खनक / बलराम अग्रवाल
बत्ती बुझाकर जैसे ही वह बिस्तर पर लेटता, उसे घुँघरुओं के खनकने की आवाज सुनाई देने लगती। महीनों से यह सिलसिला चल रहा था। शुरू-शुरू में तो उस आवाज को उसने मन का वहम ही माना; लेकिन बाद में, घुँघरुओं की आवाज हर रात लगातार सुनाई देने लगी, तो उसने अपना ध्यान उस पर केन्द्रित करना शुरू किया। नहीं, वह वहम नहीं था। आवाज सचमुच उसके आसपास ही कहीं से आती थी।
एक रात, हिम्मत करके, उसने आखिर पूछ ही लिया," कौन है?"
"मैं..." सवाल के जवाब में एक स्त्री-स्वर उसे सुनाई दिया,"यश-लक्ष्मी!"
"यश-लक्ष्मी !" उसके मुँह से साश्चर्य निकला।
"यश चाहिए ?" स्त्री-स्वर ने तुरन्त पूछा।
"सभी को चाहिए।" वह बोला।
"सभी की छोड़ो, अपनी बात करो।"
इस पर वह कुछ न कह सका, चुप रहा।
"चारों ओर जय-जयकार करा दूँगी।" स्त्री-स्वर ने कहा।
यह बात सुनते ही उसे अपनी माँ की याद हो आयी। बेटे, मेहरबानियों के सहारे मिलने वाले धन और यश दोनों ही, आदमी से उसके ज़मीर की...किसी बेहद अपने की बलि ले लेते हैं_ वह कहा करती है। यश-लक्ष्मी किस अपने की बलि माँगेगी मुझ नि:सन्तान से_माँ की, पत्नी की...या किसी दोस्त की ! वह सोचने लगा।
"चाहिए?" स्त्री-स्वर पुन: सुनाई दिया ।
"चच्चाहिए...।" वह हिम्मत बटोरकर बोला ।
"बलि दोगे ?" छनछनाहट के साथ ही उम्मीद के मुताबिक तुरन्त यह सवाल उसे सुनाई पड़ा।
"बलि दी.... ...." आखों में आसुरी-चमक लिए वह तुरन्त ही बिस्तर से उठ खड़ा हुआ और दोनों बाँहों को ऊपर की ओर फैलाकर पूरी ताकत के साथ चीखा," उठा ले जाओ...जिसे चाहो...!"