ख़लील जिब्रान की लघुकथाएँ / सुकेश साहनी

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ख़लील जिब्रान ने लेबनान में तुर्क आथमन वंश के अति कठोर शासन काल में होश सँभाला था। उन दिनों देश की अर्थ व्यवस्था पंगु हो गई थी। लोग भूख और ग़रीबी से त्रस्त थे। तुर्क शासकों की अनीति के कारण जनता का जीना दूभर हो गया था। धर्मान्धता एवं सामाजिक रूढ़ियों के जाल में फँसकर आम आदमी का जीवन पूरी तरह जड़ एवं चेतनाहीन हो गया था। ख़लील जिब्रान अपने चारों ओर हो रहे इस अन्याय एवं शोषण को देख रहे थे। पादरियों को आम जनता का खून चूसने वाले शासकों का साथ देख उनके मन में भयानक आक्रोश जन्म लेने लगा था। यह आक्रोश उनकी पहली पुस्तक 'रिपरिट्स रिबेलियंस' में अभिव्यक्त हुआ। इसमें ख़लील जिब्रान ने धार्मिक पाखण्ड और शासकों के अत्याचार की कठोर भर्त्सना की थी। इस पुस्तक के आते ही लेबनान में तहलका मच गया। 'मेरनाइट कैथोलिक चर्च' ख़लील जिब्रान के प्राणों का प्यासा हो गया। पुस्तक की सभी उपलब्ध प्रतियों को जलाकर नष्ट कर दिया गया और ख़लील जिब्रान को देश से निष्कासित कर दिया गया।

इस घटना के बाद ख़लील जिब्रान का आक्रोश और भी प्रचण्ड रूप में सामने आया, जिसे उन्होंने अपनी कविताओं, उपन्यासों, कहानियों और चित्रों में अभिव्यक्ति दी। इसी समय ख़लील जिब्रान ने लघु आकार वाली गद्य रचानाएँ भी लिखीं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो ख़लील जिब्रान को 'लघु कलेवर' में अपनी बात कहने की आवश्यकता महसूस हुई। इस प्रकार उन्होंने लघु आकार वाली एक नई शैली को जन्म दिया। अपनी इन लघु रचनाओं में उन्होंने छोटी से छोटी बात को बहुत ही प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त किया। आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री के अनुसार, "मैं ख़लील जिब्रान को लघुकथा का जनक मानता हूँ ...ख़लील जिब्रान के पास जो अन्तर्दृष्टि या उच्चकोटि की प्रतिभा थी, मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि वर्तमान में हमारे यहाँ वह अ अन्तर्दृष्टि या उच्चकोटि की प्रतिभा अभी किसी के पास नहीं है।" (लघुकथा: बहस के चौराहे पर: सं। सतीशराज पुष्करणा)

ख़लील जिब्रान ने आज लिखी जा रही लघुकथाओं की तरह पहले तय करके लघु आकार की गद्य रचनाएँ नहीं लिखी होंगी। उनका इस विधा में रचनाकर्म 'आवश्यकता आविष्कार की जननी है' की तर्ज पर हुआ। यही वज़ह है कि उनकी लघुकथाएँ आज भी उतनी ही प्रभावशाली एवं प्रासंगिक हैं।

ख़लील जिब्रान की प्रारम्भिक शिक्षा लेबनान एवं अमेरिका में हुई थी। जिस समय उनको 'देश निकाला' दिया गया, उन दिनों वे पेरिस में रह रहे थे। फ़्रांस का सुप्रसिद्ध चित्रकार रोदिन उनका मित्र था। उसी के पास रहकर वे चित्रकला का अभ्यास कर रहे थे। घरेलू परिस्थितियों के कारण उन्हें अमेरिका जाना पड़ा। वहाँ जाकर वे चित्रकला एवं साहित्य सर्जन में लीन हो गए। ख़लील जिब्रान ने अरबी एवं अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में महारत हासिल कर ली थी। सन् 1910 में ख़लील जिब्रान ने न्यूयार्क में अपना स्टूडियो खोल लिया था और फिर जीवन के अंत (1931) तक वहीं रहे। ख़लील जिब्रान की अंग्रेज़ी में लिखी गई पहली पुस्तक 'दि मैडमैन' थी। इस पुस्तक का प्रकाशन सितम्बर 1918 में हुआ। लघुकथाओं की दृष्टि से इस पुस्तक का महत्त्व है। इस पुस्तक के बाद उनका अधिकांश लेखन अंग्रेज़ी में ही हुआ।

