ख़ुशियों की होम डिलिवरी / ममता कालिया
प्राक्कथन
कुछ समय पहले विदेश की एक लोकप्रिय पाककला विशेषज्ञ नाइजैला लॉसन और उसके पति साची के झगड़े की चर्चा सरेआम हुई थी। उसमें साची ने नाइजैला की गर्दन पकड़ ली। दोनों मशहूर हस्तियाँ थीं। मीडिया ने दृश्य कैमरे में कैद कर लिया और ख़बरों में खुलासा किया। मेरे मन-मस्तिष्क पर इस ख़बर का चकरघिन्नी असर हुआ। उठते-बैठते मुझे साची की उँगलियाँ नाइजैला के गले पर धँसती दिखाई देतीं। ऊपर से साची की हिमाकत यह कि वह अपनी सफाई में कहता रहा, ‘‘मैंने गर्दन पकड़ी थी लेकिन दबाई नहीं, यह देखो वह रो भी नहीं रही है।’’ मुझे धूमिल की पंक्तियों का ध्यान आया,
लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुँह में लगाम है
नाइजैला-जैसी चपल, चंचल, वाक्चतुर महिला की इस घटना पर प्रतिक्रिया खुलकर उस वक्त सामने नहीं आई, किंतु अगले दिन उसने घर में अपना सामान समेटना शुरू कर दिया। शाम होते न होते वह अपने पुराने घर चली गई। उसके लाखों चाहनेवालों को संतोष हुआ कि उसने अपने स्वाभिमान के साथ समझौता नहीं किया।
यह तो एक उदाहरण है। महिलाओं के साथ दिनभर में जाने कितनी ऐसी घटनाएँ होती रहती हैं जिन पर, यदि वे गंभीरता से सोचें तो भारतीय परिवारों की चिंदियाँ उड़ जाएँ। यह कहना कि स्त्री स्वभाव से सहनशील होती है, सहनशीलता का उपहास उड़ाना है क्योंकि दिन पर दिन इसका घेरा चुनौतीपरक होता जा रहा है।
दरअसल घटनाएँ, ख़बरें और जानकारियाँ मेरे ऊपर विद्युत् प्रभाव छोड़ती हैं। उन लमहों में, यह अच्छा होता है कि काग़ज़ और क़लम मेरे आसपास नहीं होते। लिखूँ तो काग़ज़ में सुराख़ हो जाए और नहीं लिखती तो चेतना में तडफ़ड़ और तिलमिलाहट। ‘खुशियों की होम डिलिवरी’ में इसका कुछ प्रतिशत ही आ पाया क्योंकि पात्र अपना विकास अपने आप कर लेते हैं, ट्रैफिक की तरह उनका रास्ता बार-बार मोड़ा नहीं जा सकता। रचना के साथ सबसे अजूबी चीज़ यही है। कभी तो लिखना इतना सरल लगता है कि मलाई की तरह क़लम से आखर अनंत निकले चले आएँ और कभी इतना कठिन कि काग़ज़ मुझे घूर रहा है, मैं काग़ज़ को घूर रही हूँ; चाय, कॉफी, वोदका किसी से भी क़लम का ताला नहीं टूट रहा। ऐसे दिनों को मैं अमावस की रैन मानती हूँ।
मौजूदा वक्त में वह देश की मशहूर पाककला और व्यंजन विशेषज्ञ मानी जाती थी। उसके नाम से व्यंजन पुस्तकों की एक पूरी शृंखला पाँच भाषाओं में अनुवाद होकर छपती। उसका नाम ‘रुचि’ जोड़कर पुस्तकों के शीर्षक इस प्रकार थे—रुचि की रसोई, रुचि के रसीले व्यंजन, रुचि के नाश्ते, रुचिर पकवान और रुचि-रसना। दो टीवी चैनल पर उसका साप्ताहिक कार्यक्रम आता, ‘सुरुचि’ और ‘स्वाद’। दोनों कार्यक्रमों में रुचि को अत्याधुनिक रसोई में व्यंजन बनाते हुए दर्शाया जाता।
रुचि का बोलने का ढंग बहुत प्रभावशाली था। पहले शब्द ‘नमस्कार’ के साथ ही वह अपनी उत्फुल्ल मुद्रा से दर्शक को अपने आकर्षण में बाँध लेती। आधे घंटे के कार्यक्रम में रुचि दो व्यंजन प्रस्तुत करती। कमाल यह था कि पिछले डेढ़ साल में एक बार भी न उसने व्यंजन में दुहराव डाला, न प्रस्तुतीकरण में। कार्यक्रम शुरू होने के पूर्व एक सहायक, समस्त सामग्री क़रीने से गैस के पास रख देता। इस माहौल में व्यंजन बनाने में रुचि को आनंद आता, क्योंकि बनाने से पूर्व की तैयारी हमेशा उसे की हुई मिलती। हर बार गैस का चूल्हा चमचमाता हुआ दिखता, जैसे अभी शो-रूम से ख़रीदकर लाया गया हो! दोनों ही टीवी चैनलों में होड़ लगी रहती, किसका रसोईघर ज़्यादा सुंदर और आधुनिक लगे। ‘क’ चैनल में उसके सहायक का नाम कुर्बान अली था। रुचि को उसका नाम लंबा लगा तो उसने कहा, ‘‘कुर्बान अली, प्रोग्राम में आपको सिर्फ अली कहकर बुलाऊँ तो आप बुरा तो नहीं मानेंगे?’’
‘‘क़तई नहीं मैम, जैसा आप चाहें।’’
‘म’ चैनल में उसका सहायक वीरेंद्र सिंह था। वीरेंद्र ने जयपुर के रेस्तराँ में सहायक के रूप में कुछ तजुर्बा हासिल किया था। रुचि को लंबे नामों से चिढ़ थी। उसने वीरेंद्र सिंह को वीर पुकारना शुरू कर दिया। दोनों सहायक समझदार थे और अपने काम में चुस्त। कार्यक्रम की आरंभिक तैयारी और परवर्ती समापन वे कुशलतापूर्वक सँभालते। उन्हें पता रहता कि सफेद नमक के पहलू में लाल मिर्च और फिर हल्दी रखी कितना अच्छा दृश्य देगी या कौन-सी मिक्सी इतनी पारदर्शी है कि उसमें पीसा गया धनिया और मिर्च का पेस्ट कलात्मक दिखे। रसोईघर की दीवार पर टँगे करछुल, पौनी और कद्दूकस कभी काम न आते। व्यंजन की तैयारी में पारदर्शी शीशे के बर्तन इस्तेमाल होते और पकाने में चमचमाते हुए कैसरोल। ये अत्याधुनिक शैली के रसोईघर रुचि की अपनी उठवाँ रसोई से एकदम अलग और अद्भुत थे। रुचि के अपने वन बीएच.के. फ्लैट में रसोई के नाम पर एक 3&3 स्क्वेयर फीट की जगह थी, जिसमें एक प्लैटफॉर्म और सिंक के सिवा और कोई उपकरण नहीं था। मकान मालिक से जब उसने पूछा था कि इतने छोटे रसोईघर में खाना कैसे बनेगा, न यहाँ चिमनी है न खिड़की; अँधेरा इतना कि बिना बिजली जलाए आप एक चम्मच भी नहीं उठा सकते। मकान मालिक शमशेर सिंह ने हैरानी से उसे देखकर कहा था, ‘‘क्या आप घर में खाना पकाएँगी?’’ उसके साथ आई सहेली जिज्ञासा ने कहा, ‘‘और खाना कहाँ बनाएँगे, क्या सड़क पर?’’
