ख़ामोशी / लिअनीद अन्द्रयेइफ़ / सरोज शर्मा

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रूस में बसन्त शुरू हो चुका था। बुलबुल के गीत सुनाई देने लगे थे। चाँदनी रात में ओलगा स्तिपानवना अपने पादरी पति इगनाति के कमरे में आई। वह बहुत उदास थी। उसकी शक़्ल से ही लग रहा था कि वह किसी बड़ी मुसीबत में है। उसके हाथ काँप रहे थे। इस वजह से उसने अपने हाथ में जो लैम्प पकड़ा हुआ था, उसकी लौ भी काँप रही थी। वह रुआँसी हो रही थी। उसने पीछे से पति के कंधे पर हौले से हाथ रखकर कहा — चलिए, वेरा के कमरे में चलते हैं !

पादरी ने अपना सर थोड़ा ऊपर उठाया और पत्नी को घूर-घूरकर देखने लगे। ओलगा थोड़ी देर तो ऐसे ही खड़ी रही, फिर उसने जल्दी से अपना हाथ उनके कंधे से हटाया और पास ही रखे एक छोटे सोफ़े पर बैठ गई। उसने धीरे-धीरे कुछ शब्दों पर ज़ोर देते हुए कहा — तुम और तुम्हारी बेटी, दोनों कितने ज़ुल्मी हो ! वैसे ओलगा चेहरे से ही बेहद आकर्षक और दयालु लगती थी, परन्तु उस समय मन की पीड़ा और कड़वाहट से उसका चेहरा ऐसे बिगड़ा हुआ था, मानो वह अपने चेहरे के भाव से यह दिखाना चाहती हो कि वे दोनों बाप-बेटी कितने क्रूर हैं।

पोप पहले तो ज़रा मुस्कुराए, फिर वे उठकर खड़े हो गए। उन्होंने किताब बन्द की, चश्मा उतारकर खोल में रखा और किसी बात पर ग़ौर करने लगे। उनकी लम्बी-काली दाढ़ी में कुछ सफ़ेद बाल चाँदी के तार-से चमक रहे थे और हर गहरी साँस के साथ दाढ़ी ऊपर-नीचे हो रही थी।

उन्होंने कुछ सोचकर कहा — ठीक है, चलो चलते हैं वेरा के पास।

यह सुनकर ओलगा झट से उठ खड़ी हुई और थोड़ी डरती हुई, थोड़ी खुशामद करती हुई-सी बोली — सुनो, तुम उसे बिलकुल नहीं डाँटना। तुम तो जानते ही हो कि वह कैसी…।

अटारी पर वेरा का कमरा था। वहाँ जाने के लिए लकड़ी की सँकरी सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। पादरी के भारी-भरकम क़दम सीढ़ियों पर पड़ने से चर-चर की आवाज़ आ रही थी। पादरी जी थोड़ा सर झुकाकर चल रहे थे। वे डर रहे थे कि कहीं उनका सर कमरे की छत से न टकरा जाए। कमरा अटारी पर बना था, इसलिए उसकी छत नीची थी।

वैसे तो पादरी जी का मानना था कि वेरा के साथ बात करने से कुछ नहीं होने वाला है, पर फिर भी बीवी का दिल रखने के लिए वे उसके साथ वेरा के पास जा रहे थे।

वेरा ने माँ-बाप को अपने कमरे में आते हुए देखकर पूछा — क्या बात है ? वेरा ने एक हाथ से अपना चेहरा ढक रखा था। उसका दूसरा हाथ सफ़ेद मोटी चादर पर पड़ा था और उस चादर की तरह ही सफ़ेद लग रहा था।

ओलगा ने बोलना शुरू किया — वेरा …बेटा, क्या बात है ?। इतना कहते-कहते उसकी रुलाई फूट पड़ी और आसुँओं की झड़ी लग गई। उसका गला बुरी तरह से रुँध गया था। आगे की बात उसके गले में ही फँस गई और वह कुछ न कह पाई।

पादरी साहब ने अपनी सख़्त आवाज़ में नरमाई लाने की कोशिश करते हुए कहा — वेरा ! बिटिया, हमें कुछ तो बता, आख़िर तुझे हुआ क्या है ? तुझे क्या परेशानी है ?

वेरा चुप थी।

— वेरा, क्या तुझे हम पर ज़रा भी भरोसा नहीं है ? तुझे क्या लगता है कि हम तुझे प्यार नहीं करते ? अपने बच्चे के सबसे क़रीब माँ-बाप ही होते हैं। हमारे अलावा तेरा दर्द, तेरी परेशानी और कोई नहीं समझ पाएगा। मुझे ज़िन्दगी का बहुत तज़ुर्बा है, इसलिए मैं ऐसा कह रहा हूँ। तेरे दुख को बिना जाने ही हम दोनों दुखी हो गए हैं। अपना दुख हमारे साथ नहीं बाँटेगी तो और किसके साथ बाँटेगी ? बाँटने से हम सबका दिल हलका होगा। तू ज़रा अपनी बूढ़ी माँ को तो देख, वह कितनी परेशान हो गई है…!

इतना कहते-कहते पादरी साहब की आवाज़ काँपने लगी। काँपते हुए स्वर में उन्होंने आगे कहा — बिट्टो, तुझे क्या लगता है कि यह सब जो तूने किया है, क्या उससे मैं परेशान नहीं हूँ ! मुझे लग रहा है कि कोई ग़म है, जो तुझे अंदर ही अंदर घुन की तरह खा रहा है। आख़िर क्यों दुखी है तू ? इतनी परेशान क्यों है। मैं तेरा बाप हूँ और एक बाप के नाते कम से कम मुझे यह तो मालूम होना ही चाहिए कि तुझ पर क्या गुज़र रही है।

वेरा एकदम ख़ामोश थी। पादरी साहब ने धीरे से अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरा। वे अपने स्वभाव से डर रहे थे कि अपनी इच्छा के विरुद्ध कुछ ऐसा न कर बैठें कि बेटी पूरी तरह से हाथ से न निकल जाए। । वे आगे बोले — देख, मेरे मना करने के बावजूद तू ज़बरदस्ती पितिरबूर्ग ( पीटर्सबर्ग ) चली गई तो क्या मैंने इसके लिए तुझसे कुछ कहा ? न डाँटा, न मारा, न सख़्ती से ही पेश आया। तेरी ज़िद देखकर हमने तुझे पैसे भी दिए। और अब, जब से लौटी है, तू गुमसुम और ख़ामोश है। यह कहकर पादरी साहब चुप हो गए। उनके दिमाग़ में यह ख़याल आने लगा कि कहीं वेरा के साथ कोई अनहोनी न हो गई। उन्हें लगने लगा कि उनकी वेरा पितिरबूर्ग में एकदम अकेली थी। कोई भी तो उसके साथ नहीं था उसकी देखभाल करने के लिए। अनजान लोग अकेली लड़की को देखकर हमेशा अपनी बहादुरी दिखाने लगते हैं। दुनिया में ऐसे बदमाशों और मवालियों की कमी नहीं है, जो दूसरे को दुखी देखकर ख़ुश होते हैं। कहीं ऐसे ही किसी आदमी ने मेरी बेटी को बरबाद तो नहीं कर दिया। यह सोचकर उनके दिल में एक भयावह घबराहट पैदा हो गई। वे बेचैन हो उठे थे। उस अनजान आदमी के प्रति उनके मन में नफ़रत का एक तूफ़ान उठा, जिसने उनकी हँसती-खेलती बिटिया के चेहरे से हँसी और मुस्कुराहट छीन ली थी। दूसरी तरफ़ उन्हें अपनी बेटी पर भी हद से ज़्यादा ग़ुस्सा आ रहा था, जो अपनी उदासी और गुमसुम होने की वजह नहीं बता रही थी।

