ख़ाली दिमाग़ शैतान का कारख़ाना / लिअनीद अन्द्रयेइफ़ / सरोज शर्मा

Gadya Kosh से
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मैं अक्सर अपनी गर्मी की छुट्टियाँ गाँव में बिताया करता हूँ। इस साल मैं थोड़ा जल्दी ही गाँव पहुँच गया था। रूस की छह-सात महीनों तक चलने वाली लम्बी सर्दियों के बाद बसन्त का मौसम शुरू ही हो रहा था। गाँव के कच्चे रास्तों पर जमी हुई बर्फ़ लगभग पूरी तरह से पिघल चुकी थी। बर्फ़ के पिघलने के बाद पिछले साल के पतझड़ के बाद गिरे हुए सूखे और काले पत्ते जगह-जगह अपना सिर उठाए झाँक रहे थे। गाँव में सारे घर अभी खाली ही पड़े हुए थे। मैं पहला आदमी था जो सर्दियाँ गुज़रने के बाद गाँव में पहुँचा था। इसलिए मैं अकेला ही गाँव की वीरान गलियों में चक्कर काट रहा था। बहुत दिनों के बाद आज धूप निकली थी। अप्रैल की इस सुहावनी धूप से गाँव के घरों की खिड़कियाँ चमक रही थीं। अपने घर पहुँचकर मैं घर की दूसरी मंज़िल पर चला गया और छज्जे से बलूत के हरे-हरे पेड़ों और भोजवृक्षों के नए-हरे पत्तों की आभा को निहारते हुए मेरे दिल में अचानक यह ख़याल आया कि वह कौन है, जो इन हरे गुम्बदों के नीचे आकर रहेगा ! मैंने एक पल के लिए अपनी आँखें बंद कर ली और कल्पना में मुझे तेज़ चंचल क़दमों की आहट सुनाई दे और ऐसा लगा कि मानो कोई जवान लड़का प्रेम गीत गा रहा है और उस गीत को सुनकर एक लड़की ज़ोर-ज़ोर से खिलखिला रही है।

गाँव में अकेले रहते हुए मैं अक्सर घूमते-घूमते स्टेशन तक पहुँच जाया करता था और वहीं प्लेटफ़ार्म पर चक्कर लगाता रहता था। इसका यह मतलब नहीं है कि वहाँ मुझे किसी के आने का इंतज़ार होता था और मेरे दोस्तों व सम्बन्धियों में ऐसा भी कोई नहीं था, जो मेरे पास आकर रहना चाहता हो। दरअसल, अक्सर स्टेशन पर घूमने का मेरा मक़सद, बस, इतना ही था कि मुझे बचपन से रेलगाड़ियाँ बेहद पसन्द हैं और मैं रेलगाड़ियों को देखने और उनसे मिलने के लिए ही स्टेशन पर जाया करता था । जब मेरे सामने से कोई भारी-भरकम रेल बल खाती हुई, बड़ी तेज़ी से पटरी पर से गुजरती तो मैं उनकी गति देखकर मुग्ध हो जाता था। मुझे लगता था कि ट्रेन में बैठे सब अनजान लोगों को मैं बहुत क़रीब से जानता हूँ और वे मेरे दोस्त और सगे-संबंधी ही हैं। वे रेलगाड़ियाँ मुझे जीवित और अद्भुत लगती हैं। उनकी गति से मैं पृथ्वी की विशालता और मनुष्य की ताकत को महसूस करता हूँ। जब उनकी तीखी सीटी की आवाज़ हमारे कानों में गूँजती है तो तब मुझे ऐसा लगता है कि दुनिया में किसी भी जगह, चाहे वह अमरीका हो, एशिया हो या अफ्रीका हो, रेलगाड़ियाँ ऐसे ही चीख़-चीख़कर सबको अपने पास बुलाती हैं।

