खलनायक / कामतानाथ

Gadya Kosh से
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आफिस के काम से बनारस जाना था। एक मुकदमे के सिलसिले में। कचहरी में कागज दाखिल करने थे।

चलने लगा तो मां ने पूछा, ‘‘लौटोगे कब?’’

‘‘क्यों?’’ मैंने कहा।

‘‘वैसे ही।’’

‘‘परसों सुबह आ जाऊंगा।’’

मां लिहाफ का खोल सिल रही थीं। चुपचाप मशीन चलाती रहीं। मैं सफर के लिए अपना सामान सहेजता रहा। कपड़े आदि अटैची में बंद करके मैं उठकर खड़ा हुआ तो मां ने भी मशीन बंद कर दी। मुझे दरवाजे तक छोड़ने आईं। मैंने मुड़कर उनके पैर छुए तो बोलीं, ‘‘फुर्सत मिले तो बिल्लो के यहां हो आना।’’

मैंने उनकी ओर देखा। तब सड़क पर आकर रिक्शा खोजने लगा।

गाड़ी सुबह तड़के ही बनारस पहुंच गई। बर्थ सुरक्षित होने के बावजूद मुझे रात ठीक से नींद नहीं आई। स्टेशन पर उतरकर मैंने चाय पी। वेटिंग रूम में नहा-धोकर कपड़े बदले और अटैची क्लोक रूम में जमा करके बाहर निकल आया।

कोई सात बजे थे। साढ़े आठ पर मुझे अपने ऑफिस द्वारा नियुक्त वकील के घर पहुंचना था। घंटे-डेढ़ घंटे का समय मेरे पास था। मुझे बिल्लो की याद आई। याद तो खैर रास्ते भर आती रही थी परंतु यह निर्णय मैं अभी तक नहीं ले पाया था कि उसके यहां जाऊं अथवा नहीं। आखिर, मैं फिलहाल टाल गया। सोचा, कोर्ट से फुर्सत मिलने के बाद देखा जाएगा। और मैं एक होटल में घुस गया।

नाश्ता करते हुए मुझे ध्यान आया कि लौटने के लिए आरक्षण भी करना है। लौटकर गया तो खिड़की खुल चुकी थी। रात की गाड़ी में मुझे बर्थ मिल गई।

कचहरी से मैं एक बजे ही फुर्सत पा गया। वापसी की गाड़ी नौ बजे रात की थी। समय मेरे पास काफी था। फिर भी मैं तय नहीं कर पा रहा था कि सुनीता के यहां जाऊं या नहीं। हां, ‘‘सुनीता’’ बिल्लो का ही नाम था। ‘बिल्लो’ नाम मैंने ही उसे दिया था। बात यह थी कि उसकी आंखें नीली थीं। इसीलिए मैं उसे ‘बिल्लो’ कहकर चिढ़ाता था। धीरे-धीरे सभी उसे ‘बिल्लो’ कहने लगे।

लखनऊ में मेरे घर के निकट ही उसका भी घर था। कोई दो-तीन मकान छोड़कर। मेरे मकान के सामने वाली पंक्ति में। उसके पिता एक स्कूल में मास्टर थे। तीन बहनों में वह सबसे छोटी थी। और सबसे खूबसूरत भी। मुझसे आयु में कोई तीन-चार वर्ष कम।

बचपन में हम सब एक साथ खेलते थे। वह मुझे ‘लंबू’ कहती और मैं उसे ‘बिल्लो’। बहुत ही चंचल थी वह। अक्सर ही मुझे तंग करती। कभी चुटकी काटकर भागती तो कभी पानी से नहला देती। पकड़ पाता तो मैं उसकी खूब कुटम्मस करता। लेकिन पकड़ में वह कम ही आती। भाग कर मां के पास हो रहती। और मां सदा उसी का पक्ष लेतीं।

मगर उसकी शोखी बचपन तक ही रही। बड़ी होने पर वह बिल्कुल विपरीत स्वभाव की निकली। इस परिवर्तन के पीछे मुख्य कारण शायद उसके घर की गरीबी थी। मास्टर चाचा को तनखाह कम ही मिलती थी। कुछ थोड़ा-बहुत वे ट्यूशनें करके कमा लेते थे। जो कुछ बचाया था, वह बड़ी लड़कियों के विवाह में निकल चुका था। अब उनके पास सुनीता के विवाह पर दहेज देने जैसा कुछ भी नहीं था। यही चिंता उन्हें चौबीस घंटे लगी रहती। जैसे-जैसे सुनीता बड़ी हो रही थी, उनकी यह चिंता भी बढ़ रही थी। सुनीता को शायद इसका आभास था। इसीलिए उसकी बचपन वाली शोखी और चंचलता जैसे पंख लगाकर उड़ गई थी। एक विचित्र प्रकार की सौम्यता और गाम्भीर्य ने उसका स्थान ले लिया था। इससे उसके सौंदर्य में और भी चार चांद लग गए थे।

मेरे यहां वह अब भी बराबर आती-जाती। कभी मशीन पर कोई कपड़ा सिलने तो कभी मां से कोई बुनाई आदि पूछने। मेरे लिए भी दो-एक बार उसने स्वेटर, कंफर्टर आदि बुन कर दिए थे। मैं अब भी उसे बराबर बिल्लो ही कहता। लेकिन उसे चिढ़ाने के किसी उद्देश्य से नहीं। यह नाम ही मेरी जबान पर चढ़ गया था। हां, उसने मुझे लंबू कहना बंद कर दिया था।

जिस वर्ष मैंने एम. ए. किया, सुनीता ने इंटर की परीक्षा पास की। वह आगे पढ़ना चाहती थी, परंतु उसके पिता इसके लिए तैयार नहीं थे। वे जल्दी-जल्दी उसका विवाह कर देना चाहते थे। मैं मन-ही-मन सुनीता को बहुत चाहने लगा था। मेरी भी यही इच्छा थी कि वह आगे पढ़े। इसीलिए जब मुझे पता चला कि मास्टर चाचा उसके आगे पढ़ने के पक्ष में नहीं हैं, तो मैंने सुनीता से कहा, ‘‘कहो तो मैं मास्टर चाचा से बात करूं।’’

‘‘आपकी बात मान जाएंगे?’’ उसने अर्थपूर्ण दृष्टि से मेरी ओर देखा।

‘‘बात करके देखता हूं।’’ मैंने कहा।

शाम को ही मैं मास्टर चाचा के पास गया। ‘‘बिल्लो को आप आगे पढ़ने से मना क्यों कर रहें हैं, मास्टर चाचा?’’ मैंने कहा।

वह अखबार पढ़ रहे थे। ‘‘बैठो!’’ उन्होंने कहा और चश्मा उतारकर तख्त पर रख दिया। मैं तख्त पर ही एक किनारे बैठ गया।

‘‘जवान बेटी बाप के ऊपर कितना बड़ा बोझ होती है यह तुम नहीं जानते।’’ उन्होंने कहा, ‘‘मुझे उसकी पढ़ाई से ज्यादा उसके विवाह की चिंता है। जहां भी जाता हूं बीच-पच्चीस हजार से कम की बात कोई नहीं करता।’’

‘‘अभी उसकी उमर ही क्या है!’’ मैंने कहा, ‘‘और फिर जमाना बदल रहा है मास्टर चाचा! ऐसे लोग भी हैं आजकल जो दहेज लेने-देने के खिलाफ हैं।’’

उन्होंने एक चुभती हुई दृष्टि मेरे ऊपर डाली। ‘‘मुझे तो नहीं मिले।’’ उन्होंने कहा।

‘‘बिल्लो जैसी सुशील (मैं सुंदर कहने जा रहा था) लड़की से तो कोई भी लड़का विवाह करने को तैयार हो जाएगा,’’ मैंने कहा। ‘‘आप उसे और पढ़ाइए। उसका मन भी है पढ़ने का। और मास्टर चाचा, आजकल लड़के पढ़ी-लिखी लड़की ही पसंद करते हैं। कम-से-कम ग्रेजुएट तो होनी ही चाहिए।’’

‘‘तुम कहते हो तो सोचूंगा।’’ उन्होंने कहा।

‘‘इसमें सोचना क्या है!’’ मैंने कहा और वहीं बैठ-बैठ आवाज लगाई, ‘‘बिल्लो!’’

