खरोंच / विवेक मिश्र
टीन के जंग खाए कनस्तर को जैसे कोई कील से खरोंच रहा हो कुछ ऐसी ही आवाज़ सदना के गले से निकल रही थी। जंगलों में बसंत उतरने के गीत गाने वाली उसकी आवाज़ इतनी कर्कश, इतनी बेसुरी कभी नहीं थी, उसकी आवाज़ इतनी बेबस, लाचार और बेअसर भी कभी नहीं हुई थी कि वह गिनकर पूरे तीस बार, एक ही बात को पढ़कर लोगो को बताए और वह बात, उसमें छुपा दर्द, उसमें पैबस्त उसके आहत तन-मन की चीत्कार का एक रेशा भी किसी तक न पहुँचे, उसके लहुलुहान हो चुके मन की खरोंचों को कोई छू भी न सके, पर आज उसके साथ ऐसा ही हो रहा था। उसके वज़ूद को तार-तार कर देने वाली घटना को बयां करते शब्दों का अर्थ न्यायालय में गूँजते ठहाकों ने बदल कर रख दिया था। इन ठहाकों में वकीलों, मुनीमों और मजा लेने के लिए यूँ ही जुट आई भीड़ के साथ जज साहब की हँसी भी शामिल थी।
तभी उन ठहाकों के शोर में एक ख़ामोशी की लकीर धीरे से तैरने लगी। सदना के गले से निकलती आवाज़ थम गई. साथ ही उसकी फड़फड़ाहट, उसका कंपन हवा में बिला गया। न्याय के लिए गिड़गिड़ाती सदना का चेहरा सख़्त हो गया। अब उसकी आँखें किसी अन्तिम निर्णय पर पहुँच चुकी, अपने आस-पास छाए कुहासे को काटती तेज़ धारदार आँखें थीं।
कोर्ट रूम में खींसे निपोरते चेहरे एक पल के लिए सपाट हो गए.
न्यायाधीश ज़ोर से, लगभग गरजते हुए बोले, 'एफ.आई.आर. फिर से पढ़ी जाए, अदालत पूरे वाकए को फिर से सुनना चाहती है।'
सब टकटकी लगाए सदना की ओर देख रहे थे। सदना ने अपने हाथ के पसीने से भीग चुके क़ाग़ज़ों को एक बार फिर से सीधा किया और उसमें लिखे शब्दों को बड़े ध्यान से देखा। उसने अपने हाथों में जिन क़ाग़ज़ों को ले रखा था वह उस फ़रियाद की नक़ल थे जो उसने कोर्ट में प्रस्तुत होने से तीन महीने पहले अपने ऊपर हुए अत्याचार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए, न्याय मांगने के लिए, आरोपियों को सज़ा दिलाने के लिए की थी। वे क़ाग़ज़ सदना के साथ किए गए सामूहिक बालात्कार की एफ.आई.आर. की कॉपी थे, जो सदना ने अपने साथ हुई उस घटना के तीन दिन बाद बमोई थाने में लिखवाई थी।
जिस सदना से भरी अदालत में बार-बार एफ.आई.आर. पढ़वाई जा रही थी, यह वही सदना थी जो कभी पूरे राज्य के आदिवासी अंचल की शान हुआ करती थी। यह वही सदना थी जिसने लम्बी कूद और चार सौ मीटर की दौड़ में, राज्य स्तर की प्रतियोगिताओं में स्वर्णपदक जीते थे, जिसे राज्य सरकार ने स्पोर्टस कोटे में राज्य के पुलिस बल में सीधे सब इन्स्पेक्टर के पद पर शामिल किया था। यह वही जांबाज़ सदना थी, जिसने कई नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पुलिस और नक्सलियों के बीच हुई मुठभेड़ों में अपनी जान जोखिम में डाल कर अपने विभाग के, अपने राज्य के, उसके नागरिकों के लिए ख़तरनाक लड़ाइयाँ लड़ी थीं। एक समय उसने गर्व से सबकी छाती चौड़ी कर दी थी। यह वही सदना थी, जो बचपन से अपने गाँव के पास से बहती नदी में अपनी छोटी-सी नाव उतार कर, नदी के आखरी पड़ाव, नदी को समन्दर होता हुआ देखने वाले किनारों तक जाने के सपने देखा करती थी। यह वही मासूम-सी सदना थी जो अपनी बीमार माँ के लिए जंगल से अपनी धोती के पल्लू में चिरौंजी और महुआ बीन कर ले आया करती थी, जो अपने सारे काम निपटा कर सूरज ढलने से पहले चट्टानों पर कोयले से लिख कर अपना पाठ याद किया करती थी, जो खेल के जी तोड़ अभ्यास में शरीर पर लगी चोटों को अपनी माँ से छुपा कर, उनपर जंगल की मिट्टी इस विश्वास के साथ लगा लिया करती थी कि उसके जंगलों की यह मिट्टी बड़े से बड़े घाव को भरने की ताक़त रखती है, पर इस बार यह मिट्टी उसका कोई घाव भर नहीं पा रही थी। उसके लिए जंगल, वहाँ का हवा-पानी, लोग सब अचानक ही बेगाने हो गए थे।
