘रामकली कितना खयाल रखती है मेरी भावनाओं का.’ वे सोचने लगीं, ‘यही तो था उनका स्वप्न. मेज के एक ओर वे होंगी, एक ओर विजय और एक ओर विभु.....’ लेकिन वह स्वप्न तो कब का खण्डित हो चुका.
उन्होंने पेन उठाया और तलाक के कागजातों पर हस्ताक्षर करने लगीं.