लघु रचनाओं की दृष्टि से दो अन्य महत्त्वपूर्ण पुस्तक हैं–दि फॉरनर एवं दि वाण्डरर। ये दोनों पुस्तकें अंग्रेज़ी में लिखी गई थीं। इनका प्रकाशन क्रमश: 1920 एवं 1932 में हुआ। लघु रचनाओं की दृष्टि से ख़लील जिब्रान का चौथा महत्त्वपूर्ण संग्रह है–सन एण्ड फोम। इसमें ख़लील जिब्रान के महत्त्वपूर्ण विचार कहीं तो शुद्ध रूप में और कहीं रोचक किस्सों के रूप में अभिव्यक्त हुए हैं। इस तरह 'सन एण्ड फोम' में खलील जिब्रान की अनेक कालजयी लघुकथाओं से साक्षात्कार होता है।

प्रस्तुत संग्रह में उपयु‍र्क्त चारों पुस्तकों से रचनाओं का चयन कर उन्हें हिन्दी में अनूदित कर पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयास किया गया है। ख़लील जिब्रान की प्रत्येक रचना बेजोड़ है, अपने आप में पूर्ण कलाकृति है। अत: रचनाओं के चयन के विषय में कोई भी दावा पेश करना उचित नहीं है। इस संकलन हेतु रचनाओं का चयन करते समय उन रचनाओं को वरीयता दी गई है जो आज हिन्दी में लिखी जा रही लघुकथाओं के लिए आदर्श (मॉडल) हैं। कुछ ऐसी रचनाएँ भी हैं, जो लघुकथाएँ नहीं है, इनमें ख़लील जिब्रान के महत्त्वपूर्ण विचारों की अभिव्यक्ति हुई है, इनमें लघुकथा के लिए अनिवार्य 'कथा' तत्व अनुपस्थित है। लघुकथाएँ न होते हुए भी इन रचनाओं में ख़लील जिब्रान का रचना–कौशल देखते ही बनता है। लघुकथा के विद्यार्थी के रूप में मैं इन कथाओं को बहुत महत्त्वपूर्ण मानता हूँ, इनसे गागर में सागर भरने की तकनीक सीखी जा सकती है। वैसे भी शोद्दार्थियों की बात छोड़ दी जाए तो पाठक को ये रचनाएँ मुकम्मल कृति का आनन्द देती हैं।

इनकी रचनाओं को निम्न में वगीकृत किया जा सकता है–

1-एक: सामाजिक असमानता, आम आदमी के शोषण और दुख–दर्द के खिलाफ संघर्ष के लिए प्रेरित करती लघुकथाएँ

पीढ़ी दर पीढ़ी शारीरिक एवं आर्थिक शोषण की चक्की में पिसते आम आदमी ने गुलामी को अपनी नियति मान लिया है। राज सिंहासन पर सो रही बूढ़ी रानी को चार दास खड़े पंखा झल रहे थे। यहाँ बूढ़ी रानी गुलामी का प्रतीक है। ख़लील जिब्रान इन दासों को बिल्ली की घुरघुराहट के माध्यम से झकझोरते हुए संघर्ष के लिए प्रेरित करते हैं––सोते हुए रानी उतनी बदसूरत नहीं लग रही है जितना तुम जागते हुए अपनी गुलामी में। –हाँ, वह तुम्हारे बाप–दादाओं और बड़े हो रहे बच्चों के सपने देख रही है। –कमज़ोर लोगों की ही बलि चढ़ाई जाती है।

बिल्ली घुरघुराई और बोली, " हवा करते रहो, पंखा झलते रहो मूर्खो। तुम आग को हवा देते रहो ताकि वह तुम्हें जलाकर राख कर दे। ' (गुलामी)

