ख़ाली दीवारें ! / सुधांशु गुप्त

Gadya Kosh से
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घर में चार कमरे हैं। चार कमरों में दो जन रहते हैं-पति-पत्नी। बच्चे बाहर सैटल हो गए हैं। कमरों की दीवारों पर व्हाइट पेण्ट किया हुआ है। अगर किसी दीवार पर उँगली फिराई जाए, तब भी दीवार पर कोई निशान नहीं बनता। आजकल इसी तरह के पेण्ट होते हैं। ताकि दीवारों पर कोई निशान न बने। सारी दीवारें ख़ाली हैं। एकदम ख़ाली। चुप। वे कुछ नहीं कहतीं। न इशारों में और न बोलकर। मुख्य कमरा, जिसे ड्राइंगरूम कह सकते हैं, की एक दीवार पर एक घड़ी लगी हुई है। गोल घड़ी। वह समय बताती रहती है। जब उसका सैल ख़त्म हो जाता है तो वह समय बताना बन्द कर देती है। कुछ दिन बन्द रहती है। जब नया सैल डलता है तो फिर से समय बताना शुरू कर देती है। देखने में घर की दीवारें सुन्दर लगती हैं। बाहर से आने वाला कोई भी व्यक्ति इन्हें देखकर कहता है कि कितना सुन्दर साफ़-सफ़ाई वाला घर है। ये सारी साफ़-सफ़ाई पत्नी ही करती-करवाती है। हर कमरे में ऊपर छत पर एक पँखा लटका हुआ है। लेकिन पँखे और घड़ी भी दीवारों का अकेलापन बढ़ाते हैं, बल्कि कभी-कभी तो लगता है ये दीवारों को चिढ़ा रहे हैं। दीवारों पर कोई कैलण्डर नहीं है, कोई शो पीस नहीं। इतनी ख़ाली दीवारें उसने पहले कभी नहीं देखीं। वह अपने किसी मित्र के यहाँ भी जाता है तो वहाँ की दीवारों को सबसे पहले देखता है। अजीब बात है कि सबके घरों की दीवारें ख़ाली दिखाई पड़ती हैं। वह सोचता है, पता नहीं लोग इतनी ख़ाली दीवारों के बीच कैसे रह लेते हैं। शायद अब कैलेण्डर की ज़रूरत भी ख़त्म हो गई है। तारीख़ और वर्ष हर समय आपके हाथ में रहता है। आप जब चाहें देख लें। कहीं जाने या बाहर देखने की कोई ज़रूरत नहीं है। यह नया मिज़ाज है, नया युग और नए लोग। अब लोग दीवारों को गन्दा करना पसन्द नहीं करते। शायद इसकी ज़रूरत भी नहीं रह गई है। आख़िर इतना पैसा लगाकर दीवारों को साफ़ किया जाता है। सब बहुत ज़्यादा सफ़ाईपसन्द हो गए हैं। उन्हें लगता है कि घर हर समय सुसज्जित होना चाहिए — साफ़-सुथरा। घर साफ़-सुथरे हो रहे हैं, हो गए हैं। वह इतनी सफ़ाई का कभी आदी नहीं रहा। उसे हमेशा से लगता है कि दीवारों पर यदि कोई दाग़, निशान या आकृति न दिखाई पड़े तो वह घर नहीं, मकान ही कहा जाएगा। घर की दीवारों पर अब आपको घर का इतिहास और वर्तमान नहीं मिलेगा। बिलकुल ख़ाली दीवारें हैं। चुप । अब घर की दीवारें घर के बारे में कुछ नहीं बतातीं। आप जो चाहें यहाँ लिख सकते हैं। लेकिन इन ख़ाली दीवारों पर कोई कुछ नहीं लिखता। कोई नहीं चाहता कि उनकी दीवारों से लोग उनके जीवन में ताक-झाँक करें। आख़िर सबकी अपनी निजी ज़िन्दगी है। कोई किसी को कुछ क्यों बताए। कोई किसी से कुछ क्यों पूछे। दीवारें भी, लगता है, मनुष्य के इस खेल में शामिल हो गई हैं। ऐसा ही लगता है। अब ऐसा ही है।