आख़िर माँ-बाप की ज़िद देखकर उनकी चिंता और परेशानी को कम करने के लिए वेरा ने उदासी से कहा — माँ, पितिरबूर्ग का इससे कोई लेना-देना नहीं है। मैं बिलकुल ठीक हूँ। अब बहुत देर हो गई है। अच्छा हो कि आप लोग जाकर सो जाएँ। इतना कहकर उसने अपनी आँखें मूंद लीं।

माँ ने आह भरते हुए कहा — मेरी रानी बिटिया, मैं तो तेरी माँ हूँ, तू मुझे तो खुलकर बता सकती है कि आख़िर हुआ क्या है ? मुझसे न छिपा। बेटी, सब बता दे …।

माँ की इस बात पर वेरा नाराज़ होने लगी। उसने कहा — ओह ! माँ ! तुम भी हद करती हो।

इस बीच पादरी साहब कुर्सी पर बैठ गए। बेहद परेशान होने के बावजूद वे पहले ज़रा मुस्कुराए और फिर ताना-सा देते हुए पूछा — अच्छा ! तो कोई बात नहीं है। फिर तू इतनी उदास, इतनी गुमसुम, इतनी परेशान क्यों है !

पिता का यह सवाल सुनकर जैसे वेरा के सब्र का बाँध टूट गया। उसने बिस्तर पर ही उठकर बैठते हुए ज़ोर से कहा — पापा ! आप तो जानते हैं कि मैं आप दोनों को कितना प्यार करती हूँ। दरअसल, मैं इस ज़िन्दगी से ही उकता गई हूँ। क्या करूँ बड़ी बोरियत होती है। पर आप लोग परेशान मत होइए। मेरा मूड ज़ल्दी ही ठीक हो जाएगा और आपकी सारी चिंता दूर हो जाएगी। अब मुझे नींद आ रही है। आप लोग जाइए।

वेरा की यह बात सुनकर पादरी साहब इतने नाराज़ हुए कि वे कुर्सी खिसकाकर झटके से उठ खड़े हुए। उनकी कुर्सी दीवार से जा टकराई। उन्होंने ओलगा का हाथ पकड़कर ज़ोर से कहा — मैं तुमसे पहले ही कह रहा था, बड़ी ज़िद्दी लड़की है। हमारी बात क्यों सुनेगी। चलो यहाँ से। यह लड़की भगवान को भूल गई है तो… हम क्या कर सकते हैं ! उन्होंने ओलगा का हाथ पकड़कर खींचा और उसे तक़रीबन ज़बरदस्ती कमरे से निकालकर ले गए।

जब वे लोग अटारी से नीचे उतर रहे थे, तो ओलगा ने सीढ़ियों पर ही रुककर पादरी साहब पर अपना ग़ुस्सा निकाला और फुसफुसाते हुए कहा — यह सब आपका ही किया-धरा है। आपके ही लाड़-प्यार ने उसे बिगाड़ दिया। उसके ज़रा से नख़रे पर ही आपकी आवाज़ काँपने लगती है। आपने ही उसे ऐसा बना दिया है। उसने यह सब आपसे ही सीखा है। अब यह सब सिखाया है तो भुगतो उसे। मैं तो यह सोच-सोचकर ही परेशान हो जाती हूँ कि हे भगवान ! मेरा क्या होगा…। यह कहते-कहते वह रोने लगी थी। उसकी भौंहें बार-बार ऊपर-नीचे हो रही थीं। सीढ़ियों की ओर देखे बिना ही वह ऐसे फ़टाफ़ट नीचे उतर रही थी मानो उन पर फिसल रही हो या फिर नीचे कोई गहरी खाई है, जिसमें वह गिरना चाहती हो।

उस रात के बाद से कई दिन बीत गए। बाप-बेटी के बीच कोई बातचीत नहीं हुई और वेरा ऐसे बर्ताव करती रही जैसे उनके बीच सब सामान्य है। वह पहले की ही तरह कभी अपने कमरे में लेटी रहती तो कभी ऊपर छत पर टहलती। अक्सर अपने आँसू पोंछती रहती। उसकी आँखें लाल रहने लगीं, जैसे उनमें कुछ गिर गया हो और वहीं फँसा रह गया हो।

ओलगा स्वभाव से बहुत हँसमुख थी, परन्तु वह उन दोनों बाप-बेटी के बीच ऐसी फँसी कि हर समय डरी-सी रहने लगी। बाप-बेटी ने चुप्पी ओढ़ रखी थी और ओलगा को समझ ही नहीं आ रहा था कि वह क्या करे और क्या कहे !

वेरा कभी-कभी घूमने के लिए घर से निकलती थी। जिस रात उसकी माँ-बाप के साथ बात हुई थी, उसके एक हफ़्ते बाद शाम को वह रोज़ की तरह घूमने गई थी और उसके बाद कभी लौटकर नहीं आई। उसने रेल के नीचे आकर ख़ुदक़ुशी कर ली। उसके दो टुकड़े हो गए थे।

ख़ुद पादरी साहब ने ही उसे दफ़नाया। वेरा की माँ वहाँ नहीं थी, क्योंकि वेरा की ख़ुदक़ुशी की ख़बर सुनकर उसे दिल का दौरा पड़ गया था और उसे लकवा मार गया था। वह तो बोल भी नहीं पा रही थी, चलने-फिरने की बात तो दूर। अब वह निश्चल लेटी हुई थी। ओलगा के कमरे में एक ढिबरी जल रही थी और बहुत हलकी-सी रौशनी फैली हुई थी। उसके बग़ल वाले कमरे में वेरा को अंतिम विदाई दी जा रही थी। उससे विदा लेने के लिए एक बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई थी। घर के बाहर खड़े लोग अंतिम विदाई की प्रार्थना और भजन गा रहे थे। ओलगा को सब सुनाई दे रहा था, लेकिन वह अपनी जगह से हिल भी नहीं पा रही थी। यहाँ तक कि जब उसने अपनी बिटिया को विदा कहने के लिए छाती पर सलीब बनाने की कोशिश की तो उसका हाथ ही ऊपर नहीं उठा। उसकी आँखें खुली हुई थीं। वह सब कुछ सुन पा रही थी और महसूस कर पा रही थी। उसकी सोचने-समझने की ताक़त भी बची हुई थी, लेकिन वह पूरी तरह से असहाय हो चुकी थी और चुपचाप लेटे रहने के लिए बाध्य थी। यदि इस समय कोई उसे देखता तो यही सोचता कि वह आराम कर रही है क्योंकि उसकी आँखें खुली हुई थीं।