शमशेर ने उसके तंज का कोई जवाब न देकर कहा था, ‘‘हमारे सारे किराएदार केटरिंग सर्विस से खाना मँगाते हैं। खुद हमारी मिसेज़ ने आज तक खाना नहीं पकाया। आप एक माइक्रोवेव ओवन रख लीजिए और दो-चार ओवनप्रूफ़ बर्तन।’’
रुचि को हल्की-सी तसल्ली भी हुई थी कि जीने का यह बड़ा आसान तरीका होगा। फिर हफ्ते में दो-दो दिन दोनों चैनलों पर पाककला के नमूने प्रस्तुत करने के बाद उसके अंदर इतनी ऊर्जा ही नहीं बचती थी कि वह अपने खाने के बारे में सोचे।
जिज्ञासा ने सुझाया, ‘‘आजकल तो खाना बनाना बड़ा आसान हो गया है। तू ढेर-से तैयार व्यंजनों के पैकेट ख़रीद लेना और एकदम शाही अंदाज़ में दावत खाना। हमें भी बुला लिया करना। मैं किसी को बताऊँगी नहीं कि राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त व्यंजन रानी रुचि कैसे रहती है।’’ रुचि चाहती तो बड़ा मकान ले सकती थी लेकिन इस इमारत का रख-रखाव उसे पसंद आया। एक तो दोनों चैनलों के स्टूडियो यहाँ से क़रीब थे, दूसरे ओशिवरा स्थित यह ‘विक्टोरिया चेंबर्स’ मशहूर बिल्डर सनटॉप वालों के थे, जिनकी सुरक्षा-व्यवस्था के बारे में कहा जाता था कि यहाँ ताले-चाबी का क्या काम! फाटक पर कड़ा सुरक्षा प्रबंध था। हर फ्लैट फाटक के इंटरकॉम से जुड़ा हुआ था।
रुचि के अनेक प्रशंसक और प्रशंसिकाएँ थीं। वे उसे सराहना के ख़त लिखते, फोन करते और ईमेल भी। टीवी चैनल के माध्यम से भी पत्र आते। कभी किसी दिलचस्प ख़त का जवाब कार्यक्रम के दौरान दिया जाता। इससे कार्यक्रम की टी आर पी बढ़ जाती। महीने में एक दिन, सबसे दिलचस्प ख़त लिखनेवाले दर्शक को कार्यक्रम में आमंत्रित किया जाता। उससे उसी की पसंद का व्यंजन बनवाया जाता। ज़्यादातर ऐसी आगंतुक महिलाएँ या लड़कियाँ होतीं। कभी-कभी ऐसा पुरुष प्रशंसक भी आ पहुँचता जो खाने या खिलाने का शौकीन होता। ऐसे ही एक आमंत्रित आयोजन में सर्वेश नारंग को बुलाया गया था।
नहीं, सर्वेश नारंग, ‘सुरुचि’ कार्यक्रम का प्रशंसक नहीं था। उसने चैनल को लिखे अपने पत्र में रुचि के व्यंजन को चुनौती दी थी। रुचि के लिए यह पहला मौका था कि किसी ने उसकी पाककला पर प्रश्नचिह्न लगाया। कार्यक्रम निर्देशक ने निर्णय लिया कि ऐसे दर्शक को कार्यक्रम में बुलाकर शांत अवश्य किया जाए, नहीं तो वह नकारात्मक वातावरण बनाता रहेगा। के. के. जोशी बोले, ‘‘किसी के मुँह पर तो टेप नहीं लगाया जा सकता, उसे जो बोलना है, हमारे कार्यक्रम में बोले, जगह जगह विषवमन न करे।’’
रुचि ने याद किया, पिछले हफ्ते उसने ‘दलिया भरी आलू टिक्की’ व्यंजन की विधि प्रस्तुत की थी। व्यंजन इस प्रकार था :
उबले आलू — 4 जीरा — 1/2 दलिया — 25 ग्राम चाट मसाला — 1/4 ब्राउन ब्रेड — 2 स्लाइस हरी मिर्च — 1 नमक स्वादानुसार हरा धनिया — थोड़ा-सा थोड़ी-सी सूजी
रिफाइंड तेल लाल मिर्च — 1/2 चम्मच
कार्यक्रम के पूर्व रुचि ने यह व्यंजन बनाने की रिहर्सल भी की थी। विधि संतोषजनक पाने पर ही वह दर्शकों के सामने पहुँची थी। सर्वेश नारंग की शिकायत थी कि यह टिक्की इतनी गरिष्ठ थी कि सामान्य अमाशय का आदमी इसे पचा नहीं सकता। उसने घर पर यह टिक्की बनाई। उसकी माँ ने यह व्यंजन खाकर रातभर करवटें बदलीं। उन्हें वायु और बदहज़मी का दौरा पड़ गया।
सर्वेश नारंग ने बेहद गुस्से में पत्र लिखा, ‘‘अव्वल तो आपके कार्यक्रम में यह बताना चाहिए कि किस व्यंजन को कितने साल का आदमी खा सकता है। मधुमेह, रक्तचाप और बदहज़मी वालों के लिए अलग से निर्देश होने चाहिएँ। आपकी विशेषज्ञा आधे घंटे में मुश्किल से मुश्किल व्यंजन बनाकर, पर्स लटकाकर चली जाती हैं। यह दर्शकों के प्रति सरासर अन्याय है।’’ मीटिंग में रुचि भी मौजूद थी। उसने कहा, ‘‘उन्हें उत्तर दे दीजिए, हम कोई हेल्थ फूड प्रोग्राम नहीं करते। यह शुद्ध रूप से स्वस्थ, नॉर्मल, खाने-पीने के शौकीन लोगों के लिए कार्यक्रम है।’’
निर्देशक के.के. जोशी ने सिर हिलाया, ‘‘नो मिस रुचि, हम कोई लफड़ा नहीं माँगते! आप उसको अपनी बात से कायल करो, तभी जमेगा।’’
रुचि को चुनौती मिल गई। उसने कमर कस ली। रातभर उसने विचार किया। वह मान गई कि सर्वेश नारंग को उसके कार्यक्रम में अतिथि की हैसियत से बुलाया जाए।
रुचि अकसर पाश्चात्य पहनावे में स्क्रीन पर आती। उस दिन उसने पारंपरिक साड़ी-ब्लाउज़ पहना और माथे पर बड़ी-सी बिंदी लगाई। स्टूडियो के मेकअप रूम में लगे आईने ने उसे बताया कि वह खूब फ़ब रही थी। कार्यक्रम से बीस मिनट पहले सर्वेश नारंग अपनी सफेद कार में प्रकट हुआ। वह कोई युवा तुर्क नहीं, बल्कि तक़रीबन पचास साल का प्रौढ़ व्यक्ति था। अपने पत्र के तेवर से अलग वह नपा-तुला बोलनेवाला आदमी लगा।
पूर्व योजना के अंतर्गत निर्धारित वाक्य बोलते हुए रुचि ने बताया, कैसे ‘सुरुचि’ कार्यक्रम महिलाओं के साथ-साथ पुरुषों और बच्चों का भी पसंदीदा है। उसने सर्वेश नारंग का परिचय देते हुए कहा कि सर्वेश हमारे व्यंजन में अपनी ओर से परिवर्तित विधि प्रस्तुत करने जा रहे हैं।