पहले ऐसा नहीं था। दीवारें बहुत कुछ कहती थीं। आप किसी के घर की दीवारें देखें तो उस घर के बारे में सब कुछ जान सकते थे। तब शायद छिपाने के लिए कुछ था भी नहीं। सब कुछ खुला था। घर भी दीवारें भी। उसे याद है पहले वे पिता के घर में रहते थे। वहाँ की दीवारें बहुत बोलती थीं। उन दीवारों पर बहुत कुछ उकेरा हुआ आसानी से पढ़ा जा सकता था। उसे याद है, जब उनके घर में पहला लैण्डलाइन लगा तो उसका नम्बर घर की लगभग हर दीवार पर लिखा हुआ था — 2142114। ऐसा इसलिए करना पड़ा कि घर के सभी लोगों को नम्बर याद हो जाए। दीवारों पर लिखा वह नम्बर उसने इतनी बार पढ़ा कि आज तीस साल बाद भी उसे याद है। धीरे - धीरे सबको नम्बर याद हो गया। दीवारों पर और भी कई लोगों के लैण्डलाइन नम्बर लिखे होते थे। पता नहीं क्यों उस समय नम्बर डायरियों पर नहीं लिखे जाते थे। ये नम्बर भी पैंसिल से ही लिखे जाते थे। धीरे-धीरे नम्बर धुन्धला पड़ने लगता था। लेकिन नम्बर लिखने की परम्परा बनी रही। हर बार कोई न कोई नया नम्बर दीवार पर लिखा जाता। केवल नम्बर ही नहीं दीवारों पर और भी बहुत कुछ लिखा जाता था। दूधवाले का हिसाब। किस दिन कितना दूध दिया, किस दिन दूध नहीं लिया। और यह सब रसोई में नहीं लिखा होता था। दोनों कमरों में से किसी भी दीवार पर लिखा जा सकता था। घर में दीवारें सबकी थीं। सब दीवारों के थे। सब अपनी अपनी ज़रूरतों के हिसाब से दीवारों का प्रयोग करते थे। लाला के कितने पैसे देने हैं, टिण्डे के कितने और ब्याज पर लिए गए रुपयों का ब्याज किस तारीख़ को दिया गया या दिया जाएगा। दीवारों पर सब कुछ था। बच्चे छोटे थे। उन्हें दीवारों पर ऊटपटाँग लाइनें खींचने से कोई नहीं रोकता था। कई बार ये लाइनें किसी आकृति में बदल जातीं। कभी किसी आदमी की, कभी जानवर की। उस समय दीवार पर कोई न कोई कैलेण्डर ज़रूर लगा रहता था। ये कैलेण्डर एक साल तो दिन और वर्ष बताता, लेकिन एक साल बीतने के बाद भी यह उसी तरह टँगा रहता। कोई इसे उठाकर बाहर नहीं फेंकता। साल ~ख़त्म होने के बाद भी पता नहीं क्यों, उस कैलेंडर में आकर्षण बचा रहता। उसकी जगह नया कैलेण्डर आता, लेकिन वह एक जनवरी को ही आए, यह कतई ज़रूरी नहीं था। उन दिनों वार या तारीख़ देखने की कोई ख़ास आवश्यकता नहीं पड़ती थी। लेकिन कैलेण्डर ख़ाली दीवारों को भरने का काम ज़रूर करता था। दीवारों पर बहुत सी कीलें भी लगी रहतीं। उनपर कभी कपड़े टाँग दिए जाते और कभी वे कीलें ख़ाली रहतीं। लेकिन कीलें भी दीवारों में इस तरह घुलमिल जातीं कि अच्छा लगता। माँ को, बस, एक ही बात ख़राब लगती। दीवारों पर सरसों के तेल के निशान। ये निशान कोई