खलनायक / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
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नटवर ने लड़खड़ाते हुए किसी तरह मंच का रास्ता तय किया। लड़खड़ाकर पथिकजी के पैरों में गिर पड़ा–"आप मेरे पिता समान हैं। आपके आशीर्वाद के बिना में अध्यक्ष नहीं बन सकता। थोड़ी देर पहले ऊल–जलूल बातें कहकर मैंने अपने कुछ विरोधियों को नाराज़ कर दिया है। वे गोष्ठी का बहिष्कार करके वापस जा चुके हैं। अब सिर्फ़ दो-तीन लोग मेरा विरोध कर सकते हैं, पर मौज़ूद लोगों में ऐसा कोई नहीं है जो आपकी बात टाल दे।"
"रात–भर तुम मुझे गालियाँ देते रहे हो, अब चिरौरी कर रहे हो।" पथिक जी ने कड़े स्वर में कहा।
"मेरे जैसे लोगों की गालियों पर आपको ज़्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए. कौओं के कोसने से ढोर नहीं मरा करते।" नटवर लड़खड़ाती आवाज़ में बोला।
"तुमको विमल ने इस कार्यक्रम के लिए जो दो सौ रुपये दिए थे, वे कहाँ गए?" पथिक जी ने नटवर को फटकारा।
नटवर अपने होठों पर उँगली रखकर चुप रहने का संकेत करते हुए फुसफसाया–"रात उन पैसों की शराब पी ली थी।" पथिकजी के पैरों को फिर हाथ लगाते हुए बोला–"अब ऐसा नहीं होगा। अब मैं सच्चे मन से साहित्य सेवा करूँगा।"
"वह सेवा तुम कर ही रहे हो। साहित्य के नाम पर गालियों की वमन प्राय: करते रहते हो। कहीं ऐसा न हो कि किसी दिन तुम स्वयं एक भद्दी गाली बनकर रह जाओ. तुम्हीं अध्यक्ष बनो या कोई और बने, इससे हमें कोई मतलब नहीं।" कहकर पथिकजी उठ खड़े हुए और चलने के लिए मंच से उतर आए.
"चलो इस बुढ़ऊ का भी पता साफ हुआ।" नटवर ने एक–एक शब्द चबाते हुए गर्दन हिलाई और एक भद्दी–सी गाली हवा में उछाल दी।