वेरा को अंतिम-विदाई देने के लिए बहुत सारे लोग इकट्ठे हुए थे। उनमें से कई तो पादरी साहब के मित्र-परिचित और सम्बन्धी थे और बहुत से लोग, बस, एक जवान लड़की के आत्महत्या करने की ख़बर सुनकर दौड़े चले आए थे। वहाँ मौज़ूद सभी लोग वेरा की ऐसी दर्दनाक मौत से बहुत आहत थे और वे पादरी साहब की आवाज़ और उनके हावभाव में उनके दुख के लक्षण ढूँढ़ने की कोशिश कर रहे थे। पादरी जी स्वभाव से सख़्त होने के साथ-साथ घमण्डी भी थे, इसलिए ज़्यादातर लोग उन्हें पसंद नहीं करते थे। जो लोग प्रायश्चित करने चर्च आते थे, पादरी जी उनके पश्चाताप की बातें सुनकर उन्हें माफ़ करने की बजाय उनसे नफ़रत करने लगते थे। इतना ही नहीं, वे ईर्ष्यालु और लालची भी थे। वे प्रार्थना करने के लिए गिरजे में आने वाले लोगों से पैसे ऐंठने का कोई अवसर हाथ से जाने नहीं देते थे। वेरा की अंतिम विदाई में आने वाले लोग पादरी साहब को बेहद दुखी और टूटा हुआ देखना चाहते थे। ज़्यादातर लोगों का मानना था कि वे न तो अच्छे पिता हैं और न ही भले पादरी। लोगों को यह कहते भी सुना गया कि यह कैसा पादरी और कैसा बाप है, जो अपने ख़ून को ही ख़ुदकुशी करने से न रोक सका। उनका मानना था कि वेरा की इस अकाल मृत्यु में उसके बाप का ही कसूर है।

अंतिम विदाई में उपस्थित सब लोगों की उत्सुक निगाहें पादरी साहब पर गड़ी हुई थीं। पादरी साहब भी उन नज़रों के पीछे छुपा भाव समझ रहे थे। इसलिए वे जानबूझकर अपनी चौड़ी और मज़बूत छाती को और अधिक तानने की कोशिश कर रहे थे।

एक बढ़ई भी वहाँ मातमपुरसी के लिए आया हुआ था। लोगों से बात करते हुए उसने पादरी जी की चर्चा करते हुए उन्हें खड़ूस बताया क्योंकि उन्होंने कभी उससे अपने घर के लिए एक चौखट बनवाई थी और उसकी मेहनत के पाँच रूबल अभी तक उसे नहीं दिए थे।

वेरा के ताबूत के साथ पादरी साहब पूरी छाती तानकर क़ब्रिस्तान गए और उसे दफ़नाकर वैसे ही छाती ताने-ताने वापस घर लौट आए। बस, एक बार वे थोड़ा सा झुके थे, जब वे बीवी को देखने और उसकी तबियत का हालचाल पूछने उसके कमरे के दरवाज़े पर गए थे। बाहर से पादरी साहब जब अपनी बीवी के कमरे में गए तो उसमें इतनी कम रौशनी थी कि पहले तो उन्हें उसका चेहरा दिखा ही नहीं, और जब दिखा तो वे हैरान रह गए। उसका चेहरा एकदम शांत था। न उसकी आँखों में आँसू थे, न ही चेहरे पर ग़ुस्सा और न ही कहीं कोई दुख था। बिस्तर पर पड़े उसके भारी-भरकम बदन की तरह उसकी आँखें भी मूक थीं।

उन्होंने पत्नी से पूछा — कैसी हो तुम ?

ओलगा के होंठ ज़रा भी न हिले, वह जैसे गूँगी हो गई थी, उसकी आँखों में भी ख़ामोशी और उदासी छाई थीं। पादरी साहब ने उसके माथे पर अपना हाथ रखा। उसका माथा ठंडा और पसीने से तर था। ओलगा के हावभाव से रत्ती भर भी ऐसा एहसास नहीं हुआ कि किसी ने उसके माथे पर हाथ रखा है। पादरी साहब ने जब अपना हाथ उसके माथे से हटाया, तो दो सुरमयी-नीली आँखें उनकी तरफ़ अपलक देख रही थीं। पुतलियाँ फैल जाने से उन आँखों का रंग काला-सा लग रहा था। उन आँखों में न तो उदासी थी और न ही नाराज़गी।

ओलगा के पास खड़े-खड़े पादरी साहब का शरीर काँपने लगा। यह कँपकपीं ठण्ड की उतनी नहीं जितनी डर की थी। वे यह कहकर कि मैं अपने कमरे में जा रहा हूँ, बाहर बैठक में आ गए, जहाँ हमेशा की तरह सब कुछ साफ़-सुथरा था। सफ़ेद कवर में सजी ऊँची-ऊँची कुर्सियाँ कफ़न में लिपटे मुर्दों की तरह खड़ी थीं। बैठक की एक खिड़की पर एक पिंजरा लटका हुआ था, जिसका दरवाज़ा खुला हुआ था और वह ख़ाली था।

पादरी जी ने अपनी बावर्चिन नास्च्या को ज़ोर से पुकारा। उनकी आवाज़ से ऐसा लगा मानो वे ग़ुस्से में हों। पर आवाज़ लगाते ही उन्हें इस बात का एहसास हुआ कि बेटी को दफ़नाने के कुछ घण्टे बाद ही एकदम शांत पड़े घर में इतनी ज़ोर से चिल्लाना ठीक नहीं है। फिर उन्होंने अपनी आवाज़ में एक मिठास भरकर धीरे से नौकरानी को अपने पास बुलाया और उससे पूछा — पिंजरा ख़ाली कैसे है ? हमारी पीली कनारी चिड़िया कहाँ गई ?

वेरा के इस तरह से हमेशा के लिए विदा लेने के बाद नास्च्या का उसके ग़म में रो-रोकर बुरा हाल था। उसकी आँखें सूजी हुई थीं और नाक टमाटर की तरह लाल हो गई थी। उसने बड़ी रुखाई से जवाब दिया — हाँ, पता है, वो कहाँ गई। वो उड़ गई।

— तुमने उसे उड़ा दिया ? पिंजरा खुला क्यों छोड़ दिया ? — पादरी साहब ने भौंहें चढ़ाकर पूछा। 

नास्च्या फ़ूट-फ़ूटकर रोने लगी और अपने सर पर बँधे सूती रुमाल की किनारी से आँसू पोंछते हुए बोली — उस चिड़िया में वेरा की जान बसती थी। क्या उसके जाने के बाद वो यहाँ रह पाती ?

नास्च्या की बात सुनकर पादरी ने यह महसूस किया कि वाक़ई में वह पीली, सुन्दर कनारी चिड़िया, जो हमेशा सर झुकाकर गाती रहती थी, नास्च्या की रूह ही तो थी। अग़र वह पिंजरे से निकलकर, उड़ न गई होती तो क्या यह कहना मुमकिन होता कि वेरा हमारा साथ छोड़ गई है ! पादरी जी उदास हो गए और उन्होंने नास्च्या को अपने घर जाने के लिए कह दिया। जल्दबाजी में वहाँ से बाहर निकलते समय बावर्चिन के दरवाज़े से टकरा जाने पर पादरी साहब के मुँह से निकला — बेवकूफ़ !

