ख़रीद-बिक्री / राजकमल चौधरी / पुष्य मित्र

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मूल मैथिली कथा का हिन्दी अनुवाद : पुष्यमित्र

दरभंगा टावर के पास विश्वास बाबू का होटल । दीवार पर टँगा है — लिप्टन कम्पनी का नया कैलेण्डर।

बहुत देर से देख रहा हूं- -चाय की हरी-हरी पत्तियां चुनती, खासी लड़की, काफ़ी उघरा, मांसल चित्र...।

लड़की आगे लम्बी हुई जा रही है, वक्ष के अग्रभाग में गहरी धारी पड़ गई है। चित्रकार की अंतर्दृष्टि ने तूलिका को वस्त्र के भीतर तक पहुँचा दिया है, यह है कला !

लिप्टन के सुस्वादु चाय के संग चाय के पत्ते चुनने वाली लड़की की मांसल, श्याम देह का संस्पर्श। कला गुरू मम्मट ने कहा था — कला का उदेश्य है रसोद्रेक ! दो साल पहले, छोटे भाइयों के उपनयन संस्कार में गांव गया था। मेरे दालान के पीछे जो लड़की गोइठा ठोक रही थी, वह भी इसी चाय वाली जैसी थी । उठी बाँहों के निम्न भाग में इसी तरह मेरी दृष्टि जड़ हो गई थी । अपनी फटी साड़ी में वक्ष भाग को समेट लेने की उसकी असफल चेष्टा अभी तक याद है । मगर, कैलेण्डर की यह चाय वाली लड़की के उन्नत वक्षों को आँचल में कौन समेटेगा ?

होटल के नौकर ने पास आ कर कहा — 'मालिक, दो कप चाय के चार आने हुए और दो सिगरेट के दस पैसे ।

कला के संसार से सत्य की दिशा में...।

मेरे सामने टेबल है, टेबल पर चाय की ख़ाली प्याली, प्याली में सिगरेट की बुझी हुई टुकड़ी ।

मेरे सामने रेडियो बज रह है, गीत गुंजित हो रहा है — ले के पहला-पहला प्यार, जादू-नगरी से आया है कोई जादूगर...।

गीत सुनकर चाय वाली लड़की ख़यालों में आती है। चाय की पत्ती चुनकर वह चाय बगान के बड़ा बाबू के पास जाती है। बड़ा बाबू की गाली सुनकर कुलियों के मेट के पास जाती है। मेटल के पास से अपने घर। जहाँ उसकी बीमार बेटी रोते-रोते सो रही है... ।

एक कप चाय और लाओ — मैं कहता हूँ ।

लिप्टन का कैलेण्डर, कैप्सटन की सिगरेट का पसरता धुआँ, चाय की प्याली पर प्याली, होटल का नौकर और हम । यह सब ज़िन्दगी का पहिया है, इसे रोकना संभव नहीं। क्योंकि यही पहिया तो सबों की धुरी है - रूपैया, रूपैया !

अट्ठाइस-उनतीस साल की एक स्त्री, पंजाबन युवती, शरणार्थी युवती, हिन्दू-मुस्लिम दंगा में जिसका सब कुछ, भूत, भविष्य, वर्तमान खास हो चुका है, मेरे पास आ कर खड़ी हो गई। बोली, हंसती हुई बोली —- 'बाबू, एक कप चाय पिला दो !’

मैंने भवभूति के नाटक पढ़े हैं. यह भी जानता हूँ — "यत्र नार्यास्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता: ।"

लेकिन,

यह, लज्जाहीना, मर्यादाहीना, सतीत्वहीना स्त्री की पूजा के योग्य है ?

इस स्त्री ने तो भवभूति की मालती, मदयन्तिका, कामान्दकी, बुद्धरक्षिता, लवंगिका, अवलोकिता और सीता का नाम भी नहीं सुना होगा ।

होटल में बैठे सभी लोग उचक-उचक कर निगाहें तिरछी कर, शरणार्थिनी की चिन्दी-चिन्दी हुई साड़ी के पार्श्व से स्पष्ट होते अंग - अंग को देखने लगे ।

अकस्मात् चाय की प्यासी स्त्री मेरे आगे लगी कुर्सी पर बैठ गई। हंसती हुई और आँखें नचाती हुई बोली — 'चाय पिला दो, बाबू, सुबह से नहीं पी है' ।

साँझ का हलका अंधेरा चारो तरफ फैल रहा था। साँझ की हलकी बदरी, हलकी ठिठुरन, हलका आलस्य मेरे शरीर में पैठ गया।

निर्लज्ज हो कर कहा —'विश्वास बाबू, दो कप चाय भिजवा दीजिए ।

चाय आ गई।

भूखी गाय की तरह वह चाय को सुड़कने लगी । मैं भी साथ देते हुए उसके अंग-भंगिमा को देखने लगा ।

आधा कप चाय समाप्त कर बाँह से होठों को पोछते हुए उसने कहा — 'बाबू, आप कहाँ रहते हैं? क्या करते हैं ?'

