ख़ालीपन उसका / गिरिराजशरण अग्रवाल
'तुम प्रतापसिह राणा को तो जानती होगी, अनुराधा?'
बहुत देर से हम दोनों के बीच भिन्न-भिन्न स्वभाव वाले पुरुषों की चर्चा चल रही थी, तभी अनायास क्षिप्रा अग्रवाल मुझसे यह प्रश्न कर बैठी।
'उसे कौन नहीं जानता?' मैंने उत्तर देते हुए क्षिप्रा से कहा, 'वह तो इन दिनों हमारे शहर का सबसे चर्चित व्यक्ति है। सुना है, पिछहत्तर साल की उम्र में एक नवयौवना से आँख लड़ा बैठा है। न मुँह में दाँत, न पेट में आँत। क्या हो गया है इन मर्दों को!'
मैंने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की तो क्षिप्रा थोड़ी गंभीर हो गई. बोली, 'अभी मैंने तुमसे कहा था न कि बालपन और युवावस्था के कुछ अभाव ऐसे हैं, जो मनुष्यों में एक वैक्यूम-सा छोड़ जाते हैं। मनुष्य मरते दम तक इस वैक्यूम को भरने का प्रयास करता रहता है, पर यह ख़ालीपन कभी भरता ही नहीं है।'
'तुम तो शिप्रा, हर मामले में कोई-न-कोई मनोवैज्ञानिक पक्ष ढूँढ़ निकालने की अभ्यस्त हो गई हो। अभी तुम अपने पतिदेव की चर्चा करते हुए कह रही थीं कि रजनीश का बचपन सूखी रोटी पर गुजरा था। जब वे संपन्न हुए तो भाँति-भाँति के स्वादिष्ट और चटपटे व्यंजनों की ओर लपकने लगे। पेट भर जाता है, पर मन नहीं भरता कभी।'
'हाँ, मैंने कहा था।' क्षिप्रा ने अनुराधा द्वारा दोहराई गई अपनी बात का अनुमोदन किया, 'और मैं अब भी कहती हूँ कि रजनीश के भीतर बढ़िया भोजन के लिए जो ख़ालीपन रह गया था, वह भर नहीं पा रहा है, अब तक। गहराई में जाकर देखो तो आदमी के अंदर कई अतृप्तियाँ ऐसी भी होती हैं, जो अंतिम क्षण तक शांत नहीं हो पाती हैं।'
'संभव है।' मैंने सिद्धांत रूप में क्षिप्रा की बात को स्वीकार न करते हुए कहा, 'कई व्यक्तियों में ऐसा होना संभव है, कई व्यक्तियों में नहीं।'
'हाँ, अनुराधा! मैं भी ऐसे ही व्यक्तियों की बात कर रही हूँ, जिनमें अतृप्ति की यह अनपहचानी भावना उत्पन्न हो जाती है। वे अनजाने ही अपने उस ख़ालीपन को भरते रहते हैं, जो प्रारंभिक जीवन के किसी मोड़ पर उनके भीतर घुस आया था। बहुत संवेदनशील होते हैं, ऐसे व्यक्ति और जीवन-भर उस पिपासा को बुझाते रहते हैं, जो जिदगी के किसी मोड़ पर उनके भीतर अपनी जड़ें जमाकर चली गई थी।'
'तुम्हारी बातें हमेशा ज्ञान के बोझ से दब जाती हैं, क्षिप्रा। अध्ययन बहुत करती हो न! सत्तर वर्ष की तो तुम भी हो गई होगी अब।' अनुराधा ने क्षिप्रा पर चोट की।
'हाँ!' वह बोली, 'प्रतापसिह राणा से छः वर्ष छोटी हूँ मैं। इस तरह इकहत्तर साल की बैठती है मेरी उम्र। हम दोनों के परिवार साथ-साथ रहे हैं। बीच में बस एक ही दीवार ही थी।' क्षिप्रा ने अतीत की ओर झाँकते हुए कहा।
'लेकिन यह राणा तो बुढ़ापे की दहलीज तक पहुँचते-पहुँचते बिल्कुल ही भ्रष्ट हो गया है क्षिप्रा—।' मैंने उससे कहा।