सर्वेश ने कार्यक्रम के प्रस्तुतीकरण में काफी आत्मविश्वास का परिचय दिया। उसने तयशुदा आलेख से हटकर कहा, ‘‘आलू की टिक्की हम सबका मनपसंद नाश्ता है। इसलिए यह ज़रूरी है कि इसे ऐसे बनाया जाय जिससे वह हल्का और सुपाच्य हो और हर उम्र के खाने वाले को हज़म हो जाय।’’
‘‘रुचि मैम की व्यंजनविधि में मेरी तरफ़ से यह बदलाव पेश है।’’ सर्वेश ने आलू की पिट्ठी उठाकर उसे गोल टिक्की का आकार दिया और दर्शकों को संबोधित किया, ‘‘इसमें दलिये की जगह आप उबली हुई मूँग दाल और हरा धनिया भर सकती हैं। दूसरा सुझाव है इसमें बारीक कटा प्याज़ भर सकती हैं। तीसरा तरीका है कि आप इसमें कॉर्नफ्लेक्स भर सकती हैं। इसे तलने की बजाय छिछले तवे पर एक चम्मच तेल में सेंक सकती हैं।’’ सर्वेश ने बड़े सुथरेपन से समस्त विधि का डैमो दिया।
कार्यक्रम ख़त्म होने के बाद जैसा रिवाज था, पूरी इकाई ने व्यंजन चखा। इसमें शक नहीं कि आलू की यह नई टिक्की स्वादिष्ट और हल्की थी। इस सिलसिले में रुचि को थोड़ी-सी तकलीफ़ हुई, पर ज़्यादा नहीं। उसे पता था कि ‘क’ चैनल के पास उसका विकल्प नहीं था। कई अख़बार और पत्र-पत्रिकाएँ उससे व्यंजन स्तंभ लिखवातीं और सचित्र छापतीं। उसकी कई पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी थीं। दर्शकों और पाठकों के बीच वह घर-घर में रचा-बसा नाम हो गई थी। उसके कितने ही व्यंजन इतने लोकप्रिय थे कि चैनल उन्हें बार-बार दिखाता।
उस दिन सर्वेश और रुचि के बीच विजि़टिंग कार्ड का आदान-प्रदान महज़ औपचारिकता रही। दोनों में से किसी को भी परस्पर कोई अदम्य आकर्षण अनुभव नहीं हुआ। वैसे सर्वेश उसका कार्यक्रम दोनों चैनलों पर देखता रहा। उसे यही लगता कि रुचि की व्यंजन विधियों से ज़्यादा जानदार उसकी प्रस्तुति-विधि है। उसकी मुस्कान और हँसी में जीवंतता थी, आवाज़ में माधुर्य। वह जिस अदा से कड़ाही में करछुल चलाती, माइक्रोवेव ओवन खोलकर उसमें व्यंजन की ट्रे लगाती या जैसे वह प्लेट में खाना सजाती, उसके आगे व्यंजन का स्वाद क्या चीज़ था!
आठ हफ्ते बाद यकायक ‘स्वाद’ कार्यक्रम के लिए उसे बुलावा मिला। ‘म’ चैनल के इस कार्यक्रम में सर्वेश नारंग को ‘मेहमान का पकवान’ प्रस्तुत करना था। उसे लगा, इस बुलावे में रुचि शर्मा का हाथ हो सकता है।
सर्वेश नारंग खाना बनाने और खाने को गैरज़रूरी कामों की फेहरिस्त में रखता था। उसे लगता जो काम दूसरे लोग हमसे ज़्यादा सुघड़ तरीके से कर सकें, उसमें अपनी ऊर्जा लगाना फ़िज़ूल है। इतने अच्छे रेस्तराँ और टेकहोम सर्विसों के रहते खाना बनाना समय की बरबादी है। लेकिन उसका खोजी मन रुचि शर्मा को उतना गैऱज़रूरी मानने को तैयार नहीं था। इन दिनों माँ उसके पास आई हुई थीं। उन्होंने भी कहा, ‘‘पुत्तर जा के देख तो सही, वो कुड़ी पु_े-सीधे की पकवान सिखांदी है! तू टीवी पर दिसेगा तो मैनूँ बौत चंगा लगेगा!’’
अगस्त का महीना था, सावन का मौसम। सर्वेश ने कहा, ‘‘रिमझिम फुहारों में आप कुछ मीठा, कुछ नमकीन खाना चाहते हैं तो आज मैं आपको पुए और पकौड़े बनाने की विधि बताता हूँ। पुए को कई शहरों में गुलगुले भी कहा जाता है। अंग्रेज़ी में इसे डोनट कहते हैं। इसे बनाने का तरीका बहुत आसान है।’’
सर्वेश नारंग की सक्रियता और दक्षता दर्शनीय थी। उसने बिलकुल पेशेवर अंदाज़ में कहा, ‘‘थोड़ी-सी सूजी, पिसी हुई चीनी, छोटी इलायची और सौंफ़ आधे दूध, आधे पानी के साथ घोल लें। दस मिनट घोल को ढककर रखें। तब तक हम कड़ाही चढ़ाते हैं।
लीजिए हो गए दस मिनट। एक बार फिर घोल को फेंट लीजिए। कड़ाही में रिफाइंड तेल गर्म करें। गोल चम्मच से गर्म तेल में पुआ छोड़ें। फूलते ही, आँच धीमी करें। एक-एक पुए को अलग-अलग उलटें-पलटें। लीजिए, पुए तैयार हैं।’’
सहायक वीरेंद्र सिंह ने प्लेट आगे रखी, किंतु लीक से हटकर सर्वेश ने पुओं को एक छोटी ट्रे में रखा और कहा, ‘‘चखकर देखिए मैडम!’’
बिना वक्त गँवाएँ सर्वेश ने अगला आइटम पेश किया, ‘‘पकौड़े आप सब खाते-खिलाते होंगे। आपने गौर किया होगा कि हर घर के पकौड़ों का स्वाद कुछ अलग, कुछ खास होता है। अकसर लोग अपना टे्रड सीक्रेट बताते नहीं हैं।
लीजिए, पकौड़ों की विधि ये है :
एक — फूलगोभी जिसके फूल अलग किए हुए हों। दो — बेसन तीन — नमक, अजवायन स्वादानुसार चार — हरी मिर्च-2 पाँच — अनारदाना पिसा हुआ—एक चम्मच छह — चुटकी भर खाने का सोडा।’’
सर्वेश धड़ल्ले-से बोल रहा था। उसका आत्मविश्वास देखकर लग रहा था वह पेशेवर रसोइया है। कार्यक्रम रोचक रहा, प्रस्तुति भी जानदार थी। आधे घंटे की समय-सीमा में उसने दो व्यंजन बनाकर दिखा दिए। निर्देशक के.के. जोशी ने प्रोग्राम के बाद सर्वेश से पूछा भी, ‘‘क्या आप भी किसी होटल वगैरह से जुड़े हुए हैं?’’
