ख़ुशबू / राजेन्द्र यादव
सुमेरा को रिक्शा अपने शरीर का ही एक अंग लगने लगा है। सोते-जागते वह कभी उसे अपने से अलग नहीं पाता। अपनी घंटी की ट्रिंनन्-ट्रिनन् उसकी रग-रग में पायलों की तरह झनझना उठती है और चलते-चलते पैडल रोक लेने पर पिछली धुरी और चेन से आती किर्र-किर्र की आवाज उसकी नस-नस में आरा-सा खींच जाती है। फिर भी गद्दी पर बैठकर उसे अपना होश नहीं रहता। और सच ही सुमेरा अपने इस रोग से सबसे ज्यादा परेशान है। एक साथ ही ऐसी-ऐसी अजीब बातें उसे याद आया करती हैं, जिनका आपस में कोई संबंध नहीं होता।
जब से उसने इन दोनों सवारियों को बैठाया था, तभी से उसे लग रहा था, जैसे कुछ दोहराया जा रहा हो, और अब रिक्शे के पायदान पर पड़े सफेद रूमाल को देखकर तो ऐसे चौंक पड़ा, जैसे वह जीवित हो! बूढ़ी मेम की मुट्ठी में भिंचकर गोला बना रूमाल हाथ में लेकर, पहले तो उसने सोचा कि दौड़ कर उन्हें दे आए, लेकिन फिर अपने-आप ही हाथ नाक तक चला गया। सहसा जब याद आया-अभी इसी से तो बुढ़िया बुड्ढे के लार-थूक पोंछ रही थी, तो मन घिन से भर उठा। छिः-छिः! अंगारे की तरह फेंकते-फेंकते सोचा, चलो, अपने पास पड़ा रहेगा। कुछ नहीं तो ग्रीज-कालिख पोंछने के काम ही आएगा। झुककर सीट के नीचे रूमाल डालते हुए उसे लगा, रूमाल में हल्की-हल्की खुशबू है।
चढ़ने के लिए पैडल पर पांव रखे-रखे उसने दोनों तरफ से फूंककर बीड़ी सुलगाई और याद करने की कोशिश करने लगा कि ऐसा पहले और कब हुआ है। और उसे क्या चीज बार-बार याद आ रही है। बरसों से रात-दिन बीसियों सवारियां रोज बैठा रहा है...इसी बार ऐसा क्यों लगता है? आज ही उसे चोरी के हार की बात याद आई है, वरना बीच-बीच में तो बिलकुल ऐसा लगता, जैसे उसे भूल ही गया हो। वह यों ही आंखें मिचका-मिचकाकर उन दोनों की तरफ ध्यान से देखता रहा।
बुड्ढा आगे जाकर खड़ा हो गया था और बुढ़िया अब पीछे मुड़कर फाटक बंद कर रही थी। दोनों साठ-सत्तर के आसपास होंगे। मुड़ा-तुड़ा-सा, सलेटी, पुराना कोट-पतलून, भींगकर सिकुड़ा हुआ-सा नमदे का टोप, हर कदम के साथ रेत पर लकीर खींचता बेंत...बुड्ढा पीछे से बिलकुल जापानी गुड्डे-सा लगता था। बुढ़िया लाल-सफेद बड़े-बड़े फूलों वाला फ्रॉक पहने थी और उसकी नंगी टांगें कमान की तरह मुड़ी थीं। फाटक बंद करके बुढ़िया पास आ गई तो बांह में बांह डालकर दोनों उस पीली, खस्ता-सी कोठी की तरफ चल दिए। उनके झूमते-झामते शरीर के पिछले हिस्सों और हिलती परछाइयों को सुमेरा कौतुक से देखता रहा। कैसे बबुओं की तरह-लुढ़कते-टकराते चले जा रहे हैं दोनों। होंठों पर मुस्कराहट छा गई और जब मन की उठती गुदगुदी को व्यक्त करने का कोई और रास्ता नहीं सूझा, तो उसने योंही घंटी बजाई-ट्रिनन्-ट्रिनन्, लेकिन खट से हाथ बीच में ही अपने-आप रुक गया और आंखों के आगे वह हार कौंध उठा। साथ ही लगा, जैसे पीछे कोई बैठा है और इस घंटी की आवाज से उसे तकलीफ होगी।
जाने क्यों, मोड़ तक उसे लगता रहा, जैसे उसके रिक्शे में अभी भी वही सवारियां बैठी हैं और अभी-अभी उसके हाथों कोई बहुत अच्छा काम होकर चुका है। मन को बड़ा भला-भला-सा लग रहा था, लेकिन किसे बताए? जो सुनेगा वही हंसेगा। और बताने बैठो तो ऐसी कोई खास बात भी नहीं है। बाबू तो सुनकर जरूर ही कहेगा कि यह साला किस दिन पागल होगा।
बैंक के सामने वे दोनों बुड्ढे-बुढ़िया खड़े थे। पहिए पर पांव रखकर उसने रिक्शा धीमा किया, ‘‘मेम सा’ब, रिक्शा?’’
‘‘कैंट जाएगा? कितना पइसा लेगा?’’ बुढ़िया ने अपनी थर-थर करती गर्दन को साधने की कोशिश करते हुए पूछा।
एक निगाह में सुमेरा ने भांप लिया, ईसाई या एंग्लो-इंडियन हैं, बाहर के या टूरिस्ट नहीं हैं।
उतरकर उसने सिर पर बंधे अंगोछे से बैठने की सीट आमंत्रण के भाव से झाड़ी, ‘‘अरे मेम सा’ब, जो खुशी हो सो दीजिए।...आप कोई नए हैं?’’