सुनीता आस-पास ही कहीं थी। मेरी आवाज सुनकर वह बैठक में आ गई।

‘‘सबजेक्ट क्या लोगी?’’ मैंने पूछा।

उसने मेरी ओर देखा। तब मास्टर चाचा की ओर। मास्टर चाचा खामोश रहे।

‘‘और जो भी हो, इंगलिश जरूर लेना।’’ मैंने कहा।

‘‘मुझसे चलेगी?’’ उसने कहा।

‘‘मैं पढ़ा दिया करूंगा।’’

मास्टर चाचा मान गए। लेकिन यूनिवर्सिटी में नाम लिखाने के लिए वे फिर भी तैयार नहीं हुए। इससे कोई अंतर नहीं पड़ा। कुछ ही दिनों में सुनीता लड़कियों के एक कॉलेज में जाने लगी। इंगलिश भी उसने मेरे कहने से ले ली और कभी-कभार मेरे पास कुछ पूछने भी आ जाती।

जाने क्यों मेरे मन में यह धारणा घर कर गई थी कि सुनीता की मां किसी-न-किसी दिन जरूर मेरी मां से मेरे साथ उसके विवाह की बात करेंगी। इसीलिए जब भी वह मेरे यहां आतीं, मैं इस बात की टोह लेने की कोशिश करता कि मां से उन्होंने क्या बात की। ऐसा होना अवश्यम्भावी है, मैं यह माने बैठा था और इसीलिए मन-ही-मन सुनीता को भावी पत्नी के रूप में देखने लगा था। सुनीता भी मेरे खयाल से अकेले मेरे सामने आने में लजाने-सी लगी थी। फिर भी वह मेरे यहां बराबर आती रही। शायद ही कोई दिन ऐसा होता जब चौबीस घंटों में कम-से-कम एक बार मैं उसे न देखता हूं।

आर्थिक दशा मेरे घर की भी अच्छी नहीं थी। पिता को नौकरी से रिटायर हुए तीन-चार वर्ष हो चुके थे। घर का खर्च बस किसी तरह घिसट रहा था। एम. ए. का रिजल्ट निकलने के पहले से ही मैं बराबर इधर-उधर अर्जियां भेज रहा था। रिजल्ट निकलने के बाद यह सिलसिला और तेज हो गया। दो-एक जगह साक्षात्कार के लिए भी जा चुका था।

प्रतियोगिताओं में भी बराबर बैठ रहा था। एम. ए. करने के बाद कोई तीन-चार महीने मैं खाली बैठा रहा। तभी मध्य प्रदेश में जबलपुर के एक कॉलेज में मुझे प्राध्यापक की जगह मिल गई। मैं वहां जाना नहीं चाहता था। लेकिन पिता जिद करने लगे। उन्होंने कहा, ‘‘खाली बैठने से तो अच्छा ही है। वहां अकेले रहकर कंपटीशन्स की तैयारी भी होती रहेगी। कोई दूसरी नौकरी मिल जाए तो छोड़ देना।’’

मुझे मानना पड़ा। मन में सोचा कि जैसे भी होगा, जल्दी-से-जल्दी वापस आ जाऊंगा।

सुनीता को पता चला तो वह काफी उदास हो गई। कहा केवल इतना, ‘‘मुझे अंग्रेजी दिलाकर अब आप खुद बाहर जा रहे हैं?’’

‘‘फिक्र मत करो,’’ मैंने कहा, ‘‘तुमसे जो बन पड़े करना। बड़े दिनों की छुट्टियों में आकर मैं तुम्हारा सारा कोर्स पूरा करवा दूंगा।’’

वह चुप रही।

‘‘जाना मुझे अच्छा थोड़े लग रहा है बिल्लो’’, मैंने कहा, ‘‘लेकिन क्या करूं। नौकरी की बात है। वैसे जल्दी-से-जल्दी वापस आने की कोशिश करूंगा। कोई गुलामी तो लिख नहीं रहा हूं। दूसरी नौकरी कहीं-न-कहीं मिलेगी ही। लखनऊ में ही कई जगह अप्लाई कर रखा है। और न होगा तो वैसे ही छोड़कर चला आऊंगा।’’

सुनीता के आंसू आ गए। उसने आंखों में आंचल दे लिया।

जिस दिन मुझे जाना था, वह लगभग सारा दिन मेरे ही घर में बनी रही। मेरे सफर में ले जाने के लिए खाना बनाया। मां के साथ मिलकर और सारा सामान भी सहेजा। बराबर याद दिलाती जाती कि कोई सामान छूट न जाए। चलने लगा तो मां के साथ वह भी बाहर तक आई। मास्टर चाचा और मासी को भी बुला लाई। मैंने मां के पैर छुए तो वह उनकी बगल में ही खड़ी थी। खामोश।

नमस्ते आदि की औपचारिकता हमारे बीच कभी नहीं रही। अटैची-होल्डॉल रिक्शे पर रखकर मैं गद्दी पर बैठ गया। रिक्शा गली के बाहर निकलने लगा तो मैंने मुड़कर देखा। वह उसी तरह मां की बगल में खड़ी थी।

जबलपुर मैं चला तो आया, लेकिन मेरा मन यहां बिल्कुल नहीं लगा। रह-रहकर सुनीता की याद आती रहती। जाड़ों की छुट्टियों के लिए कॉलेज बंद होने में लगभग दो महीने थे। यह दो महीने मुझे दो साल से भी अधिक लगे। दो-एक बार मन में आया सुनीता को पत्र लिखूं। लेकिन एक तो आज तक कभी उसे पत्र लिखा नहीं था और दूसरे यह सोचकर कि मास्टर चाचा पता नहीं क्या सोचें, मैंने ऐसा नहीं किया। हां, मां को जब भी पत्र लिखता, उसमें यह लिखना कभी न भूलता कि मास्टर चाचा और मासी को मेरा नमस्ते कहिएगा। सुनीता के लिए बस एक बार इतना जरूर लिखा कि बिल्लो से कहिएगा, और विषय मन लगाकर पढ़े, अंग्रेजी की चिंता छोड़ दे। बड़े दिनों की छुट्टियों में मैं आऊंगा तो सब तैयार करवा दूंगा।

तभी क्रिसमस के पहले ही मुझे एक बैंक में प्रोबेशनरी ऑफिसर की नियुक्ति का पत्र मिल गया। परीक्षा और साक्षात्कार मैं पहले ही दे चुका था। नतीजा अब निकला था। पत्र लखनऊ के पते पर था जिसे पिता ने अपने पत्र के साथ मुझे भिजवाया था। पत्र मिलते ही मेरा मन हुआ कि मैं तुरंत त्यागपत्र देकर यहां से रवाना हो जाऊं। लेकिन उसमें ज्वाइन करने की तारीख क्रिसमस के बाद की थी। फिर पिता ने अपने पत्र में यह भी लिखा था कि मैं इस संबंध में वहां किसी को न बताऊं ताकि क्रिसमस की छुट्टियों का वेतन भी मुझे मिल जाए।

बहुत खुशी हुई मुझे। बैंक में अफसरी मिलने की खुशी तो थी ही, अतिरिक्त खुशी इस बात की थी कि पोस्टिंग भी लखनऊ में ही होनी थी। मैं दिन गिनने लगा।

छुट्टियां हुईं। चलते समय अपना अधिकतर सामान मैंने साथ ले लिया। लौटकर महज त्यागपत्र देने ही तो आना था।

घर पहुंचा तो मां और पिता दोनों ही बहुत प्रसन्न दिखे। बिल्लो को मेरे घर पहुंचने की खबर न मिली हो ऐसा हो नहीं सकता। मैं जानता था वह मां से मेरे बारे में सारी खबर लेती रही होगी। इसीलिए मैंने काफी पहले ही लिख दिया था कि अमुक दिन अमुक गाड़ी से आ रहा हूं। मुझे पूरी उम्मीद, बल्कि उम्मीद शब्द यहां गलत है, पूरा विश्वास था कि जब घर पहुंचूंगा तो बिल्लो घर पर ही मिलेगी। लेकिन मुझे पहुंचे कोई एक घंटा हो रहा था और वह कहीं नजर नहीं आ रही थी। क्या हो सकता है, मन-ही-मन मैंने सोचा। मां से पूछूं क्या? लेकिन मैं टाल गया। शाम को तो मैं पहुंचा ही था। एक-दो घंटे में अंधेरा हो गया। मैं दोस्तों से मिलने बाहर निकला तो देखा मास्टर चाचा का दरवाजा बंद था। कुंडी खटखटाना मैंने उचित नहीं समझा।