अमीर–गरीब, छोटा–बड़ा, हिन्दू–मुस्लिम–सिख–ईसाई का भेद समाप्त होना चाहिए; ऐसा हम सभी मानते हैं। पर क्या हम अपने दिलों से इस भेदभाव, नफ़रत की भावना को निकाल पाए हैं? 'हम सब एक हैं'–'हम सब भाई–भाई हैं' जैसे नारों से दीवारों को रंगने और रेडियो–दूरदर्शन पर दिन–रात दोहराने की ज़रूरत हमें क्यों पड़ती है? इस स्थिति पर ख़लील जिब्रान गरुड़ और चकवे के माध्यम से बहुत तीखा व्यंग्य करते हैं–चकवे द्वारा गरुड़ पक्षी का अभिवादन करने पर गरुड़ स्वयं को अपमानित महसूस करता है और चकवे से कहता है, "तुम्हें मालूम होना चाहिए कि तुम पक्षियों के राजा से बात कर रहे हो। जब तक हम बात शुरू न करें, तुम्हें हमसे बात शुरू करने की गुस्ताखी नहीं करनी चाहिए।" इस पर चकवा ख़ुद को एवं गरुड़ को एक ही परिवार का बताता है। दोनों में झगड़ा होने लगता है। चकवा उड़कर गरुड़ की पीठ पर बैठ जाता है और उसके पर नोचने लगता है। गरुड़ असहाय हो जाता है। तभी एक कछुआ वहाँ आ जाता है और उन दोनों की ओर देखकर हँसने लगता है। गरुड़ द्वारा हँसी का कारण पूछे जाने पर कहता है, "यह हँसने की बात नहीं है कि आपको घोड़ा बनाकर एक छोटा–सा पक्षी आपकी पीठ पर सवारी कर रहा है।" इस पर गरुड़ कहता है, "अबे जा, अपना काम कर! यह तो मेरे भाई चकवे का और मेरा घरेलू मामला है।" (भाई–भाई)

ख़लील जिब्रान अमरीका में रह रहे थे, वहाँ भी उनकी पैनी दृष्टि बड़े देशों द्वारा किए जा रहे छोटे, अविकसित देशों के शोषण पर टिकी हुई थी। युद्ध में इसे बहुत सशक्त तरीके से उजागर किया गया है।

2-धर्मान्धता, कुरीतियों एवं सामाजिक रूढि़यों के विरुद्ध लिखी गई लघुकथाएँ-

इस श्रेणी में ख़लील जिब्रान की वे रचनाएँ आती हैं जिनमें धर्मान्धता एवं कुरीतियों का सशक्त तरीके से विरोध किया गया है। ये रचनाएँ मानव–मूल्यों की स्थापना के लिए प्रेरित करती हैं। ख़लील जिब्रान कहते है, "धर्म? यह क्या है? मैं तो केवल जीवन को पहचानता हूँ। जीवन का मतलब है...खेत...अंगूर का बाग़ और करघा।" जीवन और जीवन का सारा कर्म ही ख़लील जिब्रान का धर्म था। उनकी रचनाएँ भी उनकी इसी सोच की वकालत करते हुए कर्म करने की प्रेरणा देती हैं–

उस नगर में पहुँचकर कथानायक हैरान रह जाता है, वहाँ के सभी नागरिक एक आँख और एक हाथ वाले थे। वहाँ के लोग भी उसकी दो आँखों और दो हाथों को देखकर आश्चर्य में डूब जाते हैं, इस विषय पर पूछने पर वे लोग कथानायक को एक मन्दिर में ले जाते हैं, यहाँ हाथों और आँखों का ढेर लगा होता है। नागरिक गर्व से बताते हैं कि ईश्वर के आदेश पर ही उन्होंने अपने भीतर की बुराई पर विजय पाई है। वे कथानायक को एक ऊँचे स्थान पर ले जाते हैं, जहाँ पर एक शिलालेख पर लिखा होता है, " अगर तुम्हारी दाहिनी आँख अपराध करे तो उसे बाहर निकाल फेंको, क्योंकि जीते जी सशरीर नरक झेलने से बेहतर है कि अंग नष्ट हो जाए। यदि तुम्हारा दाहिना हाथ अपराध करे तो उसे तत्काल काट फेंको; क्योंकि उससे पूरा शरीर तो नरक में नहीं जाएगा। ' कथानायक उस पवित्र नगर से भाग जाता है। (पवित्र नगर)