बुड्ढा ऐसे खड़ा था, जैसे वहां हो ही नहीं। लेकिन बुढ़िया के चेहरे पर जाने क्या था कि उसे अपनी ओर खींच रहा था।
‘‘नांईं, बाद में जगड़ा करता है?’’ लेकिन उसके स्वर से बुढ़िया समझ गई कि झगड़ा नहीं करेगा। शायद वे लोग देर से खड़े थे। बुड्ढे की बांह में बांह डालकर बुढ़िया उसे रिक्शे की तरफ ले आई।
‘‘नहीं, मेम सा’ब, हम उनमें से नहीं हैं। वो तो गांव के नए-नए धुर्रे आते हैं। वो ही सवारियों को तंग करते हैं।’’...इस भाषा पर उसे टूरिस्टों ने पांच-पांच रुपये बख्शीश दी है, लेकिन वह जानता था कि ऐसा यहां कुछ नहीं होगा। सोचा, क्या बात है, बुड्ढा अंधा-वंधा तो नहीं है? गौर से देखा। दोनों का रंग गेहुंआ था। बुढ़िया का सारा मुंह छोटी-छोटी झुर्रियों से भरा था और बुड्ढे के गालों पर नाक के इधर-उधर, आंखों के नीचे, होंठों के कोनों तक दो मोटी-मोटी सलवटें लटकी थीं। चश्मे के शीशे देखे तो जान गया कि पुराना मोतियाबिंद है। कान में सुनने के लिए मशीन लगी थी और उसकी डोरी मैले-पुराने सूट के कॉलर से होती हुई कमीज की जेब में गई थी। वहां बैटरी होगी। बुड्ढा, नासमझ और बुद्धू की तरह जिधर देखता, उधर देखे ही चला जाता था। हां, उसका बेंतवाला हाथ लगातार कांपता था। उसे देखते ही पहली बात सुमेरा के दिमाग में आई, इनका भी अब डेरा-डंडा उठने वाला है। बैंक में पेंशन लेने आए होंगे बेचारे! लेकिन बुढ़िया का चेहरा देखकर अगली बात बीच से ही टूट गई।
कांपते बेंत के सहारे बुड्ढे ने एक-दो बार चढ़ने की कोशिश की, लेकिन रिक्शे की आधी ऊंचाई तक ही पांव उठकर रह जाता था। सहारा देने के लिए सुमेरा आगे बढ़ा कि ‘इसे मत छुओ’ के भाव से बुढ़िया बीच में आ गई, बेंत अपने हाथ में लेकर उसकी बांह को कंधे पर टिकाया और कमर से इस तरह सहारा देकर चढ़ाने लगी, जैसे कोई कांच की नाजुक-सी चीज रख रही हो। बैठा चुकने की सफलता का ऐसा दुलार उसके चेहरे पर उमड़ आया, मानो बुड्ढा दो-तीन साल का बच्चा हो। सुमेरा से आंखें मिलीं तो यों मुस्कराई, जैसे उसकी तरफ से क्षमा मांग रही हो, क्या करें, बेचारा बुड्ढा है, चढ़ा नहीं जाता। सुमेरा मुग्ध-सा उसके चेहरे के भाव को देख रहा था कि उसके गले की पतली-सी जंजीर से फिर हार का ध्यान हो आया। इस तरह चौंक पड़ा, जैसे उनकी कोई कीमती चीज चुराता पकड़ा गया हो।
‘‘धूप बहोत है, हुड चढ़ा दो।’’ दूसरी तरफ से बुढ़िया खाली जगह में आ बैठी थी।
सुमेरा फिर अटका। क्यों उसे लग रहा है, जैसे कुछ दुहराया जा रहा हो? पीछे से हुड चढ़ाते हुए वह याद करने लगा, यह सब उसने कहां देखा-सुना है। बुढ़िया इस तरह उसकी रखवाली करती बैठी है, जैसे दशहरे पर लोग टेसू सिराने ले जाते हैं। सामने आकर उसने धोती के नीचे घुटनों तक खुली अपनी दोनों टांगें बारी-बारी से उठाकर अंगोछे से पिंडलियां झाड़ीं, फट्-फट्। दोनों हाथ बीच में खड़े बेंत पर टिकाए गुमसुम बैठा बुड्ढा टेसू-सा तो लगता ही है। शाम को यह बात बाबू को बताएगा। पूछा, ‘‘चलें, मेम साहेब?’’ ‘‘हां, मगर रेस नहीं करेगा, धीरे-धीरे चलेगा।’’ बुढ़िया एक बार जरा-सी उठी, बुड्ढे के कोट का हिस्सा दब गया था, उसे निकाला और उसकी पीठ के पीछे हाथ फैला लिया। फिर वही...आखिर, यह सब सुमेरा ने सुना कहां है? कहीं यह सब हुआ जरूर है। वह बार-बार रिक्शा धीमा करते-करते रोक-सा देता। उसका मन होता कि पीछे मुड़कर उनके चेहरे देखे।। वहां क्या है, जो बार-बार उसे खींचता है? मुड़कर पीछे देखने की इच्छा को वह गुनगुनाकर बहलाने लगा, ‘‘टेसूरा रे, टेसूरा...टेसूरा की सात बहुरियां...नौ मन पीसें, दस मन खाएं...बड़े मल्ल से जूझन जाएं...’’ बचपन में दीया जलाकर घर-घर घूमते टेसू गाने के अनेक चित्र झलमलाने लगे और वह अपने-आप ही मुसकराने लगा। जाने कब उसने मुड़कर पीछे देखा। यों ही पूछा, ‘‘धूप तो नहीं लग रही, मेम साहेब?’’
लोगों के चेहरे की झुर्रियां देखकर सुमेरा हमेशा अपने से एक सवाल पूछता है। मान लो, एक झुर्री एक साल में पड़ी और इस आदमी ने अपनी जिंदगी में इतनी झुर्रियां कमाईं, तो क्यों जी, इसे बदले में क्या मिला? रुपया, पैसा, मकान, जोरू-जायदाद, बच्चे? या यों ही जिंदगी-भर का रोना-झींकना...रात-रात जागकर बीड़ी पीना...या शराब के नशे में धुत् नालियों में लोट लगाना? बीस साल बाद जब उसके चेहरे पर भी ऐसी सलवटें पड़ जाएंगी, तब भी क्या वह यों ही रिक्शा चला रहा होगा? तब भी वह क्या धीरा की अम्मा को आधी रात में जगाकर पीटा करेगा? तब भी क्या उसे लगा करेगा जैसे उसे कुछ चाहिए...उसे किसी चीज की जरूरत है...नहीं जी, तब तक तो धीरा बड़ा हो जाएगा। लेकिन मैंने ही अपने बाप को कौन-से सुख दिए हैं? आज भी तो बूढ़ा मकानों की चिनाई करता है...
छह-सात दिन पहले की बात है। वह चुंगी के नल पर नहा रहा था। पानी भरने आई बोधा की बहू ने कहा था, ‘‘लाला, तुम्हारी तो सारी पसलियां निकल आईं!’’ साबुन लगाता-लगाता हाथ रुक गया। देर तक वह अपनी पसलियां गिनता रहा। अब बहुत कमजोरी महसूस होने लगी है; चेहरे पर भी वह ताजगी नहीं रह गई। कौन जाने झुर्रियां बनने लगी हों...अच्छा, उसका चेहरा इस बुढ़िया की तरह महीन-महीन झुर्रियों वाला होगा या इस बुड्ढे की तरह मोटी सलवटों वाला? उसी क्षण उसकी प्रबल इच्छा हुई कि शीशे में अपना चेहरा देखे। कभी उसके रिक्शे में भी सामने शीशा लगा था, गुब्बारे उड़ा करते थे और पहियों में रंग-बिरंगे फूल नाचते थे। अब तो सारे अंजर-पंजर ढीले पड़ गए। चलते-चलते कभी वालपिन निकल जाता है तो फ्रीह्वील घूमता ही रह जाता है, कभी चेन उतर जाती है। सवारियों की गाली खाते हुए, ईंट-पत्थर से बीच रास्ते वालपिन ठोंकना या हाथ काले करके चेन चढ़ाना कितना बुरा लगता है! मन होता है, होली में रखकर जला दे ऐसे रिक्शे को। हुड का कपड़ा झंडे की तरह चीरों में फड़फड़ाता है और दाहिना पहिया तांगे की उस भिड़ंत के बाद अभी तक लहराता ही चलता है। अब इन्हें ठीक करे या लच्छी के रुपये दे? लेकिन यह भी अजीब ही बात है...जब उसे अपने शरीर का ध्यान आता है तभी रिक्शे की तरफ निगाह जाती है। मानो दोनों एक किसी चीज से जुड़े हों...