हमारे गाँव का वह वह स्टेशन एकदम छोटा-सा स्टेशन था। वहाँ एक ही मुख्य लाइन थी और दो छोटी-छोटी सर्विस लाइनें थीं। दिनभर में एक-दो बार ही गाड़ी इस स्टेशन से गुज़रती थी। पैसेंजर ट्रेन के जाते ही स्टेशन पर शान्ति हो जाती थी और चारों तरफ़ सन्नाटा छा जाता था। यह स्टेशन जंगल के बीच में था। उसका प्लेटफ़ार्म इतना नीचा था कि लगता था यहीं से जंगल शुरू होता है। उस जगह पर अच्छी-ख़ासी धूप आया करती थी। सर्विस ट्रैक पर एक ख़ाली डिब्बा एक अरसे से खड़ा हुआ था। उसके पहियों के आसपास मुर्गे-मुर्गियों के झुण्ड इधर से उधर और उधर से इधर चक्कर लगाते हुए चुग्गा ढूँढ़ते रहते थे। और इस काम में वे जितना धैर्य दिखाते थे और जितना श्रम लगाते थे, उसे देखकर मुझे लगता था कि अमरीका, एशिया और अफ़्रीका में भी ऐसा ही होता होगा…। स्टेशन पर घूमते हुए मुझे एक हफ़्ता हो चुका था। इस एक हफ़्ते में ही मैं वहाँ के सारे सारे लोगों को पहचानने लगा था। रेलवे लाइनों के पास खड़े ऊँचे-उदास सिग़नल सूरज की तेज़ रोशनी में ताम्बे की तरह चमकते थे। स्टेशन पर दिखाई देने वाले नीली कमीज़ पहने फ़ोरमैनों और लाइनमैनों को मैं सिर झुका-झुकाकर ऐसे अभिवादन करने लगा था मानो वे मेरे पूर्व परिचित हों और उनसे मेरी गहरी जान-पहचान हो।

स्टेशन पर मुझे हर रोज़ एक जवान पुलिसवाला भी मिलता था। उसका शरीर सभी ठलुओं की तरह हट्टा-कट्टा और मज़बूत था। पुलिस की नीली वर्दी उसके बदन से चिपकी रहती थी। वह एक रौबीले और सख़्त पुलिस अधिकारी की तरह दिखने की कोशिश करता था, लेकिन उसकी नीली आँखों में इतनी दया और ममता दिखाई देती थी कि साफ़ पता लगता था कि वह गाँव का रहने वाला है और भोलाभाला शरीफ़ आदमी है। उसकी उदास निगाहें हरदम मेरा पीछा करतीं। रोज़ ही मेरी उससे मुठभेड़ हो जाती। मुझे देखते ही उसका चेहरा एकदम तन जाता और मेरे पास से गुज़रते हुए वह अपने जूते स्टेशन के फ़र्श पर वह इस तरह पटकने लगता था कि उसके जूतों में लगी हुई लोहे की नालें ज़ोर-ज़ोर से बजने लगती थीं। उसकी इस हरकत से ऐसा लगता था जैसे वह मेरे सामने अपना रौब झाड़ रहा हो।

लेकिन जल्दी ही मुझे लेकर उसका रवैया सामान्य हो गया। उसे स्टेशन पर रोज़ मुझे देखने की आदत वैसे ही पड़ गई थी जैसे वह प्लेटफॉर्म की छत को सहारा दे रहे ऊँचे-ऊँचे खम्बों का, सुनसान पटरी पर ख़ाली खड़े डिब्बे का और उस डिब्बे के नीचे घूमने वाले मुर्गे-मुर्गियों का आदी था। वैसे भी ऐसी शान्त और सुनसान जगह पर कोई आदत पड़ने में देर थोड़े ही लगती है ! जब उसकी निगाहों ने मेरा पीछा करना और मुझ पर ध्यान देना बन्द कर दिया, तब मुझे यह समझ में आया कि ये पुलिसवाले भी बहुत बोरियत भरे उबाऊ क़िस्म के लोग होते हैं। रोज़ एक जैसा काम करते-करते बोर हो-होकर वे पक जाते हैं और दूसरों के लिए ख़ुद भी ‘पकाऊ’ बन जाते हैं। इस दुनिया में जितनी ऊब उसे होती होगी, उतनी किसी और को नहीं होती होगी। शायद इस छोटे-से स्टेशन पर ड्यूटी बजाते-बजाते वह थक चुका था। उसे ड्यूटी के अलावा कुछ और सोचने की आदत नहीं होगी, इसलिए वह इसी बात को लेकर परेशान रहता होगा कि करने के लिए कुछ नहीं है। ख़ाली बैठे-बैठे उसकी कार्य-क्षमता भी कम होती जा रही है। बातचीत करने के लिए इस स्टेशन पर कोई दूसरा आदमी तक नहीं है। हर ऐरे-ग़ैरे से तो वह बात कर नहीं सकता। स्टेशन मास्टर तक उसकी पहुँच नहीं है और ख़ुद से निचले स्तर के कर्मचारियों को वह अपने लायक नहीं समझता है।