'क्या तुम भी उसकी कुछ कहानियाँ जानती हो?' क्षिप्रा ने सब-कुछ जानने के बावजूद मुझसे पूछा।
'क्यों नहीं जानती।' मैंने कहा, 'एक मैं ही क्या, कितने ही लोग जानते हैं कि वह सीमा नाम की एक विधवा युवती को लिए फिरता है, कार में, होटलों में, बाजारों में। बेतहाशा धन व्यय कर रहा है, उस पर।'
'हो सकता है यह सच हो, लेकिन इससे यह कैसे सिद्ध होगा कि जो सम्बंध उन दोनों के बीच हैं, उनमें कहीं—।'
'खोट की बात रहने दो क्षिप्रा।' मैंने उसकी बात बीच में काट दी, 'नारी और पुरुष के सम्बंधों में आशंका की बहुत गुंजाइश रहती है।'
'हाँ, रहती तो है_ पर कई बार वास्तविकता आशंकाओं से एकदम विपरीत होती है। कई बार वास्तविकता के पीछे भी एक और वास्तविकता छिपी होती है। हम लोग अंतिम वास्तविकता तक पहुँचने का प्रयास नहीं करते हैं।'
'मैं मानती हूँ क्षिप्रा। तुम स्वयं एक उलझे हुए स्वभाव की महिला हो। बात की खाल निकालने की धुन में रहती हो। अरे भई, लोग तो वही कहेंगे, जो देखेंगे। वही सोचेंगे, जो उन्हें सोचने को मिलेगा।'
'हाँ, पर मेरा और तुम्हारा दृष्टिकोण तो ऐसा नहीं होना चाहिए, अनुराधा। वास्तविकताओं के पीछे जो एक वास्तविकता छिपी रहती है, उसे भी तो खोज निकालने का प्रयास करना चाहिए.' क्षिप्रा ने फिर दार्शनिकों वाला उत्तर दिया।
मैं खीज गई. बोली, 'क्या यह झूठ है कि राणा उस विधवा महिला को लिए घूम रहा है? क्या यह झूठ है कि बीमार होने पर राणा ने अपनी उस' कीप'का ऐसे मन लगाकर उपचार किया, दिन-रात उसकी ऐसी सेवा की कि शायद ही कोई पति अपनी अर्द्धांगिनी की करता हो।'
'यह सब ठीक है, लेकिन क्या यह ज़रूरी है अनुराधा कि वास्तविकता केवल वही हो, जिसकी लोग चर्चा कर रहे हैं।' क्षिप्रा बोली।
'लेकिन इसके अलावा और हो भी क्या सकता है? बूढ़ा भ्रष्ट हो गया है, इस ढलती उम्र में।' मैंने दृढ़ता से उत्तर दिया।
क्षिप्रा बोली, 'जब भी राणा की चर्चा होती है, मुझे अनायास उसका यौवन याद आ जाता है।'
'क्यों? क्या कोई विशेष बात हुई थी तब?' मैंने उत्सुकता के साथ पूछा।
'कोई एक घटना नहीं, घटनाओं की शंृखला है अनुराधा, जो राणा को वर्तमान स्थिति में लाने की जिम्मेदार हो सकती है।' क्षिप्रा ने मेरी बात का उत्तर देते हुए कहा।
मैंने पूछा, 'जैसे?'
'तुम नहीं जानती हो अनुराधा।' क्षिप्रा ने राणा के अतीत की चर्चा करते हुए कहा, 'युवावस्था में जब यह अपनी पत्नी सुजाता को साथ लेकर आया था, तो ख़ाली जेब था, ख़ाली हाथ था। उसके लिए घोर अभाव के दिन थे वे।'
'क्या तब कुछ करता नहीं था राणा?' मैंने बीच में टोककर क्षिप्रा से पूछा।
'करता था, पर ऐसा काम, जिससे पेट नहीं भरता, बस मन का संतोष ही मिलता है।' क्षिप्रा ने बताया।
'मैं नहीं समझी, तुम क्या कहना चाहती हो क्षिप्रा।' मैं एक बार फिर क्षिप्रा की बात से उलझन में पड़ गई.