ट्रिन-ट्रिन...भिड़ंत का दृश्य याद आते ही उसके अंगूठे और उंगलियों ने अपने-आप घंटी बजाई। लेकिन झट वह अपने-आप ही सहमकर रुक गया। मुड़कर देखा, कहीं इस घंटी की आवाज से पीछे की सवारियों को बुरा न लगा हो। पहली बार उसे महसूस हुआ, घंटी की आवाज कितनी कर्ण-कटु है! उस समय बुढ़िया बड़े प्यार से बुड्ढे के कोट का कॉलर सीधा कर रही थी। कान से आती डोरी को देखकर उसे ध्यान आया, बुड्ढा तो बहरा है। उसने घंटी की आवाज क्या सुनी होगी...? अच्छा, क्यों जी? जब यह बुड्ढा मर जाएगा तो बुढ़िया क्या करेगी? इस बेचारी को तो बड़ा खराब लगा करेगा। घर पर बाल-बच्चे होंगे? राम भजो! कौन आजकल अपने मां-बाप की चिंता करता है? और अभी सुमेरा को अपने बूढ़े बाप का ध्यान हो आया। उसने जाने कितनी बार सोचा कि एक बार जाकर उसके पैरों पड़ जाए...जो हुआ सो माफ करो। अब तुम बैठकर राम का भजन करो, मैं तुम्हारी सरवन की तरह सेवा करूंगा।...लेकिन जब-जब उसे बाप की मार याद आती, ये सारी कोमल भावनाएं हवा हो जातीं और आधी रात के कड़कड़ाते जाड़े में लात-घूंसों के साथ वे गालियां कानों को नोंच उठतीं, ‘साले, हरम्मे, असली न सही, लेकिन वो तेरी मां लगती है! तन-तन में कीड़े पड़ेंगे! जवानी छाई है तो कोठे पे चला जा! खबरदार, जो आज से घर में पांव रखा! बोटी-बोटी काट के कुत्तों को खिला दूंगा।’ अब सुमेरा को पहली गाड़ी छिंदवाड़ा की मिली थी। वहीं तो वह हारवाला किस्सा हुआ था।
रिक्शा सरकता रहा और चेन किर्र-किर्र बोलती रही।
उसे बुढ़िया के गले की ज़ंजीर याद आई, तो फिर एक बार मुड़कर देखा। जाने क्यों उसे अपने अनुपस्थित बाप के साथ-साथ इन दोनों पर बड़ी दया आ रही थी। दोनों के ही चेहरों पर कैसा संतोष, कैसी तृप्ति और कैसी कोमलता थी, मानो जात (तीर्थयात्रा) करके लौट रहे हों! देखकर ही लगता है, इनकी जिंदगी सुख से बीती है। और एक वह है, इस बुढ़ापे में चिलचिलाती धूप में बैठा-बैठा कन्नी से गारा फैला-फैलाकर ईंटें जमा रहा होगा।... मार ही दिया तो क्या हो गया? गलती भी तो उसी की थी! हुंह! होगा भी! अब जब से लेकर उसी को घोट रहा है! यही तो उसकी आदत बुरी है। अरे, उमर थी, एक बात हो गई। हां, हार की बात जरूर...ये दोनों बोझ पता नहीं कब तक उसके दिल पर रखे रहेंगे...
अचानक वह चौंककर रुक गया। कहीं यह बुड्ढे-बुढ़िया माल बाबू और बबुआइन ही तो नहीं हैं। मुड़कर देखा, हट्ट, वो तो हिंदू थे! वह झुककर पिंडली खुजाने लगा। वैसे, सच पूछो तो यह डर उसे हमेशा बना रहता है कि कहीं किसी दिन माल बाबू से अचानक भेंट न हो जाए। पहचान थोड़े ही पाएंगे...जाने कितने स्टेशन उन्होंने बदले होंगे, जाने कितने कुली उनके हाथ के नीचे से गए होंगे!
मुख्य रास्ते और कच्चे दगरे के संगम पर पीपल के पेड़ के नीचे सफेदी पुते आले में सिंदूर-रंगे हनुमानजी के सामने से गुजरते हुए रोज उसे हार की याद आ जाती है। मुंह पर डाठा बांधकर माल बबुआइन को कोठरी में घेरना, हार छीनकर भागना, दो महीने गाड़े रखना और फिर अम्मा के मरने के बहाने यहां आकर मंगी के साथ रात-भर सोना गलाना...सब उसकी आंखों के सामने एक पल में गुजर जाता है। हार की बात तो, खैर, जब तक यह रिक्शा है, वह भूल नहीं सकता। वरना वह भी आज मंगी की तरह कभी रिक्शा मांग लाता और कभी कूंची-ढोल लेकर सफेदी-पुताई करता घूमता। उसे लगता है मानो रिक्शा उसका अपना नहीं है-वह उधार का है...किसी से कर्जा लेकर बनवाया गया है। कभी-कभी एक अजीब बात उसके मन में आती है-किसी तरह पैसे बचाकर वह वैसा ही हार बनवाए और जाकर माल बाबू के पैर पकड़कर रोने लगे-‘मालिक हमसे गलती हो गई थी। हम अंधे हो गए थे...’
‘‘उस सामने वाले फाटक पर रोक दो,’’ अचानक उसने सुना।
फाटक पर रोककर वह मुड़ा। बुढ़िया रूमाल से बूढ़े के मुंह के दोनों कोने बहुत संभालकर पोंछ रही थी, जैसे दूध पिलाने के बाद बच्चे का मुंह पोंछ देते हों। बुढ़िया इसकी कितनी देखभाल करती है!
स्टेशन की ओर चलते हुए वह बड़ी देर अपनी उन्हीं सवारियों की बात सोचता रहा। मां की तो उसे याद नहीं, सौतेली मां का जलती लकड़ियों से पीटना भी अब कभी-कभी ही याद आता है। हां, जिस तीसरी को उसका बाप खरीद लाया था, उसकी सुरीली आवाज ने उसे बहुत दिनों पागल किए रखा था। उसमें उसको गलती अपनी नहीं, बाप की ही लगती थी। तभी वह कई बार उन दिनों विद्रोही हो उठा था। कब्र में पांव लटके हैं। लेकिन हविस नहीं गई। खैर, वह सब हुआ सो हो गया, लेकिन आज उसने ऐसा क्या देखा है कि उसे सब याद आ रहा है? उसने सवारी बिठाई और पैसे लिए, फिर भी ऐसा क्यों लग रहा है, जैसे उसके हाथों कोई पुण्य-कार्य होकर चुका है? कहीं ऐसा कुछ जाना है तो उसकी जिंदगी में नहीं है।
ठेकेदार से लड़ाई है, इसलिए बाहर पेड़ के नीचे ही पहिया अड़ा करके रिक्शा खड़ा किया और सीट पर लेटकर ऊपर पत्तियां ताकने लगा। सवारी तो यहां भी मिल ही जाएगी, वहां बेकार एक आना और दो, नंबर में खड़े रहो। बस नहीं चलनी चाहिए, इसके लिए लोग हड़ताल कराते हैं, जुलूस निकलवाते हैं, लेकिन इन ठेकेदारों और सिपाहियों की अंधेरगर्दी पर कोई कुछ नहीं बोलता। लूट मचा रखी है! आजकल हमारे मंगी साहब भी तो लीडर बन गए हैं, कुर्ते-पाजामे पर जाकेट डाले घूमते हैं। तब चितकबरे बने घर-घर पुताई करते घूमते थे। लोग कितनी जल्दी बदल जाते हैं, देखते-देखते! यह वही मंगी बाबू हैं, जिन्हें सिंधी ने बिना उसकी जमानत के रिक्शा देने से इनकार कर दिया था। ठीक है, उसने सुमेरा की शादी कराई, रामदेई के बाप से सौदा पटवाया, तो सोने की गलाई में हिस्सा भी तो दिया था पूरा! अब तुम अपने हिस्से को बोतल में उड़ाओ, सिगरेट सिनेमा में फूंको, ‘फीचर’ में लगाओ और गंजेड़ियों-भंगेड़ियों से नंबर पूछते हफ्तों घर से गायब रहो, तो भैया, ऐसी तो सुमेरा ने भांग खाई नहीं है कि तुम्हारे नसे-पत्ते को भी दे और तुम्हारी बदफेलियां भी चुपचाप देखता रहे...
