खलनायकों से भरी पटकथा / जयप्रकाश चौकसे
खलनायकों से भरी पटकथा
प्रकाशन तिथि : 19 फरवरी 2011
सूचना प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री गुरुदास कामत ने मीना कुमारी, नूतन, देविका रानी एवं लीला नायडू की स्मृति में डाक टिकट जारी करते समय कुछ इस आशय की बात की कि इन कलाकारों की फिल्मों को कल्ट स्टेटस मिला और इनकी प्रतिभा ने अवाम को प्रभावित किया। उन्होंने स्वीकार किया कि फिल्मवालों को व्यापक लोकप्रियता प्राप्त है। इस विभाग ने पहले सत्यजीत राय, गुरुदत्त, बिमल राय, नरगिस और राज कपूर की स्मृति में डाक टिकट जारी किए हैं। उन्होंने यह भी कहा कि सामूहिक जनमानस पर फिल्मी कलाकारों और निर्देशकों का गहरा प्रभाव है।
फिल्म और फिल्मवालों की व्यापक लोकप्रियता का दूसरा पक्ष यह है कि शादी-ब्याह और उद्घाटन समारोहों में उन्हें आमंत्रित किया जाता है और उनकी मौजूदगी के उन्हें भारी पैसे भी मिलते हैं। अफसोस की बात यह है कि साहित्य और संस्कृति के मंच पर भी इन्हें आमंत्रित किया जाता है और चुनावी सभाओं में भीड़ एकत्रित करने का काम भी यही करते हैं। समाज में व्याप्त इस गहरी व्याधि का सबसे अधिक विपरीत प्रभाव समारोह की मूल भावना पर पड़ता है, मसलन शादी में इनके आते ही सारे कैमरे और अतिथियों का ध्यान इनकी ओर हो जाता है और शादी के नायक-नायिका दूल्हा-दुल्हन हाशिए में चले जाते हैं। चुनावी सभाओं में जुटी भीड़ कलाकार द्वारा प्रस्तुत उम्मीदवार और उसके दल को ही मत दे, ऐसा भी नहीं होता। इतना ही नहीं, इस पूरे तमाशे का बुरा असर सितारे की सोच प्रक्रिया पर पड़ता है और वह स्वयं को लगभग खुदा ही मान लेता है। लोकप्रियता के दौर के समाप्त होने पर ये लोग तन्हाई और उपेक्षा की असहनीय पीड़ा से गुजरते हैं। जवानी में जो पहलवान कसरत करता है, माल-मेवा पचाता है, बुढ़ापे में उसकी मांसपेशियों में दर्द होता है और खिचड़ी उसे हजम नहीं होती। लोकप्रियता का फोकस हटते ही, अंधेरे में उन्हें अपना हाथ भी नजर नहीं आता। आप नेताओं के शिखर से गिरकर तल पर आने की स्थिति की कल्पना कर सकते हैं। बुढ़ापे में सत्ता से दूर छिटका नेता जब अपने इलाज के लिए अस्पताल में कतार में खड़ा होता है तब उसे वे दिन याद आते हैं जब उसने इस अस्पताल का उद्घाटन किया था। आज वाला माहौल हमेशा नहीं था। नेहरू के युग में दिलीप कुमार, राज कपूर और देव आनंद जैसे लोकप्रिय सितारे अपने शिखर पर थे, परंतु नेहरू की सभाओं में जितनी भीड़ जुटती थी, उतनी भीड़ तीनों मिला कर भी नहीं जुटा पाते थे। आज उस कद के नेता नहीं हैं और अवाम भी बदल गया है। आज किसी भी क्षेत्र में असल नायक नहीं हैं। इस समय भारत की पटकथा खलनायकों और चरित्रहीन किरदारों से पटी हुई है और अवाम को हमेशा रोल मॉडल अर्थात एक आदर्श की तलाश होती है। वह अपनी आस्था को टिकाने के लिए स्थान ढूंढ़ता है।
दरअसल अवाम हमेशा नायक की तलाश क्यों करता है। उसके अवचेतन में अवतारवाद समाया हुआ है और संकट के समय वह अवतार और चमत्कार की आशा करता है। गणतंत्र व्यवस्था की सफलता के लिए जरूरी है कि आम आदमी अपनी स्वतंत्र विचार शैली विकसित करके स्वयं को नायक के रूप में ढाले। मायथोलॉजी द्वारा विकसित हमारी सोच इस तथ्य को भी अनदेखा करती है कि संकट के समय अवतार केवल रथ चलाता है और वह हथियार नहीं उठाता अर्थात अवतार केवल मनोवैज्ञानिक आधार देता है, काम तो स्वयं आदमी को ही करना है। यह हम भूल जाते हैं कि मनुष्य की महानतम कल्पना ईश्वर है और उसके होने मात्र के विचार से हम संचालित हैं। सारे कर्म का केंद्र मनुष्य ही हैं। अगर आज भी नहीं जागा तो