खरी कमाई / यशपाल जैन

Gadya Kosh से
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आप कहेंगे, तुम सेवा की और प्रेम की बातें करते हो। हम भी उन्हें जानतें है। पर जिन्हें हर घड़ी पेट के लाले पड़े रहते हो, वे कहाँ से सेवा और कहाँ से प्रेम करें? उन्हे तो सबसे पहले रोटी चाहिए।

आपकी बात सच है। भूखे को रोटी चाहिए और रोटी उसे हर हालत मे मिलनी चाहिए, लेकिन उतने से आदमी को सन्तोंष होता कहाँ है! पहली बात तो यह कि आदमी मेहनत नही करता, काम से बचता है; दूसरी बात यह कि वह खाने के लिए कम, बचाने के लिए अधिक कमाता है। गांधीजी ने लिखा है, "हर मेहनती आदमी को रोजी पाने का अधिकार है, मगर धन इकटठा करने का अधिकार किसी को नहीं है। सच कहें तो धन का इकटठा करना चोरी है। जो भूख से अधिक धन लेता है,वह जान मे या अनजान में, दूसरों की रोजी छीनता है।"

आज दुनिया मे यही हो रहा है। एक ओर इतनी कमाई है कि आदमी खाकर हज़म नही कर सकता; दूसरी ओर इतना अभाव है कि आदमी पेट भरकर खा भी नही सकता। जहाँ ढेर होता है, वहाँ गडढा अपने आप हो जाता है। एक बुढिया की बड़ी मजेदार कहानी है। एक बड़ी ग़रीब बुढ़िया थी। बेचारी तंगी के मारे हैरान रहती थी। एक दिन किसी ने उससे कहा, माई पैसे से पैसा आता है।" वह बेचारी कहीं से एक पैसा जुटा लाई ओर पैसे के ढेर के पास खड़ी होकर लगी उसे पैसा दिखाने। थोड़ी देर मे उसका वह पैसा भी ढेर मे चला गया। वह रोने लगी। तब किसी ने उसे समझाया, "तू जानती नही, पैसा ढेर मे जाता है।"


आज यही बात देखने मे आ रही है। कुछ लोग कहते है कि अमीरी और गरीबी किस ज़माने मे नही रही। पुराने समय से लेकर अब तक यह भेद चला आ रहा है। सब बराबर कैसे हो सकते है?

इस तर्क मे बड़ी भूल है। ईश्वर ने सारे इंसानो को एक-सा बनाया है। आदमी आदमी मे कोई अन्तर नही रक्खा। अन्तर तो स्वयं आदमी ने पैदा किया है। एक आदमी दिमाग़ से काम करता है, दूसरा शरीर से। पहले को हम बड़ा मानते है और उसे अधिक पैसा देते है, दूसरे को किसान-मजूर कहकर छोटा मानते है। और उसकी कम कीमत लगाते है। लेकिन यह न्याय नही है। जो दिमाग काम करता है, उसे भी खाने को अन्न चाहिए और अन्न बिना शरीर की मेहनत के नही मिल सकता। शरीर से काम करे वाले को दिमागी काम करने वाले का सहारा चाहिए। इस तरह दोनों एक-दूसरे के पूरक है। एक के बिना दूसरे का काम नही चल सकता।

पर आज का समाज उन्हें एक-दूसरे का पूरक या साथी मानता कहाँ है? बुद्धि से काम करने वाला शरीर की मेहनत को छोटा और ओछा मानता है और उससे बचता है। वह मानता है कि मजूर से मेहनत लेने का उसे अधिकार है। वह यह नही मानता कि

मजूर के प्रति उसका कोई कर्त्तव्य भी है। फल यह कि ईश्वर की दी हुई समानता को आदमी ने न सिर्फ नष्ट कर दिया है, बल्कि आदमी के बीच ऊँच-नीच की, छोटे-बड़े की, अमीरी-गरीबी की चौड़ी खाई भी खोद दी।

गांधीजी इसी खाई को पाटना चाहते थे। उन्होने रामराज्य की जो बात कही थी, उसके पीछे यही भावना थी। वह चाहते थे कि एक भी आदमी बिना अन्न के न रहे, सबको पहनने को कपड़े और रहने को घर मिले, सबको पढाई-लिखाई की सुविधा मिले और हारी-बिमारी के लिए दवा-दारू की व्यवस्था हो; यानी सबको विकास की समान सुविधाएँ हों। उनका तो यहां तक कहना था कि जब तक एक भी आंख मे आंसू है, तब तक लड़ाई की मंजिल पूरी नही सकती।

यह खाई एकदम दूर हो जाए, तब तो कहना ही क्या! लेकिन आज के जमाने में वह बिल्कुल दूर न हो सके तो कम तो हो ही जानी चाहिए। हमारे समाज की बुनियाद नये मूल्यों पर रक्खी जानी चाहिए। धन को अब तक बहुत प्रतिष्ठा मिल चुकी है, उसकी जगह अब सच्चे इंसान को इज्ज़त मिलनी चाहिए। बौद्धिक और शारीरिक भ्रम के बीच जो दीवार खड़ी हो गयी है,वह टूटनी चाहिए। भ्रमका शोषण बंद होना चाहिए। हमारे सारे काम इंसान को, ग़रीबो के उस प्रतिनिधी का , जिसे गांधीजी ने दरिद्रनारायण कहा था, सामने रखकर होने चाहिए। भारत इसलिए भारत बना रहा कि उसने इंसानियत को ऊँची जगह दी। मानवता को वही मान देने का अब समय आ गया है।

कहने का मतलब यह कि हर आदमी अपनी क्षमता के अनुसार काम करे और जरूरत के अनुसार पाये; कोई किसी का शोषण ने करे, न अपना होने दे; सब अपने-अपने कर्त्तव्य को जाने और मानें कि अधिकार तो कर्त्तव्य मे से अपने-आप आते है; सब सादगी से रहे ओर सबके बीच प्रेम का अटूट नाता हों।जब समाज की बुनियाद इन पक्के आधरों पर रखी जायेगी। तो हमारे सारे दुखऔरक्लेश अभाव और भेद, अपने-आप दूर हो जायेगें। तब आदमी धन और सत्ता, प्रभुत्व और वैभव, किसी के नीचे नही रहेगा, बल्कि उन सबके ऊपर रहेगा। मानव को इतना मान मिलेगा तो प्रभु ईसा के शब्दो मे धरती पर स्वर्ग उतरते देर नही लगेगी।