खय्याम साहब का जाना / नवल किशोर व्यास
करीब पचपन-साठ साल पहले का कोई एक साल होगा, आते जाते सालो के बीच। उस साल भी मुसलसल रिलीज फिल्मो के बीच एक फिल्म आई थी-फुटपाथ। एक नए गीतकार ने गाने लिखे जिस पर एक नए-नवेले से ही संगीतकार ने गाने बनाये, अभिनय किया था दिलीप कुमार ने। सभी गाने पसन्द किये गए पर एक गाना लोगो की जुबान पर खूब चढ़ा। आज तक गाया जाता है। शाम-ए-गम की कसम, आज गमगीन है हम, आ भी जा आ भी आ आज मेरे सनम। शायद पहली बार किसी भारतीय गाने में स्पेनिश गिटार और डबल बास से रिदम सुनने को मिली। इस गाने को लिखने वाले मजरूह साहब के बाद अब उस जादुई धुन को रचने वाले खय्याम साहब भी विदा हो चले है। मौसिकी और शायरी से भरी-पूरी जिंदगी जीकर। बयानवे साल की उम्र में उनकी दैहिक विदाई उतनी दुष्कर नही जितनी ये कि जितना उनमे माद्दा था उतना उन्होंने काम नही किया और जितना काम किया उसको वो सम्मान न मिला जितना कि वो काम हकदार था। प्रतिभा में उनसे कमतर बहुतेरे संगीतकारो को उनसे ज्यादा नाम, दाम और सम्मान मिला। जीवन है, ऐसा होता रहता है पर खरी प्रतिभा की अपनी आभा होती है। एकदम राजसी। वो सफलता के साथ न सही पर अपने रुबाब के साथ हमेशा चलती है। खय्याम साहब में ऐसा ही रुबाब था। संगीत में सुकून की बात हो, भारतीय रागरूप के सौंदर्य को फिल्मी गीतों में ढालने की बात हो, उर्दू तहजीब को उसको उसके ठीक सलीके से ही गानो में उतारने की बात हो या फिर रिदम और साजो को धत्ता बता कण्ठ को तवज्जो देने की बात हो, खय्याम साहब याद आते रहेंगे। बहुत मुमकिन है कि आज की पीढ़ी के बहुत से लोगो को खय्याम साहब का नाम तक पता न होगा, काम तो क्या ही जानते होंगे पर उन्हें जानना चाहिए। उन्होंने हमेशा मुश्किल लिखे गीतों पर जादुई धुने बनाई। सबसे कम लाइमलाइट में आये सबसे बेजोड़ मौसिकीकार।
खय्याम हिंदी फिल्मों की वो शास्त्रीयता थी जिसके उस दौर में होने से न केवल उस दौर का संगीत समृद्ध हुआ बल्कि उसने दूसरो को भी अपने समकक्ष समृद्ध होने के लिए मजबूर किया। ये खय्याम जैसे हूनरमंद का ही कमाल है कि उनके फिल्मों गीतों में अध्यात्म भी था, दर्शन भी थे और रागों का वैभव भी था। उतावली नही थी, धीरज था। शायरी की समझ भी थी और मतला, मक़ता, काफ़िया, रदीफ़ से मशक्कत का माद्दा भी तभी तो साहिर ने फिर सुबह होगी के लिए राज कपूर को गीत लिखने से इसलिए मना कर दिया क्योंकि संगीतकार शकंर-जयकिशन थे। साहिर ने कहा कि मुझे इस फिल्म में खय्याम चाहिए क्योंकि शायरी की समझ शंकर जयकिशन में कम खय्याम में ज्यादा है। अब कौन इतना बेबाक, इतने उसूलो वाला हो?
खय्याम उन चंद संगीतकारो में थे जिसे बहुत गहरा रचना था, सिर्फ आनन्द या मनोरंजन के लिए नही। उनकी धुने शास्त्रीय गायको के विलम्बित आलाप जैसे है जिसमे एकाग्रता है, भाव की शुद्धता है, लिखे को उसकी पूरी गहराई के साथ धुन में ढालने की समझ है। रजिया सुल्तान के ए दिल-ए-नादाँ के अन्तरे को याद करें। लता गाती है- ये जमीं चुप है, आसमां चुप है तो आगे इस चुप्पी को भी वो अपनी धुन में शामिल करते है। साइलेन्स धुन का उस खास जज्बात का हिस्सा लगता है। वो अपने साजो और गायक कंठो को जैसे शहद में डुबाकर ही स्टूडियो लाते होंगे और कहते होंगे-अब गाओ, बजाओ। ये मिठास अभिभूत करती है अलौकिक बनाती है, सुनने वाले में प्रार्थना सी विनम्रता जगाती है। उन्होंने फिल्म संगीत में मानकों को स्थापित करने का काम किया, मौसिकी और शायरी को समझने की इल्म दी, मिठास को महसूस करने का जायका पैदा किया।
खय्याम साहब। दुनियावी दस्तूर का अंतिम सलाम पर आप अपनी मौसिकी के साथ हमेशा जिंदा रहेंगे।