सब पुलिसवालों की तरह वह भी जुनूनी था और उसे सरकारी क़ायदे-कानून तोड़ने वालों को पकड़ने में बेहद मज़ा आता था। लेकिन उस छोटी सी जगह में बहुत कम लोग थे। और जो थे, वे सब क़ायदे-कानून से चलते थे। हर बार जब पैसेंजर ट्रेन स्टेशन पर आकर ठहरती और बिना किसी हादसे के आगे रवाना हो जाती तो उसे लगता कि उसके साथ तो बड़ा धोखा हो रहा है। वह हताश हो जाता और उसे ग़ुस्सा आने लगता। झुँझलाहट से भरा बड़ी देर तक वह एक ही जगह पर खड़ा रहता, फिर सुस्त चाल से बिना किसी उद्देश्य के प्लेटफ़ॉर्म के एक छोर से दूसरे छोर तक चक्कर लगाने लगता। रास्ते में ट्रेन का इन्तज़ार कर रही किसी महिला के सामने वह एक-दो पल के लिए रुकता और नाक-भौंह सिकोड़ता हुआ मन ही मन कहता — यह औरत भी दूसरी औरतों के जैसी ही है। और इतना सोचने के बाद वह उस औरत की तरफ़ देखते हुए वह धीरे-धीरे बेंच की तरफ़ बढ़ जाता। बेंच के पास पहुँचकर वह उसपर धम्म से इस तरह गिर जाता मानो कई जन्मों का थका - हारा हो। कुछ देर वह बेंच पर ऐसे ही पड़ा रहता और फिर पसरकर बैठ जाता। बैठे-बैठे ही अपने कोट की बाँह के नीचे वह अपने हाथों को टटोलता। उसे लगता कि कोई काम-धाम न होने की वजह से वह लुंज-पुंज होता जा रहा है। उसका बदन एकदम ढीला और नरम पड़ गया है। बैठे - ठाले उसके मजबूत बदन को जंग लग गया है, आलस और सुस्ती उसकी ताक़त को दीमक की तरह चाट-चाटकर नष्ट कर रहे हैं।

आमतौर पर लोग, बस, दिमाग़ से बोर होते हैं। लेकिन वह आदमी एड़ी से लेकर सर तक बोर होता था। बहादुरी और सम्मान का प्रतीक उसकी टोपी सिर के एक तरफ़ सरकी हुई उदास सी लगती। फ़ालतू में इधर-उधर भटकते हुए उसके जूतों के तलुए बेसुरी आवाज़ें निकालने लगते। वह इतना ज़्यादा उकता जाता कि उसे उबासी पर उबासी आने लगती। हे भगवान ! वह कितनी उबासियाँ लेता था ! भयंकर थी उसकी उबासियाँ। जब वह जम्हाई लेने के मुँह खोलता तो उसका बड़ा सा मुँह दोनों कानों तक खुलता ही चला जाता। उसका मुँह फ़टकर इतना बड़ा हो जाता कि उसका पूरा चेहरा ही उसमें समा जाता। ऐसा लगता था कि और एक पल में उसके पेट में भरा खाना और उसकी अंतड़ियाँ दिखने लगेंगी। जब वह जम्हाई लेता था तो वहाँ उड़ने वाली मक्खियाँ उसके मुँह में घुसने के लिए उतावली हो जातीं। मैं फ़ौरन वहाँ से चल देता, लेकिन उबासी लेने का उसका वह बेहूदा तरीका याद करके हँसते-हँसते मेरे पेट में बल पड़ जाते और आँखों से पानी निकलते लगता। सब कुछ धुँधला दिखाई देने लगता।

2

एक दिन डाक-गाड़ी में बिना टिकट सफ़र कर रहा एक मुसाफ़िर पकड़ा गया। टीटी ने उसे उसी छोटे से स्टेशन पर गाड़ी से उतार दिया। जब यह बात उस ठलुए के कानों में पड़ी तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा। वह बेहद उत्तेजित हो गया। उसने सोचा, ’अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे’ और तुरन्त अपने चेहरे पर गंभीरता लाकर, नाराज़गी के भाव से वह उस बिना टिकट वाले आदमी की तरफ़ बढ़ने लगा। अब उसके जूतों में लगी लोहे की नालें भी एक ताल में टक-टक करती हुईं ज़ोर-ज़ोर से बजने लगी थीं। पर, बदक़िस्मती से उस पुलिसिए की वह ख़ुशी ज़्यादा देर न टिकी। उस मुसाफ़िर ने टीटी को जुरमाना भर दिया और नाराज़ होता हुआ फिर से उसी ट्रेन में चढ़ गया।