2

जिस दिन वेरा को दफ़नाया गया था, उसी दिन से पादरी साहब के छोटे-से घर में हर तरफ़ ख़ामोशी छाई हुई थी। पादरी जी का मानना था कि वह ख़ामोशी ही है, उसे शांति या चुप्पी नहीं कहा जा सकता। ख़ामोशी और चुप्पी में फ़र्क यह है कि चुप्पी में कोई आवाज़ नहीं होती, लेकिन ख़ामोशी में लोग ख़ामोश हो जाते हैं। वे बोल तो सकते हैं, पर बोलना नहीं चाहते हैं।

पादरी साहब जब बीवी के कमरे में आते तो वहाँ भी हर समय ख़ामोशी का साया बना रहता। उन्हें ओलगा की ख़ामोश और ठण्डी निगाहें इतनी वज़नी लगतीं मानो उनकी वजह से कमरे की हवा भी शीशे की तरह नाज़ुक और कँचीली हो जाती कि उन्हें ऐसा लगता जैसे काँच की किरिचें उनके शरीर में धँसी जा रही हों। जब वे बिटिया वेरा के संगीत के नोट्स और किताबें देखते, तब भी उनका मन एक अजीब-सी ख़ामोशी में डूब जाता था। वेरा कुछ ही दिन पहले पीतिरबूर्ग से अपना एक बड़ा पोर्ट्रेट बनवाकर लाई थी। पादरी साहब दिन में कम से कम एक बार उसे ज़रूर निहारते थे। सिलसिलेवार उनकी निगाहें सबसे पहले वेरा के चमकते हुए गालों पर जातीं, जिन पर वे एक खरोंच की कल्पना करते, क्योंकि वेरा के गाल पर भी एक ख़रोंच थी। पादरी जी हर बार जब भी उस पोर्ट्रेट को देखते वे यह समझने की कोशिश करते कि वेरा के गाल पर वह निशान कैसे उभरा होगा ! वे सोचते — अग़र यह निशान ट्रेन से टकराकर बना होता, तब तो उसका पूरा सर ही चकनाचूर हो गया होता, जबकि उसका सर तो साबुत था।

हो सकता है कि उसके शरीर को रेल-पटरी पर से उठाते समय किसी का पाँव उसके गाल से टकराया हो या फिर उसके शरीर को उठाने वाले आदमी के नाख़ून इतने बड़े होंगे कि जब ग़लती से उसका हाथ वेरा के गाल से भिड़ा होगा तो उसके नाख़ून से वह खरोंच लगी होगी। पादरी जी को वेरा की मौत के बारे में ब्योरेवार यानी तफ़सील से सोचने में डर लगता था, इसलिए उसके पोर्ट्रेट को निहारते हुए वे उसके गालों के बाद सीधा उसकी आँखों पर आ जाते। पोर्ट्रेट में उसकी लम्बी-लम्बी पलकों के बाद उनका ध्यान सीधा उसकी काली आँखों में लगे काजल के भीतर से चमकने वाली सफ़ेद पुतलियों की ओर जाता। पता नहीं क्यों चित्रकार ने उसकी आँखों के नीचे हलका-सा कालापन झलका दिया था। इस कालेपन पर नज़र पड़ते ही उन्हें लगता कि जैसे वेरा शोक में हो।

पादरी जी का विचार था कि जिस चित्रकार ने वेरा का पोर्ट्रेट बनाया है, वह सचमुच में बहुत प्रतिभाशाली है। पोर्ट्रेट में उसकी आँखों और उसकी नज़रों के बीच एक झीना-सा पारदर्शी परदा था, मानो किसी नए और चमकदार पियानो पर हलकी धूल की परत जम गई हो, जिसकी वजह से उसकी चमक थोड़ी कम पड़ गई हो। पादरी साहब वेरा की उस तस्वीर को कमरे के किसी भी कोने में रख देते, उन्हें लगता रहता जैसे उसकी कजरारी आँखें उन्हें ही देख रही हों। उसकी नज़रें चुपचाप उनका पीछा करती रहतीं, जैसे वेरा उनसे कुछ कहना चाहती हो, पर तस्वीर भी, भला, कभी कुछ बोल सकती है ! वेरा की यह चुप्पी उन्हें इतनी साफ़-साफ़ महसूस होती थी कि उन्हें ऐसा लगता था कि वे लगातार उस ख़ामोशी को सुन रहे हैं।

हर रोज़ गिरजे में सुबह की प्रार्थना कराने के बाद वे सीधे घर आ जाते। बैठक में घुसते ही सबसे पहले उनकी निग़ाह वहाँ ख़ाली लटके पिंजरे पर पड़ती। इस पिंजरे को देखकर उनकी उदासी और गहरी हो जाती। वे एक अगोचर थकान के साथ कमरे की दूसरी चीज़ों पर निग़ाह डालते और आराम-कुर्सी पर बैठकर आँखें मूँद लेते। आँखें मूँदे-मूँदे ही वे घर में छाई चुप्पी की आवाज़ सुनते।

यह सब लगता तो थोड़ा अजीब ही है। पिंजरा ख़ामोश था और उस ख़ामोशी में एक उदासी बसी थी, जैसे कोई रो रहा हो। मन ही मन उन्हें रुदन की आवाज़ सुनाई देती, फिर यह आवाज़ एक उदास और वीरान हँसी में बदल जाती। उनकी बीवी दूसरे कमरे में लेटी हुई थी। वह भी चुपचाप निढाल और मुरझाई हुई पड़ी रहती। लेकिन उसकी चुप्पी घर की दीवारों की ख़ामोशी से कहीं नरम थी। हालाँकि वह नरम चुप्पी भी उन्हें इतनी डरावनी लगती थी कि भरी गर्मियों के सबसे गरम दिन में भी पादरी साहब को कँपकँपी चढ़ जाती।

बेटी की तस्वीर से छलक रहा मौन उसकी मौत की तरह ही रहस्यमयी था। उन्हें लगातार यह एहसास होता रहता कि उनकी बिटिया ज़िंदा है और उनके आस-पास ही घूम रही है। वे उसके मौन को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे। उसकी चुप्पी उन्हें भीतर तक टीस रही थी। वे बेटी से कुछ बात करना चाहते थे, पर दोनों के मन का तार नहीं जुड़ रहा था। बेटी जैसे कहीं दूर खड़ी उस तार को हिला रही थी। उनके मन में अटका तार उन्हें बेटी की तरफ़ खींच रहा था। पर वे चाहकर भी असहाय से अपनी जगह पर गतिहीन ही खड़े रह जाते। कहीं दूर, दूसरे छोर पर वह तार हिलता रहता और धीरे-धीरे उनके मन में तरंग की तरह बजने लगता। पादरी साहब उसकी लौ को पकड़ने की कोशिश करते। इस तरंग को सुनकर जहाँ उन्हें बेहद ख़ुशी होती, वहीं एक डर की सुरसुरी भी उनके बदन में फैल जाती। कभी-कभी वे उस आवाज़ को पकड़ने की कोशिश करते। अपने दोनों हाथों को आरामकुर्सी के हत्थों पर रखकर, वे अपनी गर्दन अपने बदन से आगे की ओर निकाल लेते। इस तरह सर आगे करके वे उस आवाज़ के खुद तक पहुँचने का इंतज़ार करते। पर एक दिन अचानक वह तरंग बीच में ही टूट गई और उनकी उदासी बढ़ गई। उन्हें बेटी की इस हरकत पर ग़ुस्सा आ गया। नाराज़गी में कुर्सी से उठते हुए उन्होंने कहा — यह सब बकवास है ! और वे तनकर खड़े हो गए और खिड़की के पास जाकर बाहर झाँकने लगे।