रात मुझे ठीक से नींद नहीं आई। कहीं बीमार तो नहीं है वह? ऐसा होता तो मां बतातीं। या फिर छुट्टियों में सब लोग कहीं बाहर तो नहीं चले गए। लेकिन रात मास्टर चाचा के मकान पर ताला तो था नहीं। फिर? देर तक मैं यही सब सोचता रहा। कोई तीन बजे मुझे नींद आई। फिर भी सुबह जल्दी ही उठ गया। मां पहले ही से जाग रही थीं। कपड़े बदल कर मैं बाहर जाने लगा तो मां ने कहा, ‘‘चाय चढ़ा दी है। पीकर जाओ।’’

‘‘बनाकर रखो। अभी लौटकर पीता हूं।’’ मैंने कहा और बाहर आ गया।

मास्टर चाचा की बैठक खुली थी। तख्त पर कम्बल ओढ़े बैठे वे अखबार पढ़ रहे थे।

‘‘नमस्ते मास्टर चाचा।’’ मैंने कहा।

‘‘कहो, कब आए?’’ उन्होंने पूछा।

‘‘कल शाम।’’ मैंने कहा, ‘‘अब तो यहीं नौकरी मिल गई है।’’

‘‘बैंक में ना?’’ उन्होंने कहा।

इसके मायने वह पहले से जानते हैं। ‘‘जी हां।’’ मैंने कहा।

‘‘अच्छा है, घर के घर में रहोगे।’’

मैं बाहर गली में खड़ा था। मास्टर चाचा अंदर कमरे में थे। बाहर खासी ठंड थी। लेकिन मास्टर चाचा ने मुझे अंदर आने के लिए नहीं कहा। जान-बूझकर मैं जोर से बोल रहा था। आवाज जरूर अंदर जा रही होगी। लेकिन न बिल्लो ही बाहर निकली और न ही मासी।

‘‘बिल्लो की पढ़ाई कैसी चल रही है?’’ मैंने पूछा।

‘‘ठीक ही है।’’ उन्होंने कहा।

‘‘अभी तक सो रही है क्या?’’

‘‘कह नहीं सकता।’’

‘‘ठंड काफी पड़ रही है यहां। जबलपुर में इतनी नहीं थी’’, मैं सर्दी में ठिठुरने लगा था।

‘‘हांऽऽ।’’

मास्टर चाचा ने फिर भी मुझे अंदर आने को नहीं कहा। बावजूद इसके कि मास्टर चाचा ऐसे ही बात करते थे, मुझे लगा उनकी बातों में कुछ रूखापन-सा है। मैं चला आया। लेकिन चीजें मेरी समझ में नहीं आ रही थीं। दो-ढाई महीनों में क्या इतना कुछ बदल जाता है?

‘‘मास्टर चाचा के घर से कुछ लड़ाई-वड़ाई तो नहीं हुई?’’ मां चाय लेकर आईं तो मैंने पूछा।

‘‘नहीं तो।’’ मां ने कहा।

यह कैसा षड्यंत्र है! मां भी बस ‘‘नहीं तो’’ कहकर रह गईं। यह भी नहीं पूछा कि आखिर मैं यह क्यों पूछ रहा हूं। क्या वह जानती नहीं?

‘‘बिल्लो कहां है?’’ मैंने पूछा।

‘‘अपने घर में होगी।’’

फिर वही बेहूदापन। अपने घर में होगी, यह तो मैं भी जानता हूं।

‘‘यहां नहीं आती क्या?’’

‘‘आती क्यों नहीं।’’

मुझे गुस्सा आने लगा। ‘‘मैं पूछ रहा हूं कल से आज तक क्यों नहीं आई? उसे मालूम नहीं मैं आ गया हूं?’’

मां ने मेरी ओर देखा। ‘‘उसकी शादी तय हो गई है।’’

जमीन पैर के नीचे से निकलने वाला मुहावरा मैंने कितनी ही बार सुना था। अनुभव पहली बार हुआ। मुझे लगा जैसे मेरे दिल ने धड़कना बंद कर दिया हो। मेरा सारा शरीर कांप गया।

मां मुझे बराबर देखे जा रही थीं। ‘‘कहां?’’ मैंने पूछा।

‘‘बनारस में।’’

‘‘कब है शादी?’’

‘‘अगले सोमवार को।’’

मेरी आंखों के सामने अंधेरा-सा छाने लगा। मैं चुपचाप अपने स्थान पर बैठा रहा। कई मिनट निकल गए।

‘‘और चाय लोगे?’’

‘‘नहीं।’’

मां उठकर चल गईं।

यह क्या हो गया! सुनीता का विवाह किसी और से! और इतनी जल्दी! मुश्किल से चार महीने तो उसे कॉलेज जाते हुए होंगे। ऐसा ही था तो मास्टर चाचा ने उसका नाम क्यों लिखाया? मेरे जाने से पहले तो ऐसी कोई बात थी नहीं।

आज बुधवार था। बृहस्पति, शुक्र, शनि, इतवार, सोम। मैंने उंगलियों पर गिना। प्रलय हो सकती है क्या इन पांच दिनों में?

लगभग सारा दिन मैं बिस्तर पर पड़ा रहा। थोड़ी-थोड़ी देर बाद मां चाय के लिए पूछ जातीं। कोई बारह बजे उन्होंने कहा, ‘‘नहोओगे-धोओगे नहीं? खाना तैयार है।’’

‘‘भूख नहीं है।’’ मैंने कहा।

मां ने जिद नहीं की।

शाम को मैं बाहर निकला तो मास्टर चाचा का दरवाजा बंद था। दिन में दो-एक बार छज्जे पर निकलकर भी देखा था। तब भी बंद था।

‘‘निमंत्रण नहीं आया मास्टर चाचा के घर से?’’ रात मैं देर से घूमकर आया तो मां से पूछा।

‘‘आया है।’’ उन्होंने कहा और निमंत्रण लाकर मेरे हाथ में दे दिया।

बहुत सादा-सा निमंत्रण-पत्र था। ऊपर गणेश जी के चित्र के नीचे ‘‘शुभ विवाह’’ छपा था। पूजन, द्वारचार, विदाई, आदि का समय और तिथियां थीं। सुनीता के होने वाले पति और उसके पिता का नाम दर्ज था-‘‘वाराणसी निवासी स्वर्गीय श्री जगन्नाथ प्रसाद के सुपुत्र चि. विश्वनाथ...।’’

कार्ड लिए मैं देर तक उसे देखता रहा। तब बालकनी पर आ गया। गली में कोहरा छाया था। मास्टर चाचा की बैठक बंद थी। रोशनदान से बिजली का प्रकाश आ रहा था। अंदर औरतें कोई मंगल गीत गा रही थीं।

बिल्लो को तो प्रतिवाद करना चाहिए था, मैंने सोचा। कौन जाने किया भी हो! लेकिन मैं पूछता किससे? एक बार मन में आया जाकर सीधे बिल्लो से ही क्यों न पूछूं कि उसने अपनी स्वीकृति क्यों दी। या फिर मासी से ही बात करूं। कुछ भी हो, बिल्लो को एक बार देखने की मन में बड़ी लालसा थी, लेकिन मास्टर चाचा का जो रुख मैंने सुबह देखा था, उससे उनके यहां जाना मुझे उचित नहीं लग रहा था। फिर और मेहमान भी तो होंगे उनके यहां। उनके सामने...?