‘‘नहीं,’’ सर्वेश हँसा, ‘‘मैं तो खोजी पत्रकार हूँ, सारा दिन ख़बर सूँघता हूँ, रात को रिपोर्ट करता हूँ।’’
जोशी थोड़ा सहम गया। समय ऐसा था कि मीडिया से सब डरते। समाचार चैनलों पर कभी-कभी किसी नेता या व्यवसायी का रँगे हाथों पकड़ा जाना दिखाया जाता और उस दिन आरोप-प्रत्यारोप का वितंडा रहता और उसके बाद उन खोजी पत्रकारों से परिचय करवाया जाता, जिन्होंने उस ख़बर को अंजाम दिया। ये पत्रकार स्क्रीन के सामने ऐसे खड़े होते जैसे उन्होंने नंगे हाथों शेर मारा हो! कुछ दिनों के लिए घूसखोरों, कालाबाज़ारियों और भ्रष्ट नेता-अफ़सरों के जलठंडे रहते।
खोजी पत्रकारिता पाँचवीं सत्ता बनती जा रही थी।
रुचि ने स्टूडिओ से बाहर आते हुए कहा, ‘‘आज आपने दोनों व्यंजन तले हुए बनाए हैं जबकि उस दिन आपको इसी बात पर एतराज़ था कि मेरा व्यंजन तला हुआ है।’’
सर्वेश ने कहा, ‘‘आपके व्यंजन में तलना ज़रूरी नहीं था, वह ऊपर से थोपा गया था।’’
‘‘इस पर लंबी बहस हो सकती है।’’
‘‘मैं इतना वक्त आपको नहीं दे सकता,’’ जेब से मोबाइल निकालकर सर्वेश ने घड़ी देखी और कहा, ‘‘फिर मेरे लिए खाना-पीना इतना अहम काम नहीं।’’ सर्वेश बिना विदा का संकेत या शब्द किए चला गया। रुचि को इस आदमी से चिढ़ हुई। अच्छा-भला पत्रकार है, अपने अख़बार से मतलब रखे। उसके कार्यक्षेत्र में अपनी टाँग क्यों अड़ाता है?’’
यह तो कई दिन बाद रुचि पर उद्घाटित हुआ कि हज़ारों प्रशंसकों के बावजूद इस एक आलोचक सर्वेश नारंग की असहमति उसके लिए क्यों अहम हो गई।
मौसम बदले। व्यंजन तालिका बदली। ‘सुरुचि’ और ‘स्वाद’ कार्यक्रमों की सफलता बढ़ती गई। रुचि खुद विस्मित थी। इन कार्यक्रमों में ऐसा क्या है कि इनकी टी आर पी ए-ग्रेड कार्यक्रमों से टक्कर लेती है। पैसा उस पर बरस रहा था, आयकर की राशि हर साल बढ़ रही थी लेकिन कभी-कभी रुचि अवसादग्रस्त हो जाती। उसे लगता, उसका जीवन मशीनी बनता जा रहा है। उसके जीवन में अब सिर्फ पाकशास्त्र ही पाकशास्त्र रह गया है। इतने साल बीत गए, इतनी उच्च शिक्षा बरबाद गई। पता नहीं कैसे वह क़लम की जगह करछुल से जीविका चलाने लगी। इससे भी बड़ी हैरानी की बात यह थी कि टेलीविज़न की पाककला विशेषज्ञा, अपने घर में खाना बनाने में ज़रा भी यकीन नहीं करती। वह चाय, कॉफी और ठंडे पेय पदार्थों पर दिन निकालती। कभी-कभी वह चावल उबालती अथवा आलू। ओशिवरा में ‘टेकहोम’ केटरिंग सर्विस का बोलबाला था। रही-सही कमी उन फूड-गिफ्ट के पैकेटों से पूरी हो जाती, जो विभिन्न डिब्बा बंद आहार तथा मसाला कंपनियाँ उसे इस गुज़ारिश के साथ भेजतीं कि वह इन उत्पादों के विज्ञापन में मॉडलिंग करना क़बूल कर ले। वह देख सकती है कि उसी के बताए व्यंजन इन मसालों अथवा सामग्री के साथ कितने लज़ीज़ बने हैं। अकसर उसका फ्रिज़ ऐसे आहार-उपहारों से भरा रहता।
तभी कूरियर ने आकर उसे एक कार्ड थमाया। उसके दस्तख़त लिए और चला गया।
रुचि ने बेमन से कार्ड निकाला कि होगा किसी प्रशंसिका का। कार्ड में लिखा था, ‘‘क्या तुम मेरी वेलेंटाइन बनोगी?’’
एकदम घसीटकर हस्ताक्षर किए गए थे, जो पढऩे में नहीं आ रहे थे। बड़ी मुश्किल से पहला अक्षर ‘स’ और अंतिम अक्षर ‘ग’ समझ आया। चकरघिन्नी खा गई रुचि। उसने एप्स पर लिखा, ‘‘ग़लत पते पर तो नहीं भेज दिया कार्ड?’’
सर्वेश ने जवाबी मैसेज किया, ‘‘पता सही है।’’
रुचि ने मैसेज किया, ‘‘मैं तुम्हें नहीं जानती।’’
‘‘जान जाओगी,’’ जवाब आया।
एकाकी जीवों के जीवन में इस एस एम एस बाज़ी की बड़ी भूमिका होती है। इसमें फासले फलाँग लगाकर मिटते हैं। जो बात मुँह पर कहने में ज़माने लग जाएँ, वह एप्स या एस एम एस से खट् से कह ली जाती है। रुचि के जीवन में यह घटित हुआ।
जब भी वह अकेली बैठती, वह सर्वेश को एप्स पर मैसेज कर डालती। सर्वेश कितना भी व्यस्त हो, तत्काल उत्तर देता, साथ कोई चुटकुला या चित्र अपलोड कर देता। रुचि का मन उत्फुल्ल हो जाता। यह मिलते हुए न मिलना और न मिलते हुए मिलना-जैसा अनुभव था। संदेशों की इन छोटी-छोटी पंक्तियों ने उनके बीच की कई दीवारें तोड़ दीं। सबसे बड़ी दीवार अपरिचय की थी। अगर कभी रुचि पूछती, ‘‘कल का शो कैसा रहा?’’
उसे उत्तर मिलता, ‘‘कैसा शो, मैंने तो सिर्फ तुम्हें देखा!’’
