ख़ामोश लिफ़ाफ़ों का मौसम:अनायास सृजित कविताएँ / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

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किसी भी कविता का छोटा या बड़ा रूप होना, उसकी शक्ति का मूल कारण नहीं है। उसकी शक्ति है-गहन अनुभूति और उसका सम्प्रेषित होने वाला स्वरूप। लघु रूप में क्षणिका की रचना जितनी कठिन है, उतना ही कठिन है लम्बी कविता और उसके भाव को प्रवाहमय बनाए रखना। जहाँ छोटी कविता में अस्पष्टता की सम्भावना बनी रहती है, वहीं लम्बी कविताओं में भाव-विचार एव कल्पना के विशृंखल होने का संकट बना रहता है। डॉ. पूनम चौधरी का काव्य-संग्रह 'ख़ामोश लिफ़ाफ़ों का मौसम' की कविताएँ पढ़ने का अर्थ है-उनकी गहराई में निमज्जन। इस संग्रह में 32 कविताएँ हैं, जिनमें से अधिकतर अपने कलेवर में लम्बी हैं।

इनकी कविताएँ जिस भाव को लेकर पाठकों से जुड़ती हैं, अन्त तक उसका अप्रतिहत रूप बनाए रखती हैं। कविता में भाव और भाषा का किसी तरह का व्यवधान उत्पन्न नहीं होता। पिता से अप्रतिम जुड़ाव को लेकर रची कविताएँ-'पिता, तुम सच में चले गए?' और 'एक पिता की स्मृति में आत्मा का प्रणाम' कल-कल, छल-छल करते हुए निर्झर-सी लगती हैं, जहाँ पिता केवल पिता नहीं; बल्कि कवयित्री की आत्मा का स्पन्दित रूप है। पहली कविताता प्रश्न रूप में सामने आती है। क्या पिता कभी जा सकते हैं? ध्वनित होता है-नहीं, कभी नहीं। इस कविता में विदा के चित्र की मार्मिकता द्रवित कर जाती है-

जब मैं विदा हुई थी, / छलक गई थीं तुम्हारी आँखें,

पर छुपाकर सारा दर्द, / ओढ़कर मुस्कान, / थमाया था धीरज—

अब पिता नहीं रहे, तो लौटने पर पहले वाला घर, पहले जैसा नहीं लगता। कवयित्री अपने प्रति पिता की चिन्ताकुलता और सहज आतुरता को आन्तरिक गहराई से महसूस करती है। साथ ही पिता पर चिड़चिड़ाना आज हृदय के किसी कोने में गहरी भावुक स्मृति की कसक छोड़ जाता है-

रास्ते भर फ़ोन नहीं खटकता— / "कहाँ पहुँची? कब आएगी?"

तुम्हारी आतुरता और मेरा चिड़चिड़ाना— / "पहले आ जाऊँ, फिर कर लूँगी बात!"

सबके अपने-अपने दुःख हैं; लेकिन माँ का निस्सीम अवसाद मन को आन्दोलित करता है-माँ की आँखों की नमी दिल को चीरती है। यह पिता को केन्द्र में रखकर रची गई कविताओं में अद्वितीय है। या हों कहें-प्रत्येक बेटी की संवेदना को चित्रित करने वाला भाव-काव्य है, जिसमें जीवन की तरलता समाई हुई है।

एक पिता की स्मृति में आत्मा का प्रणाम' कविता की कुछ पंक्तियाँ तो ॠचा की तरह हैं, एक देवत्व भरा अनुभाव लिये हुए, जिसमें जीवन-संघर्ष का जीवट श्रमसिक्त स्वेद से भीगा रूमाल देववसन बन जाता है-

तुम्हारे पसीने की गंध से भीगा रुमाल / मेरे लिए देववसन था— /

पिता के माथे को छूने की स्मृति आत्मा का स्पन्दन बन गई है। भावों की यह अतलस्पर्शी पावनता प्रकृति के शाश्वत राग की तरह गूँज उठती है-

तुम्हारे माथे पर छुए / अंतिम स्पर्श की स्मृति

हर शाम लौटते पंछियों के संग / मेरे पास लौट आती है

शिक्षा-जगत् से जुड़े होने के कारण बच्चों के जीवन में घटित होती सब अवांछनीय दुविधा और चुनौतियाँ चित्रपट की तरह आँखों के सामने घूमती हैं। 'नन्हे ईश्वर' कविता में एक ओर बच्चों की व्यथा है, तो दूसरी ओर उनकी हार न मानने वाली जिजीविषा है, जो कच्ची उम्र में ही उनको संघर्षचेता बना देती है। यही उनका नन्हा ईश्वरीय रूप है-

वे नन्हे ईश्वर हैं, / इसलिए नहीं कि वे चमत्कारी हैं,

बल्कि इसलिए कि वे जूझते हैं— / बिना ईश्वर को दोष दिए,

बिना समाज से बदला लिये,

शिक्षा के क्षेत्र में जिस अभियान पर हम फूले नहीं समाते, उसकी क्रूर सच्चाई यह है कि शिक्षा से पहले पेट की आग का सामना करना पड़ता है। कवयित्री की यह पीड़ा मुखर हो उठी है-