ये चार दिन मैंने किस तरह काटे, शब्दों में बता पाना कठिन है। समय मेरे लिए ठहर-सा गया था। नहाना-धोना, शेव करना सब भूल गया था। दिन भर रोगियों की तरह बिस्तर पर पड़ा रहता। ठंड के बावजूद रात देर तक सुनसान स्थानों पर घूमता रहता। न खाना अच्छा लगता, न पीना। सांस जरूर लेता था। इसलिए कहा जाएगा कि जिंदा था। वर्ना मुर्दों से भी बदतर था।

इस बीच बिल्लो को मैंने केवल एक बारे देखा। दोपहर के समय मैं छज्जे पर खड़ा था। तभी उसके घर से ढेर सारी औरतें उसे लेकर किसी देवी-देवता की पूजा के लिए गाती-बजाती निकलीं। वह उनके बीच घिरी हुई थी। जाते समय तो नहीं, हां, लौटते समय मैंने उसे ठीक से देखा। उसने भी मुझे देख लिया था और जब तक सारी औरतें उसे अपने साथ घर के अंदर ढकेल नहीं ले गई वह एकटक मुझे देखती रही। मुझे लगा, अधिक देर उसकी ओर देखूंगा तो रो पड़ूंगा। मैं दूसरी ओर देखने लगा।

जिस दिन बारात आनी थी उस दिन अपराह्न मां मेरे पास आईं। उनके हाथ में सौ रुपये का एक नोट था।

‘‘न हो तो तुम ही साड़ी ले आओ।’’ उन्होंने मुझसे कहा।

‘‘साड़ी?’’

‘‘हां! बिल्लो के लिए। शादी पर देनी होगी न।’’

बिल्लो की शादी पर देने के लिए साड़ी? यानी उपहार? मुझे लाना होगा? ‘‘मैं नहीं जाऊंगा।’’ मैंने कहा।

‘‘मेरे साथ ही चले चलते। नए-नए चलन की साड़ियां मेरी समझ में तो आती नहीं।’’

‘‘साड़ियां खरीदता फिरता हूं मैं जो नए चलन की साड़ियां मेरी समझ में आ जाएंगी। मैं कहीं नहीं जाऊंगा।’’ मैंने कहा।

मां चली गईं।

क्या मुझे भी उसके विवाह पर कोई उपहार देना चाहिए? मैंने सोचा। सहसा मुझे लगा मैं यह सब कर क्या रहा हूं। आखिर सुनीता है कौन मेरी? खामखाह मैं उस पर अपना अधिकार समझे बैठा हूं। अकारण ही तो सोचता था मैं कि उसका विवाह मुझसे ही होगा। उसके मां-बाप हैं। जहां चाहेंगे उसका विवाह करेंगे। और फिर मुझमें कौन-से सुर्खाब के पर लगे हैं! इंटर कॉलेज का एक मामूली अध्यापक। या अधिक-से-अधिक बैंक का एक प्रोबेशनरी अफसर। वह भी मैं था नहीं, होने वाला था। सुनीता! उससे भी तो प्रत्यक्ष मेरा कोई संबंध रहा नहीं। बचपन से मेरे घर आती-जाती रही। बाल-नुचव्वल, चुटकी-मुक्का किया हमने। बड़ी हुई तो कभी चाय लाकर रख गई मेरे कमरे में। या अखबार दे गई। या फिर कभी कुछ पढ़ने-लिखने के सिलसिले में पूछ लिया। मात्र इसी से क्या मेरा उसके ऊपर कोई अधिकार बन जाता है? कितना मूर्ख हूं मैं भी!

यह सब सोचकर कुछ हल्का अनुभव किया मैंने। जब मां लौटकर आईं मैं काफी सहज हो चुका था। नहा-धोकर कपड़े बदल लिए थे। मां ने साड़ी लाकर मुझे दिखाई। मुझे अच्छी लगी।

‘‘बिल्लो पर फबेगी।’’ मैंने कहा।

मां प्रसन्न हो गईं।

कोई पांच बजने वाले थे। मैं बाहर निकला तो देखा मास्टर चाचा के दरवाजे तंबू-कनात लग रहे थे। बिजली वाला बिजली की झालर सेट कर रहा था। बच्चे कुर्सियों पर धमाचौकड़ी मचा रहे थे। दो-तीन घंटे बाद लौटकर आया तो सारी गली जगमग-जगमग कर रही थी। लाउडस्पीकर पर फिल्मी गाने बन रहे थे। मुहल्ले के तमाम लोग बारात की अगवानी के लिए मास्टर चाचा के दरवाजे कुर्सियों पर बैठे थे। मेरे पिता भी उनमें थे। मैं भी एक किनारे बैठ गया। यह मैं अब तक निर्णय नहीं ले सका था कि सुनीता को कोई उपहार मुझे भी देना चाहिए या नहीं? और यदि हां, तो क्या?

कोई दस बजे बारात आई। दूल्हा कार में था। दो-तीन महिलाएं और ढेर सारे बच्चे भी उसमें ठुंसे थे। सुनीता को उसकी सहेलियां द्वार पर लिए खड़ी थीं। खूब सजाया था उन्होंने उसे। बहुत सुंदर लग रही थी वह। वैसे भी थी। लेकिन दुल्हन के श्रृंगार में उसका रूप देखते ही बनता था। उसके हाथों में जयमाला थी जिसे वह बस किसी तरह पकड़े थी। आंखें उसकी बंद थीं।

बारात निकट आई तो लाउडस्पीकर बंद करा दिया गया। औरतें सेहरा गाने लगीं। लोगों ने दूल्हे को कार से उतारा। सूट, टाई पहने वह सिर पर पगड़ी बांधे था। चेहरे पर बेले की कलियों का सेहरा था। लोग उसे बढ़ा कर मास्टर चाचा के द्वार तक ले आए। तभी फोटोग्राफर भीड़ से निकलकर अपना कैमरा सेट करने लगा। किसी ने उसका सेहरा हटाया तो पहली बार दूल्हे का चेहरा ठीक से नजर आया। सांवला, रंग, साधारण चेहरा, पतली-पतली मूंछें। आयु लेकिन चालीस से कम नहीं लगी मुझे।

सहसा मेरा मन अंदर से बहुत ही उत्तेजित हो उठा। अधिक देर मैं वहां रूक नहीं सका। घर आया और साइकिल लेकर बाहर निकल गया। लगभग रात भर ठिठुरती हुई ठंड में मैं गोमती के किनारे बैठा रहा। अंदर-ही-अंदर रोता रहा और सोचता रहा कि यदि मैं नदी में फांद पड़ूं तो क्या सुनीता मेरे लिए रोएगी? शायद हां, शायद नहीं।

सुबह कोई छः बजे गली में घुसा तो विदाई की रस्में पूरी हो रही थीं। कुछ महिलाएं सुनीता को लिए हुए गली के मुहाने पर खड़ी कार की ओर बढ़ रहीं थीं। पीछे-पीछे महरी या शायद नाइन लोटे में पानी लेकर चल रही थी। सुनीता लंबा घूंघट डाले थी। मुझे लगा उसने मेरी साइकिल से ही मुझे पहचान लिया और घूंघट थोड़ा ऊपर उठाकर मेरी ओर देखा। दूसरे ही क्षण किसी ने उसका घूंघट नीचे खींच दिया।

मास्टर चाचा को विवाह वाले दिन ही बुखार हो आया था। उन्होंने किसी से कहा नहीं। सारे काम बदस्तूर अंजाम देते रहे। लेकिन सुनीता के चले जाने के बाद उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया। मेहमान सब दो-चार दिन में ही चले गए। दवा के बावजूद मास्टर चाचा की हालत बिगड़ती चली गई। डबल निमोनिया था उन्हें। सुनीता को तार दिया गया। लेकिन वह उनकी मृत्यु के बाद ही आ सकी। बल्कि दाह-संस्कार भी हो चुका था। उसके पति भी साथ थे। दो-एक दिन बाद ही वे उसे लेकर वापस चले गए। सुनीता की दोनों बड़ी बहनें भी दो-एक सप्ताह रहकर चली गईं। वे मासी को अपने साथ ले जाने को तैयार थीं, परंतु मासी ने अपने पति की देहली छोड़ने से इंकार कर दिया।