ऐसे संदेश में रुचि को पूरा वाक्य नहीं दिखता। बस यही याद रह जाता, ‘‘मैंने तो सिर्फ तुम्हें देखा।’’
अगले शो पर रुचि और भी ध्यान से तैयार होती। कार्यक्रम प्रस्तुत करते समय उसमें एक अतिरिक्त ऊर्जा आ जाती। यूनिट के लोग भी विस्मित हो जाते, ‘‘रुचि मैम आजकल बहुत स्मार्ट लग रही हैं!’’ सर्वेश भी अपने अंदर स्फूर्ति पाता और अगले दिन का अपना आलेख एक नए कोण से लिखता। उनकी मुलाकातें यदा-कदा होतीं। दोनों की शामें घिरी रहतीं। एक रविवार वे सुबह की फ़िल्म के लिए इरॉस में मिले। यह एक फ्रांसीसी फ़िल्म थी, जिसमें समलैंगिकता को प्राकृतिक, सुंदर और सही ठहराया गया था। आधी फ़िल्म होते-न-होते रुचि उठ खड़ी हुई। उसने कहा, ‘‘मैं एक नॉर्मल इंसान हूँ। मैं यह फ़िल्म क्यों देखूँ?’’ ‘‘मैं भी नॉर्मल हूँ, मैं भी क्यों देखूँ?’’ सर्वेश भी सहमति से उठ गया। उस दिन कैफे कॉफी डे में उनके जीवन के कई पन्ने खुले; —कि तीन साल पहले सर्वेश नारंग अपनी पहली पत्नी से मुक्त हो चुका है। उसकी पत्नी अमृतसर में टेलीफोन एक्सचेंज में काम करती है। उनका सत्रह साल का एक बेटा है ‘अंश’, जो अपनी माँ के संग रहता है। —कि सर्वेश की माँ, बेटे की फ़िक्र में होशियारपुर का अपना लंबा-चौड़ा घर-द्वार छोड़ कर यहाँ उसके तीन कमरों के फ्लैट में आ गई है। —उसके जीवन में काम ही सर्वोपरि है। इसमें वह दिन-रात, इतवार-सोमवार कुछ नहीं देखता। रुचि ने भी अपने जीवन के कुछ पन्ने पलटे; —कि रुचि का पहला विवाह बिना उसकी सहमति के उसके दादा-दादी ने पुण्य कमाने की हसरत और जल्दी में तब कर दिया, जब वह एम.ए. कर रही थी। —कि उसका पति बददिमाग़ और बदचलन था। —कि एक रोज़ रुचि ने पति का घर छोड़ दिया। —बड़ी बाधाओं में उसने अपनी शिक्षा पूरी की। —कोई अच्छी नौकरी न मिलने पर, कई साल भटकने के बाद उसे टीवी चैनल पर पहला शो करने का प्रस्ताव मिला। वैसे उसके पास गृहविज्ञान या आतिथ्य कला की कोई डिग्री नहीं है। माता-पिता के घर खाना बनाते-खिलाते उसे इतनी रसोईकला आ गई। प्रस्तुतीकरण का कौशल उसने विदेशी चैनलों पर कुकरी-शो देखकर सीखा। उस दिन कैफे कॉफी डे में उन्हें बैठे हुए सुबह से शाम हो गई। एक-एक कर वहाँ के समस्त व्यंजन उन्होंने बारी-बारी से खा डाले और ठंडे गर्म सभी पेय पदार्थ पी लिए। जब उन्होंने एक-दूसरे से विदा ली, उन्हें लगा कि उनका वक्त अच्छा गुज़रा। अगली मुलाकातों में भी दोनों अपने सर्वोत्तम कपड़े और कला कौशल धारण किए हुए मिले। यह दो मँजे हुए खिलाडिय़ों का क्रिकेट मैच था, जो हर बार ड्रॉ हो जाता। दोनों अपने क्षेत्र की नामी हस्तियाँ थीं। कैफे में कभी रुचि की कोई प्रशंसिका आगे बढ़कर उसका अभिवादन करते हुए पूछती, ‘‘अगले हफ्ते आप क्या सिखानेवाली हैं मैम?’’ जिस वक्त रुचि अपनी फैन से बात करती, सर्वेश अपने मोबाइल में व्यस्त हो जाता।
अगर कभी गेटवे के पास घूमते हुए कोई पत्रकार सर्वेश से बात करने लगता तो रुचि ज़रा आगे बढ़कर समुद्र में खड़े, ठहरे जलयानों पर गौर करने लगती।
यह सच है कि उन्होंने अपनी उम्र एक-दूसरे को सही-सही बताई थी। ग़लतबयानी के कई ख़तरे थे। फिर रुचि पिछले तीन साल से उनतालीस के पायदान पर ठिठकी खड़ी थी। वह खुद अपने छद्म से बाहर आना चाहती थी। सर्वेश ने बताया, वह 50 प्लस का है। उसने नहीं सोचा था कि इस उम्र पर आकर उसे कोई इतना अच्छा लगने लगेगा कि उससे मिलने वह मुंबई के एक छोर से दूसरे छोर पर पहुँच जाएगा।
रुचि ने बताया, वह 40 की है, न प्लस न माइनस। उसने तय किया था अब कभी शादी के विषय में सोचेगी भी नहीं। एक बार का काटा, दो बार सोचता है उस गली जाऊँ न जाऊँ! विवाह और पति, इन दो शब्दों से उसे आज भी झुरझुरी हो जाती थी। उसने यह नहीं बताया कि पहली शादी से उसे एक बेटा भी है गगन, जो आज भी उसके जी का जंजाल बना हुआ है। वह उसके साथ नहीं रहता लेकिन उसका भावात्मक और आर्थिक शोषण करने से बाज़ नहीं आता। पिता-पुत्र कहने को साथ रहते हैं, लेकिन आलम यह है कि हफ्ते में चार दिन पिता लापता रहता है तो तीन दिन पुत्र। रुचि के पति प्रभाकर शर्मा ने दूसरी शादी नहीं की। उसके लिए पहली शादी का भी सीमित महत्त्व था। उसके जीवन में शादी का मतलब शरीर था, जो वह कहीं भी जाकर प्राप्त कर लेता।
गगन बचपन से ही उद्दंड था। किसी का कहना न मानना, उलटे जवाब देना, दोस्तों से मारपीट करना और झूठ बोलना उसने पाँच साल की उम्र में ही शुरू कर दिए थे। एक ही कक्षा में वह दो साल पढ़कर किसी तरह पास होता। जब रुचि उसे काबू में करने की कोशिश करती, प्रभाकर उसे डाँट देता, ‘‘इसकी जान लेना चाहती हो!’’ धीरे-धीरे यह नौबत आ गई कि गगन पूरी तरह से ‘पापाज़ बॉय’ बन गया। माँ की हर सीख उसे बुरी लगती।
हालात से तंग आकर रुचि ने एक दिन अपना घर छोड़ दिया। तब उसके माता-पिता जीवित थे। उन्होंने समझाया, ‘‘बेटे को यहीं ले आ।’’ लेकिन रुचि नहीं मानी। उसने कहा, ‘‘प्रभाकर का दिया हुआ कुछ भी मुझे मंज़ूर नहीं, बच्चा भी नहीं। समझ लो कि मेरी शादी कभी हुई ही नहीं।’’
