खरसूप (कहानी) / सुधीर कुमार 'प्रोग्रामर'
बाढ़ के पानी प्रलय मचैनें हाँथ-गोड़ समेटी चुकलौॅ रहै। टूटलोॅ लोग हिम्मत करी केॅ बाढ़ के निशानी मेटाबै के जोगाड़ में लागी गेलै। दुर्गा मेला कादोॅ-किच्चड़ के बीच सलटी गेलै। बची गेलै दिवाली, काली आरोॅ छठ। सब परब खर्चे बाला! मोटा-मोटी हिसाब लगैला पर गश लागी जाय। लगॉन-बझॉन अलगे। जों है सनी सेॅ कोय बे-फिकर रहै तेॅ छोटका-छोटका बूतरू। बाढ़ सैॅ ढहलोॅ-ढनमनैलौॅ घौॅर-द्वार साटै मुनै मेॅ भीड़ी गेलै। खद्धा सैॅ केपी ढ़ूअै में जूटी गेलै। कोय मौनी में तें कोय डेकची मेॅ। घौॅर के जोर-जनानी घांस-भूस्सा के आलन मिलाय क, ेॅ साटै-मुनै के कामों में मगन होय गेलै। देबाली से पहिन्हैं अैगंना-घोॅर एकदम चकाचक। कर्जा-बियान करी केॅ तेल, दीया, बत्ती, सन्ठी, खेलौना, लाबा, छुरछुयिा, पडा़का मनें जेकरा जे जुड़लै किनलकै।
एक घोॅर ऐसन भी रहै जेकरा ई सब सेॅ कोय लेना-देना नै रहै। उ रहै गोवर्धन के घौॅर। असकल्लोॅ जान! गोयठा पैलोॅ तीन संाझ। नै उधो से लेना, नै माधो कैॅ देना। बस सिझाना आरोॅ खाना। धोती लपेटी के सोना। डोभा में दिशा-मैदान, बबूली के दत्तन काटना, गोभना, आरो तीन-बटिया पर पलथी मारी केॅ बेचना बस।
आय बढ़की सुकरात रहै। गोवर्धन देह-गात मॅ मांटी रगड़ी कैॅ नहैलकै। काम-धाम एकदम बंद। जबानी के याद आबी गेलै जब छोटका भाय के साथें दीया लूटै के जोगाड़़ में पहिन्हैं से लागी जाय रहै। हलॉकि आय सौसे टोला घुरी के पुरनका दोस्त मोहिम से मिललै। दोसरा के सजलो घोर-द्वार देखी के तन्टा लजैलै, आरोॅ मनगर घोर लौटी गेलै। मनेमन बतियाबै-चल रे मन! तनटा आपनोॅ देहरी द्वार चिकनैलो जाय। नय ते लोग कहतै कि गोवर्धन एकदम से अजगरे छै।
घोर पहुचलै ते अजबे खेला। एंगना-घोर नीपाय-पोताय के चकाचक। के दयावान कमियां एत्ते उपकार करी देलकै। मनों में कत्ते रंग संका तारा-उपरी करै लागलै। तबताय छोटका भाय के कनियान लेटैले हाँथे माथोॅ पर सड़िया घीचनें निकललै।
गोवर्धन सब बात मनेमन बुझी गेलै। आबे ते आरू फुरसते फुरसत। एक दाव मोन करलकै कि छप्पर के बाँतां में खोसलो बटुआ निकाली के कुच्छू दीया बत्ती बारै के जुगाड़ करलो जाय, मगर निपलका पर चिट्टा उखड़ै के डौॅर स नै घुसलै।
धत् तेरी के बटुआ ते डरे में खोसलोॅ छै। डारा पर हाँथ टटोली के गोवर्धन बेहद खुश हालै। तखनिये सरसरैलो दुकानी तरफ चली देलकै। दस-पनरे डेग गेलो हातै ते देखलकै कि चार-पाँच ठो छौड़ा जूआ खेलै मॅ मस्त छै। दनदनैलो जेरा मेॅ घुसी गेलै। गोवर्धन के देखथैं जुआरी सनी धड़फड़ाय कॅ चट्टी समेटे लागलै। मतर जब गोवर्धन दाँत निपोड़ी के कहलकै कि आय हमरॉ मोन जूआ देखै के करै छै नूनू, ते जुआरी सनी ठकठकाय गेलै आरो फेरू से चट्टी पसारी लेलकै। डिब्बा में कौड़ी झनझनाबे लागलै। कोय हाथी, कोय घोड़ा कोय कुच्छू ते कोय कुच्छू पर पैसा फेकी के भाग अजमाबे लागलै। जीतै ते मोॅन गद्गद नै ते निमझान। आय गोवर्धन कॅ भी सनकी चड़ी गेलै। देखतेॅ-देखतेॅ गोवर्धन बटुआ से एकटा अट्ठन्नी निकाली के कौन चिन्हा पर धरलो जाय, सोचिए रहलोॅ छीले कि तीनमहला बाला मलिकबा के नौकर बुद्धन! गोवर्धन दादा-गोवर्धन दादा कहने पहुँची गेलै।