नतीजा यह हुआ कि मासी बिल्कुल अकेले रह गईं। कुछ दिन तो वह ठीक-ठाक रहीं। सुबह उठकर सारा घर झाड़ती-बुहारतीं। पूजा करतीं। मास्टर चाचा का फोटो भी उन्होंने भगवान के चित्रों की बगल में लगा दिया था। उस पर फूल आदि चढ़ाती। भोजन पकाने से लेकर कपड़े धोने तक का सारा काम स्वयं करतीं। हां, बाहर वे कम ही निकलतीं। मैं अक्सर ही उनके यहां जाता रहता, घर का राशन-सब्जी आदि मैं ही लाकर देता। मुझसे वे मास्टर चाचा के बारे में या फिर वैसे ही अपने अतीत के बारे में देर तक बातें करती रहतीं। जोर देकर चाय आदि भी पिलातीं। लेकिन वह उनका बाह्य रूप ही था। अंदर से वे बराबर टूटती जा रही थीं। तभी दो-तीन महीनों बाद उन्होंने भी बिस्तर पकड़ लिया। मासी की बीमारी लंबी चली। कोई छः महीने वे खाट से लगी रहीं। सुनीता की दोनों बहनें बारी-बारी से आकर सेवा करके चल गईं। सुनीता भी आई। लेकिन उसके पति ने उसे आठ-दस दिन से अधिक यहां रहने नहीं दिया। इस बीच कभी ऐसा अवसर नहीं आया कि मैं उससे अकेले कुछ देर के लिए मिल सकूं। एक तो उसका पति साथ था। दूसरे वह बहुत ही शक्की और ईर्ष्यालु स्वभाव का था। मेरे बारे में उसने खासी पूछताछ की कि मैं कौन हूं और क्यों यहां आता-जाता हूं। हां, इस बीच सुनीता एक बार मेरे घर जरूर आई और देर तक मां के पास बैठी रही। उसे देखकर मुझे मन में काफी क्लेश हुआ। शादी के बाद लड़कियां अपने घर लौटने पर जिस तरह खिली-खिली रहती हैं ऐसी कोई बात मुझे उसमें नहीं दिखी। साधारण वस्त्र और जेवरों के नाम पर गले में एक माला। या फिर कान में बुंदे। बस। जो वह पहले से ही पहनती थी। मां उससे देर तक उसकी ससुराल के बारे में पूछताछ करती रहीं। मेरी बस थोड़ी ही बात हुई। उसकी पढ़ाई के सिलसिले में। मैंने कहा, रेगुलर संभव न हो तो प्राइवेट बी. ए. वह अब भी कर सकती है।

‘‘क्या करूंगी करके?’’ उसने संक्षिप्त-सा उत्तर दिया।

मैं चुप हो गया।

इस बीच मुझे यह पता चल गया था कि सुनीता के पति का यह दूसरा विवाह है। उसकी पहली पत्नी विवाह के छः सात वर्षों बाद ही मर गई थी। एक लड़की थी जो अपने नाना-नानी के पास रहती थी। क्यों ऐसा घर मास्टर चाचा और मासी ने सुनीता के लिए चुना मैं समझ नहीं पा रहा था। सीधे-सीधे तो पूछ नहीं सकता था लेकिन घुमा-फिराकर कई बार मैंने यह बात मासी से जाननी चाही। तभी एक दिन सुनीता के चले जाने के बाद बिस्तर पर लेटे-लेटे ही उन्होंने कहा, ‘‘मेरी तो बड़ी इच्छा थी कि सुनीता तुम्हारे घर जाती। लेकिन...।’’ उन्होंने बात पूरी नहीं की।

मुझे एक क्षण लगा कहीं मैंने गलत तो नहीं सुना है। तभी उन्होंने ‘‘भगवान की मर्जी!’’ कहकर बात समाप्त कर दी।

मुझे लगा मैं रो पड़ूंगा। बलपूर्वक मैं अपने को संयत बनाए रहा।

‘‘भाभी से मैंने बात भी की थी।’’ उन्होंने आगे कहा। मेरी मां को वह ‘भाभी’ ही कहती थीं।

‘‘कब?’’ मुझसे रहा नहीं गया।

‘‘तुम्हारी बैंक वाली नौकरी का कागज आया है, उसी के दूसरे-तीसरे दिन। तुम्हारे मास्टर चाचा तो, तुम जानते हो, बिल्लो को आगे पढ़ाने के लिए तैयार नहीं थे। तुम्हारे कहने से ही मान गए थे। मैं तो पहले ही जानती थी हमारी सामर्थ्य के बाहर की बात है। मगर उन्होंने ही कहा एक बार भाभी से बात करके देखो।’’

‘‘क्या कहा अम्मा ने?’’

‘‘जाने दो। अब क्या धरा है इन बातों में! जो होना था वह हो गया। लेकिन जब से तुम्हारे घर से बात टूटी है, तुम्हारे मास्टर चाचा को जाने क्या झक सवार हो गई। एक दिन के लिए भी बिल्लो बोझ हो गई उनके लिए। कहने लगे, हटाओ इसको घर से।’’

मेरे अंदर भीषण तूफान उठ रहा था। ‘‘कहा क्या अम्मा ने यह तो बताइए।’’

‘‘उन्होंने ठीक ही कहा बेटा। मेरी ही मति मारी गई थी जो अपनी हैसियत से बढ़कर बात करने गई थी। हमें पहले ही जान लेना चाहिए था हमारी औकात क्या है।’’

‘‘आखिर बिल्लो में नुक्स क्या निकाला उन्होंने?’’ बात की तह तक गए बिना मुझे चैन नहीं था।

‘‘बिल्लो में नुक्स की बात नहीं बेटा। वह तो उन्हें भी बहुत पंसद थी। लेकिन तुम्हारे बाबूजी की मांग पूरी करने की हमारी सामर्थ्य नहीं थी।’’

‘‘क्या मांगा था उन्होंने?’’

‘‘वही जो सब मांगते हैं।’’

‘‘लेकिन क्या?’’

‘‘टी. वी., स्कूटर और क्या कहते हैं उसे, पानी ठंडा करने वाली मशीन।’’

टी. वी., स्कूटर और फ्रिज। किसके लिए? जीवन-भर नलके का या सुराही का पानी पिया था बाबूजी ने, सवारी के नाम पर पहली साइकिल मैंने एक दोस्त से उधार ली थी। वह भी पुरानी। और माइनस नौ का चश्मा लगाकर टी. वी. देखेंगे? मुझे लगा मेरा सारा बदन जल रहा है।

‘‘आपने मुझे क्यों नहीं लिखा?’’ मैंने कहा।

‘‘मैंने तुम्हारे मास्टर चाचा को कहा था कि राजू के आने तक इंतजार कर लो। लेकिन उनके सिर पर न जाने कैसा भूत सवार हो गया था कि धोती-कुर्ता पहन कर घर से निकले तो रिश्ता तय करके ही लौटै।’’ मासी कह रही थीं और मेरे शरीर के अंदर का ताप बढ़ता जा रहा था।

‘‘तुम्हें बहुत चाहती थी बिल्लो। तुम जब से गए हो बराबर रोती रहती थी।’’ उन्होंने कहा।

मैं डरा कि कहीं मासी के सामने ही मैं रोने न लगूं। अतः मैं उठकर खड़ा हो गया।

‘‘घर में कुछ न कहना बेटा! मेरी इज्जत रखना।’’ मासी ने कहा।

ठीक ही कह रही थीं मासी। मैं घर गया भी नहीं। घर मेरे लिए अब नरक से भी बदतर था। लेकिन कब तक न जाता। बहरहाल, मैंने निश्चय कर लिया कि घर में किसी से भी इस संबंध में बात नहीं करूंगा। न मां से। न ही पिता से।

मासी कुछ ही दिन और जिंदा रहीं। इस बार तीनों लड़कियां उनकी मृत्यु से पहले ही पहुंच गई थीं। मरने से पहले कोई चार-पांच दिनों तक वे बेहोश रहीं। एक अजीब तनाव-भरा वातावरण घर में फैल गया था। जैसे साक्षात मृत्यु आकर घर में बैठ गई हो और सब लोग सांस रोके उसके जाने की प्रतीक्षा कर रहे हों।