कुछ वर्ष तनाव और तनातनी में गुज़रे। प्रभाकर के बड़े भाई दिनकर ने आकर समझाने की कोशिश की, ‘‘प्रभाकर दिल का अच्छा है, ज़ुबान का तेज़ है। तुम धीरे-धीरे रासे पा लोगी तो वह बदल जाएगा।’’ भाई साहब को रुचि क्या ब्योरे बताती कि जब प्रभाकर को प्रचंड क्रोध चढ़ता है तो वह झाड़ू, चाकू, डंडे, किसी भी चीज़ से उस पर प्रहार करता है; कि पड़ोस की कितनी लड़कियों से छेड़खानी के ज़ुर्म में वह पिट चुका है। कुकर्म वह करता, शर्मिन्दगी रुचि को झेलनी पड़ती।
आगे की कहानी रुचि ने अपने संकल्प और हौसले से लिखी। जोगेश्वरी की तंग गलियों से चलकर वह ‘क’ चैनल और ‘म’ चैनल की सितारा शेफ़ बन गई। उसने लगातार अपने हुनर को निखारा। अख़बारों ने सिर्फ उसके कारण अपने पृष्ठों पर व्यंजन कॉलम देना शुरू किया। अख़बारों में व्यंजनों के साथ उसकी रंगीन मोहक तसवीर छपती, गोया एक नहीं दो-दो व्यंजनों की होम डिलिवरी हो रही है। इन सब बातों से रुचि का अहम् तुष्ट होता। निजी चोटें कुछ कम टीसतीं। गगन के दिए आर्थिक धचकों से बचने के लिए उसने कुछ अन्य बैंकों में अपना खाता खोल लिया था। लेकिन गगन ऐसे मौलिक बहाने टिकाता कि उसे रुपये भेजने ही पड़ते। कभी फोन पर कहता कि उसकी स्कूटी से कॉलोनी का एक बच्चा घायल हो गया है। उसके माँ-बाप इलाज के लिए बीस हज़ार रुपये माँग रहे हैं। कभी वह घबराया हुआ फोन करता कि पापा को दिल का दौरा पड़ा है, उनकी बायपास सर्जरी के लिए दो लाख रुपये तुरंत भेजो।
जितनी राशि वह माँगता, रुचि उसकी आधी-पौनी ही भेजती, पर उसकी तबीयत तिनतिना उठती। उसे लगता, बेटा उसे सिर्फ ए.टी.एम. समझता है। रुचि के जीवन में कामयाबी अपनी जगह थी और कशमकश अपनी जगह। उसने ऐसा कौशल विकसित कर लिया था कि एक को दूसरे की पकड़ में न आने देती। उसकी सहेलियाँ भी उसकी कामयाबी से विस्मित और चमत्कृत थीं।
उसकी सखी जिज्ञासा सिंह जिसे वह जिग्ज़ कहती, रुचि को गुदगुदाती, ‘‘कितनी लकी हो तुम! उम्र का कोई असर तुम्हारे काम पर नहीं पड़ता। मेरे पेशे में तो तीस की होते ही बाहर का दरवाज़ा देखना पड़ता है।’’ जिज्ञासा मॉडल थी और अब तक 45 लाइव शो कर चुकी थी। कई बार कैलेंडर, टेबल डायरी, कॉफी टेबल बुक आदि के मुखपृष्ठों पर उसकी छवि आ चुकी थी। लेकिन जैसे ही फैशनजगत में ख़बर उड़ी कि वह 30 प्लस की हो चुकी है, उसे फोटो सत्र के प्रस्ताव आने कम हो गए। लाइव शो का तो सवाल ही ख़त्म था। आजकल वह दो अन्य भूतपूर्व मॉडलों के साथ मिलकर एक फैशन प्रशिक्षण संस्थान खोलने की दिशा में प्रयासरत थी।
इसी तरह दामिनी पिल्लइ का कहना था, ‘‘हम लाख दो साल में एक साल आगे बढ़ें, उम्र अपना काम शुरू कर देती है। हर नर्तकी सितारा देवी नहीं होती, जो सत्तर साल की उम्र में सत्रह घंटे बिना थके-रुके नाचती चली जाए। कितने ही ऐसे स्टेप्स हैं जिन्हें करने के लिए कमर मुड़ती ही नहीं।’’
दामिनी को भी रुचि से रश्क होता, ‘‘सबसे भाग्यवान तुम हो, अख़बार तुम्हारी पाँच-साल पहले की तसवीर के साथ तुम्हारा कॉलम छापता है। भगवान ने तुम्हें हल्का बदन और ऐसा उम्रचोर चेहरा दिया है कि कई साल तुम टीवी पर चमकती रहोगी।’’
रुचि को इसका अहसास था कि अंतत: उसे करछुल छोड़ क़लम का सहारा लेना पड़ेगा। वह लाइव शो से दूर हो जाने पर भी अख़बारों और पत्रिकाओं में व्यंजन आलेखों से जीवित रहेगी। हुनर के इलाके में गायक, संगीतकार और लेखक सबसे लंबी पारी खेलते हैं। जहाँ क्रिकेट के मैदान में चालीस साल बहुत पकी उम्र समझी जाती है, फैशन की दुनिया में चालीस का होना ज़ुर्म के बराबर है, वहाँ व्यंजन-विशेषज्ञ का चालीस वर्षीया होना कोई हादसा नहीं हकीक़त है। उसे अनुभव की हाँडी में तपा हुआ एक्सपर्ट माना जाता है। उसे व्यंजन-प्रतियोगिताओं में निर्णायक बनाया जाता है। उसके हवाले से कोई मामूली मसाला व्यवसायी मसाला सम्राट बन सकता है, गृह विज्ञान प्रशिक्षण संस्थानों में उसके योगदान पर विशेष व्याख्यान रखे जाते हैं, गरज़ यह कि उसके नाम का डंका पिटता रहता है।
एक दिन जिज्ञासा और दामिनी, बिना ख़बर किए, सुबह-सुबह उसके घर आ धमकीं। यह इतवार था, फुर्सत और आलस की गुंजाइश से भरा हुआ दिन। रुचि अभी अलसाई हुई बिस्तर में पड़ी थी। दोनों सखियाँ उसके ऊपर लद गईं, ‘‘नौ बजे तक तुम किसके सपनों में खोई हुई हो। उठो, बढिय़ा-सा नाश्ता बनाओ, बड़ी भूख लगी है।’’ रुचि ने एक मोटी-सी फाइल और मोबाइल उनकी तरफ़ सरकाया और कहा, ‘‘यह मेरी किचन है। इसमें ताज से लेकर रेडिसन तक सबके मेन्यू और नंबर हैं। जो चाहो मँगा लो!’’
‘‘क्यों अपने कैरियर का कबाड़ा कर रही हो। ये सब तो हम रोज़ खाती हैं। अगर हम किसी को बताएँगे कि रुचि की रसोई में खाने के नाम पर केवल होटलों के फोन नंबर हैं तो तुम्हारी क्या इज़्ज़त रहेगी? इल्लै।’’
‘‘भाषण बंद करो! कॉर्नफ्लेक्स खाने हैं?’’