खिड़की से बाहर एक सड़क दिखाई दे रही थी, जो सामने वाले चौराहे से जाकर मिल जाती थी। घर के बाहर ही एक चौक बना हुआ था, जिसमें गोल-गोल पत्थर लगे हुए थे। चौक में अच्छी-खासी धूप आ चुकी थी। चौक के सामने एक गोदाम बना हुआ था, जिसकी लम्बी और पक्की दीवार पर एक भी खिड़की नहीं थी। गोदाम के एक किनारे पर एक कोचवान अपनी गाड़ी लिए खड़ा था और सवारियों का इंतज़ार कर रहा था। उसे देखकर पादरी साहब के मन में अचानक यह बात आई कि न जाने यह गाड़ीवाला यहाँ क्यों खड़ा है ! यहाँ तो घंटों तक एक भी राहगीर दिखाई नहीं देता।

3

पादरी साहब का घर से बाहर दूसरे पादरियों, चर्च में आने वाले लोगों और अन्य परिचितों के साथ काफ़ी बैठना-बतियाना होता था। धार्मिक अनुष्ठानों और त्योहारों के दौरान भी बातें करनी पड़ती थीं। परन्तु घर लौटने के बाद उन्हें ऐसा लगता कि वे तो पूरे दिन चुप ही रहे हैं। उनके मुँह से दो बोल भी नहीं फूटे हैं। ऐसा इसलिए होता था क्योंकि उनकी जिन लोगों से भी बात होती, उनमें से किसी के साथ भी वे अपनी बिटिया के बारे में बात नहीं कर सकते थे। उनके मन को लगातार यह सवाल मथता रहता था कि उनकी बिटिया जीवन के सब रास-रंग छोड़कर अचानक इस तरह क्यों चली गई ! ? आख़िर वेरा के इस तरह दुनिया छोड़ जाने की क्या वजहें थीं। वे दिन-रात इसके बारे सोचते रहते थे।

पादरी जी किसी भी सूरत में यह नहीं मानना चाहते थे कि वेरा की मौत की वजहों का पता लगाना नामुमकिन है। उन्हें लगता था कि अभी भी उन कारणों को जाना जा सकता है, जिनकी वजह से वेरा को ऐसा क़दम उठाना पड़ा था। उनकी रातों की नींद हराम हो गई थी। हर वक़्त वे उस अंधेरी आधी रात को याद करते, जब वे और उनकी पत्नी वेरा के कमरे में उसके बिस्तर के पास खड़े थे और उससे पूछताछ कर रहे थे। वैसे तो वे भूल चुके थे कि उस रात उनके बीच क्या बातें हुई थीं। वे उस पल की कल्पना करते, जब उन्होंने वेरा से कहा था, “मुझे बता” और जब वे उस रात को धीरे-धीरे याद करते-करते अपने इस सवाल तक पहुँचते तो उन्हें लगता कि इसके आगे जो कुछ भी हुआ था वह इतना भयानक तो नहीं था कि वेरा को ऐसा ख़ौफ़नाक क़दम उठाना पड़ा।

उनके दिमाग़ में उस काली रात वाली वेरा की छवि पूरी तरह से सजीव थी। उनके सामने आँखें बंद करते ही, बस, उसकी वही छवि उभर आती… उनकी बिटिया सर ऊपर उठाकर बिस्तर पर से उठती है, मुस्कुराती है और कुछ कहती है…। लेकिन वे यह नहीं याद कर पा रहे थे कि उसने क्या कहा था। फ़ादर को लगता कि वेरा का वह अधूरा वाक्य उनकी इस पूरी गुत्थी को सुलझा सकता है। वेरा के वे शब्द उनके इतना क़रीब थे कि उन्हें लगता कि अगर दिल की धड़कन कुछ पलों के लिए रोककर कान खड़े किए जाएँ तो वह सब कुछ सुनाई देगा, जो अब तक उनसे दूर है। पादरी साहब अपने बिस्तर पर से उठे और अपने हाथ मलते हुए उन्होंने नाराज़गी से पूछा — वेरा !... तुम, कुछ तो बोलो !

जवाब में उन्हें सिवाय ख़ामोशी के और कुछ न मिला।

पादरी साहब को अपनी बीवी के कमरे में गए काफ़ी समय हो गया था। एक रोज़ वे उसे देखने पहुँचे और उसकी भारी नज़रों से बचने के लिए उसके पैताने खड़े होने की जगह जाकर उसके सिरहाने बैठ गए और कहने लगे — वेरा की माँ ! ज़रा सुनो, मैं तुमसे वेरा के बारे में कुछ बात करना चाहता हूँ। तुम मेरी बात सुन तो रही हो न ? ओलगा की आँखें मूक थीं। उनमें कोई हरकत भी नहीं हुई। तब पादरी साहब ने अपनी आवाज़ ऊँची करके सख़्ती से कहा — मुझे मालूम है कि तुम्हारे मन में क्या है ! तुम सोचती हो कि वेरा की मौत की वजह मैं था। पर, तुम ज़रा सोचकर तो देखो, क्या मैं कम प्यार करता था उसे? तुम्हारा सोचने का ढंग भी अजीब है…।

हाँ, यह सच है कि मैं उसके साथ सख़्ती बरतता था, पर इसका उस पर कोई असर थोड़े ही पड़ता था। क्या मैंने अपने बाप होने की ज़िम्मेदारी में भी कभी कोई लापरवाही की ? जब वो मेरी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ पितिरबूर्ग जा रही थी, तब मैंने उसे डाँटा ज़रूर था, लेकिन रोका नहीं था। उसने तो वही किया, जो उसके मन में आया। और तुमने क्या किया? तुमने तो उसे वहाँ जाने से रोका भी नहीं। तुम्हारी तो आँखों में आँसू तक नहीं आए। क्या हमने उसे माँ-बाप से कठोर बर्ताव करना सिखाया था ? वो हमारी राय की तो कोई परवाह ही नहीं करती थी। क्या हमने उसे जीवन के भले-बुरे, इनसान के बीच प्यार और मेल-मिलाप और ज़िन्दगी में भगवान की जगह के बारे में नहीं बताया था ?

पादरी साहब ने पादरिन की तरफ़ देखकर उनकी आँखों में झाँका। उन्हें वहाँ अनमनापन-सा दिखाई दिया इसलिए जल्दी से मुँह फेरकर उन्होंने आगे अपनी बात ज़ारी रखी — जब वह अपने दुख हमारे साथ बाँटना ही नहीं चाहती थी तो हम, भला, इसमें क्या कर सकते थे ? मैंने उसके साथ हमेशा मुनासिब बर्ताव किया। जहाँ और जब ज़रूरत हुई उसे प्यार से समझाया, उस पर अपनी नाराज़गी भी ज़ाहिर की, उसे ग़ुस्से से डाँटा भी… सारे तरीके तो अपनाए। लेकिन वो बेवक़ूफ़ और मनचली लड़की सिर्फ़ वही करती थी जो उसके मन में आता था। तुम ज़रा सोचो, वो बड़ी हो चुकी थी। अपना भला-बुरा ख़ुद समझने लगी थी, तो हम उससे ज़बरदस्ती भी नहीं कर सकते थे। उसकी ज़िद के सामने हम घुटने टेककर तो बैठ नहीं सकते थे। हमें क्या पता था कि उसके दिमाग़ में क्या फितूर चल रहा था ! उसका यही बेहूदापन उसे ले डूबा।

