खबर वाली बच्ची/चंद्र रेखा ढडवाल
"आलोक, चैनल बदल दो।”राजधानी में सच्च में ही ऐसा भयानक कांड हो गया है, और तुम्हें अपना वही झूठ-मूठ का रोना-धोना देखना है, क्यों ?” उत्तर देने की बजाए मैं अपना खाना लेकर उठने लगी तो मुझे रोक कर बोले, “तुम्हारी मुश्किल क्या है अमिशा?” यह देखते हुए मुझसे खाया नहीं जा रहा।“ वाह जी ! तुमसे यह देखा-सुना नहीं जा रहा। जिनके साथ यह हुआ है, उनका क्या ? धन्य है तुम्हारी संवेदना।” "संवेदना ही तो है आलोक, जो इतना बेचैन कर रही है ! असल में दूरदर्शन का यह कार्यक्रम जिस तथ्य पर अंगुली धर कर इतना बड़बोला और बेलौस हो रहा है। उसे क्षण के सौवें हिस्से भर में भी, मैं स्वीकार लू तो शायद स्वयं को कभी माफ नहीं कर पाऊं, और तुम देख रहे हो, जिस दिन से ये नृशंस हत्याएं हुई हैं, घूमफिर कर इसी बिन्दू पर देश की सोच केन्द्रित की जा रही है।” "साक्ष्यों के आधार पर कह रह हैं ?” "साक्ष्य रहेंगे तो क्या यह मान लिया जा सकता है कि पिता ने अपनी बेटी की जान ले ली और वह भी उसकी मां के सहयोग से।“ पता नहीं किस आवेश में मैं बोल गई जिसके उतरते ही पत्ते की तरह काम्पने लगी थी। ज़रा सा सुस्थिर होते ही थाली उठा कर कमरे से निकल, हॉल में खाने की मेज पर आ बैठी। मेरे पीछे पीछे वहीं आ गए आलोक भी। - बहुत कुछ होता है,कई बार स्थितियां व्यक्ति के पूरे चरित्र को बदल कर रख देती है। रिश्तों की मर्यादा और संयम की धज्जियां उड़ा देती है।“ "पर अपने बच्चे के लिए मां बाप की ममता नहीं जाती किसी भी स्थिति में।“ "पर इस ममता में कब और कहां से क्या मिल जाता है। कभी दूसरों के दवाब से तो कभी अपने दुराग्रह व अहंकार से, कहा नहीं जा सकता और जाना भी नहीं जा सकता। वैसे जिस ममता में समझ नहीं होती वह रहे या जाए, ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ता।“"अब इतने पढ़े-लिखे मां बाप में भी तुम्हारे लेखे समझ की कमी थी।“ "कमी न होती तो जवान होती बेटी को पराये आदमी के साथ रोज़-रोज़ अकेले छोड़ कर नहीं जाते।“" क्या कह रहे हो ? अपनी बच्ची के संस्कारों पर और उस आदमी की इन्सानियत पर, भरोसा था उन्हें। ऐसा कैसे सोच सकते हो तुम ?“
- लानत भेजो मेरी सोच पर और तुम भी सोचना बन्द कर के, फिर जल्दी से सब समेटो। रात के बारह बजे तक खटर-पटर करती रहोगी नहीं तो, रोज़ की तरह।“ सच्च ही बड़ी देर लागती हूं मैं रसोई में। मनोयोग से साफ़-सफ़ाई और संगेला करती हूं। पर आज अपने इस प्रिय काम में मन नहीं लगा। जैसे-तेसे सब किया।आदमी के प्राण कहां-कहां जुड़े होते हैं। पता नहीं किस अनजाने शहर में किन अनजाने लोगों की रूहों पर आती जाती धूप-छांव में सूखते और हरे होते हैं । बड़ी रात तक नींद नहीं आई मुझे। आलोक की बातें तकलीफ देती रहीं। नींद पूरी नहीं हुई सो सर भारी था। आंखों में भी जलन हो रही थी। पर बेटे को स्कूल के लिए तैयार करना था इसलिए उठी। उसे बस में चढ़ा कर लौटते हुए दीदी के आंगन से तुलसी के पत्ते तोड़ लिए। बरसात में तुलसी की चाय पीने से बुखार नहीं आते, और भी सौ व्याधियां चली जाती है। मां का कहा जब जब याद आता है मैं यही करती हूं।उठते-बैठते सुना हुआ भीतर इस तरह रच-पग जाता है कि ज़रूरत होने पर झट सम्बल बन आ खड़ा हो जाता है जिनके साथ ये अनहोनियां घटती हैं उन्हें क्यों नहीं मिल पाते ये सहारे,उन्होंने संजोए नहीं होते होंठो से झरे मणी-मुक्ता या किसी ने उनके लिए बिखराए ही नहीं होते। बरामदे में बैठ कर चाय पीते हुए मेरी सोच तरतीव-बे तरतीव जाने कहां तक चलती चली जाती कि आलोक लौट आए सैर से ,वह सुबह चाय नहीं पीते। इसलिए इन क्षणों में मैं सौ प्रतिशत अपने साथ होते हुए अपने लिए होती हूं मात्र। एकदम तरोताज़ा और प्रसन्न दिखे आलोक । मुझे लगा मैं रात की उसी ख़बर के अंधेरे-उजाले टटोलने में लगी हूं और ये सब झटक कर इस सुबह के हो गए हैं। किरण-किरण अपने में संजोते हुए किरण-किरण में व्याप्त। यह बाहर निकलना मात्र घर की चारदीवारी से निकलना नहीं होता। अपने आप से, अपनी उलझन और अपने त्रास से बाहर निकलना होता है। आदमी के पास, औरत की तुलना में ये अवसर हमेशा ज़्यादा होते हैं। "मैं आज सुनन्दा दीदी से मिलने जाने की सोच रही हूं।“ "अचानक उनकी याद कैसे आ गई ?"