सुमेरा का मुंह कड़वा हो गया। कमीन! जिस हांडी में खाता है, उसी में छेद करता है! रिक्शे पर लेटे-लेटे वह हाथ की मुट्ठी के बीच में छोटा-सा छेद बनाकर उसके आरपार दूरबीन की तरह ऊपर पत्तियों और आसमान को देखता रहा। इस खेल में उसे बचपन से ही बड़ा मजा आता है। दिन-भर सेलम (कच्चा संगमरमर) के खिलौने बनाने के कारखाने में काम करता और रात को अपनी इसी दूरबीन से घंटों चांद को देखा करता...कभी बुढ़िया माई चरखा कातती दीखती...कभी हिरन दौड़ता दीखता। अब तो नीम की थरथराती पत्तियों के पार, गहरे नीले आसमान पर सफेद-सफेद बादलों के छोटे-छोटे टुकड़ों को देखता रहा, जैसे सफेद-सफेद बगूले घुमड़ रहे हों...
हुंह! मंगी साहब झुमके लाए थे रामदेई के लिए...रेल की नीलामी में फंस गया। इनाम के लालच में पहले तो ऊंची-ऊंची बोली बोलता रहा, एक बोली में पट्ठे ने माल ही थमा दिया। ‘मैं क्या करूंगा, भौजी?’ जाने कब से सांठ-गांठ चल रही होगी और वो तो उस दिन बीच में ही ट्यूब बदलने लौट नहीं आता, तो उसे जन्म-भर पता नहीं चलता। बड़े-बड़े पट्टे रखाकर सारे दिन सिनेमा के गीत गाते फिरोगे तो यही सीखोगे...! रिक्शा चलाएंगे तो ऐसे, जैसे सरकस का खेल दिखा रहे हों, जानो रिक्शा नहीं हवाई जहाज है। ऐसी मोड़ेंगे, जैसे कार मोड़ रहे हों।...अच्छा हुआ, एक्सीडेंट में खोपड़ा ही फटकर रह गया, वरना सीधे सरग ही जाते नज़र आते। फिर घर आया मेरा ‘परदेसी’ नहीं होता। और वो हरामजादी रामदेई, उसे तो सरम से डूब मरना वाजिब था, लेकिन वो कड़क के क्या कहती है-‘‘पहले अपनी तरफ भी देखा बाबू! खरीदी थी या भगाई थी, थी तो तुम्हारी महतारी बराबर?’’ इतनी पिटी, लेकिन बंदी ने बकना बंद नहीं किया। बाप के गुमान में रहती है! समझती है, बाप सरपंच है।...ऐसे बापों को ठेंगे पर मारते हैं! साले ठग!...दो नारंगी छाप दो और जो चाहो सो फैसला करा लो। पंचायत हुई या लूट? डांड़ लेंगे ये हमसे।-वो तो धीरा से मोह न होता तो पड़ी रहती जिंदगानी-भर बाप के यहां, कर लेती दूसरा...।
वह भी क्या बेकार की बात याद करने लगा! अच्छी-खासी तबियत खराब हो गई। आख-त्थू! लेटे-लेटे उसने बलगम का बड़ा-सा लोंदा पीछे की तरफ उछाल दिया। बांह से होंठ पोंछे और फिर बादलों को देखने लगा। कैसे एक के बाद एक बहते चले आते हैं, जैसे नीले-नीले पानी में सफेद रूमाल तैरते चले जा रहे हों...ओ-हो! उसे एक रूमाल और भी तो मिला था? आ-हा, अब याद आया! इसी बात को तो वह इतनी देर से याद कर रहा था! पिटकर रामदेई अपनी गठरी-मुटरी बांधकर बाप के यहां चली गई थी, उसके दो-एक दिन बाद की ही तो बात है।...
सारा दिन उसका मन नहीं लगा था। पड़ा-पड़ा कुट-कुट करती गिलहरियों और पंजों से राख कुरेदती मुर्गी और उसके बच्चों को ताकता रहा। दाना खोजकर मुर्गी चुक-चुक करती और छोटे-छोटे बच्चे उसकी चोंच के पास आ जमा होते। धरती छूती, झूलने-जैसी खाट में धंसा, मैले चीकट तकिए के नीचे से ‘किस्सा तोता-मैना’ व ‘दिल-बहार’ सिनेमा के गाने पढ़ता रहा। फिर मूंज को मोंगरी कूटकर एक अच्छी-सी कूंची बना ली। कहीं जाने को दिल नहीं था। जिससे मिलो, ऐसा लगता था, रामदेई की नहीं, गलती उसकी ही है। सब साले धोखेबाज, कमीने और मतलबी हैं! उन आठ-दस घरों में रिक्शा उसी के पास है न अपना, सो समझते हैं जाने कौन-सी रकम उसके पास गड़ी रखी है! बाकी तो वह उसका रिक्शा लेकर भाग गया, उसको बेलनगंज के लाला ने धरवा दिया। घंटों वह अपने रिक्शे को रगड़-रगड़कर धोता और चमकाता रहा। एक घर छोड़कर भूरे की बहू हाथ चमका-चमकाकर बिसना की चाची से लड़ती रही, ‘‘दारी, भौत खसम के तेहे में मती ना रहियो! आमन दे आज, न तेरे बाप से चसमा धरवाय लऊं। बोलौ, मौड़ा-ए खेलनई नांय दें...कढ़ी खाए, चोट्टा! सारे!...’’ कैसा चिचियाता हुआ गला है! मन होता है, जाकर गला भींच दे। दो पैसे का बच्चों वाला चश्मा टूट-टाट गया होगा, उस पर इतना शोर सुबह से मचा रखा है। दिन-भर जूतम-पैजार होती है। चैन नहीं है एक पल को। साले जाहिल, गंवार!
सिकंदरे के सामने उसने रिक्शा लाकर खड़ा कर दिया। सांझ हो गई थी। उतरकर वह एक ओर खड़ा-खड़ा मुंह फाड़-फाड़कर गुड़धानी रोंथता रहा। सर्र से दो-तीन कारें भीतर गईं और निकलीं। ये गोरी लड़कियां तक सिर पर रूमाल बांधकर मोटर ऐसे चलाती ले जाती हैं, जैसे मां के पेट से ही मोटर चलाती आई हों। कारों के मुड़ने, स्टार्ट होने और दौड़ पड़ने को वह हमेशा बड़ी मुग्ध दृष्टि से देखता रहा है। काश, वह भी ड्राइवरी सीख पाता तो यों झन्न-से ले जाया करता, यों काटकर बचाता! डस हरजाई रामदेई को भी घुमा देता तो मानती कि हां है कोई! तभी उसने देखा, एक ओर की खुली छाती दिखाते कसी-कसाई फतूरी, घुटनों तक धोती और भारी-सा मुंड़ासा सिर पर बांधे एक आदमी मुंह फाड़े सिकंदरे की बुर्जियों को देखकर दूसरे से कह रहा था, ‘‘ओरे मेहताब! जिने देख, जे सुर्री कैसी आकास में मन्नाय रई हैं! मोय तो महजत जैसी लगै हैं।’’
फिर सुमेरा से पूछा, ‘‘चौं भैया, जे अकबरा को मकबरा-ऐ, कै मकबरा को अकबरा-ऐ?’’
चबाना भूलकर सुमेरा जोर से हंस पड़ा। फिर उसकी सिधाई देखकर बतलाया, ‘‘जे सिकंदरा है ठाकुर, यहां पर अकबर बास्सा गाड़ा गया था। कहां से आए हो?’’