उस स्टेशन की नई इमारत बनने जा रही थी और उसकी नींव खोदने का काम शुरू हो गया था। इसलिए पुरानी इमारत के पास पड़ी ख़ाली जगह पर पिछले कुछ दिनों से मज़दूर अपना काम कर रहे थे। मुझे दो दिन के लिए शहर जाना था। जब वहाँ से वापस लौटा तो देखा कि नई इमारत का काम शुरू हो चुका है। राजमिस्त्री नींव बनाने लगे थे। दो तरफ़ की नींव बन चुकी थी। तीसरी तरफ़ की नींव बनाई जा रही थी। वहाँ बहुत सारे मिस्त्री और कारीगर लगे हुए थे। उन्हें काम करते हुए देखने में मज़ा आ रहा था और यह देखकर हैरानी भी हो रही थी कि कैसे ज़मीन में एक सीधी और पतली दीवार उग रही है। मिस्त्री लोग अगल-बगल ईंटें रख रहे थे और उनके बीच गारा भरते जा रहे थे। वे ईंटों की एक परत पूरी करने के बाद अगली परत बनाना शुरू कर देते थे। उन मिस्त्रियों का हाथ जमा हुआ था और वे एक के बाद एक ईंटें जमाते जा रहे थे। उनका काम देखने के लिए तमाशाइयों की एक छोटी सी भीड़ भी वहाँ खड़ी थी। मैं भी उस भीड़ में शामिल हो गया। तभी अचानक ज़ोर की एक आवाज़ आई। कोई मिस्त्रियों को डाँट रहा था - अबे ओय ! क्या नाम है तेरा ! तू ये क्या कर रहा है ? मेरी बात सुन और जो कह रहा हूँ, वो कर ! …, तू जो अगली ईंट दीवार पर जमाने जा रहा है, वह टेढ़ी है !

यह आवाज़ उसी ठुल्ले की थी। वो उन मिस्त्रियों को यह सिखा रहा था कि उन्हें कैसे काम करना है। वह अपनी उँगली से उस ईंट की तरफ़ इशारा कर रहा था, जो उसके ख़याल में ठीक नहीं थी। वह फिर चीख़ रहा था - अबे दढ़ियल ! तू सुनता नहीं ! मैं तेरे से कह रहा हूँ। तू वो दूसरा अद्धा वहाँ रख। वो वहाँ जमेगा।

दाढ़ी वाले मिस्त्री ने चुपचाप पलटकर पुलिसिए की तरफ़ देखा। पुलिसिए के चेहरे पर रौब झलक रहा था। मिस्त्री ने बिना कुछ बोले ईंट का वो अद्धा उठाया, उसे नींव में खाली जगह पर जमाया और यह देखकर कि वो छोटा है, उसे वहाँ से हटाकर एक तरफ़ को लुढ़का दिया। फिर पुलिसवाले ने मुझ पर कड़ी नज़र डाली और वहाँ से दूर चला गया। प्लेटफॉर्म के एक-दो चक्कर लगाने के बाद वह फिर वहीं आकर खड़ा हो गया। अब उसके चेहरे से उकताहट उतर चुकी थी।