गोवर्धन हक्का-बक्का होय गेलै। जीहोॅ के अरमान जीहे रही गेलै। एकदम कठुआय गेलै आरो उठी के डँारा मेॅ बटुआ खोसने बढ़ी गेलै। तोरहै से काम रहै गोवर्धन दा,। जिनगी में पहिलोॅ दफे टोकने रहै बुद्धन। लम्बा सांस घींची के गोवर्धन कहलकै-की बात छै, बोलोॅ। बुद्धन बात आगू बढ़ैलकै। हों दा असल में आय ते सुकरतिया छीकै नी। आबै ते कुच्छू देर में दीया-बाती, हुक्का-पाती से सब लक्ष्मी घोॅर दरिद्रर बाहर करतै। आरो भोरै मालकिन खरसूप डें़गाय के दरिदर बाहर करतै। हमरोॅ मालिक के ते सबकुछ छेबै करै गोवर्धन दा मगर खरसूप नै छै। यहा लेली मालिक भेजलकै कि गोवर्धन के छापरी पर एक टा खरसूप झलकै छै जो माँगी लान। नै ते विना खरसूप के दरिदर केना निकलतै।
गोवर्धन टनटा ठहरी कॅ बुद्धन कॅ देखलकै, मुस्की के बोललै-सेे कि रे बुद्धो। मलिकबा के घरोॅ मेॅ ढ़ेर दरिदर घुसी गेलो की। कौन देके दरिदर घुसलौ रे मरदे। चारो तरफ से घेरलोॅ घारलोॅ एत्ते उच्चो घोर द्वार छै और दरिदर घुसी गेलै। तहूँ नय देखेॅपारल्है। तोय ते हरदम दुआरी पर हियैते रहै छै। तबे हुए पारै छौ भाय। बड़ो आदमी के बड़े बात, खैतें-पीतें आधी रात। मगर देख बुधो! हमरा ते एक्के गो सूपे छौ। तोरोॅ मालिक के जो हमरो सूप खरसूप लागै छौ की कहलो जाय। बुद्धन निराश नाकती बोललै-तबे हमरोॅ मालिक के काम केना होतै, खरसूप के बिना केना के भागतै दरिदर। -आबै हम्मे की बतैयो भाय। अच्छा एक काम कर तोरा मालिक के घरो मेॅ जेतना दरिदर होतौ, सबके समेटी के राखिहें। खरसूप में तेॅ चूबी-चाबी के फेरू कुच्छू वहैं गिरी जैतौ, यहा लेली एकटा दौरी में उठाय केॅ हमरा घरोॅ में धरी दीहें। भलें दरिद्दर के जेरबैत दरिद्दर लींगें आबी जैतै।
-बुद्धन के उकरू लागी गेलै। तोय तेॅ एकदम पागलैॅ नाकती गप करै छोॅ महराज।
-गोवर्धन तमतमाय गेलै-पागल हम्मे छीयै। अरे पागल तें तोंय छहिै आरोॅ तोरो मलिकबा, जे हमरो घरौआ सूप तोरा दूनोॅ के खरसूप ऐसनोॅ झलकै छौं। आरौॅ उलटे पागल हम्हीं रे। बाह रे अमीरी। बेमतलब के गरजा गरजी बढ़ी गेलै। पहिलोॅ दफा आकाश आरोॅ पाताल में भिड़न्त होलोॅ रहै, एक लोभी तैॅ दोसरो संत। हल्ला सुनी के हिन्नें मलिकबा निकललै, हुन्नें जुआ खेलबैया छौड़ा सनी। बड़ा गजब बात रहैं। जे गोवर्धन एकदत गुम्मा बनी के जिनगी बिताय रहै, आय मलिकबा पर भी बमकी गेलै। मनगर छप्पर पर से सूप लानी के कहलकै-देखौॅ तैॅ तोरा सनी भाय एकदम नैगर सूप छै आरोॅ मलिकबा के साथें बुद्धना भी दही में सही मिलाय रहलोॅ छै। साँप छुछुन्दर के फेरा सुनने तैॅ छेलैै, आय आपन्हें फसी गेलै। कखनू मलिकबा के आगू में जाय, तैॅ कखनूं गोवर्धन के तरफ आबी केॅ दाँत कीचै। मगर गोवर्धन ते आय कृष्ण-कन्हैया के गोवर्धन के तरह अटल होय गेलोॅ रहै। मलिकबा केॅ अनहोनी के अन्देसा होय गेलै। बुद्धन कैॅ इशारा करी कैॅ बोलाय लेलकै आरोॅ भीतर सें हवेली के फाटक लगाय लेलकै। सरपंच मोछ अमेठी केॅ भीड़ के तरफ मू करी केॅ बोललै, तुम लोग तॉकता कोनची था। धडधड़ा दिया काहे नू सार को। -गोवर्धन पिनकी गेलै। हेहो सरपंच साहेब तोंय जा, तोरा सनी के नाटक देखतें-देखतें हम्में एकसठ पार करलौं।