'राणा एक उत्साही युवक था।' क्षिप्रा ने अपने और उसके अतीत की ओर झाँकते हुए कहा, 'वह समझता था कि राजनीति की सीढ़ी पर चढ़कर वह शिखर पर पहुँच सकता है। तब उसने अपने यौवन के दिन एक राजनीतिक कार्यकर्त्ता के रूप में जीने शुरू किए.'
'हाँ, तब राजनीति व्यवसाय नहीं बनी न! लोग पैसा कमाने के लिए राजनीति नहीं करते थे तब। एक बड़ा आदर्श होता था, उनके सामने और उस आदर्श के लिए वे अपना सब-कुछ खो देने के लिए तैयार रहते थे।' मैंने राणा के विषय से हटकर राजनीति में आए नैतिक पतन की चर्चा शुरू कर दी।
क्षिप्रा ने कहा, 'आज की राजनीति को जाने दो। पचास-साठ वर्ष पहले के उस युग पर नजर डालो, जब युवावर्ग समर्पित था, समाज के लिए, देश के लिए.'
क्षिप्रा कुछ देर रुकी। फिर बोली, 'राणा उन दिनों अपने दल का झंडा उठाए-उठाए घूमा करता था। क्रांतिकारी था, इसलिए कई बार जेल चला जाता और महीनों-महीनों कारागार की सलाख़ों के पीछे बंद रहता। चार छोटे बच्चे और पत्नी! वे बड़े ही भयंकर दिन थे, उसके.'
'लेकिन अब तो बहुत संपन्न है वह।' मैंने उससे कहा।
'हाँ, संपन्नता के रहस्य को वह तब समझा, जब सुजाता की राख को गंगा का पानी बहुत दूर बहाकर ले जा चुका था।'
'सुजाता की राख?' मैंने दुख से भरे स्वर में पूछा।
'हाँ, सुजाता उसकी पत्नी थी। एक सीधी-सादी देहाती महिला, पर बहुत साहसी और स्वाभिमानी महिला। मेरी गहरी मित्र बन गई थी वह। अक्सर बीमार रहती और इलाज के लिए पैसे नहीं होते थे। अभावों में ही उसके जीवन का अंत हो गया।'
'अरे!' मैंने दुख-भरा अचंभा व्यक्त किया।
'हाँ।' तुम उन दिनों की कल्पना नहीं कर सकती हो अनुराधा। 'क्षिप्रा बोली,' उन दिनों तो कई बार राणा के पास सिर-दर्द की गोली एस्प्रीन तक लाने के लिए पैसे नहीं होते थे। ग़रीबी और बीमारी की भेंट चढ़ गई, सुजाता। '
'बहुत ही दुखद बात है यह तो, बहुत ही दुखद।' मैंने उत्तर में क्षिप्रा से कहा।
'हाँ, पर सुजाता की मौत राणा को भीतर तक झकझोर गई. वह जीवन में कभी भूल नहीं सकता कि सुजाता की अंतिम यादगार उसकी अँगूठी को बेचकर ही उसका अंतिम संस्कार किया गया था।'
'ओह कैसी पीड़ाजनक गाथा है यह!' मैंने सहानुभूति दिखाते हुए कहा।
'इस बीच मैं जब भी उससे मिली हूँ अनुराधा, मैंने महसूस किया है कि वह इस भूखे अहसास से बाहर नहीं आ सका है?' क्षिप्रा ने बात आगे बढ़ाई.
'कौनसे भूखे अहसास से?' मैंने उसे बीच में टोकते हुए पूछा। वह बोली, 'इसी दर्दीले अहसास से कि वह अपनी पत्नी को जीते-जी कोई सुख नहीं दे सका, जन्मदिन पर उसे कोई उपहार नहीं दे सका, शापिग नहीं करा सका, बीमार हुई तो इलाज की व्यवस्था नहीं कर सका, वह राजकीय अस्पताल के जनरल वार्ड में अच्छा उपचार न होने के कारण मर गई.'