"बस यूं ही, बुलाती रहती है। हमारे पास कई बार आ चुकी है बुरा भी मान सकती हैं कि हम नहीं जाते उनके यहां,तुम्हें तो कभी फुर्सत मिलेगी नहीं।“ मैं बिना वजह मोर्चा खोलना चाह रह थी। "मन हो तो जाओ। वैसे मणी की - छुट्टी वाले दिन जातीं, उसे साथ लेकर तो दिन भर वहां रह सकती थी। आज तो जाना-आना ही होगा मात्र।“" यह मेरी चिन्ता है।“ "चिन्ता तो खै़र तुम्हारी ही है।“
"वैसे तुम्हें भी शामिल कर सकती हूं मैं इसमें, आफ़िस जाते हुए मुझे उनके यहां छोड़ देना।“ दीदी से मिलने का उत्साह मुझे छूने लगा था। उनके सामने आज यही मैं रत्ती रत्ती उघाडूंगी,कि एक मां जिसने अपनी बेटी खो दी, और अब लांछित भी हो रही है, कहां ग़लत थी वह। बस यही इतना ही कि अपने प्यार और अपने द्वारा दिए गए संस्कारों को लेकर आश्वस्त अपने लिए भी वक्त निकाल रही थी ” बहुत खुश हुई दीदी मुझे देख कर। आलोक को भी पांच-सात मिनट बिठा ही लिया उन्होंने। - बोल क्या खाएगी दोपहर के खाने में ?“ - अभी सुबह के दस बजे हैं दीदी। दोपहर तक तो मैं लौट जाऊंगी मणी लौटेगा स्कूल से दो बजे।“ - जानती हूं। तुझे खिला दूंगी और मणी के लिए भी डाल दूंगी। बल्कि तू चाहे तो रात के लिए भी कुछ बना दूं ?“ उन्हें कन्धों से पकड़ कर बरबस अपने सामने बिठा लिया मैंने। - बातें करो मुझसे। इतनी दूर से चल कर आई हूं। आपकी गपशप से अपना जी बहलाने को।“ - तेरे जी को क्या हुआ है ?“ मुझ पर अपनी बड़ी बड़ी आंखें गढ़ाते हुए उन्होंने कहा। - कुछ हो जाएगा, पूरा का पूरा मन मधुवन मुर्झाने लगेगा। तब ही आप रसधारा बरसाएंगी क्या ?“ कहते कहते मैं हंस पड़ी तो आश्वस्त हुई वह। - नहीं अभी के अभी बरसाए देते हैं भई। दो कप चाय बना कर ले आएं पहले।“ - चाय साबिया बना लेगी। आप बैठिए।“ - वह तो गई।“ - गई मतलब ?“ - मतलब यह कि हमने उसे उसके घर भिजवा दिया।” - वह क्यों ? - लम्बी कहानी है। आ कर सुनाती हूं।“ पिछली बार, लगभग नौ-दस महीने पहले मैं यहां आई थी तो पहली बार देखा था साबिया को। अनिमेश भाई साहब (दीदी के पति) के मामा के गाँव से थी। उन्नीस-बीस साल की दुबली-पतली, डरी-डरी और झेंपू सी लड़की। लेकिन घर के काम काज में ठीक लगी। दीदी बाज़ार गईं हुईं थी। उनके आने तक मेरी आवभगत में लगी रही वह। आदेश-निर्देश तो भाई साहब ही दे रहे थे। उन्होंने कुर्सियां धूप में लगवाईं। फिर उसे अच्छी सी चाय बनाने को कहा। पल भर बाद उसके साथ ही भीतर चले गए वह भी। लौटे तो हाथ में गरम-गरम आलू की टिक्कियों से भरी तशतरी थी। जो उन्होंने सामने पड़ी मेज पर रख दी - आजकल मज़े आ रहे हैं खाने-पीने के। तुम्हारी दीदी को तो समाज भी देखना है। इसे तो लेकर-देकर रसोई ही देखनी है सो कुछ न कुछ बढ़िया बना कर खिलाती रहती है।