पादरी साहब ने आवेश में अपने घुटने पर मुक्का मारा और आगे बोलते चले गए — जब से वो गई है, मैं यही सोच रहा हूँ कि इसकी क्या वजह थी कि उसने ऐसा क़दम उठाया। तुम तो जानती ही हो, मैं थोड़ा सख़्त मिज़ाज का हूँ, लेकिन ज़ालिम तो नहीं हूँ कि अपनी इकलौती बिटिया के साथ भी किसी सवाल पर ज़बरदस्ती करता। कभी-कभी तो मुझे ऐसा भी लगता है कि वो ख़ुद ही हम दोनों से प्यार नहीं करती थी। तभी तो वो अपने मन की बातें हमें नहीं बताती थी। मैं सोच रहा था, चलो मुझसे मोहब्बत नहीं करती तो नहीं करती पर, तुमसे ही वो कौनसा लगाव रखती थी ? तुम्हें बात-बात पर रुलाती थी और तुम उसके सामने टसुए बहाकर भी अपनी बात नहीं मनवा पाती थीं।

इतना कहते-कहते पादरी साहब की आवाज़ में घरघराहट आ गई थी। वे कुछ देर तक कुछ नहीं बोल पाए। उनकी आवाज़ में दर्द उभर आया और वे आगे बोले — हाँ, हाँ, वो तुम्हें प्यार करती थी, ज़रूर करती थी, माँ जो हो। लेकिन फिर मेरे मन में आता है कि तुम्हें दुख देने के लिए ही उसने ऐसी निर्दयी और शर्मनाक मौत चुनी। मुझे तो उसके मरने के तरीके पर भी शर्म आती है। लोगों से मिलते-जुलते हुए या प्रार्थना के बाद चर्च से बाहर निकलने में मुझे झिझक होती है। मैं अपनी बेहूदा और नालायक बेटी की इस हरकत पर भगवान के सामने भी शर्मिन्दा हूँ ।

लानत है तुझ पर, वेरा बिटिया ! — पादरी साहब बेटी को कोसते हुए बुदबुदाए। यह कहने के बाद उन्होंने सर घुमाकर अपनी बीवी पर नज़र डाली। वह तो उनकी बातें सुनते-सुनते ही न जाने कब बे-होश हो चुकी थी। उसे कुछ घंटे बाद ही होश आया। और जब उसे होश आया तब उसकी आँखों से मूकता झाँक रही थी। पता नहीं, उसने पादरी साहब की बातें सुनी भी थी या नहीं। वह क्या कहती, भगवान ने उसकी आवाज़ जो छीन ली थी।

पादरी साहब का मन बेहद बेचैन था। वे किसी भी तरह से अपने दुख को संभाल नहीं पा रहे थे। उसी रात वे अपनी पत्नी और उसकी देखभाल करने वाली नर्स से नज़रें बचाकर चुपके-चुपके, पंजों के बल सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर वेरा के कमरे में गए। जुलाई का महीना था। गर्मी थी और माहौल में शांति थी। चारों तरफ़ चाँदनी बिखरी हुई थी। वेरा का कमरा उसी दिन से बंद पड़ा था, जबसे उसने कमरे में आना बंद किया था। इसलिए कमरे में एक घुटन-सी पैदा हो गई थी और कुछ अजीब-सी गंध आ रही थी। कमरे की टिन की छत दिनभर धूप में तपने से गर्म हो जाती थी, इसलिए कमरे में तपिश भी थी। पादरी साहब ने वेरा के कमरे की एक खिड़की खोल दी।

खिड़की से पूरनमासी का चाँद दिखाई पड़ रहा था और उसकी चाँदनी खिड़की के रास्ते कमरे में झाँकने लगी। अँधेरे कमरे के फ़र्श पर चाँदनी की एक चमकती हुई पट्टी झलकने लगी। चाँद की रौशनी इतनी तेज़ थी कि कमरे में भी हलकी-हलकी रौशनी फैल गई थी। पादरी साहब ने वेरा से हुई उस रात की मुलाक़ात को याद करते हुए उसकी चारपाई की तरफ़ देखा। चारपाई पर सफ़ेद चादर बिछी हुई थी और उसके सिरहाने एक बड़ा-सा सफ़ेद तकिया रखा हुआ था। उस सफ़ेद तकिए पर एक दूसरा छोटा सफ़ेद तकिया रखा हुआ था। सफ़ेदी इतनी ज़्यादा थी कि उन्हें ऐसा लगा कि जैसे अभी-अभी ताज़ा बर्फ़ गिरी हो। बाहर से कुछ दूर बहने वाली नदी की कल-कल की आवाज़ कानों में गूँजने लगी थी। बाहर अहाते में लगे लिंडेन के फूलों की ताज़ा महक के झोंके भी कमरे को महकाने लगे। अचानक दूर से कुछ लोगों के गाने के मंद-मंद स्वर भी कानों में पड़ने लगे। शायद वे लोग रात में नौकाविहार करते हुए गा रहे थे।

पादरी साहब नंगे पाँव थे, जैसे वेरा का कमरा उनके लिए कोई पवित्र जगह हो। वे दबे पाँव वेरा के बिस्तर के क़रीब पहुँचे और घुटनों के बल उसके सिरहाने की तरफ़ झुके। फिर उन्होंने अपना पहलू बदलने की कोशिश की और इस कोशिश में वे बिस्तर पर मुँह के बल गिर पड़े। वेरा के तकियों को भावावेश में उन्होंने इस तरह से अपने आलिंगन में भर लिया मानो उन्होंने अपनी बिटिया को अपनी बाहों में भरा हो। बहुत देर तक वे ऐसे ही पड़े रहे। उनके लम्बे-काले बाल उनके कन्धों पर और बिस्तर पर बिखरे हुए थे। जब उन्हें होश आया तब तक चाँद अपनी जगह से आगे बढ़ गया था और कमरे में नीम अँधेरा छा गया था। पादरी साहब वेरा के तकिये को और ज़ोर से अपनी बाहों में भींचते हुए कुछ फुसफुसाने लगे। वे अपनी बिटिया से बात कर रहे थे। उन्होंने अपने शब्दों में वेरा के लिए सारी मोहब्बत, सारा प्यार उँडेल दिया था। उन्हें लग रहा था कि वह उनकी बात सुन रही है।

4

वेरा के बिस्तर पर लेटे-लेटे वे उससे कह रहे थे — मेरी नन्ही जान वेरा ! तू तो मेरी आत्मा में बसी हुई है। अब अचानक बिना बताए ही तू हमें छोड़कर चली गई। तू तो यह जानती थी, बिटिया ! कि जहाँ तू जा रही है वहाँ से कभी कोई वापिस नहीं लौटता। फिर भी तू हमें, अपने बूढ़े बाप को और अपनी बूढ़ी माँ को इस दुनिया में यूँ ही बेसहारा छोड़कर चली गई। कितनी सख़्तजान थी तू, तुझे हमारे ऊपर ज़रा भी तरस न आया। तेरे रहने से हमें जो मज़बूती मिली हुई थी, जो दीवार हमारे पीछे खड़ी हुई थी, अब तेरे जाने से वह दीवार भरभराकर गिर गई है। तेरा यह कमज़ोर बाप और ज़्यादा कमज़ोर हो गया। अब तो यही इंतज़ार है कि कब हम तेरे पास आएँगे …। यह कहते हुए पादरी साहब ऊपर से नीचे तक काँप रहे थे। उनकी आवाज़ भी भरभराई हुई थी।