'हाँ, तुमने सही बात कही है अनुराधा।' मैंने उसकी बात से सहमत होते हुए कहा।
'राणा को यह पीड़ा वर्षों तक सालसी रही।' क्षिप्रा ने राणा का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए कहा, 'और तुम आश्चर्य करोगी कि यह पीड़ा उस समय और बढ़ गई, जब वह संपन्न जीवन व्यतीत करने लगा।'
'लेकिन तब क्या हो सकता था। दूसरा विवाह तो किया नहीं था, उसने।' मैंने क्षिप्रा को उत्तर देते हुए कहा।
' हाँ, पुनर्विवाह उसने नहीं किया। शायद बच्चों के लिए, शायद अपने अभावग्रस्त जीवन की विवशता में। फिर वह अविवाहित ही रहा। बस कड़ा परिश्रम करता रहा, अपने को स्थापित करने के लिए, उस दयनीय स्थिति से निकलने के लिए, जिसके रहते उससे उसकी जीवनसंगिनी छिन गई थी।
'कैसी सीख देनेवाली कहानी है यह।' मैंने क्षिप्रा की ओर आश्चर्य के साथ देखा। उसने अपनी बात जारी रखी।
'राजनीति छोड़कर किताबों की एक छोटी-सी दुकान से अपनी आजीविका कमाने का काम शुरू किया था राणा ने।' क्षिप्रा ने आगे की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए मुझे बताया, 'कड़े परिश्रम और अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयास, यही वह कारण था, जिससे उसका व्यवसाय बढ़ता गया और बढ़ते-बढ़ते उस सीमा तक जा पहुँचा, जहाँ राणा गिनती के चंद संपन्न लोगों में गिना जाने लगा।'
'तब यह कहानी तो समाप्त हो गई, क्षिप्रा।' मैंने ग़रीबी झेलकर ख़ुशहाली तक आए एक व्यक्ति की जीवनगाथा का अंत होते देखकर क्षिप्रा से कहा।
'नहीं अनुराधा, कहानी अभी समाप्त नहीं हुई. इस कहानी से एक और कहानी फूट निकली।' क्षिप्रा बोली।
मैंने आश्चर्य-भरी दृष्टि से उसकी ओर देखा। पूछा, 'एक और कहानी, क्या मतलब?'
'मतलब वही है, जो मैंने आरंभ में सुझाना चाहा था। आदमी में कुछ अतृप्तियाँ ऐसी रह जाती हैं, जिनकी पूर्ति कभी नहीं होती। कभी होती ही नहीं।'
'तुम्हारा मतलब सैक्स-सम्बंधी अतृप्ति से है क्या?' मैंने अनायास क्षिप्रा से पूछा।
बोली, 'नहीं, मेरा मतलब उस भूखे एहसास से है, जो सुजाता की मौत ने उसके भीतर उत्पन्न किया था। उसकी यह इच्छा प्यासी रह गई थी कि वह भी पत्नी को उपहार दे, उसकी इच्छाएँ पूरी करे, खुले हाथ से उस पर धन लुटाए, बीमार पड़ने पर अच्छे-से-अच्छा इलाज करे, सेवा करे।' क्षिप्रा ने अपनी बात को एक क्षण रोकते हुए कहा, 'प्यार के बदले पुरुष अपना सब-कुछ दे देना चाहता है, नारी को।'
क्षिप्रा अपनी बात कह चुकी तो मैंने उससे पूछा, 'तो क्या तुम्हारा विचार है कि राणा अब अपनी उसी अतृप्ति, अपने उसी ख़ालीपन को भर रहा है, जो सुजाता की मौत उसके भीतर भर गई थी। उसका कोई और सम्बंध नहीं है सीमा से।'
'गारंटी के साथ तो कुछ भी नहीं कहा जा सकता, अनुराधा। पर मैं समझती हूँ वास्तविकता के अंदर की एक वास्तविकता यह भी होगी। राणा सीमा से संपर्कों के बीच राणा अपने उसी वैक्यूम को भर रहा होगा, जो सुजाता की मृत्यु ने उसके भीतर उत्पन्न कर दिया था।'
'हाँ-शायद-शायद।' मैंने कहा और चुप हो गई.