इस रचना के माध्यम से ख़लील जिब्रान उन धर्मान्ध लोगों पर चोट करते हैं जो स्वर्ग की कामना में अपना वर्तमान भी नारकीय बना लेते हैं। पवित्र नगर से कथानायक का भागना वस्तुत: कर्महीन धर्मान्धता से पलायन है।

विद्वान लघुकथा में ख़लील जिब्रान ने उन मठाधीशों को बेनकाब किया है जो खोखले अहँ के कारण अपने द्वारा रचे गए काल्पनिक स्वर्ग में आँखें मीचे सम्पूर्ण जीवन गुज़ार देते हैं–

एक प्राचीन शहर में दो विद्वान् रहते थे जो एक दूसरे की विचारधारा को नापसन्द करते थे। उनमें से एक ईश्वर के अस्तित्व को नकारता था, जबकि दूसरा अस्तिक था। एक दिन उन दोनों में ईश्वर के आस्तित्व को लेकर बहस छिड़ गई। अपने–अपने अनुयाइयों के बीच वे आपस में झगड़ पड़े। उस शाम नास्तिक पहली बार मन्दिर गया और ईश्वर के आगे गिरकर अपनी पिछली हठधर्मी के लिए क्षमा माँगने लगा। उधर दूसरे विद्वान् ने अपनी पूज्य पुस्तकें जला डालीं, अब उसे ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं था।

ख़लील जिब्रान कहते हैं, "धर्म तो तुम्हारे अन्दर मौजूद है और तुम ख़ुद उसके पुरोहित हो। सबसे महत्त्व की बात है...मुक्त आत्मा।" उनके अनुसार मुक्त आत्मा का निर्माण ही धर्मभावना का कार्य है। इसे प्राप्त करने वाला व्यक्ति ही विश्व–प्रेम एवं मानव–कल्याण की बात कर सकता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि खलील जिब्रान धर्म के बुनियादी सिद्धान्तों पर प्रहार नहीं करते। वे धर्म में ही निहित मानव–प्रेम के आदर्शो की दुहाई देकर आम आदमी को उसका हक़ दिलवाने की चेष्टा करते हैं। वज्रपात में ख़लील जिब्रान का आक्रोश उस पादरी पर फट पड़ा है, जो धर्म भावना (मानव–प्रेम) से रहित है–एक औरत गिरजाघर में पादरी के सामने जाकर अपने जीवन की नारकीय यातनाओं से मुक्ति का मार्ग पूछती है। पादरी उस औरत की कोई मदद नहीं करता, क्योंकि उस औरत ने विधिवत् ईसाई धर्म की दीक्षा नहीं ली थी। पादरी द्वारा उस औरत को मना करते ही तेज गड़गड़ाहट के साथ आसमान से बिजली गिरती है और सम्पूर्ण क्षेत्र आग की लपटों में घिर जाता है। नगरवासी उस औरत को तो बचा लेते हैं, पर पादरी की मृत्यु हो जाती है।

3-कूपमण्डक सोच एवं सामाजिक जड़ता के विरुद्ध लिखी गई रचनाएँ-

ख़लील जिब्रान कर्म के प्रति अटूट श्रद्धा रखते थे। ईश्वर अथवा प्रकृति भी कर्म करने वालों का साथ देती है वे इस सिद्धान्त के पक्षद्दर थे। भाग्य के भरोसे निठल्ले पड़े रहने वालों की उन्होंने तीव्र आलोचना की है–पहले जब मैं एक अनार के दिल में रहता था, मैंने एक बीज को कहते सुना, "हमारी सारी आशाएँ व्यर्थ थीं!" तीसरे ने कहा, "हमारा कोई भविष्य ही नहीं है!"