“ सुख जोड़ता है, पर जुड़े हुए में सेंध भी लगाता है, मैंने सोचा। दीदी चाय ले आई तो मैंने पूछा - क्यों भेज दिया उसे ? आराम मिल रहा था आपको फिर आप ही ने तो बताया था फ़ोन पर कि बहुत गरीब घर की लड़की थीं। उसके पिता चाहते थे कि दो-तीन बरस आपके पास काम कर ले तो आप उसकी शादी में थोड़ी मदद कर दें।“ - वह तो मैं अब भी करूंगी ही। जितनी मदद मुझसे हो पाएगी।“ क्षण भर को सीधा मेरी आंखों में देखती रही फिर बोलीं। - तू तो बहुत अपनी है मेरी और मेरे कहे के टेड़े-मेड़े बीस अर्थ भी निकालेगी, जानती हूं। इसलिए सुन, दो तीन माह में ही सारा घर सम्भाल लिया उसने। अनिमेश मुझसे कुछ मांगते और लेकर वह हाज़िर हो जाती। बेटा कुछ खास मनपसंद, खाना चाहता तो उसी को कहता। बहुत फुर्सत मिलने लगी थी मुझे अपने लिए। उन्हीं दिनों भाभी का आप्रेशन हुआ, उनके पेट में रसौली थी। मैं अस्पताल में उनके साथ रही। बाद में भी उन्हें देखने व उनसे मिलने जाती रही। मतलब घर की चिन्ता नहीं थी मुझे।“ - तो फिर क्या हुआ ?” मैं उतालवी हो रही थी। - हुआ कुछ नहीं पर मुझे लगा कि हो सकता है ,ढंग का खाने-पीने से स्वस्थ हो गई थी। साफ-सुथरा ओढ़-पहन कर अच्छी दिखने लगी थी और मैं डर गई। अमिशा, (उन्होंने जैसे अपने को तैयार किया) साफ़-साफ़ बोलती हूँ , मेरा पति पैंतालिस वर्ष का और बेटा लगभग सोलह साल का, किसी के लिए भी मुश्किल पैदा हो सकती थी। तू समझ रही है न मैं क्या कहना चाह रही हूं।” मैं क्या समझती, सन्न रह गई थी। यह कैसी व्यवहारिकता बखानी जा रही थी। परस्पर नेह-विश्वास को जैसे पंख लग गए हों। थोड़ा सम्भल कर, जाहिर तौर पर मैंने कहा - आपके और भाई साहब के बीच इतना अच्छी समझदारी का रिश्ता। ऐसा प्यारा और संस्कारी आप का बेटा, आप ने कैसे सोच लिया।“ मुझे बीच में ही काट कर वह बोलीं। - अच्छे रिश्तों के लिए ही तो सोचा कि क्यों बहुत बहुत प्रिय अपनों को तलवार की धार पर चलाऊं,मुझे उन्हें परखना नहीं है। अपने विश्वास की कसौटी पर खरा उतारने की ज़िद में, कुन्दन होने के लिए आग के रूबरू खड़ा नहीं करना है। मुझे अपने ये रिश्ते बचाए रखने हैं। वरना यह न हो कि कमज़ोरी का कोई एक पल अपने स्याह डैने फैला दे और फिर रोज़-रोज़ देखी उजली संबह के लिए भी मैं तरस जाऊं। - कुछ लगा था उसके व्यवहार से ? कुछ देखा था उसमें ? - न। कुछ नहीं देखा था। वैसा कुछ देखना नहीं चाहती थी इसीलिए यह निर्णय लिया। हालांकि बाद में बहुत कुछ सोच गई मैं, अपने सम्बन्ध में भी कि कहीं सनकी या अनहुए के अन्देशों में अतिरिक्त संशयी तो नहीं हो रही हूं, जो ऐसा ग़लत-सलत सोच पा रही हूं। तू कह, ठीक किया मैंने ?” - मुझ से उत्तर चाहतीं दीदी की हैरान सी फैली-फैली आंखों में सहसा, अदालत जाते-और अदालत से लौटते, उस ख़बर वाली बच्ची के मां-बाप थिर हो गए। हड़बड़ाई सी बोल पड़ी मैं । आपने ठीक किया दीदी।“ कहा जल्दी-जल्दी, पर एक-एक शब्द को भीतर तक महसूस करके कहा, और उन्हें उत्तर देते हुए स्वयं अपनी जिज्ञासा को साध लिया मैंने।“