‘‘छि:’’ जिज्ञासा ने मुँह बंद किया, ‘‘मैं तो बीमारी में भी कभी कॉर्नफ्लेक्स नहीं खाती। भूखा मरना मंज़ूर है पर कॉर्नफ्लेक्स एकदम नहीं।’’
दामिनी ने कहा, ‘‘इसे सोने दो! इसकी रसोई में ढूँढ़ते हैं। अगर सूजी होगी तो मैं उपमा बनाती हूँ।’’
दोनों लड़कियाँ रसोई में चली गईं। रुचि अभी उठने का मन बना रही थी कि फोन पर फ्लैश हुआ संदेश, ‘‘पंद्रह मिनट में सीसीडी पहुँचो।’’
रुचि का सारा आलस उडऩछू हो गया। यह सर्वेश नारंग था। और इसका यह संदेश रविवार को पुरस्कार बना रहा था। रुचि ने तुरंत बिस्तर छोड़ा, तैयार हुई और सहेलियों को आवाज़ लगाई, कहाँ परेशान हो रही हो! चलो सीसीडी चलते हैं। कैफे कॉफी डे के लिए यह इन सबका कोडवर्ड था।
जिज्ञासा और दामिनी को भी त्राण मिला। रुचि की रसोई में मसालों के सीलबंद डिब्बे, रिफाइंड तेल और डिब्बाबंद आहार के सिवा और कोई खाद्य सामग्री नहीं थी। फ्रिज़ में बस पानी, दूध, जूस, डबलरोटी और मक्खन रखा था। बर्फ की टे्र देखकर लगता था, महीनों से फ्रिज़ साफ़ नहीं किया गया है।
‘‘लानत है, इतनी मशहूर शेफ़ रुचि शर्मा के फ्रिज़ और किचन की यह हालत!’’ जिज्ञासा ने कहा।
रुचि ने उसकी पीठ पर थप्पड़ जमाया, ‘‘घर में मैं कुकरी-शो नहीं चलाती, समझी!’’
दामिनी ने कहा, ‘‘हाँ, कैमरे का फोकस हो तो तुम किचन में जाओ! वरना सीसीडी ही आसरा है।’’
‘‘बेवकूफ़ लड़कियो, क्या तुम्हें नहीं मालूम, हिंदुस्तानी औरत की गुलामी की नींव रसोईघर में ही पड़ती है!’’
‘‘कुनबे भर का खाना बनाने पर पड़ती है। सिर्फ अपना या दोस्तों का बनाने पर नहीं।’’
‘‘जो भी हो, इस गुलामी का चस्का बड़ी जल्द पड़ जाता है।’’
सीसीडी आज सुस्त था। रविवार का लद्धड़पन वेटरों की चाल-ढाल में झलक रहा था। केवल छह मेज़ें घिरी हुई थीं। लड़कियों ने चीज़ बर्गर और पिज़्ज़ा मँगवाया।
सीसीडी का मैनेजर अभिवादन करने उनकी मेज़ तक आया, उसने रुचि की ओर विशेष ध्यान दिया, ‘‘मैम आप कैसी हैं? हम आपके लायक़ नाश्ता बनाने की पूरी कोशिश करेंगे, पर आप खुद हमारे शेफ़ से बात कर लें तो अच्छा हो।’’ रुचि ने उठने में कोई रुचि नहीं ली, बस मुस्कुरा दी। सब उसे पहचान रहे थे। सीसीडी में उसका कार्यक्रम सब देखते थे।
उनकी मेज़ पर नाश्ता खास अंदाज़ में पेश हुआ। हर प्लेट में पहले सुर्ख गुलाब का फूल लाया गया। जब फूल उन्होंने उठा लिया, तब प्लेटों में फल सजाए गए।
जिज्ञासा और दामिनी प्रसन्न और विस्मित थीं। उन्होंने कहा, ‘‘अब से हर इतवार तुम्हारे साथ ही यहाँ आया करेंगे।’’ तभी मुख्य दरवाज़ा खुला और सर्वेश नारंग अंदर दाख़िल हुआ। रुचि को देख उसका चेहरा खिल गया, लेकिन तभी उसकी नज़र अन्य दोनों लड़कियों पर पड़ी और वह सँभल गया। थोड़ा आगे जाकर वह एक अलग मेज़ पर बैठ गया। रुचि ने उसे इशारा किया। वह निर्विकार अपनी जगह पर जमा रहा।
सहेलियों से इजाज़त लेकर रुचि उसकी मेज़ तक आई, ‘‘मेरी दोस्त आई हुई हैं, चलिए आपको मिलवाऊँ।’’ सर्वेश ने कहा, ‘‘क्यों मेरा इतवार बरबाद करने पर आमादा हो?’’
तब तक जिज्ञासा और दामिनी वहीं आ गईं। रुचि ने उनका परिचय सर्वेश से कराया। सर्वेश ने गहरी बेधक नज़र उनपर डालकर ‘‘हेलो’’ के आगे एक भी शब्द नहीं कहा।
असमंजस और मौन का एक अंतराल आया। जिज्ञासा रुचि से मुखातिब हुई, ‘‘थैंक्यू फॉर द लवली ब्रेकफास्ट। मैं जाऊँगी अब।’’
दामिनी ने कहा, ‘‘मेरी तो आज डे्रस रिहर्सल है कल के शो की। मुझे जाना ही पड़ेगा।’’ रुचि ने झूठे को भी सहेलियों को रुकने के लिए नहीं कहा, यह बात दोनों को अखरी।
उनके जाने के बाद माहौल अलग क़िस्म का हुआ। उन दोनों ने अपनी मेज़ बदली। इतवार को उनका बैठने का एक खास कोना था। वेटर जानता था, वे क्या लेते हैं। वह हॉट कॉफी विद आइसक्रीम ले आया। रुचि को आइसक्रीम पसंद थी। उसने कहा, ‘‘जल्दी से खाओ, नहीं तो पिघल जाएगी।’’
सर्वेश की दिलचस्पी कॉफी में थी। वह कॉफी सिप करने लगा।
‘‘तुम्हारी सबसे पक्की दोस्त कौन है रुचि?’’ सर्वेश ने पूछा। तुरंत जवाब देने की बजाय रुचि सोचने लगी। जिग्ज़, दम्मी, कारी कोई नहीं। पक्की सहेली वह होती है, जिसके नाम का फ्रेंडशिप बैंड पहना जाए, जिसे रात-बिरात कभी भी जगाया जाए, जिसे अपने पेट की कच्ची-पक्की बताई जाए। किसको कहे वह अपनी दाँत काटी दोस्त। उसके मुँह से निकला, ‘‘सबसे पक्के तो आजकल तुम्हीं हो।’’
‘‘आजकल मतलब, परसों कोई और था क्या?’’
‘‘नहीं, इधर कई बरसों से मेरा कोई दोस्त नहीं है।’’
‘‘क्या तुम अपने एक्स से मिलती हो?’’
‘‘बिलकुल नहीं। क्या तुम अपनी एक्स से मिलते हो?’’
‘‘मैं कैसे मिल सकता हूँ। वह अमृतसर में रहती है, मैं यहाँ मुंबई में हूँ।’’
‘‘तुम्हारी ‘एक्स’ टेलीफोन एक्सचेंज में है यानी उसके हाथ की सभी लाइनें खुली हैं।’’
‘‘पर मैंने अपनी सभी लाइनें बंद कर रखी हैं। तुम्हारे सिवा मेरा मोबाइल नंबर किसी के पास नहीं होगा!’’
‘‘ऐसा कैसे हो सकता है! तुम मीडिया में हो, वहाँ संवाद के बिना काम कैसे चल सकता है?’’