चौथे ने कहा, "बिना उज्ज्ववल भविष्य के हमारा जीवन एक मज़ाक बनकर रह जाएगा।"

पाँचवाँ बोला, "हमें अपने वर्तमान के बारे में ही नहीं पता तो भविष्य की बात करना बेकार है।"

छठे ने कहा, "हमारी तो ऐसे ही कट जाएगी!"

सभी बीज वाद–विवाद में जुट गए। शोर के कारण मुझे कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था।

मैं उसी दिन अनार के दिल से निकलकर सख्त पीले बेल के दिल में बैठ गया। यहाँ के बीज पीले और कमज़ोर हैं, पर निराशावादी नहीं। यही वज़ह है कि वे संख्या में थोड़े हैं और ज्यादातर शान्त ही रहते हैं। (ईश्वर ने कहा)

इस श्रेणी में अन्य सशक्त लघुकथाएँ हैं–मूर्खो के बीच, कूप–मण्डूक, मेंढक, सावन के अंधे, असंतुष्ट, काल्पनिक नरक आदि।

4-जीवन की विसंगतियों पर प्रहार करती लघुकथाएँ-

इस श्रेणी में निद्राजीवी उल्लेखनीय रचना है। एक शान्त रात में नींद में चलते हुए माँ–बेटी का सामना हो गया। माँ बेटी की ओर देखकर बोली, "तू? मेरी दुश्मन! मेरी जवानी तुझे पालने–पोसने में ही बर्बाद हो गई। तूने बेल बनकर मेरी उमंगों का वृक्ष ही सुखा डाला। काश! मैंने तुझे जन्मते ही मार दिया होता।" इस पर बेटी ने कहा, "ए स्वार्थी बुढि़या! तू मेरे सुखों के रास्ते के बीच दीवार की तरह खड़ी है। काश! तू मर गई होती।" तभी मुर्गे ने बाँग दी और वे दोनों जाग पड़ीं। माँ ने चकित होकर कहा, "अरे मेरी प्यारी बेटी तुम!" बेटी ने भी आदर से कहा, ––"हाँ, मेरी प्यारी माँ!"

इस सशक्त लघुकथा में ख़लील जिब्रान ने उन लोगों की मानसिकता का चित्रण किया है जो विभिन्न अच्छे–बुरे दबावों के कारण जीवन पर्यन्त दोहरा जीवन जीते हैं। यह लघुकथा हमें ख़लील जिब्रान की क़लम की ताकत से परिचित कराती है।

इसी श्रेणी की एक अन्य लघुकथा है 'बड़ा पागलखाना'–पागलखाने में एक युवक की दूसरे से भेंट होती है। पहला दूसरे से पागलखाने में आने की वज़ह पूछता है। दूसरा युवक बताता है–उसके पिता और चाचा उसे बिल्कुल अपने जैसा देखना चाहते हैं, माँ उसे अपने प्रसिद्ध पिता जैसे बनाना चाहती है, बहन उसे अपने नाविक पति जैसा और भाई खिलाड़ी बनाना चाहता है। उसके शिक्षक उसमें अपनी छवि देखना चाहते हैं। चूँकि उसने उनके आगे सपर्मण नहीं किया इसलिए उसे पागलखाने में आना पड़ा।

इस लघुकथा के माध्यम से ख़लील जिब्रान सवाल उठाते हैं–असली पागल कौन हैं? वे जो सैकड़ों जन्मजात प्रतिभाओं को कुचलकर उन पर अपना व्यक्तित्व थोपना चाहते हैं अथवा वे जो इन दबावों के आगे आत्मसमर्पण न करते हुए अपने जन्मजात व्यक्तित्व को सुरक्षित रखना चाहते हैं। नन्हें बच्चों से संवाद स्थापित न कर पाने की पीड़ा को बहुत ही प्रभावशाली ढंग से 'असंवाद' में अभिव्यक्त किया गया है।

5-मानव–कल्याण एवं विश्व बंधुत्व का संदेश देती लघुकथाएँ-

मानव कल्याण ही ख़लील जिब्रान के चिन्तन का सार है। वे मनुष्य के दय में प्रेम और करुणा की भावना जगाकर विश्वबंधुत्व का संदेश देते हैं। मनुष्य का मनुष्य से प्रेम ही ईश्वर की सच्ची उपासना है–पहले पहल मनुष्य ने जब बोलना सीखा तो ऊँचे पर्वत पर चढ़कर ईश्वर से कहा, "भगवन्, मैं आपका दास हूँ ...आपका हर आदेश सिर आँखों पर!"