है सब दाँव-पेंच आन्हैं जीमा मेॅ राखोॅ।
लोग गोवर्धन के हिम्मत देखी केॅ आरो दलील सुनी के दंग रही गेलै।
आखिर मजलिस टूटलै लोग अच्छा-बेजाय गपीयैनें आपनोॅ-आपनोॅ घोर जाय के दीया-बत्ती बारै मेॅ लागी गेलै। गोवर्धन भी मोमबत्ती बारी के आपनोॅ देहरी पर गाड़ी देलकै आरो टटिया सटाय के हिन्ने-हुन्ने देखैलैॅ निकली गेलै।
घंटा भर होलो होतै कि आगिन लगै के हल्ला होलै। आगिन कहीं दोसरा कन नय, वल्कि गोवर्धन के झोपड़ी में लागलोॅ रहै। एकदम अजलत कोय आगिन बुताबै मॅ बौला ते कोय मलिकबा घरोॅ मॅ आगिन लगाबै के फिरांक मेॅ। कोय बगल के घोर बचाबै लागलोॅ ते कोय अधजरूओ समान उड़ाबै के फेरा मेॅ। तनी ठो घोॅर आगिन लेली आठ-दस मिनट के खेल रहै। सब स्वाहा। बची गेलै
पनधुईयां। मगर गोवर्धन दा कहाँ छै। कन्हों नजर नय अैलै। अरे हेबेॅ हुन्ने देखोॅ देवाली में सटलोॅ गोवर्धन दा। लागै ते जीते छै। निकाल-निकाल। अरे देख! गोवर्धन लेटमसेट हाँथोॅ मॅ सूप लेने मातलोॅ आबी रहलोॅ छै। अरै नय भाय, हम्में नय माँतलौॅ छीयै, आरू नय इ सूप रहलै। आबे इ अब्बलका खरसूप होय गेलै। ले रे बुद्धन। हला हो मालिक खरसूप आरो निकालोॅ आपनोॅ घरो के दरिदर। हाँ...हाँ...हाँ! पहिलो दफे ठहाका मारलकै गोवर्धन।
आगिन ते ठंढ़ाय गेलै, मतर बात ढ़ेर गरमाय गेलै। लोगोॅ कॅ मलिकबा सॅ बदला लैके अच्छा जुगाड़ हाँथ लागी गेलै। सब विना बोलैने आबी के पंचैती करै लागलै।
सरपंच के भी बोहनिये रहैै।
मतर मलिकबा होशियारी से काम लेलकै। बात बढ़ला से पहिन्हैं आगुआय के बाललै।
देखोॅ पंचकिसान! एतना बड़ो घटना में गलती हमरे छै। हम्हीें बुद्धन कैॅ खरसूप लैॅ भेजलियै। पता नय कौन कारण से एत्ते बड़ो खेल होय गेलै। आबे होकरा पर तू-तू में-में करला से कोय फायदा नय। जे लिखलोॅ रहै, होय गेलै। आबे गोवर्धन दा आरोॅ आपने सनी, जे फैसला करबै हम्में एकदम मानै लेली तैयार छीयै। बिहान्है से हम्में गोवर्धन दा केॅ घोॅर छप्पर बाला नै पक्का बाला बनाय देबै। आरोॅ हिनकौॅ परवरिश के भार भी हम्में अखनी से उठैबै। मलिकबा के नेक फैसला सुनी के सब के अचम्भा लगी गेलै। -मतर हों-हों जेकि हिनको मरला पर घोॅर जमीन सब तोरोॅ भाग में। कोय टपकी गेलै।
फेरू बात यहॉ आबी कैॅ सम्हरलै कि नय भाय हिनको देख-रेख गोवर्धन के छोटका भाय-भभौउ करतै, आरो बाद मेॅ सबकुछ गोवर्धन दा के परिजन के होतै। हेकरो अलाबे, ग्राम-सभा जे फैसला करी देतै ओतना टा एक मुस्त जमा करी देबै।
एैसने होलै भी। बिना झंझट झमेला के सब काम सलटी गेलै। गोवर्धन जब तक बचलै खरसूप के जोगी केॅ राखलकै आरोॅ पूजा करतेॅ रहलै।