ठाकुर ने सुमेरा को हंसते नहीं देखा। यों ही मुंह फाड़े विस्फारित आंखों से देखता रहा, ‘‘बाह! रंग-ऐ रे अकबर बास्सा, मरबे कौऊ कैसो मलूक ठौर चुन्यौ-ऐ!’’ फिर सुमेरा की बात के जवाब में क्षमा मांगता-सा बोला, ‘‘हम तौ भैया, भर्त्तपुर के हैं। हमन ने ऐसी काहे कूं देखौऔ पैलें? डीग के म्हैल देखेए...बस्सि! कम ते आए-ए, सो जाए ऊ देख चले।’’ जब ठाकुर चला गया तो तांगे वाले बुंदन ने बतलाया, ‘‘यह बेचारा तो गांव का है नया! हमने तो बड़े-बड़े आलिम-फाजिलों को ऐसा बेवकूफ बनाया कि आज तक रोते होंगे। अरे हां, कोई अंग्रेज-अमरीकन हो तो उसने पांच-दस बख्शीश की भी उम्मीद की जाए, इन सालों के पास क्या रखा है? घंटे-भर झिक-झिक करेंगे और बाद में खोटे पैसे देकर चलते बनेंगे। सो क्या करते थे कि स्टेशन से लाए, सैंट जॉन्स कॉलेज की बिल्डिंग के आस-पास घुमा दिया। कह दिया देख लो, यही सिकंदरा है, आज बंद है...अरे हां, कौन साला घोड़े को तिक-तिक करता लाए यहां तक? अपने पांच रुपये सीधे हो गए, अल्ला-अल्ला खैर सल्ला! दुनिया जहान से लोग टूटे आते हैं, जाने क्या देखते हैं इन कबरों में! हमें तो कुछ दिखता नहीं है। हां, गाइडों के किस्से सुन-सुनकर जरूर खुश हो लेते हों, सो ऐसे किस्से हम गढ़ दिया करें रोज!’’
सच पूछा जाए तो यही बात आज तक सुमेरा की भी समझ में नहीं आती।
‘रिक्शा!’
आवाज के साथ ही उसके रिक्शे की घंटी बजी, ट्रिनन्-ट्रिनन्!
चौंककर वह लपका। सवारी आ गई। जाते हुए उसे गर्व हुआ। उसी का रिक्शा सबसे नया और फैशनेबल है, सवारी और कहीं जा ही नहीं सकती।
एक लड़का और एक लड़की खड़े थे। सलेटी हल्के रंग का बिना बटन लगा चेस्टर, एक आगे और एक पीछे पड़ी चोटी, खुलता रंग, लंबा मुंह, चमकदार आंखें।...लड़की दोनों हाथ चेस्टर की जेबों में ठूंसे बड़े भाव से लड़के को कुछ बता रही थी। लड़का ऊनी जर्किन और पतलून पहने था। सांवले से ज्यादा गहरा रंग, हर बार हाथ से माथे के बालों को समेटने के बहाने खास अंदाज में बिखरे-बनाए रखता था। मामला कुछ है, यह ताड़ जाने की प्रतिभा सुमेरा में बड़े विचित्र ढंग से विकसित हो गई थी। सुमेरा भांप गया कि बाहर की निश्चिंतता और निडरता बनावटी है। इससे भीतर की घबराहट छिपाई जा रही है। उसने पूछा, ‘‘ताजम्हैल सा’ब?’’ सोचा, ताजगंज गया तो बाहर से यह भी पता लगा लेगा कि उस साली रामदेई के क्या हाल हैं। पांच दिन हो गए।
‘‘दयालबाग!’’ लड़के ने कहा।
‘‘चलेंगे सा’ब,’’ गद्दी पर हाथ पटककर बोला।
‘‘चलो, बैठो,’’ लड़की की कुहनी छूकर वह बोला। फिर एक बार ऊंचे-ऊंचे पेड़ों और चाय वाले को देखा।
‘‘हुड चढ़ा लो,’’ सुमेरा से लड़की बोली। उसके चेहरे की ओर देखना सुमेरा को बड़ा अच्छा लग रहा था। उसकी आवाज सुनकर चौंका। वह लड़के से कह रही थी, ‘‘इनसे पहले पैसे तय कर लेने चाहिए, बाद में हरेक को टूरिस्ट समझकर तंग करते हैं।’’ और वह चेस्टर समेटकर बैठ गई। चढ़ते हुए उसकी जितनी पिंडली उघरी, उसे देखकर सुमेरा का मन फुरहरी से उठा। हुड चढ़ाते हुए मन में आया, पूछे, ‘सामने पर्दा भी डलेगा मेम सा’ब?’ ज्यादा हो जाएगा। कहा, ‘‘हम पैसों के लिए झगड़ा करने वालों में से नहीं हैं।’’ दोनों बैठ चुके तो सुमेरा ने ध्यान दिया, लड़की ने उसकी निगाहें बचाने के लिए दूसरी ओर मुंह मोड़ रखा है और उसकी मुस्कराती कनपटी ही दिखाई दे रही है। वह अदा उसे ऐसी अच्छी लगी कि उसका मन हुआ धीरे से...उसके अंगूठे ने घंटी बजा दी, ट्रिनन्-ट्रिनन्...
‘‘जरा हटना, मुझे हाथ पीछे रख लेने दो जरा,’’ लड़का कह रहा था।
पैदल रिक्शे को चिकनी सड़क पर लाते हुए सुमेरा ने मन-ही-मन कहा-‘हां, हां, हाथ ही क्यों, सारा ही पीछे लेट जा न!’ उसने व्यर्थ ही घंटी बजाई, ट्रिनन्-ट्रिनन्।
‘‘भई, जरा जल्दी पहुंचना है।’’ लड़की की आवाज सुरीली थी।
अब घर जाने की जल्दी पड़ी होगी! अम्मा जो मारेगी! तब से भीतर बैठे-बैठे मौज मार रहे होंगे। सुमेरा बोला, ‘‘अभी लो, हवाई जहाज की चाल से जाऊंगा।’’ चिकनी सड़क पर रिक्शा सरका तो उसका मन उत्साह से भर गया। दांत भींचकर सारे दम से रिक्शा भगाते चले जाने को बोटी-बोटी मचलने लगी। मंगी को उसने एक लड़की को स्कूल पहुंचाने के लिए महीने पर लगा दिया था। वह उस लड़की को बैठाकर इतनी जोर से रिक्शा दौड़ाता कि बेचारी ने तीसरे दिन ही धीरे चलाने को कह दिया। मंगी ने जवाब दिया, ‘‘बैलगाड़ी में बैठना हो तो सुमेरा की में बैठिए। ये तो तूफान मेल से कम चलता ही नहीं है।’’ यह हमारी बैलगाड़ी है! उल्लू का पट्ठा! अब उसकी समझ में आया कि क्यों आदमी का मन कभी बेतहाशा रिक्शा दौड़ाने को करता है। उसके कान असाधारण रूप से तेज हो उठे।
‘‘कहो जो भी, लेकिन सवारी रिक्शा है बड़ी अच्छी!’’ लड़के की आवाज।
‘‘अच्छी तो है ही, यों सटकर जो बैठने को मिलता है!’’ लड़की हंसी। हंसते हुए उसके गाल कैसे हो जाते होंगे!