ईश्वर ने कोई उत्तर नहीं दिया और न ही मनुष्य के पास आया।

मनुष्य ने पुन: ईश्वर से कहा, "हे विधाता, मैं आपकी सृष्टि हूँ। आपने मिट्टी से मेरा निर्माण किया है, जो कुछ भी है, सब आपका है।"

इस पर भी ईश्वर चुप रहा।

हज़ार वर्ष बाद मनुष्य ने फिर ईश्वर से कहा, "मेरे परमात्मा, मैं आपकी संतान हूँ। दया करके आपने मुझे जन्म दिया। प्यार एवं भक्तिभाव से ही मैं आपके राज्य का उत्तराद्दिकारी बनूंगा।" ईश्वर ने कोई जवाब नहीं दिया।

एक हज़ार साल बाद मनुष्य ने फिर ईश्वर से कहा, "मेरे प्रभु! मेरे लक्ष्य...मैं आपका बीता हुआ कल और आप मेरा भविष्य हैं। द्दरती में मैं आपकी जड़ हूँ और आकाश में आप मेरे पुष्प! हम दोनों ही सूर्य के प्रकाश में साथ–साथ पलते बढ़ते हैं।"

तब ईश्वर मनुष्य पर झुका, मनुष्य के कानों में उसके शब्द झरे और जिस तरह समुद्र नदी–नालों को अपने आगोश में ले लेता है, ईश्वर ने मनुष्य को अपने सीने से लगा लिया।

जब मनुष्य पहाड़ से नीचे उतरकर घाटियों और मैदानों में आया तो उसने ईश्वर को वहाँ भी पाया...हरेक में। (बंधुत्व)

आपने पवित्र पर्वत के बारे में ज़रूर सुना होगा।

यह संसार का सबसे ऊँचा पर्वत है।

अगर आप उसकी चोटी पर पहुँच सकें तो आपकी एक ही इच्छा होगी कि वहाँ से उतरें और जीवन की मुख्य धारा से जुड़े लोगों के साथ घाटी में रहने लगें। (ऊँचाई)

ख़लील जिब्रान की दृष्टि में असली महात्मा वही है जिसके दिल में मानव के लिए प्रेम की भावना हो। उनकी दृष्टि में मानव–कल्याण के लिए बोला गया झूठ 'झूठ' की श्रेणी में नहीं आता है–एक डाकू सन्त के आगे घुटनों के बल झुककर स्वीकार करता है कि वह लुटेरा, पापी और कातिल है। सन्त बिना आश्चर्य व्यक्त किए डाकू को बताता है कि वह ख़ुद भी बहुत बड़ा अपराधी, लुटेरा और कातिल है। संत द्वारा बोला गया झूठ प्रायश्चित की ओर अग्रसर डाकू को निश्चिंत कर देता है। डाकू खुशी–खुशी लौट जाता है। दूर से उसके गाने की आवाज़ सुनाई देती है। ख़लील जिब्रान इस लघुकथा का अंत इस प्रकार करते हैं–उसके गीत की गूंज ने घाटी को ख़ुशी से भर दिया। यहाँ हम ख़लील जिब्रान से 'गागर में सागर' भरने की तकनीक सीख सकते हैं। सामान्य लेखक रचना का अंत इस प्रकार करता–डाकू अच्छा आदमी बन गया, घाटी में उसका आतंक ख़त्म हो गया, डाकू के अच्छे कार्य व्यवहार ने घाटी को खुशियों से भर दिया। ख़लील जिब्रान एक चुस्त वाक्य से उस डाकू के भविष्य का चित्र खींच देते हैं।