जानबूझकर नहीं बनाता था। बच्चे सरसों को तेल लगाते थे और सिर दीवार से टिकाकर बैठते। लिहाजा दीवार पर उनके सिरों की छाप रह जाती। दीवार पर लगे सरसों के तेल के ये निशान साफ़ नहीं होते थे। ऐसा लगता कि इन्होंने दीवारों पर ही अपने लिए जगह तलाश ली है। एक दिन वह कमरे में बैठा था। अचानक उसने सामने वाली दीवार की तरफ़ देखा। दीवार की पुताई अपनी जगह से उखड़ रही थी। उसके लिए यह कोई नई बात नहीं थी। लेकिन कुछ देर दीवार के उस हिस्से को देखने के बाद उसे महसूस हुआ कि पुताई इस ढंग से उखड़ी है कि वहाँ किसी व्यक्ति की शक्ल उभर आई है। उसने और ध्यान से देखा। उसे वह शक्ल किसी लड़की की लगी। काफ़ी देर वह उस शक्ल को देखता रहा और लड़की को पहचानने की कोशिश करता रहा। उसे बहुत अधिक समय नहीं लगा। वह पहचान गया कि लड़की उसकी कॉलेज की मित्र है। इसके बाद से उसे घर की दीवारें और अधिक प्रिय लगने लगीं। हो सकता है घर के दूसरे सदस्यों को भी दीवारों पर अपनी - अपनी पसन्द के चित्र दिखाई पड़ते हों। एक दिन उसने सोचा कि घर की दीवार पर वह कोना तलाश किया जाए, जहाँ कोई निशान न हो। जहाँ दीवार साफ़ और ख़ाली हो। उसने चारों तरफ़ नज़र घुमाई। लेकिन आश्चर्य हुआ कि उसे कोई भी टुकड़ा ख़ाली दिखाई नहीं दिया। दीवारें कितनी भरी हुई थीं।

उसने अपने घर की दीवारों को देखा। कहीं कोई भी कोना ऐसा नहीं है जो साफ और खाली न हो। कभी-कभी तो उसे शक होता है कि यहां लोग रहते हैं या नहीं। एक बार वह पड़ोस में रहने वाले तीन-चार वर्ष के बच्चे को अपने घर ले आया। बच्चा काफी देर खेलता रहा। उसके साथ, पत्नी के साथ। वह सोच रहा था कि खाली दीवारों को देखकर वह जरूर दीवारों पर कुछ लिखना चाहेगा। लेकिन बच्चे ने दीवार पर कुछ नहीं लिखा। आजकल बच्चों को इसी तरह प्रशिक्षित किया जाता है। वे दीवारों पर कुछ नहीं लिखते। और मां बाप का तो लिखने का सवाल ही पैदा नहीं होता। वह बच्चा काफी देर घर पर खेलता रहा लेकिन उसने कहीं कोई दीवार गन्दी नहीं की। बच्चा चला गया। यहां रहकर क्या करता। वह दीवार को पहले की तरह ही खाली छोड़ गया था। उसका मन हो रहा था कि बच्चा दीवार पर कुछ लिखता। लेकिन बच्चे ने ऐसा नहीं किया। वह चाहता है कि पहले की तरह ही दीवार पर कोई कैलेंडर लगा दे। किसी अभिनेत्री का...किसी बच्चे का...या जिस पर कोई लैंडस्केप बना हो। पता नहीं पत्नी को यह सूट करेगा या नहीं। वह दीवार को भरने के लिए कैलेंडर की खोज में शाहदरा चला गया। वहां फुटपाथ पर कई दुकानें सजी हैं। एक दुकान पर देवी-देवताओं के पोस्टर हैं, दूसरी पर फिल्मी अभिनेताओं-अभिनेत्रियों के पोस्टर, एक दुकान पर नवजात बच्चों के खूबसूरत फोटोज़ हैं और एक अन्य दुकान पर लैंडस्केप हैं। वह इस चौथी दुकान पर रुक गया। ध्यान से