वह निपट अकेली, क़ानून के जंगल में खड़ी, न्याय की भीख मांग रही थी, पर उसकी आवाज़ काले सियारों की 'हुँआ, ...हुँआ' के बीच दबकर रह गई थी। वहाँ उपस्थित हर आदमी उसकी लाचारगी पर हँस रहा था। वे सब समूह में उसके दर्द का उपहास कर रहे थे, उसके साथ हुए शर्मनाक हादसे का उत्सव मना रहे थे। वे उसके मुँह से उसके साथ हुए बलात्कार का आँखों देखा हाल सुनकर मस्त हो रहे थे। उन सब के भीतर एक शिकारी कसमसा रहा था। वे अपनी जांघों बीच खुजला रहे थे। पर सदना के अचानक चुप हो जाने से उनके मजे में बाधा पड़ गई थी।
सदना ने उन क़ाग़ज़ों को कसकर पकड़ लिया था। उसकी साँस गहरी और तेज़ चल रही थी। उसके भीतर धधकता कोई ज्वालामुखी अचानक ही फट पड़ा था। उसके मुँह से गाढ़े काले रंग का धुआँ उठ रहा था। उसकी आँखों से बहता लावा उसकी ओर उठती नज़रों को झुलसा रहा था। तभी कुछ ऐसा हुआ जिसे वहाँ उपस्थित लोगों ने पहले कभी नहीँ देखा था। लोग सख़्ते में थे।
सदना ने एफ. आई. आर. की कापी को फाड़कर उसके अनगिनत टुकड़े कर दिए. ऐसा करते हुए उसकी छाती और गले को खरोंचकर निकली आवाज़ ने लोगों के कान फाड़ दिए थे। इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता एफ. आई. आर. की छोटी-छोटी चिन्दियाँ हवा में उड़ रही थीं। उनपर लिखे शब्द बेतरतीब जज की टेबल पर बिखर गए थे। वह अब भी उन्हें अपने मोटे चश्मे से पढ़ने की कोशिश कर रहे थे-नाखून, वक्ष, जांघें, योनि, वीर्य, चीख, दर्द, बेहोशी और तमाम आधे-अधूरे शब्द कमरे की छत से लटके पंखे की हवा में टेबिल से यहाँ-वहाँ उड़ रहे थे।
सदना जज के सामने कमरे के बीचोंबीच खड़ी अपने शरीर से एक-एक कपड़ा नोंचकर हवा में उछाल रही थी। लोग सन्न थे। वह कुछ प्रतिक्रिया दे पाते उससे पहले सदना कमरे के फ़र्श पर लेट गई थी। वह जो बताना चाहती थी और तीस बार एफ.आई.आर. पढ़कर भी नहीं बता सकी थी, अब उसे करके दिखा रही थी। लोग भोंचक थे। सदना बोल रही थी, 'ऐसे गिरा दिया था ज़मीन पर मुझे, ऐसे ठूँस दिया था कपड़ा मेरे मुँह में, ...और ऐसे पकड़कर मेरी......'
तभी दो पुलिस वालों ने आगे बढ़कर उसपर एक काला कंबल डाल दिया था। वे उसे पकड़कर बाहर की ओर घसीट रहे थे। तमाशबीन अपनी जगह पर खड़े हो गए थे।
न्यायाधीस न्याय का डंका ज़ोर-ज़ोर से टेबिल पर पटक रहे थे। सदना की काले कंबल में से आती, घुटी हुई आवाज़ दूर होती जा रही थी। वह अब चीख-चीख के कह रही थी, 'एक और एफ.आई.आर. लिखानी है मुझे, इस कोर्ट के ख़िलाफ, जिसमें एक दो नहीं, पूरे तीस बार पचासों लोगों ने मिलकर मेरा बलात्कार किया। मुझे इन सबके ख़िलाफ़ एक एफ.आइ.आर. लिखानी है।'
कमरे के बाहर एक लम्बी कोरीडोर में घिसटती हुई, लगातार दूर होती आवाज़ को जज की टेबिल से उठती भारी भरकम आवाज़ ने दवा दिया था। जज साहब फैसला सुना रहे थे। बलात्कार के आरोपियों सहित तमाम लोग खुशी से तालियाँ बजा रहे थे। कमरे में सबसे पीछे की बैन्च पर हरी और नीली धोती में लिपटी बैठी दो औरतें डरी-सहमी धीरे-धीरे सुबक रही थीं।
सदना को न्यायालय की अवमानना के अपराध में गिरफ़्तार कर जेल भेज दिया गया था। बलात्कार के आरोपी सबूतों के अभाव में बरी हो गए थे।
सदना रोज़ जेल की कोठरी की दीवारों पर अपने नाखूनों से खरोंच-खरोंच कर एक नई एफ.आई.आर. लिखने की कोशिश करती थी। वह ड्यूटी पर तैनात महिला कांस्टेबल से दिन में कई बार कहती, 'दीदी देख इस बार सही लिखी है न, सजा होगी ना उन सबको?'
ऊँघती हुई महिला कांस्टेबिल उसकी बात सुनकर मुँह फेरती और फिर से झपकने लगती। दीवार पर खरोंचों के निशान रोज़ कुछ और गहरे हो जाते।