विश्व शान्ति में सबसे बड़े बाधक के रूप में कुछ सिरफिरे राष्ट्र नेता होते हैं जो अपने अडि़यल रवैये के कारण निरीह जनता को भी युद्ध की आग में झोंक देते हैं। हैरत होती है कि जब ख़लील जिब्रान की किसी रचना में ऐसे सिरफिरों से निपटने के लिए संदेश छिपा मिलता है–एक निर्जन पहाड़ पर दो साधु रहते थे। उनके पास मिट्टी का एक कटोरा था और यही उनकी पूंजी थी। एक दिन बूढ़े साधु के मन में कुछ आया और उसने छोटे साधु से कटोरे को बांट लेने की बात कही। सुनकर छोटा साधु उदास हो गया, बड़े साधु से बोला, "चूंकि हम इसे बांट नहीं सकते, इसे आप ही रख लो।" बड़ा साधु कटोरे को बांटने के लिए अड़ा ही रहा। छोटा साधु पासा फेंककर तय करने का सुझाव देता है। दूसरा साधु इस प्रस्ताव को भी अस्वीकार कर देता है। तब छोटा साधु कहता है,

"अगर आपको कोई विकल्प मंजूर नहीं है तो क्यों न इस झगड़े की जड़ कटोरे को तोड़कर नष्ट ही कर दें।" यह सुनकर बड़ा साधु आग–बबूला हो उठा, "ओ नामर्द! कायर! तू मुझसे झगड़ता क्यों नहीं?" (अच्छाई)

6-स्त्री–पुरुष सम्बंधों की लघुकथाएँ-

ख़लील जिब्रान समाज से भागने में विश्वास नहीं रखते थे। उन्होंने जीवन को समग्र रूप में जीने का संदेश दिया। उनके अनुसार स्त्री और पुरूष मिलकर पूर्ण मानव बनता है। स्त्री और पुरूष की पूर्णता के लिए उन्हें एक दूसरे की आवश्यकता होती है। प्रेम से ही मनुष्य का दय शुद्ध होता है–सभी पशु पक्षी जोड़ों में उस साधु के पास आते थे। साधु उन्हें उपदेश देता था। वे खुशी–खुशी उसे सुनते थे और उसके पास से जाने का नाम नहीं लेते थे। एक दिन वह दाम्पत्य जीवन में प्यार के बारे में बता रहा था। एक तेंदुए ने उससे पूछा, "आप हमें प्यार के बारे में बता रहे हैं, हम जानना चाहते हैं कि आपकी पत्नी कहाँ है?" साधु ने कहा, "मैंने तो विवाह ही नहीं किया, मेरी कोई प्रेयसी नहीं है।" इस पर पशु पक्षियों के झुण्ड में आश्चर्य भरा शोर गूंज उठा। वे आपस में कह रहे थे, "भला वह हमें प्रेम और दाम्पत्य के बारे में क्या बता सकता है जब वह स्वयं इस विषय में कुछ नहीं जानता है!" वे सब अवज्ञा भरे अंदाज़ में वहाँ से उठकर चले गए। (इस दुनिया में)

इस रचना में ख़लील जिब्रान ने इस सच को उजागर किया है कि इस दुनिया में कुछ करने के लिए पहली शर्त है–इसी दुनिया में जीना, आम आदमी के दुख–दर्द को आत्मसात् करना। इस दुनिया से भागकर लोगों का रास्ता दिखाने वाले जन्मांध मठाधीश की पोल बहुत जल्दी खुल ही जाती है।

घर परिवार में रहते हुए ख़लील जिब्रान के जीवन पर उनकी माँ कामिला रहीमी एवं बहन मरियाना का बहुत प्रभाव पड़ा। उनकी माँ बचपन में तरह–तरह के गीत सुनाया करती थी। हारुन–उल–रशीद की कहानियाँ और अरबी जीवन की लोककथाएँ ख़लील जिब्रान ने अपनी माँ से ही सुनी थीं। कामिला रहीमी ने ही ख़लील जिब्रान के दिल में मानव प्रेम और करुणा भरे संस्कारों की नींव डाली थी। 1903 में भाई और माँ के देहान्त के बाद ख़लील जिब्रान दुनिया में अपनी बहन मरिआना के साथ अकेले रह गए थे। बहन मरिआना की प्रेरणा से ही ख़लील जिब्रान ने अपना ध्यान पुन: साहित्य–सृजन पर केन्द्रित किया। इसी दौरान उनका प्रेम सलमा करीमी नामक युवती से हो गया। किन्हीं कारणवश ख़लील जिब्रान आजीवन अविवाहित रहे। उनके लेखन में इस असफल प्रेम के अनेक छाया–संकेत देखे जा सकते हैं। –उसने पुरुष से कहा, "मैं तुम्हें प्रेम करती हूँ।"