आगे सुना :
‘‘देखो, हाथ हटाओ, सड़क है। रिक्शेवाले का तो खयाल...’’ अगली बात उसने कुछ अंग्रेजी में गिटपिट की।
रिक्शेवाले का खयाल क्यों करते हो? अंधे हो रहे हो! अपने मजे मारो, हरामियो! मां-बाप को बहका लेना...यहां सब जानते हैं, कौन क्या करने आता है। दिन में दो-तीन बार तो तुम-जैसों से काम पड़ता ही होगा। सुमेरा ने सोचा, लड़की को तो शायद कहीं देखा है, लेकिन लड़का यहां का नहीं लगता। या शायद इसे मेडिकल कॉलेज से गुजरते हुए देखा हो। ‘‘सचमुच देर हो गई,’’ लड़का बोला, ‘‘वहां उधर पटरियों की तरफ जरा-सी ही धूप रह गई है।’’
‘‘अब लगी है देर हो गई! हम तब से कह रहे थे, सो? तब तो ‘अभी बहुत जल्दी है’, ‘बहुत जल्दी है’!’’ लड़की चिढ़ती हुई बोली।
‘‘होगा, यार! तुम्हारी इस जल्दी ने तो प्राण खा लिए!’’
‘‘धीरे बोलो न?’’ लगा, लड़की ने लड़के की बांह में चिकोटी भर ली।
हुम्!...अब जल्दी चलो...धीरे बोलो...तब तो लडुआ गपक रहे होंगे! तब रिक्शेवाले को याद नहीं किया? अरे, रिक्शा तो रिक्शा है, कोई मोटरकार तो है नहीं!...राम करे, दिल्ली वाली पैसेंजर के लिए फाटक बंद मिले। होने दो ससुरों की फजीहत घर जाके!
‘‘नहीं जी, ऐसी क्या मुसीबत है, धीरे-धीरे हवा खाते चलो दोस्त! लंबा रास्ता है, थक जाओगे।’’
‘‘हां, हां, मुझे क्या जल्दी है? तुझे तो स्वर्ग नजर आ रहा होगा बेट्टा! घर जाके ले-दे होगी, सो उसकी होगी, तू तो अपना लंबा पड़ियो!...जाने किसकी बहू-बेटी को बहका लाया है! उसे लड़की पर दया आने लगी। लेकिन उसने चाल धीमी कर दी।’’
पीछे कुछ छीना-झपटी हुई, तो उसकी तबियत भन्ना उठी। मन में आया, फौरन रिक्शा रोककर इन्हें उतार दे। जाने क्यों उसे लगातार लग रहा था कि वह किसी गलत काम में मदद दे रहा है, उसे रोकना चाहिए। यह लड़का जरूर कोई लुच्चा-बदमाश है। सचमुच, ये बेचारी लड़कियां बड़ी सीधी होती हैं। लेकिन हल्के ढाल पर पैडल रोके, ब्रेक साधे वह अकड़ा, शहीदाना अंदाज से बैठा रहा, मानो जताना चाहता हो कि देखो, मैं तुम्हारी सारी हरकत जानता हूं, सब समझता हूं, फिर भी चुप हूं। वैसे उसकी पीठ की एक-एक नस और पेशी तड़क रही थी कि झटके से पीछे मुड़कर देखे, एक बार तो देखे कि साले बैठे किस तरह हैं! उसने कानों में आंखें डाल ली थीं और उनके बैठने, बातें करने की एक-एक तसवीर उसके सामने आ रही थी। अब दोनों चुप हो गए थे। बस, पिछली धुरी और चेन की किर्र-किर्र ही सुनाई देती थी। अब तो अभ्यास हो गया है, वरना पहले वह हमेशा इस आवाज से चौंक उठता था, जैसे पीछे से कोई दूसरी साइकिल चली आ रही हो।
अरे, इन्होंने तो सांस खींच ली। लड़-लड़ा तो नहीं पड़े? उसे चिंता होने लगी, लड़के ने कोई हरकत कर-करा दी होगी। इन आजकल के लड़कों का तो दिमाग ही जाने कहां चला गया है सिनेमा देख-देखकर! ढंग तो किसी काम का आता ही नहीं। भाई, लड़की का मन लेना ऐसा आसान थोड़े ही है; धीरे-धीरे बढ़ा जाता है।
उसने दूर से ही देख लिया कि रेल का फाटक बंद है, बेचारी को और देर में देर हुई जा रही है! कैसी धुकुर-पुकुर लगी होगी मन में, ऊपर से चाहे हंस-बतिया ले!
इतनी देर की चुप्पी तोड़कर लड़का बोला, ‘‘यह जो दाहिनी तरफ घोड़ा है न पत्थर का, कहते हैं, अमरसिंह राठौर का है। ऐसा ही एक वहां किले के पास है। वहां कूदा था और यहां तक लाकर मर गया गया था। पीछे फौजें आ रही थीं...’’
‘‘हूं, पता है। मैंने हिस्ट्री ली थी!’’ बेरुखी से लड़की बोली।
ले और सुन! पहले तो गुस्सा कर दिया, अब बता रहा है कि यह अमरसिंह राठौर का घोड़ा है!...अमरसिंह राठौर तेरा बाप था न! सारा मजा किरकिरा कर दिया लेके!
असल में उसे खुद ठीक से पता भी नहीं था, यह घोड़ा किसका है। कोई उसे हुमायूं का बताता है, कोई अमरसिंह राठौर का।
चढ़ाई पर पैदल रिक्शा चढ़ाते हुए उसका शरीर लड़की के सैंडल-बंद पंजों से छूते-छूते रह जाता था। उन्हें छूकर देखने की इच्छा को वह कैसे रोके था, यह वही जानता है! कहां यह काला-कलूटा, और परी-जैसी लौंडिया को फंसा लाया है! साड़ी की किनारी उंगलियों से कैसे खेलती है!
‘‘हम उतर जाएं रिक्शेवाले?’’ लड़के ने गद्दी छूकर उठने का भाव दिखाया।
‘‘अजी नहीं सा’ब, ये तो यों ही जरा-सी चढ़ाई है।’’ उसने फिर दोनों के चेहरे देखे। तनाव साफ था। क्या हो गया?
‘‘लो, आज तो हो गई मौत! अब यह फाटक जाने कब खुलेगा!’’ परेशानी से लड़का बोला, ‘‘लगता है, हमसे सभी नाराज हैं!’’
अब दीखा होगा तुझे फाटक? नाराज तो हैं ही!
‘‘देखो उम्मी, यह गलत बात है! अब तुम ऐसा करोगी तो...बताओ, यों हम चलते-चलाते उड़ेंगे? तुम्हारी यही आदत तो मुझे अच्छी नहीं लगती!’’