इससे आपको क्या काम ? मैंने पूछा ।

उत्तर मिला — आप बहुत अच्छे आदमी हैं । ऐसे तो कोई बिना बाँह पकड़े एक पैसा भी नहीं देता है'। उत्तर देकर कुर्सी से फिसल गई मैली रेशमी साड़ी का आँचल उठाते कुर्सी के पीठ में ओठंगते, देह मोड़ते और मधुर भाव में मेरी ओर देखते हुए मुस्कुराई ।

क्षण मात्र में स्त्री की असंख्य छवियाँ मेरे आँखों में पसर गईं — नाचती स्त्री का चित्र, कथकली की मुद्रा में दाहिना पैर उठाए, गरदन टेढ़ी किए, अंगुलियाँ फैलाए, बाँहें मोड़े, पुष्ट पीन वक्ष हिलाती स्त्री का चित्र. गृहस्थ स्त्री का चित्र, किवाड़ की ओट से सड़क की तरफ देखती, स्वामी की प्रतीक्षा करती, सासु-ननद से झगड़ा करती, पति के पैर धोती, बच्चे को दूध पिलाती, देवर से हंसी-ठठ्ठा करती स्त्री का चित्र । अशोक वाटिका में राक्षसियों के मध्य बैठी, सीता का चित्र. हरिण के शावक से स्नेहपूर्वक खेलती, शकुन्तला का चित्र । अभिमन्यु के शव के पास विलाप करती, उत्तरा का चित्र. गौतम पुत्र राहुल को कथा सुनाती, यशोधरा का चित्र ।

लेकिन, अपरचित युवक से उसके घर का पता पूछने वाली यह युवती कौन है ? क्या है इसका इतिहास ? क्या है इसका भविष्य ?

कथाकार ललित के गल्प 'मुक्ति' और मुक्ति के शेफाली के चरित्र-कथा को पढ़, मिथिला की नारियाँ क्रोध से भर उठीं, मिथिला के पुरूष घृणा से भहर गए ।

लेकिन, दरभंगा के टावर के पास खड़ी इस शरणार्थिनी को किसी भद्र महिला, किसी सुपुरूष ने शरण क्यों नहीं दी ?

यही है मेरा प्रश्न ! यही है मेरा सत्य ! यही है मेरा दर्शन !

इस पंजाबन युवती को एक घर चाहिए, एक परिवार चाहिए, एक पति देवता चाहिए। केवल इसी को नही, देश की सभी युवतियों को इतना ही चाहिए। वह जब तक नहीं मिलेगा तब तक असंख्य शेफाली, असंख्य फुलपरास वाली, असंख्य दयामन्ती इसी तरह चाय माँगती और देह बेचती रहेंगी !

पूछा — आप मुझसे ब्याह करेंगी ?

'आप.....?'

चाय का कप ख़ाली करती वह हंसी ! पागलों की तरह हंसने लगी । हंसते हुए कहा — बाबू, सब पहले ऐसे ही कहते हैं। अपने घर में ले जाते हैं। चार दिन मौज़ करते हैं। फिर निकाल देते हैं। हम जानते हैं, आप भी ले जाएँगे तो ऐसा ही करेंगे ।

समझ में आ गया । इस युग के परम सत्य से इस स्त्री का पूर्ण साक्षात्कार हो चुका है ।

विश्वास बाबू के होटल से उतरकर सड़क पर आ गया । पीछे-पीछे वह भी उतरी । मेरे संग चलते हुए कहा — बाबू. इसमें आपका कोई कसूर नहीं है । आप पैसा देते हैं । मुफ़्त में पैसा क्यों देंंगे? हमारे पास देने को है ही क्या ? देह है, सो वही देती हूँ ! ये बिजनेस है, बाबू, इसमें बुरा क्या है' ।

बिजनेस ! व्यापार ! व्यवसाय.....!

यह युवती शरीर का व्यवसाय करती है । ऐसे में दोष क्या, पाप क्या, ग़लत क्या ?

पूछा — 'आप कितना लेती हैं' ?

'सुबह से कुछ नहीं खाया है। कुछ खिला दीजिए, बाबू, फिर जो कहिए, करूँगी' — कहते-कहते उसने मेरी बाँहें पकड़ लीं ।

इससे सस्ता और क्या ?

फिर होटल का तरफ लौट आया। विश्वास बाबू से कहा — 'ये जो खाएँगी, खिला दीजिएगा। पैसा मेरे नाम से लिख लीजिएगा'। मेरी तरफ देखे बिना वह होटल में घुस गई ।

मैं भी उसकी तरफ देखे बिना होटल से निकल गया।

मूल मैथिली कथा का हिन्दी अनुवाद : पुष्यमित्र