मास्टर चाचा का मकान किराए का था। मासी की मृत्यु के बाद उसे रखने का औचित्य नहीं था। तीनों लड़कियां बाहर थीं। और कोई था नहीं जो घर में रहता। मकान मालिक भी मकान खाली कराना चाहता था। वैसे भी उसे छोड़ना ही था। समस्या सिर्फ सामान की थी। आखिर तीनों दामादों ने उसका बंटवारा कर लिया और जो जिसके हिस्से में आया अपने साथ लेकर चला गया। कुछ सामान, जो आसानी से नहीं जा सकता था, बेच दिया गया। या फिर महरी, महराजिनों को दे दिया गया। मासी की मृत्यु के आठ-दस दिनों के अंदर ही मकान पर उसके मालिक का ताला पड़ गया।

जब से मासी ने मेरे साथ सुनीता के विवाह के संबंध में मां से हुई अपनी बात के बारे में बताया था, मां और पिता दोनों से ही मुझे घृणा हो गई थी। मैं घर में रहता जरूर था, खाना भी खाता था, लेकिन बात दोनों में से किसी से नहीं करता था। पिता से तो कदापि नहीं, क्योंकि मैं अच्छी तरह जानता था कि इस घर में उन्हीं की चलती है और जो भी हुआ है उसके लिए वही जिम्मेदार हैं। मां का कभी साहस नहीं हुआ जो उनकी बात काट सकें।

मेरी इस खामोशी के बावजूद या शायद इसी कारण मां को सारी बात समझने में ज्यादा देर नहीं लगी। मासी की मृत्यु के पंद्रह-बीस दिन बाद ही एक दिन वह रोने लगीं। ‘‘मेरी कोई गलती नहीं बेटा!’’ उन्होंने कहा, ‘‘मैं तो खुद ही चाहती थी कि बिल्लो इस घर की बहू बने लेकिन तुम्हारे बाबूजी माने नहीं। और उनका भी क्या कसूर! पेट काटकर तुमको पढ़ाया-लिखाया। उनका भी हौसला है कि तुम्हारी शादी खानदान में सबसे बढ़-चढ़कर हो। और फिर ऐसा भी नहीं कि हमारी कुछ मांगने की हैसियत न हो। अपना निजी घर है। कहने को गांव में जमीन भी है। दो बीघा ही है तो क्या हुआ, कुछ राशन-पानी आता ही है। फिर टिंकी के विवाह पर हमने सब कुछ दिया नहीं क्या? जमाने का चलन ही है यह। हमारे-तुम्हारे बदले तो बदलेगा नहीं।’’

मैं चुपचाप सुनता रहा।

‘‘और फिर मास्टर ने भी तो दोबारा बात नहीं चलाई। कुछ दिन रूक जाते तो कौन जाने बात बन ही जाती।’’

मैं फिर भी कुछ नहीं बोला।

‘‘तुम्हारे बाबूजी से भी मैंने कहा कि न हो तो राजू से लिख कर पूछ लो। लेकिन उनका मिजाज तो तुम जानते हो। कहने लगे कि लड़के का बाप मैं हूं कि वह।’’

‘‘कह चुकीं सब?’’ मां चुप हुईं तो मैंने कहा।

वह मेरा मुंह देखने लगीं। ‘‘आइन्दा इस बारे में मुझसे बात न करना।’’ मैंने कहा और उठ कर बाहर चला गया।

पिता इस संबंध में पूर्णतया आश्वस्त थे। मेरी भावनाओं से अनभिज्ञ तो नहीं ही रहे होंगे। मगर मेरा खयाल है सोचते होंगे दो, चार, दस, दिनों में सब ठीक हो जाएगा। इसीलिए निश्चिंत थे। मेरे विवाह के संबंध में उन्होंने बड़े ऊंचे सपने संजो रखे थे। टी. वी., स्कूटर, फ्रिज आदि तो मामूली बात थी। उनका खयाल था कि पच्चीस-तीस हजार रुपये नकद भी वे खींच लेंगे। आखिर मैं बैंक में प्रोबेशनरी अफसर था। खासी तनखाह पाता था। और फिर हमारा अपना मकान था। उस पर मैं अकेला बेटा। पूरी जमीन-जायदाद का वारिस। बैंक मे मेरी नौकरी लगने के बाद से मेरे विवाह के प्रस्ताव भी तेजी से आने लगे थे। एक सधे हुए व्यापारी की भांति पिता ग्राहकों को बड़ी होशियारी से डील कर रहे थे। बाहर की बैठक पुतवा कर उन्होंने उसे अपने ढंग से सजा लिया था। पुराने सोफे पर नए कवर लग गए थे। तख्त पर हमेशा साफ धुली हुई चादर बिछी रहती। अच्छे किस्म की कुछ क्रॉकरी भी वह ले आए थे। साथ में एक ट्रे भी जिसमें विवाह के संबंध में आए हुए लोगों को चाय आदि पेश की जाती। कुछ-न-कुछ नमकीन और दालमोठ वगैरह भी घर में हमेशा बनी रहने लगी थी। विशेषकर छुट्टियों वाले दिन पिता सुबह से ही नहा-धोकर धुले हुए कपड़े पहनकर बाहर बैठक में जम जाते। एक मंजे हुए खिलाड़ी की तरह वह एक ही समय में तीन-तीन, चार-चार ग्राहकों से निपट रहे थे। बातों-ही-बातों में वह यह अनुमान लगाने की कोशिश करते कि कौन किस सीमा तक बढ़ने को तैयार है। इसीलिए वह किसी को आसानी से ‘हां’ या ‘ना’ नहीं कह रहे थे।। मुझसे इस संबंध में उन्होंने कभी कोई बात करने की आवश्यकता नहीं समझी। जैसा कि मां ने कहा था, वे अपने आप को ‘लड़के’ का बाप समझ रहे थे और इसीलिए मेरे विवाह के संबंध में वह जो भी स्याह-सफेद करें, उसे अपना पूरा अधिकार समझते थे। मैंने भी उनके इस क्रिया-कलाप में कभी कोई हस्तक्षेप नहीं किया। लेकिन मन-ही-मन मैंने निश्चय कर लिया था कि विवाह नहीं करूंगा।

आखिर एक दिन पिता ने मुझे बुलाया। बोले, ‘‘तुम्हारी शादी के कई प्रोपोजल आए हैं। लड़कियों के फोटो तुम्हारी मां के पास हैं। देखकर बताना कौन तुम्हें पसंद है।’’

‘‘मुझे शादी नहीं करनी’’, मैंने कहा, ‘‘और आइन्दा इस विषय पर मुझसे कोई बात भी न कीजिएगा।’’

वे सन्नाटे में आ गए। दो-एक दिन खाना-वाना भी नहीं खाया। डांट-डपट से भी काम लेना चाहा। लेकिन मेरे ऊपर कोई असर नहीं हुआ। मैंने इस विषय पर उनसे बात करने से कतई इंकार कर दिया।

दो-एक महीने में ही उनका अहम् टूट गया और एक दिन मेरे सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए। ‘‘तुमसे माफी मांगता हूं।’’ उन्होंने कहा, ‘‘तुम्हारा बाप होकर भी तुम्हारे सामने हाथ जोड़ रहा हूं। जो गलती हुई हो उसे माफ करो।’’

मैं खामोश रहा।

‘‘देखो, ज्यादा दिन की जिंदगी मेरी नहीं हैं,’’ उन्होंने आगे कहा, ‘‘बासठ पूरे हो चुके हैं। दो-तीन वर्ष शायद और चलूं। तुम्हारी मां की भी तंदुरुस्ती ठीक नहीं रहती। कब तक वह गृहस्थी संभालेंगी।’’ वह एक क्षण रूके तब बोले, ‘‘न मेरे कहने से शादी करो तो जहां तुम्हारी इच्छा हो वहां कर लो। दहेज से तुम्हें चिढ़े है तो नहीं लूंगा दहेज। एक पैसा भी लूं तो सौ जूते मार लेना।’’