‘‘और आपकी आदत बड़ी अच्छी है!’’ जब सुमेरा ने रिक्शे को हाथ से रोके रखते हुए पीछे से पहियों के नीचे दो ईंटें लगाईं, तो लड़की की भर्राई-सी आवाज सुनी, ‘‘अरे रिक्शेवाले, पूछो भाई, कितनी देर है! देर ज्यादा हो तो उधर जाकर दूसरा रिक्शा ले लें।’’
उसके चेहरे पर ऐसा निरीह भाव था कि अब सुमेरा को सचमुच लड़की पर दया आने लगी और उसने सारा दोष लड़के पर रख दिया। पहले उसने सोचा था कि वहीं हैंडल के पास खड़ा-खड़ा घंटी खोलकर ठीक करने लगेगा लेकिन अब, ‘अभी आती होगी, सा’ब, सिंगल तो डौन है’ कहकर वह फाटक वाले के पास आ गया। एक ट्रक, दो कार, एक तांगा और दो-एक रिक्शे लाइन लगाए खड़े थे। नीली वर्दी पहने बगल में लाल और हरी झंडियां दबाए फाटक वाले से बोला, ‘‘लाना पंडित, एक बीड़ी तो दो आज।’’
यहां से रोज जाना होता है। फाटक वाला उसका दोस्त है। ‘बीड़ी तेरा बाप रख गया होगा’ जैसी एक-दो चुहली के बाद दोनों खड़े-खड़े बातें करने लगे। बीड़ी के धुएं को बुरी तरह घूंटकर वह भीतर की कुलबुलाहट को दबा रहा था। किससे कहे कि वह किसी असाधारण बात को जानता है, उसमें हिस्सेदार है। जब फाटक वाले ने यों ही पूछा, ‘‘कहां की सवारियां हैं? बड़ी अच्छी हैं।’’ तो धुएं के साथ-साथ अपनी हंसी भी मिलाकर वह बोला, ‘‘अरे पंडित जी, अपना तो काम ही यही है। कोई नई बात है? अपने तो दूर खड़े-खड़े दुनिया के मजे देखते हैं।’’ फिर धीरे से पूछा, ‘‘कहो तो थाने ले जाऊं सीधा? मिंयां-बीवी नहीं हैं।’’
‘‘अब, वो जूते पड़ेंगे कि टांट गंजी हो जाएगी। सारी तीन-पांच भूल जाएगा। आजकल के मियां-बीवी को नहीं जानते तुम। साले भाई-बहन कुछ नहीं रहे इनके सामने। बेटा, रिक्शा खींचो और दुनिया को अपनी राह चलने दो!’’ रेल की घड़घड़ाहट से बात बीच में ही टूट गई। और जब ‘छुक्क-छां’ करती रेल फाटक-खंभे थरथराती हुई गुजर गई तो सुस्त-सा सुमेरा लौट आया।
इस बीच में शायद मेल हो गया था। लड़की का चेहरा फिर खिल उठा था। सुमेरा को बड़ा अच्छा लगा। और फिर उसे लगातार देखते रहने को मन हुआ।
‘‘और अगर इसमें कहीं तुम्हारे पापा जी लौट रहे हों तो?’’
सुमेरा ने हैंडल संभाला तो लड़के की मजाक-भरी आवाज सुनी-
‘‘जाकर मम्मी से पूछेंगे तो पता चलेगा कि उम्मी बेटी मीना के यहां गई है।’’
‘‘कह दूंगी कि देर हो गई थी सो उसके भाई छोड़ने आए थे।’’
‘‘और सिकंदरे की तरफ रहते थे, क्यों? यह नहीं पता कि मीना के भाई दवाइयों की कंपनी के एजेंट हैं, बंबई में रहते हैं और दिल्ली आए थे, सो बीच में...’’
दोनों खिलखिलाकर हंस पड़े। अंधेरा हो आया था।
‘‘जब हम रिक्शे पर चढ़े थे न, तो यह रिक्शे वाला इस तरह घूर रहा था कि मैं घबरा गई कि कहीं पहचान तो...’’ इस बार लड़की के स्वर में ललक थी।
और सुमेरा सुस्त हो गया। हेश्ट! लड़की ही चालू है, स्साली! उसे मंगी और रामदेई का ध्यान आ गया। ये लोग देखने में सीधी लगती हैं। इतनी देर से उसे लड़की पर दया आ रही थी कि लड़का बंबई का है और सीधी-सादी लड़की को बहका लाया है। वैसे भी देखने में बंबई का गुंडा लगता है।...बंबई के बारे में सिनेमाओं के बहुत-से दृश्य आंखों के आगे कौंध गए तो उसे लगा कि लड़के की सूरत, सिनेमाओं में बदमाशों के सरदार बनने वाले रामसिंह से काफी मिलती है। लंबे ढाल पर पिछली धुरी की चेन फिर किरकिराने लगी थी और वह एक पांव ऊपर फ्रेम में टिकाकर सुस्ता रहा था। साली रामदेई!
पुच्च!
खट् से उसके ब्रेक अपने-आप लग गए। अब तो हद हो गई है! यह रिक्शा है या यह सब करने की जगह? उसे दुख हुआ, लड़की ने खींचकर तमाचा क्यों नहीं मारा? ‘‘क्यों, क्या हो गया?’’ रिक्शा रुकते ही दोनों सकपका गए। लड़की का गोरा चेहरा लाल पड़कर कैसा लगता होगा, सुमेरा इसका अनुमान लगाने लगा। सीधे देख नहीं पाया। ‘‘सामने चौकी है सा’ब, जरा बत्ती जला लें,’’ जब उसे कुछ नहीं सूझा तो यों पैडल उल्टे घुमाता वह बोला। पीछे वाले रिक्शे और मोटर आगे निकल गए। बत्ती के लिहाज से अभी जल्दी थी, लेकिन खड्ड-खड्ड करते खाली रिक्शा लिए जाते एक रिक्शे वाले को रोककर माचिस ली, बत्ती जलाई। मन में आया, अगर सीधा चौकी पर ले जाकर खड़ा कर दे तो बड़ा मजा आए, सारी चौकड़ी भूल जाएं!
‘‘अच्छा, मजाक अब बहुत हो गया। अब हमें गंभीरता से सारी बातें तय कर लेनी चाहिए। देखो, मुझे भी तो उसी हिसाब से सब कुछ करना होगा न।’’ इस बार जैसे ही रिक्शा चला, एकदम बदले हुए लहजे में लड़के ने कहा। कुछ देर जवाब का इंतजार किया, फिर बोला, ‘‘जैसे ही इम्तहान खत्म हों, मुझे लिखना। मुझे भी तब तक पता चल जाएगा कि कहां रखते हैं, बंबई या दिल्ली। जगह-वगह सब ले रखूंगा। पापा जी से तुम कहना।’’
‘‘न बाबा, हमारी हिम्मत नहीं है। आप ही लिखना!’’
‘‘देखो, बेवकूफी की बातें नहीं करते हैं। अपना काम मैं करूंगा, तुम अपना देखो!’’ इस बार जब लड़के ने आज्ञा देने के स्वर में कहा तो सुमेरा को अच्छा लगा। हां, यह हुई मर्दों वाली बात!
लड़का आगे बोला, ‘‘और मैं कहता हूं मारो गोली सबको! चुपके से सिविल-मैरेज कर डालें, बाद में सब हो जाएगा।’’
अरे, यह तो छुपा रुस्तम है! गिरजे में जाकर शादी करने को कहता है!
‘‘नहीं,’’ लड़की ने भी दृढ़ स्वर में कहा। कुछ देर दोनों चुप रहे। तब मानो उसके कंधे से अपने गाल रगड़ती लड़की ठुनकते स्वर में बोली, ‘‘उसके तो अभी बहुत दिन हैं। तब तक कैसे रहा जाएगा? सच, मेरा मन तो बहुत घबरा रहा है! जाने क्या होगा! सुनो...’’
हाय-हाय! सारा गुड़ गोबर कर दिया! यह लड़की है या मोम की गुड़िया? अभी ऐसी बमक रही थी और अब यों मिमियाने लगी!
‘‘सचमुच हमसे अब नहीं रहा जाता! जब से तुम्हारा खत मिला है, मुझसे तिनका-भर काम नहीं हुआ। बस, लगता था, कब शाम हो और कब चार बजें! घड़ी पर ऐसा गुस्सा आता था कि क्या बताऊं! सारी लड़कियां मजाक उड़ाती थीं। सच, इतना नुकसान होता है! देख लेना, मैं तो इम्तहान में भी नहीं बैठूंगी। फेल होकर मजाक थोड़े ही उड़वाना है अपना!’’ सारी सुस्ती भूलकर सुमेरा के भीतर कोई किलकिला उठा, अबे लो, यह तो बंबई का खेल हो गया! बस, अब एक गाना और हो जाए!