वे छुटपन की वेरा को याद करने लगे और कुछ देर रुककर फिर उससे बात करने लगे — बचपने में तू बेहद नाज़ुक और कमज़ोर थी। डरपोक इतनी थी कि पल-पल में रोने लगती थी। अपनी माँ की गोद में भी तू चुप नहीं होती थी। फिर मैं तुझे तेरी माँ से अपनी गोद में ले लेता और मेरी गोद में आते ही तू ऐसे चुप हो जाती थी, जैसे रोई ही नहीं हो। तू खिलखिलाने लगती थी। मैं तुझे अपने कन्धों पर बैठा लेता, अपने नन्हे-नन्हे हाथों से तू मेरे सर को ऐसे पीटती थी, जैसे ढोल बजा रही हो। तेरी माँ चिढ़ जाती थी और मुझसे कहती थी, अब अपनी इस सरचढ़ी बेटी को तुम ख़ुद ही पालो। तुम्हारे लाड़-प्यार से ही यह इतनी बिगड़ गई है कि मेरी गोद तो इसे पसंद ही नहीं आती…

… मेरी वेरु ! मुझे याद है जब तू एकदम छोटी-सी थी, शायद तीन बरस की भी न थी, तू मौत से बेहद डरने लगी थी। एक बार तेरी उँगली में कुछ चुभ गया और एक बूँद ख़ून बाहर निकल आया। तू बेहद घबरा गई थी और टसुए बहाने लगी थी। हम दोनों मिंयाँ-बीवी तुझे बहलाने लगे थे। तू मेरी दाढ़ी से खेलने लगी थी और उँगली की उस चूभ को भूल गई थी। मेरी नन्ही जान ! तू हमें अपने छुटपन से ही बेहद प्यार करती थी। दिन में दस बार हमें प्यार से चूमती थी। बिना बताए तो तू घर से बाहर तक नहीं निकलती थी और अब ऐसे रूठ गई कि हमें छोड़कर चली गई। कितनी निठुर हो गई तू…।

कमरे में शान्ति थी। कहीं दूर से लम्बी-लम्बी और रुक-रुककर रेल के इंजन की सीटी की आवाज़ आ रही थी। पादरी साहब अचानक अपने होश में आ गए। हैरानी से आँखें फैलाकर उन्होंने अपने चारों तरफ़ देखा। वे यह देखकर दंग रह गए कि वे वेरा के कमरे में वेरा के बिस्तर पर लेटे हैं। वे सोच रहे थे कि अभी तो वेरा यहीं थी। मैं उससे बात कर रहा था। लगता है, वह हमें फिर छोड़कर चली गई।

5

अगले दिन सुबह-सुबह पादरी साहब वेरा के पास क़ब्रिस्तान जाने के लिए तैयार होने लगे। वेरा को दफ़नाने के बाद वे पहली बार वहाँ जा रहे थे। कपड़े पहनने से पहले पादरी साहब ने अपने दोनों हाथ ऊपर उठाकर अपनी पीठ सीधी की। अपने दोनों पुट्ठों को देखते हुए उन्होंने सोचा कि उनमें अभी-भी पहले जितनी ताकत है। उनका ध्यान न तो अपने पाँवों की कमज़ोरी की तरफ़ गया और न ही उन्होंने यह महसूस किया कि उनकी लम्बी दाढ़ी बीते कुछ दिनों में ही बर्फ़ की तरह सफ़ेद हो गई है। गिरजाघर से सीधी-लम्बी सड़क क़ब्रिस्तान तक जाती थी। बीच-बीच में उसमें चढ़ाई और ढलान भी थी। क़ब्रगाह का मुख्य दरवाज़ा सफ़ेद मेहराब का था, जिसमें बीच में लोहे का काला दरवाज़ा लगा हुआ था। दरवाज़े के बीच में एक खिड़की-सी बनी हुई थी, जिसमें सफ़ेद सरिये लगे थे। दूर से देखने पर वह काला दरवाज़ा मौत के खुले हुए मुँह की तरह लगता था, जो लोगों का जीवन लीलने के लिए तैयार बैठी है।

वेरा की क़ब्र मुख्य दरवाज़े से बहुत दूर थी। कच्चा रास्ता ख़तम होने के बाद आगे संकरी-संकरी पगडंडियाँ थीं और उन पगडंडियों के बीच छोटे-छोटे हरे-भरे टीले थे, जहाँ कोई नहीं जाता था। ये टीले उन क़ब्रों के थे, जिनमें पचासियों बरस पहले लोगों को दफ़नाया गया था यानी ये उन पुरानी क़ब्रों के स्मारक थे, जिनका कोई रिश्तेदार आज ज़िंदा नहीं बचा था और देखरेख न होने की वजह से उनकी हालत ख़स्ता हो गई थी। क़ब्रिस्तान में जगह-जगह भारी-भारी पत्थर ज़मीन में से उगे हुए थे। इन्हें देखकर यह अंदाज़ होता था कि कभी यह इलाका पहाड़ी इलाका रहा होगा। ऐसी ही एक बड़ी चट्टान के पास वेरा की क़ब्र थी, जिस पर पड़े फूल बीते सात दिनों में सूख गए थे। क़ब्र की मिट्टी पर हरी घास उगने लगी थी, जो इस बात का संकेत थी कि जीवन अनंत है।

वेरा की क़ब्र के ऊपर पास लगे चिनार के पेड़ की डाल फैली हुई थी। दूसरी तरफ़ भोजवृक्ष की टहनियाँ उस पर झूम रही थीं। पादरी साहब वेरा की क़ब्र पर पहुँचे और वहीं बैठकर उसे याद करने लगे। आसमान साफ़ था, धूप बहुत तेज़ थी। हवा भी नहीं चल रही थी। गहरी शांति के इस माहौल में भी पादरी साहब को गरमी का एहसास हुआ। उन्होंने जेब से रुमाल निकालकर अपने माथे पर आया पसीना पोंछा। चारों तरफ़ भारी चुप्पी छाई हुई थी। उनका मन वेरा को लेकर बेचैन था और उन्हें लग रहा था कि क़ब्रिस्तान में छाई यह चुप्पी शान्ति नहीं है, बल्कि वेरा के निधन के बाद उनकी ज़िन्दगी में फैल गई ख़ामोशी है। यह ख़ामोशी क़ब्रगाह के चारों ओर बनी ईंट की दीवारों तक फैली हुई है और फिर क़ब्रिस्तान की चारदीवारी से बाहर निकलकर यह ख़ामोशी पूरे शहर में समा गई है। ख़ामोशी ने उनके घर को पूरी तरह से घेर रखा है। उनकी पत्नी ओलगा भी मृत्यु शैय्या पर पड़ी हुई है। उनका जीवन पूरी तरह से एकाकी हो गया है। अब उन्हें प्यार करने वाला इस दुनिया में कोई नहीं रहा।

पादरी साहब ने अपने कन्धे उचकाए और आँखें वेरा की क़ब्र की ओर झुका लीं। वे देर तक वेरा की क़ब्र पर उग आई नई ताज़ी घास की छोटी-छोटी पत्तियों को बड़े ध्यान से देखते रहे। पादरी साहब यह कल्पना नहीं कर पा रहे थे कि इस घास के दो हाथ नीचे उनकी बेटी वेरा हमेशा के लिए लेटी हुई है। वह दो हाथ की निकटता उनकी समझ में नहीं आ रही थी और उससे उन्हें अजीब-सी चिंता हो रही थी। जिसके बारे में पादरी साहब की यह सोचने की आदत हो गई थी कि वह अनंत की गहराइयों में हमेशा के लिए चली गई है, पर वह तो यहाँ पर उनके एकदम पास में ही लेटी हुई है …। साथ ही यह समझना भी मुश्किल था कि वह अब यहाँ नहीं है और कभी नहीं होगी। पादरी साहब के मन में आया कि अगर वे कोई ऐसा शब्द अपने मुँह से निकालें, जो वेरा को पसंद नहीं था तो उनकी लम्बी और सुन्दर वेरा अपनी क़ब्र से निकलकर तुरंत बाहर आ खड़ी होगी।

पादरी साहब ने अपना चौड़े किनारों वाला काला हैट अपने सर से उतारा और फुसफुसाते हुए वेरा को पुकारा :

— वेरा !