लैंडस्केप देखने लगा। बहुत सुंदर-सुंदर लैंडस्केप हैं। उसने एक लैंडस्केप देखा। उसमें शाम का दृश्य है। एक वृद्ध समुद्र के किनारे धीरे-धीरे चल रहा है। उसकी शक्ल नहीं दिखाई दे रही। फोटोग्राफर ने पीछे से फोटो खींची है। उसके कदमों के निशान रेत पर बने हुए दीख रहे हैं। शाम का वक्त है। सूरज डूब रहा है। सूरज की लालिमा समुद्र को लाल कर रही है। उसकी किरणें समुद्र के ऊपर मानो कोई रास्ता बना रही हैं। उसने फौरन उसे खरीद लिया। वह कैलेंडर घर ले आया। वह खुश था कि उसे मनपसंद कैलेंडर मिल गया। यह कैलेंडर उनके घर की दीवारों के खालीपन को भर देगा। घर आकर उसने कैलेंडर पत्नी के हाथ में देते हुए कहा, ‘खाली दीवारें अच्छी नहीं लगतीं, इसलिए एक कैलेंडर ले आया हूं। इसे कहीं लगा लेना....’ पत्नी ने कोई जवाब नहीं दिया। कैलेंडर हाथ से लिया और अंदर पता नहीं कहां ले जाकर रख दिया। वह दीवारों को देखने लगा। उसे कहीं भी कोई कील नज़र नहीं आई। उसने सोचा फिर पत्नी कैलेंडर को कैसे दीवार पर लगाएगी। अगर लगाना चाहेगी तो लगा ही देगी। वह दो-तीन दिन इंतजार करता रहा। लेकिन कैलेंडर नहीं लगा। दीवारें पहले की तरह ही खाली रहीं। पत्नी किसी बहस में नहीं पड़ती। करती वह वही है, जो उसे करना होता है। कैलेंडर लेते समय भी वह जानती होगी कि इसे किसी दीवार पर नहीं लगाना है। लेकिन सामने मना करने के बजाय उसने कैलेंडर लेकर कहीं रख दिया। वह समझ गया कि यह कैलेंडर अब किसी दीवार पर नहीं लगेगा।

उसके मन में आया कि क्यों न वह ख़ुद ही दीवार को थोड़ा सा गंदा कर दे। उसने एक पैंसिल उठाई। सोचा कोई नंबर दीवार पर लिखेगा...लेकिन कौन सा नंबर लिखे। सारे नंबर तो मोबाइल में दर्ज हैं। ऐसा कौन सा महत्वपूर्ण नंबर हो सकता है, जो उसे दीवार पर लिखना चाहिए। काफी सोचने के बाद भी उसे ऐसा कोई नंबर ध्यान नहीं आया। उसने दीवार को ऐसे ही छोड़ दिया। पता नहीं अचानक उसे क्या हुआ। वह बाथरूम में गया और वहां जाकर उसने सरसों का तेल अपने बालों पर लगा लिया। वापस आकर वह पलंग पर बैठ गया। वह चाहता था कि सिर दीवार से लगाकर आराम से बैठे। लेकिन जैसे ही वह पलंग पर बैठा पत्नी अंदर से आ गई। उसने आदेशात्मक लहजे में कहा, ‘दीवार से सिर लगाकर मत बैठना, वहां तेल का निशान बन जाएगा। अभी व्हाइट वाश कराई है। तेल का निशान दीवार से आसानी से नहीं मिटता।’ उसने कुछ नहीं कहा। पत्नी अंदर चली गई। वह सिर को दीवार से बचाकर बैठा रहा। दीवार खाली ही रही। वह कमरे में बैठा खाली दीवारों को देख रहा है। दीवारें इस हद तक खाली हैं कि डर लगता है। उसे यह भी समझ आ गया है कि अब उसे इन खाली दीवारों के साथ ही जीना है। अब इन दीवारों को भरने का कोई ज़रिया नहीं बचा है। आखिर एक समय के बाद दीवारें खाली हो ही जाती हैं।