वे सरकारी पाठशालाओं की देहरी चूमते हैं / सिर्फ़ इसलिए नहीं कि उन्हें ज्ञान चाहिए,

बल्कि इसलिए भी कि दोपहर की थाली में / एक मुट्ठी चावल, / एक फूली रोटी / और थोड़ी गरम दाल

'बच्चे फिर सवाल बनकर लौटें' कविता में शिक्षा-जगत् का जो बिम्ब उभरता है, वह बहुत सारे प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। आज की शिक्षा ने बच्चों के सहज एवं निश्छल रूप को जकड़ लिया है। उसमें यान्त्रिक अनुशासन तो है; पर बच्चे के जीवन की सहजता विलुप्त है। हमारी महत्त्वाकांक्षाओं का बोझ ढोना और केवल दिशाहीन निर्देशों का पालन ही शिक्षा का पर्याय बन गया है। समाज और जीवन की कृत्रिमता ने उनका बचपन छीन लिया है-

हमारी महत्त्वाकांक्षाओं को बस्तों में भरकर, / सभ्यताओं के ऋण सदृश / कंधों पर लादे,

वे बच्चे चले जा रहे हैं— / हर सुबह, हर गली, हर निर्देश के पीछे।

कवयित्री ने जिस वर्तमान संकट के प्रेत की ओर ध्यान दिलाया है, वह अब हर घर में घुसपैठिया बनकर आ चुका है। खेल के मैदान में घास उगने की व्यंजना पूरी कविता की धुरी है-

उनकी आँखों में अब कोई कहानी नहीं जलती, / बल्कि स्क्रीन की कृत्रिम रौशनी

दृष्टि नहीं, दृष्टिकोण को बुझा चुकी है। / खेल के मैदानों में अब घास उग आई है,

शिक्षक का काम केवल निष्प्राण अव्यावहारिक सूचना देना और पाठ्यक्रम पूरा करना रह गया है। वे प्रश्नों का सामना नहीं कर पाते हैं। शिक्षा को सार्थक बनाने के लिए यही सही दृष्टि होनी चाहिए-

हर बच्चा एक राग है / जिसे बाँधना नहीं, / बस धैर्य से सुनना चाहिए।

बच्चे को पढ़ाया नहीं जाता; बल्कि उसे उगने दिया जाता है। यह तभी सम्भव है-

जब बच्चा / चेहरे पर निश्छल मुस्कान भरे स्कूल पहुँचे—

'बच्चे: करुणा से गढ़ा भविष्य' में आपके नितान्त मौलिक चिन्तन और उर्वर कल्पना को और अधिक विस्तार मिला है-

और जब कोई बच्चा / विश्वास से बोलता है, / तो वह अकेला नहीं बोलता—

वह भविष्य बोलता है, / सभ्यता बोलती है।

स्त्री-विमर्श को लेकर दशकों से विकृत बुद्धिजीवी तरह-तरह के फ़तवे जारी करते रहते है। स्त्री-स्वतन्त्रता की आड़ में उनके शोषण का छुपा एजेण्डा काम करता रहता है। स्त्री की संवेदना का सम्मान हमारी सामाजिक प्रतिबद्धता का मूलाधार होना चाहिए। एक वर्ग ऐसा है, जो नारी को भोग्या से ऊपर देखता ही नहीं। आपने 'स्त्री: संवेदना की अदृश्य अर्थव्यवस्था' में जो विचार-मंथन प्रस्तुत किया वह श्लाघनीय है-

कहते हैं— / स्त्री प्रेम में अधिक देती है। / सच है— / वह रिश्तों में निवेश करती है /

पूँजी की तरह, / जहाँ उसका मूलधन है प्रेम, / लाभांश है सम्मान।

एक वर्ग ऐसा है, जो नारी को भोग्या से ऊपर देखता ही नहीं। नित्य प्रति तथाकथित ज़िम्मेदार लोगों के ऐसे बयान आते रहते हैं, जिनसे नारी का सम्मान और उसका अस्तित्व तार-तार होता रहता है। इस प्रवृत्ति को रोकना आवश्यक है-

अपमान—एक ऐसा ऋण / जिसकी किश्तें वह जीवन भर चुकाती है,

कभी शब्दों में, / कभी आँसुओं में।

प्रकृति और पर्यावरण, सामाजिक सरोकार, व्यष्टि-समष्टि की अनुभूतियों के भाव-वैविध्य को आपने अपने काव्य में वाणी दी है। काव्य आपके लिए क्या है, इसे आपने 'कविता को कविता रहने दो' में व्यावहारिक रूप से अभिव्यक्त किया है, जिसमें नई-पुरानी सारी शास्त्रीय परिभाषाएँ समा गई हैं-

कविता, / तोड़ती है दीवारें, / खोल देती है / खिड़कियाँ—

संग्रह की शीर्षक कविता–'ख़ामोश लिफ़ाफ़ों का मौसम' की यह पंक्ति-अलविदा, ओ स्याही की नदी! एक अव्यक्त उदासी से भर जाती है।

संग्रह की सभी कविताएँ अनायास सृजित हैं, अतः हृदय के वातायन खुलते ही ये कोना-कोना सिंचित कर देती हैं। काव्य के क्षेत्र में यह संग्रह मील का पत्थर होगा, ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है।

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

प्रकाश पर्वः 5 नवम्बर 2025