तुम मरो या जियो मुझसे कोई मतलब नहीं है। वैसे भी तुम्हें जीने का कोई अधिकार नहीं है। कब्र में पैर लटके हैं तुम्हारे और तुम नवयुवकों की जिंदगी का सौदा करना चाहते हो। तुम सड़ चुके हो। समाज का कोढ़ हो तुम। मैं तुमको कभी माफ नहीं कर सकता। मैंने मन-ही-मन कहा। प्रत्यक्ष केवल इतना ही बोला, ‘‘मैंने आपसे एक बार कह दिया, आप चाहेंगे तो सौ बारे कह दूंगा, हजार बार कह दूंगा-मुझे शादी नहीं करनी।’’

पिता ने फिर भी हथियार नहीं डाले। रिश्तेदारों से मेरे ऊपर दवाब डलवाया। बहन-बहनोई को विशेषकर इसीलिए बुलवाया गया कि वे आकर मुझे इस बारे में समझाएं। जाप और पूजा-पाठ भी करवाया कुछ। लेकिन मेरे ऊपर असर नहीं पड़ा। मैं अपने निर्णय पर दृढ़ था।

आखिर पिता बिल्कुल टूट गए। उनका स्वास्थ्य बराबर गिर रहा था। हो सकता है वह एक-दो वर्ष और चलते। लेकिन मेरे इस निर्णय ने उनकी मृत्यु के दिन को कुछ और नजदीक कर दिया। अचानक ही एक दिन सुबह उनको दिल का दौरा पड़ा। जब तक डॉक्टर बुलाया जाए उनका अंत हो गया।

कोई विशेष रंज मुझे इस बात का नहीं हुआ। हां, मां को जरूर गहरा सदमा पहुंचा। लेकिन इतनी तारीफ मैं उनकी करूंगा कि अपने मुंह से उन्होंने मुझसे शादी करने के लिए फिर भी नहीं कहा। हां, दूसरों से जरूर अपनी तकदीर का रोना रोती रहतीं। मेरे दोस्तों के सामने भी दो-एक बार अपना दुखड़ा रोया। लेकिन मेरी उपस्थिति में कभी जबान नहीं खोली। वे मुझे अच्छी तरह समझती हैं, बल्कि वही सबसे अधिक समझती हैं कि इस मामले में मेरा इरादा कभी बदल नहीं सकता।

जैसा कि मैंने कहा कोर्ट में मेरा काम लंच से पहले ही निपट गया था। इस समय मैं कोर्ट कम्पाउंड के बाहर सड़क पर एक होटल में बैठा चाय पीते हुए यह सब सोच रहा था। यह निर्णय मैं अभी तक नहीं ले पाया था कि सुनीता के यहां जाऊं या नहीं। उसका पता मुझे अच्छी तरह याद था। मां के पास कभी-कभी उसके पत्र आ जाते थे। उन्हीं के माध्यम से मुझे उसका पता ज्ञात था। वैसे उसके पत्रों में कुछ खास नहीं होता था। विशेषकर मेरे बारे में शायद ही कभी कुछ होता हो। हां, एक बार यह जरूर पूछा था उसने कि मेरा विवाह कहीं तय हुआ या नहीं। साथ ही मां से अनुरोध भी किया था कि इस अवसर पर उसे जरूर बुलाएं। हां, इधरं काफी दिनों से उसका पत्र नहीं आया था। एक वर्ष से ऊपर मुझे उसे देखे बीत चुका था। अकेले उससे बात हुए तो और भी काफी समय हो चुका था। शायद जबलपुर जाने के बाद से ऐसा अवसर नहीं आया था। मास्टर चाचा की मृत्यु और फिर मासी के देहांत पर वह आई जरूर थी। कुछ क्षणों के लिए अकेले आमना-सामना भी हुआ था। लेकिन कोई बात हो सके इतना समय हमें नहीं मिला था। इस समय घर पर वह अवश्य ही अकेली होगी। कैसी होगी भला वह?

तभी चाय का बिल देते हुए सामने खड़े रिक्शेवाले से मैंने पूछा, ‘‘गोदौलिया चलोगे?’’

‘‘आइए बाबू साहब।’’ उसने कहा।

मैं रिक्शे पर बैठ गया। काफी देर तक विभिन्न सड़कें काटते घुमाते कुछ ऊबकर उसने पूछा, ‘‘कहां जाओगे बाबूसाब?’’

‘‘गौदोलिया आ गया?’’ मैंने पूछा।

‘‘कब का आ गया।’’

मैंने रिक्शा रुकवाकर एक व्यक्ति से गली का पता पूछा। रिक्शा कुछ आगे निकल आया था। मैंने उसे वापस मुड़वाया। गली के मुहाने पर ही मैंने उसे छोड़ दिया।

गली काफी संकरी थी। और सूनी भी। थोड़ी दूर चलकर एक मकान के चबूतरे पर दो व्यक्ति बैठे थे। उनमें से एक रोगी-सा लग रहा था। दूसरा व्यक्ति काफी वृद्ध था। वह रोगी जैसे लगने वाले व्यक्ति की कनपटी अपने दोनों हाथों में पकड़े होठों-ही-होठों में कुछ बुदबुदा कर उसके माथे पर फूंक मार रहा था। मैं रूक कर उसे ऐसा करते देखता रहा।

‘‘विश्वनाथ जी का मकान कौन सा है?’’ झाड़ फूंक समाप्त कर चुका तो मैंने उससे पूछा।

‘‘आप कहां से आए हैं?’’ उसने प्रश्न किया।

‘‘लखनऊ से।’’

‘‘कौन हैं आप उनके?’’

‘‘आप मुझे मकान बता दीजिए।’’ मैंने कहा।

‘‘विश्वनाथ बाबू घर में नहीं हैं।’’

‘‘और कोई तो होगा।’’ मैंने कहा, ‘‘आप मुझे मकान बता दें, बस।’’

‘‘उनकी औरत है।’’ उसने कहा।

सुनीता के लिए ‘‘औरत’’ शब्द का प्रयोग मुझे अच्छा नहीं लगा। ‘‘आप मकान बताइए न।’’ मुझे खीज-सी होने लगी।

‘‘क्या कह दूं जाकर?’’

यही मकान है क्या? ‘‘कह दीजिए लखनऊ से राजू आया है।’’ मैंने कहा।

घुटनों को दोनों हाथों से दबा कर वह मुश्किल से खड़ा हुआ और मकान के अंदर चला गया। दूसरे ही क्षण सुनीता द्वार पर आ गई।

‘‘अंदर आइए न।’’ उसने कहा।

मैं अंदर चला गया।

दालान में स्टील की दो-तीन कुर्सियां, एक मेज और चारपाई पड़ी थी। उसी से मिला हुआ एक कमरा था। बगल में आंगन और उसके पार रसोई।

सुनीता ने मुझे वहीं दालान में बिठा दिया। ‘‘कब आए?’’ उसने पूछा।

‘‘आज सुबह। ऑफिस का एक केस था। कचहरी में कागज दाखिल करने थे।’’ मैंने कहा, ‘‘तुम बैठोगी नहीं?’’

‘‘पहले आपके लिए चाय बना लाऊं।’’ उसने कहा।

‘‘अभी तुम्हारे यहां आते समय ही कोर्ट में चाय पी थी। आधा घंटा भी नहीं हुआ।’’

उसने मेरी बात सुनी नहीं। रसोई में जाकर स्टोव जलाने लगी। स्टोव जल गया तो चाय का पानी चढ़ाकर वह वापस दालान में आ गई और चुपचाप एक कुर्सी पर बैठ गई। तभी बाहर वाला बूढ़ा पुनः अंदर आ गया। ‘‘कुछ मंगाना तो नहीं बहू?’’ उसने सुनीता से पूछा।

सुनीता अपने आंचल मे बंधे रुपये खोलने लगी।

‘‘मैं कुछ खाऊंगा नहीं।’’ मैंने कहा।

सुनीता ने आग्रह नहीं किया। बूढ़ा वापस चला गया।

‘‘अम्मा तो अच्छी हैं?’’ कुछ देर की खामोशी के बाद उसने पूछा।

‘‘हां।’’ मैंने कहा।

फिर खामोशी। इस बार पहले से कहीं ज्यादा लंबी। सिर्फ रसोई में स्टोव के जलने की आवाज। मैंने देखा घर में दिन के इस समय भी अंधेरा था। दालान की दीवार पर दो-एक कैलेंडर टंगे थे। सुनीता के पति का उसकी पहली पत्नी के साथ विवाह के अवसर पर लिया गया एक चित्र भी शीशे के फ्रेम में मढ़ा हुआ लगा था। दीवारें धुंए से जगह-जगह काली हो रही थीं। पूरे वातावरण में कब्र के अंदर जैसा सन्नाटा और अंधेरा था।

‘‘यह आदमी जो अभी आया था कौन है?’’ मैंने पूछा।

‘‘बाहर के कमरे में किराए पर रहता है।’’ सुनीता ने उत्तर दिया।

फिर खामोशी।

‘‘एक बात पूछूं?’’ इस बार सुनीता ने खामोशी भंग की।

‘‘क्या?’’