समय बीतता जा रहा था और मुझे भी देर हो रही थी। मेरा घूमने का समय हो गया था इसलिए मैं टहलता हुआ आगे निकल गया। घूमना ख़तम करके जब मैं वापिस घर लौट रहा था, तब तक दोपहर का क़रीब एक बज चुका था। सारे मिस्त्री और कारीगर खाना खाने और आराम करने गए हुए थे। स्टेशन के आसपास एकदम शान्ति थी, पर जिस दीवार को बनाने का काम चल रहा था, उसके आसपास किसी के हिलने-डुलने का आभास हो रहा था। वहाँ वही पुलिसवाला खड़ा था और ईंटों के ढेर से ईंटें उठा-उठाकर नींव पर जमा रहा था। मुझे उसकी, बस, चौड़ी पीठ दिखाई दे रही थी। उसी से मैंने यह अन्दाज़ लगाया कि वो मिस्त्रियों का काम आगे बढ़ा रहा है। वह जिस काम को बेहद आसान समझ रहा था, दरअसल वह उतना आसान नहीं था। उसे चिनाई का काम नहीं आता था। उसकी नज़रें उसे धोखा दे रही थीं। वह एक-एक ईंट उठाकर उसे मिस्त्रियों की तरह कन्नी से बजाकर देखता और उसे नींव पर टिका देता। उसे शायद यह नहीं पता था कि मिस्त्री ईंट को कन्नी से क्यों बजाता है। मिस्त्री तो आमतौर पर यह देखता है कि ईंट कहीं पोली या कच्ची तो नहीं है। लेकिन वह सिर्फ़ मिस्त्री की नक़ल कर रहा था। दस -बीस ईंटें लगाने के बाद अचानक उसे अपनी हैसियत का ख़याल आया। अगले ही पल यह सोचकर कि उसकी जैसी हैसियत वाले आदमी को यह छोटा काम नहीं करना चाहिए, उसका बदन ढीला पड़ गया। सचमुच ऐसा करना उसे शोभा नहीं देता था।

तभी अपनी सिगरेट जलाने के लिए मैंने दियासलाई को माचिस पर रगड़ा। दियासलाई की इस रगड़ की आवाज़ उसके कानों तक पहुँच गई। वह चौंक गया और उसने पीछे मुड़कर देखा। मुझे वहाँ खड़ा देख वह हैरान रह गया पर तुरन्त ही मुस्कुराने लगा। मैं भी उसकी तरफ़ देखकर मुस्कुराया, पर मेरे चेहरे से छलकने वाली व्यंग्य भरी मुस्कुराहट देखकर वह तैश में आ गया। अपने बाएँ हाथ से वह अपनी पतली-सी मूँछों को मरोड़ने लगा। मैंने देखा कि उसने दाएँ हाथ में एक ईंट अभी तक पकड़ रखी है। उसका ध्यान भी उस ईंट की तरफ़ गया। अब उसे शर्मिन्दा होना चाहिए था। । लेकिन वह पूरी तरह से बेशर्म था। वह मेरी तरफ़ देखकर हँसने लगा। यह बनावटी हँसी थी। शायद उसे शर्माना नहीं आता था। यदि उसे शर्माना आता तो उसका चेहरा भी उस ईंट की तरह ही लाल हो गया होता।

स्टेशन की इमारत काफ़ी तेज़ी से बन रही थी। दस-पन्द्रह दिनों में ही इमारत का पूरा नक़्शा उभर आया था। पुलिसवाला पहले की तरह निठल्ला घूमता और जम्हाइयाँ लेता दिखाई देता। जब वह मेरे पास से गुजरता तो मुझे लगता कि वह अपनी हरकतों पर शर्मिन्दा है और यह सोचकर मुझसे नफ़रत करता है कि मैं यह समझने लगा हूँ कि कोई काम न होने की वजह से वो लम्बा-तगड़ा आदमी निकम्मा घूमता है।

उसकी ढीली आस्तीनों में छुपी हुई उसकी बाँहें सुस्त ढंग से लटकती रहतीं। उसके जूतों के तलवों में लगी नालें बेतुके ढंग से बजती हैं और वो किसी ठलुए की तरह नकली पुलिसवाला लगता है।

मौसम बदल रहा है। धूप में अब थोड़ी गरमाहट आ गई है। पेड़ों पर हरे पत्ते खिलखिला रहे हैं। उस छोटे-से गाँव के बाशिन्दे अपने-अपने कामों में व्यस्त हैं। सर्विसलाईन पर खड़े मालगाड़ी के ख़ाली डिब्बे के नीचे मुर्गे-मुर्गियाँ पहले की तरह ही अनाज़ चुग रहे हैं और वह आदमी पुलिसवाला होने का ढोंग कर रहा है।

उसका यह ढोंग बहुत उबाऊ लगता है परन्तु कभी-कभी मुझे उसे निकम्मा घूमते देखकर डर लगता है। … आप तो जानते ही हैं कि ख़ाली दिमाग़ शैतान का कारख़ाना होता है।

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : सरोज शर्मा

भाषा एवं पाठ सम्पादन : अनिल जनविजय

मूल रूसी भाषा में इस कहानी का नाम है —’ना स्तान्त्सी’ (Леонид Андреев — На станции)