उन्होंने थोड़ी देर इंतज़ार किया कि शायद अभी वेरा उनके सामने आ खड़ी होगी। लेकिन जब वेरा उन्हें दिखाई नहीं दी तो उन्होंने फिर से कहा :

— वेरा !

दूसरी बार उनकी आवाज़ पहले से थोड़ी ज़्यादा सख़्त और रौबीली थी। उन्हें यह अजीब लगा कि उनकी रौबीली आवाज़ का भी वेरा ने कोई जवाब नहीं दिया।

अब पादरी साहब बार-बार उसका नाम लेकर पुकारने लगे। फिर वे एक पल के लिए रुके। यह पल बीतते-न बीतते उन्हें लगा कि क़ब्र के नीचे से अजीब-सी कोई आवाज़ आ रही है। पादरी जी ने एक बार चौकस होकर चारों तरफ़ देखा। उन्होंने कानों पर लटके अपने बाल हटाए और नीचे लेटकर अपने कान सूखी ज़मीन पर टिका दिए और फुसफुसाते हुए कहा :

— वेरा, बोल ! बोल बिटिया, बोल !

उन्हें लगा जैसे क़ब्र में से कोई ठण्डी-सी लहर आकर उनके कान के रास्ते दिमाग़ में जा रही है, जिससे दिमाग़ में ठंडक हो रही है। उन्हें वेरा की आवाज़ तो सुनाई दे रही थी, पर यह नहीं समझ में आ रहा था कि वह क्या कह रही है। चारों तरफ़ ख़ामोशी छाई हुई थी। वेरा की यह आवाज़ सुनकर पादरी साहब डर गए थे। आख़िर उन्होंने अपना कान ज़मीन पर से हटाया।

उनका चेहरा मुर्दे की तरह सफ़ेद हो गया था। उन्हें लगा कि जैसे उनके साथ-साथ हवा भी थरथर काँप रही है। जैसे वे समुद्र के बीचोंबीच हैं और तूफ़ान आ गया हो। समुद्र की बेहद ठंडी बर्फ़ीली लहरें हहराकर उनपर टूट पड़ी हैं। पादरी साहब अपनी बिटिया वेरा के वियोग में कराह उठे।

पहले उन्होंने अपने चारों तरफ़ नज़रें घुमाकर देखा, फिर हिम्मत जुटाकर धीरे-धीरे उठने की कोशिश की। ज़मीन से उठकर उन्होंने पहले अपनी पतलून झाड़ी, फिर हैट लगाया और उसके बाद वेरा की क़ब्र पर तीन बार सलीब बनाकर, वहाँ से वापिस लौट पड़े। उनका दिमाग़ अभी भी ‘वेरा की आवाज़’ में ही अटका था। इसलिए थोड़ी दूर चलने के बाद ही वे रास्ता भटक गए।

एक दोराहे पर पहुँचकर वे समझ गए कि वे ग़लत दिशा में जा रहे हैं। वे रुके और ख़ुद पर हँसते हुए कहा ज़ोर-ज़ोर से कहा — बूढ़े मियाँ, तुम रास्ता भूल गए हो। वे कुछ पल वहीं खड़े रहे, फिर तुरन्त बाएँ हाथ की तरफ़ मुड़ गए। क़ब्रिस्तान में ख़ामोशी छाई थी और यह ख़ामोशी उनका पीछा कर रही थी। अब उन्हें यह ख़ामोशी भी काट रही थी। वे सोच रहे थे कि कैसे जल्दी से जल्दी इस क़ब्रगाह से बाहर निकलें।

पक्के रास्ते पर पहुँचते ही वे मुख्य दरवाज़े की तरफ़ दौड़ने-से लगे। वे इतनी तेज़ी से चल रहे थे कि ऐसा लग रहा था जैसे हवा से बातें कर रहे हों। सच कहा जाए तो वे डरे हुए थे। उन्हें लग रहा था कि जैसे वे अभी शैतान से मिलकर आ रहे हों। शैतान के अलावा और कौन हो सकता है, जो वेरा बनकर उनसे बात कर रहा था।

दौड़ते-दौड़ते पादरी साहब उस खुले मैदान में जा पहुँचे, जिसके एक छोर पर क़ब्रिस्तान का सफ़ेद रंग का छोटा-सा गिरजा बना था। उसके बरामदे में बेंच पर एक बूढ़ा आदमी सो रहा था। शायद वह कहीं दूर से आया कोई यात्री था, जो अपने सगे-संबंधियों की क़ब्रों पर श्रद्धांजलि देने आया था। वहीं बरामदे में दो बूढ़ी भिखारिने बैठी थीं और किसी बात पर आपस में झगड़ रही थीं।

क़ब्रिस्तान से घर लौटते-लौटते अँधेरा हो गया था। ओलगा के कमरे में बत्ती जल रही थी। पादरी साहब ने न तो अपने सिर से हैट उतारा और न ही शमशान वाले कपड़े बदलकर घर के कपड़े पहने। दिनभर की थकान से अधमरे वे सीधे अपनी बीवी के कमरे में पहुँचे और उसके बिस्तर पर गिरकर, फूट-फूटकर रोने लगे।

— ओलगा…ओलगा… मुझ पर रहम करो, मेरी जान ! जल्दी से ठीक हो जाओ, होश में आओ, तुम्हारे बिन मैं अकेला पड़ गया हूँ। मैं पागल हो रहा हूँ।

वह आदमी, जो कभी नहीं रोता था, अब सुबक-सुबककर रो रहा था।

— ओलगा प्यारी ! अब तेरे अलावा मेरा कौन है ? अभी-अभी वेरा से मिलकर आया हूँ। वो ठीक है, वो सुखी है। मैंने उससे बातें भी की।

पादरी साहब सरककर बीवी के एकदम क़रीब पहुँचे और उसे चूमने लगे। इसके बाद उन्होंने उसकी आँखों में आँखें डालकर देखा और प्यार से कहा — जल्दी से ठीक हो जाओ फिर हम-तुम मिलकर उसके पास चलेंगे।

पर ओलगा की आँखें वैसी ही सूनी और चेतनाहीन बनी रहीं। पादरी साहब के लिए ओलगा की आँखों में न तो कोई अफ़सोस था, न ही ग़ुस्सा और न ही प्यार। उसकी आँखें गूँगी और ख़ामोश थीं। हो सकता है, उसने अपनी ख़ामोशी में अपने इस ज़ुल्मी शौहर को माफ़ कर दिया हो। पादरी साहब को यह ख़ामोश और साँय-साँय करता ख़ाली पड़ा घर ऐसा लग रहा था जैसे वो एक क़ब्रिस्तान से दूसरे क़ब्रिस्तान में लौट आए हों।

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : सरोज शर्मा

भाषा एवं पाठ सम्पादन : अनिल जनविजय

मूल रूसी भाषा में इस कहानी का नाम है —’मलचानिये’ (Леонид Андреев — Молчание)