‘‘आप शादी क्यों नहीं करते?’’

मैं चुप रहा।

‘‘अम्मा को कितना कष्ट होता होगा, आप यह क्यों नहीं सोचते?’’ उसने आगे कहा।

मैंने उसे घूर कर देखा। ‘‘यह तुम कह रहीं हो बिल्लो!’’

‘‘क्यों?’’ उसने कहा। तब खुद ही बोली, ‘‘एक बार मन में आया था कि आपको पत्र लिखूं। फिर सोचा कभी आप मिलेंगे तो खुद ही कहूंगी आपसे।’’

चाय का पानी शायद काफी देर से खौल रहा था। वह उठ कर चाय बनाने चली गई। प्यालियां लाकर उसने मेज पर रख दीं और पूर्ववत कुर्सी पर बैठ गई।

फिर खामोशी।

‘‘मेरा तो जो होना था हो गया।’’ इस बार भी सुनीता ही बोली, ‘‘आप क्यों अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं? मेरे भाग्य में शायद यही था।’’

मैंने उसकी ओर देखा। ‘‘भाग्य में विश्वास करती हो तुम?’’ मैंने कहा।

उसने कोई उत्तर नहीं दिया।

‘‘मैं नहीं करता।’’ मैंने कहा।

वह चुपचाप चाय पीती रही। मैं भी।

‘‘मैं तो लड़की थी। लेकिन आप तो कुछ कर सकते थे।’’ कुछ क्षणों बाद सुनीता ने कहा। वह चाय की प्याली में देख रही थी।

‘‘देर नहीं हो चुकी थी बिल्लो?’’ मैंने कहा, ‘‘पांच दिन पहले ही तो मुझे पता चला था।’’

‘‘यह आप कह रहे हैं?’’ उसने मेरी ओर देखा, ‘‘और कहते हैं भाग्य में विश्वास नहीं करते।’’ वह एक क्षण रुकी तब बोली, ‘‘पांच दिनों में तो दुनिया इधर-से-उधर हो सकती थी।’’

मैंने उसकी ओर देखा। सुनीता इतनी दृढ़ भी हो सकती है यह मैंने कभी नहीं सोचा था।

‘‘तुम्हारी ओर से भी तो...’’ मैंने कहा।

‘‘सब कुछ शब्दों में ही कहा जाता है क्या? आप जानते नहीं थे?’’

मैंने उसकी ओर देखा। उसकी आंखे डबडबा रही थीं। गहरी शिकायत का भाव था उनमें। मैं एक क्षण उसे ऐसे ही देखता रहा। उसने निगाह दूसरी ओर मोड़ ली। सहसा मोती जैसे दो आंसू उसके गालों पर लुढ़क आए। उसने आंचल से उन्हें पोंछा और चाय की खाली प्यालियां उठाकर उन्हें रखने चली गई।

पहली बार मुझे एहसास हुआ कि स्थितियों के आकलन में मैंने कितनी गंभीर भूल की थी। इस सारी त्रासदी में मैं अपने आपको एक अपकृत नायक माने बैठा था जिसके साथ सभी ने अन्याय किया था। लेकिन इस दुखांत का खलनायक भी तो मैं ही था। मैंने ही तो मास्टर चाचा के दिमाग में इस बात का बीज डाला था कि सुनीता जैसी लड़की से कोई भी लड़का खुशी-खुशी विवाह करने को तैयार हो जाएगा। यह भी कहा था कि जमाना बदल रहा है। ऐसे लोग भी आज दुनिया में हैं जो दहेज लेने-देने के खिलाफ हैं। क्या अप्रत्यक्ष रूप से मेरा यह मतलब नहीं था कि मैं स्वयं बिना कोई दहेज लिए बिल्लो से विवाह करने को तैयार हूं? सुनीता भी उस समय कमरे में नहीं तो आड़ में कहीं थी ही। उसने भी निश्चय ही सब सुना होगा। और फिर साफ-साफ शब्दों में न सही, परोक्ष रूप से तो मैंने उसे यह विश्वास दिलाया ही था कि मैं उसे बहुत चाहता हूं। मैं स्वंय तो उसे अपनी भावी पत्नी के रूप में देखने ही लगा था। लेकिन जब मेरे कुछ करने और कहने का समय आया तो मैं बिल्कुल अकर्मण्य हो गया। पिता, मास्टर चाचा और मासी तो अपने मूल्यों को जिए थे। मां का प्रश्न ही नहीं उठता। उनके लिए तो पिता की आज्ञा शिरोधार्य करना ही उनका परम कर्त्तव्य था। उनकी मर्जी के खिलाफ वे जबान भी खोल सकें, इतना साहस उनमें कभी नहीं रहा। सभी ने अपनी मान्यताओं के अनुसार ही कार्य किया था। उनसे आज की बदली हुई अथवा युवा मानसिकता की आशा करना उनके प्रति अन्याय नहीं तो कम-से-कम उनसे कुछ अधिक अपेक्षा की बात तो थी ही। सुनीता तो लड़की थी। विशुद्ध मध्यवर्गीय परिवार की लड़की। कुसूर यदि किसी का था तो मेरा ही। क्या किया था मैंने अपने मूल्यों की रक्षा के लिए? कुछ भी तो नहीं। मन-ही-मन सबको दोषी करार देकर एकतरफा फैसला सुना दिया था। बल्कि अपने ढंग से उन्हें सजा भी दी थी। मां को तो अब भी दे रहा था। इसके विपरीत यदि मैं स्थितियों से समझौता न करके, अथवा प्रतिकूल स्थितियों के समक्ष समर्पण न करके, उनके खिलाफ संघर्ष करता, विद्रोह करता, तो क्या कुछ नहीं हो सकता था? जैसा कि सुनीता ने कहा, पांच दिनों में तो दुनिया इधर-से-उधर हो सकती थी।

सुनीता लौट आई थी। शायद उसने मुंह धोया था। जल के कुछ कण अब भी उसके बालों में उलझे हुए थे।

अब कुछ नहीं हो सकता क्या? मैंने सोचा और उसकी ओर देखा। वह काफी कुछ सहज हो गई थी। पहले जैसी सौम्यता आंखों में लौट आई थी। पहले से कहीं अधिक सुंदर भी लगी वह मुझे।

‘‘अब कुछ नहीं हो सकता बिल्लो?’’ मैंने कहा।

‘‘नहीं। बहुत देर हो गई अब।’’ उसने कहा।

‘‘आइंदा ऐसी बात दिमाग में भी न लाइएगा।’’

मेरे अंदर अचानक कहीं कुछ टूट-सा गया। सारी जीवनी-शक्ति ही जैसे एक क्षण में कहीं तिरोहित हो गई हो। शरीर एकदम निष्प्राण-सा लगा मुझे।

पल भर मैं वैसे ही बैठा रहा तब उठकर खड़ा हो गया। ‘‘चलूंगा,’’ मैंने कहा।

सुनीता भी मेरे साथ ही उठकर खड़ी हो गई। मुझे द्वार तक छोड़ने आई। वह बूढ़ा अभी भी चबूतरे पर बैठा था। मुझे बाहर आया देख वह भी उठकर खड़ा हो गया। ‘‘नमस्ते बाबूसाब!’’ उसने कहा।

मैं चुपचाप गली पार करने लगा। परास्त और निढाल।