पुरुष ने कहा, "मैं भी तुम्हारा प्रेम पाने को लालायित रहा हूँ।" स्त्री ने कहा, "लगता है तुम मुझे नहीं चाहते।" सुनकर आदमी ने ध्यान से उसकी ओर देखा, पर कहा कुछ भी नहीं। इस पर वह औरत चीख पड़ी, "मुझे तुमसे नफ़रत है।"

पुरुष ने कहा, "मेरी दिली इच्छा है कि किसी तरह तुम्हारी नफ़रत ही पा सकूं।" (सच्चा प्यार) ख़लील जिब्रान स्त्री–पुरुष सम्बंधों में 'पवित्र प्रेम' को प्रमुख मानते हैं। उनके अनुसार यदि स्त्री–पुरुष के एक दूसरे की ओर आकर्षित होने का कारण मात्र शारीरिक है तो यह ग़लत है। शरीर माध्यम हो सकता है, पर प्रेम अनिवार्य है। स्त्री–पुरुष के प्रेम की 'आध्यात्मिक पवित्रता' के संदर्भ में शरीर और आत्मा नामक लघुकथा देखें–वे दोनों बालकनी में बनी खिड़की में एक दूसरे से सटकर बैठे हुए थे। लड़की ने कहा, "आई लव यू आर हैंड' सम। तुम्हारे पहनावे पर कौन न मर मिटे, फिर तुम्हें किस बात की कमी है।"

लड़के ने कहा, "मैं भी तुम्हें प्यार करता हूँ, तुम किसी खूबसूरत विचार की तरह हो, जो हाथ से पकड़ी नहीं जा सकती। तुम मेरे स्वप्नों में तैरते गीत जैसी हो।"

लड़की झटके से अलग हो गई और तुनककर बोली, "रहने दो! मैं न तो कोई विचार हूँ और न ही तुम्हारे स्वप्नों में घूमने वाली चीज। मैं एक लड़की हूँ। मैं समझती थी कि तुम मुझे अपनी पत्नी और होने वाले बच्चों की माँ के रूप में चाहते हो।" दोनों अलग हो गए।

लड़के ने मन ही मन कहा, 'एक और सुन्दर सपना गहरी धुंध में बदलकर रह गया।' लड़की कह रही थी, 'अच्छा हुआ, ऐसे आदमी का क्या भरोसा जो मुझे विचार और गीत के रूप में देखता है।' इस श्रेणी में ख़लील जिब्रान की अन्य महत्त्वपूर्ण लघुकथाएँ हैं–मेले में, गोल्डन बैल्ट, संसर्ग, प्रेमगीत आदि।

ख़लील जिब्रान की मृत्यु 10 अप्रैल 1931 को न्यूयार्क में एक मोटर दुर्घटना के कारण हुई। उस समय उनकी आयु केवल अड़तालीस वर्ष थी। इस समय उनकी रचनाशीलता अपने शिखर पर थी। दो दिन तक उनके पार्थिव शरीर का दर्शन करने वालों का तांता लगा रहा। उनकी अंतिम इच्छा के अनुसार उनके ताबूत को लेबनान ले जाया गया, ज उन्हें अपने गाँव की कब्रगाह में सम्मानपूर्वक दफनाया गया। ख़लील जिब्रान जैसा व्यक्ति कभी भी नहीं मरता। मानव कल्याण के लिए कुछ कर गुज़रते की भूख उनमें इतनी अधिक थी कि वे कहते हैं–मैं फिर आऊँगा।