‘‘अरे-अरे! यह क्या बेवकूफी है, उम्मी? देखो, यों मत रोओ सड़क पर। कोई देखे तो? भई, भगवान के वास्ते!’’
ट्रिनन्-ट्रिनन्! घंटी बजाकर पीछे से कोई सवारी तो नहीं आ रही, यह देखने के लिए बाईं ओर हाथ देते हुए सुमेरा ने कनखियों से देखा, लड़की का सिर सच ही उसके कंधे से टिका था और वह रूमाल से उसके आंसू पोंछ रहा था। अंधेरे और जल्दी में और कुछ साफ नहीं दिखा । रेड़ हो गई! कैसा अच्छा चल रहा था! अब फंसे बेटा! अब यह तिरिया-चरित्तर दिखा रही है! कल ही देख लेना, किसी और की बगल में बैठकर यों ही रोएगी।...रामदेई का ध्यान आया तो फिर तबियत कड़वाहट से भर गई। सोलह आने गोबरगनेश है यह लड़का भी। सारी बातों को सच समझ रहा है। अबे, दो लात दे और अपने घर जा। कहां फंसा है!
‘‘जरा इस तरफ वाली सड़क से चलो,’’ लड़के ने रेल के पुल पर बताया।
चाहे जिधर से चल, मुझे तो तुझसे रुपये ले लेने हैं आज!
‘‘देखो उम्मी, घबराओ मत? सब ठीक हो जाएगा। और देखो, मेरे पहुंचने से पहले ही वहां तुम्हारा खत पहुंच जाना चाहिए, ऊं?’’ हल्के-हल्के गाल थपथपाने की आवाज! ‘‘देखो, उस जंगल में इन्हीं प्यारे-प्यारे खतों के सहारे तो जिंदा हूं, वरना इन दवाइयों...’’
‘‘तुम्हीं बहुत देर लगा देते हो। सुनो, मैं कहे देती हूं, अगर पास कराना हो तो लौटती डाक से जवाब दे दिया करो, नहीं तो फिर मुझे दोष मत देना! यहां तो रोज जाकर मीरा से पूछो, और जब पता चले कि कोई खत नहीं आया तो ऐसा गुस्सा आता है कि जिंदगी-भर कोई खत न डालूं।’’
काश, कोई उससे भी ऐसी बातें करता! सुमेरा के भीतर कुछ कसक उठा। उसे बहुत जोर से लगा, जैसे उसे कुछ चाहिए...कुछ चाहिए...क्या चाहिए यह तो वह नहीं जान पाया, लेकिन मां से आंखें लड़ाने का पाप और हार की चोरी का अपराध दोनों एक साथ कील की तरह करक उठे...
‘‘यहां इस सामने वाले फाटक के सामने रोक लो,’’ लड़की ने कहा और पूरी तरह रुकने से पहले ही झट उतर गई। चेन का किरकिराना बंद हो गया।
‘‘अच्छा, तुम मत उतरो, भीतर से कोई बाहर ही चला आए!’’
‘‘अच्छा’’, लड़की के दोनों हाथों को अपने दोनों हाथों में लिए ही लड़के ने कहा और शायद यों ही अपने होंठों तक ले गया।
‘‘चलो!’’
चलते-चलते मुड़कर रिक्शे की तरफ देखती लड़की की आंखों से सुमेरा की आंखें मिलीं। उनमें भय, झिझक, संकोच कुछ भी नहीं था और जाने क्या था कि सुमेरा का मन भर आया। किसी पेड़ की पत्ती तोड़ दो, तब भी बड़े महीन-महीन रेशे दूर तक खिंचते चले जाते हैं, वही रेशे सुमेरा को लड़की के चेहरे पर खिंचते लगे। ठिठकती हुई वह फाटक तक गई, फिर मुड़कर देखा, लड़का भी पिछला पल्ला उठाकर देख रहा था।...मरे-मरे हाथों से फाटक का कुंडा छूटकर दूसरी तरफ जा गिरा। तब रिक्शा मुड़ गया। कांच के फलक पर चलती चटखन की तरह सुमेरा के मन में उदासी तैरती चली गई...।
पैसों के लिए उसने हुज्जत नहीं की। बीड़ी खरीदने के लिए जब वह एक दुकान पर रुका, तो उतरते ही सबसे पहले उसकी निगाह पायदान पर कबूतर की तरह पड़े सफ़ेद रूमाल पर गई। यों ही रिक्शे को जरा-सी अंधेरी जगह ले जाकर रूमाल उठाया। खोला, बड़ा-सा रूमाल था, जगह-जगह भीगा। सोचा, वापस जाकर लौटा दे क्या? अनजाने ही उसने रूमाल नाक पर लगाया तो बड़ी भीनी-भीनी-सी खुशबू उसके दिमाग की तहों में तैरती चली गई। लगा, जैसे वह हंसते कमलों वाले पोखर में जाकर खो गया हो। पता नहीं कब आंखें भीग आईं, और लड़की का चेहरा उभर उठा। खुशबुओं में लिपटा वह खाली-खाली लौट आया। बस, पिछली धुरी पर चेन किरकिराती रही, जैसे कोई हौले-हौले ईंट पर ईंट घिस रहा हो।
मुट्ठी की दूरबीन से बादलों के रूमाल उड़ते-फड़फड़ाते देखते-देखते उसे जाने क्यों विश्वास हो गया कि आज के बुढ़िया वाले रूमाल से भी जरूर वही खुशबू आ रही होगी। उसने उस रूमाल को रख लिया था, कभी मान लो फिर उस लड़की को बिठाया, तो हिम्मत करके वापस दे देगा।...लेकिन थोड़े दिन के बाद पता नहीं वह कहां चला गया। उसे भी याद नहीं रहा। आज इतने दिन बाद मानो सचमुच वही खुशबू उसके नथुनों में लपट मारने लगी।
तभी तरह-तरह की आवाजें सुनकर वह हड़बड़ाया और सीधा बैठ गया। देखा, कोई खड़ा-खड़ा हाथ में जूता लिए उसकी नाक के पास इस तरह घुमा रहा था, जैसे मिरगी के रोगी को सुंघा रहा हो, ‘‘आल तू...जलाल तू...आई बला को टाल तू!...’’ उसे उठते देखकर बोला, ‘‘अबे ये औंधा पड़ा-पड़ा अफीमचियों की तरह सो रहा है या जाकर मजूरी करता है? पंजाब मेल जाने कब की आई खड़ी है!’’
और उसके ठहाके से चौंककर उसने देखा कि बाबू रिक्शेवाला था, उसका दोस्त। उसने खड़े होकर जोरदार अंगड़ाई ली, और चारों तरफ हाथ फैलाकर बुरी तरह बदन तोड़ा, ‘‘हां यार, जरा यों ही आंख लग गई थी।’’
सवारियों-भरे हुए रिक्शे-तांगों का रेला ट्रिनन्-ट्रिनन्, भों-भों करता बाढ़ की तरह चला आ रहा था। एक पल को उसे लगा, जैसे वह अभी-अभी इसी गाड़ी से नया-नया उतरकर इस जगह आया है और यहां की किसी चीज को नहीं पहचानता, यहां की सब चीजें एकदम नई हैं, यहां तक कि रिक्शा भी अनपहचाना है...जो उसके शरीर का एक अंग है...