‘‘कामकाज के लिए हमारे अलग नंबर होते हैं।’’
‘‘अपने बेटे के साथ तो बातचीत होती होगी?’’ रुचि ने सावधानी से प्रसंग फिर उठाया।
‘‘हाँ, नहीं, इधर नौ-दस महीनों से नहीं हुई। गार्गी ने अंश के दिमाग़ की इतनी धुलाई कर डाली है कि वह मुझे दानव मानता है।’’
‘‘बोलचाल एकदम बंद है?’’ रुचि ने पूछा।
‘‘सालगिरह पर ग्रीटिंग कार्ड के लेनदेन को क्या कहोगी?’’
रुचि शर्मा के मन में बड़े तीखेपन से चुभ गया कि उसका तो अपने बेटे गगन से ग्रीटिंग कार्ड का भी आदान-प्रदान नहीं है। जब पिता पुत्र को आर्थिक कष्ट होता है, तब उसके आगे चले आते हैं। ऐसे मौकों पर वह चिल्लाना चाहती, ‘‘चले जाओ, भाड़ में जाओ तुम लोग, मैंने क्या तुम्हारा जीवनभर का ठेका ले रखा है!’’ लेकिन अपनी बदनामी के डर से वह चुप लगा लेती। वह नहीं चाहती उसे लेकर भूली-बिसरी दास्तानें सामने आएँ। उसकी छवि एक समझदार, परिवार प्रेमी, प्रफुल्ल चित्त गृहणी की है। निर्देशक के अनुसार उसकी छवि ही इनके कार्यक्रम की यू.एस.पी है, जिसके बल पर उन्हें देश के शीर्ष औद्योगिक घराने विज्ञापन देते हैं।
इतवार की इस निठल्ली दोपहर रुचि का मन हुआ सर्वेश से वह उसके परिवार के विषय में और बातें करे, लेकिन सर्वेश ने जैसे मुँह पर सात लीवर का ताला जड़ लिया था।
रुचि उठकर चलने को तत्पर हुई। सर्वेश ने उसकी हथेली दबाकर रोका, ‘‘अभी नहीं।’’
उन्होंने फिर से कॉफी पी। सर्वेश ने बेहिसाब सिगरेटें पी। उसने धुएँ के बादल में से जैसे कहा, ‘‘मुझे अतीत से, अतीतजीवियों से चिढ़ है। मैं आज में जीनेवाला इंसान हूँ। रुचि तुम मुझे पसंद हो, क्योंकि तुम मेरा वर्तमान हो। अतीत एक मरा हुआ बोझ है।’’
‘‘इस बोझ को फेंक क्यों नहीं देते?’’
‘‘मुझसे कह रही हो, क्या यह मुमकिन है! क्या तुमने अपना अतीत फेंक दिया है उतार कर या वह आज भी लदा हुआ है तुम्हारी पीठ पर?’’
‘‘कोई राह तो निकालनी होगी?’’
‘‘बिलकुल ठीक। आज इतवार की दोपहर हम अपना कीमती समय ख़राब कर रहे हैं। ऐसे मौके बार-बार नहीं आया करते। अच्छा तो यह हो, मेरे नहीं तो तुम्हारे कमरे में चलकर इसका सदुपयोग करें।’’
रुचि सन्न रह गई। उसने कभी नहीं सोचा था कि सर्वेश इतने सपाट, चपटे और भावहीन शब्दों में उसके पास आने की पेशकश करेगा।
उसने मान की स्थिति में कहा, ‘‘मेरा कमरा हर किसी का प्रवेश बर्दाश्त नहीं करता! वहाँ सिर्फ मेरे शो से जुड़े यूनिट के लोग या मेरी दोस्त आ सकती हैं।’’
‘‘यूनिट के लोग तुम्हारे सगे हैं, मैं नहीं!’’
‘‘ग़लत मत बोलो। उनसे मेरा कामकाज का रिश्ता है।’’
‘‘मुझे आम से खास बनने के लिए क्या करना होगा। क्या मैं टाइयों का सेहरा पहनकर तुम्हारे दरवाज़े पर खट-खट करूँ?’’
‘‘नहीं, तुम्हें थोड़ा सेंसिटिव होना पड़ेगा। अकेले रहते-रहते तुम्हारे जज़बातों पर काफी ज़ंग चढ़ गई है।’’
‘‘तुम क्या दुकेली रहती हो!’’
‘‘नहीं पर लड़कियाँ कुदरती तौर पर कोमल होती हैं।’’
‘‘बैठी रहो अपनी कोमलता लेकर! मेरे पास इतना वक्त नहीं है!’’ सर्वेश उठ खड़ा हुआ। रुचि भी बाहर आकर अपनी कार की तरफ़ बढ़ गई। उसने सोचा, चलते वक्त सर्वेश उससे बाय कहकर या हाथ हिलाकर विदा लेगा। सर्वेश दूसरी दिशा में निकल गया।
अभी दिन के सिर्फ चार बजे थे और अकेले घर में रुचि के सामने पूरी शाम पड़ी थी।
दीवान पर बहुत-सी किताबें और पत्रिकाएँ फैली पड़ी थीं। रुचि ने उनमें से ‘वॉट्स कुकिंग’ और ‘हैपी होम’ उठाई और बिस्तर पर जा लेटी।
उसने पन्ने पलटे, पर मन नहीं लगा। हलका-सा अफ़सोस हुआ सर्वेश के नाराज़ होने का। ऐसा लगा कि उसका पौरुष चोट खा गया। लेकिन उसका प्रस्ताव ही ऐसा था। अगर रुचि प्रतिवाद न करती, इसका अर्थ यह होता कि कोई भी, कभी भी उसके कमरे का और खुद उसका इस्तेमाल कर सकता है। अकेली रहनेवाली लड़कियाँ भयंकर असुरक्षा-बोध से घिरी रहती हैं। कहने को इमारत में दो सुरक्षाकर्मी हरदम तैनात रहते हैं। सीढिय़ों और लिफ्ट में भी सीसीटीवी कैमरे लगे हैं। प्रवेश द्वार पर रखा इंटरकॉम इमारत के सभी फ्लैटों से जुड़ा हुआ है, पर ये समस्त प्रबंध अनजाने, अचीन्हे आगंतुक पर कारगर हैं। जो आगंतुक, सहमति से अंदर आएगा, उसकी जि़म्मेदारी रुचि के सिवा और किसकी होगी? ‘विक्टोरिया चेंबर्स’ में तो नहीं, लेकिन पास ही ओशिवरा में दो-एक वारदातें हो चुकी थीं, जिनमें घर की मालकिन मृत पाई गई। दोनों ही वारदातों के सीसीटीवी फुटेज देखने पर पता चला कि हत्यारा मालकिन का पूर्व परिचित था और उसका उनके यहाँ पहले से आना जाना था।
सवाल यह था कि शहर में अकेली जीनेवाली लड़कियाँ आख़िर क्या करें? वे कहाँ, किससे, किस हद तक सामाजिक संपर्क बनाएँ। कामकाजी दुनिया में यह मुमकिन नहीं कि महिलाएँ सिर्फ महिलाओं के संपर्क में रहें और पुरुष सिर्फ पुरुषों के। संपर्क कभी-कभी सघन हो जाते हैं। क्या सभी संपर्कों के शीर्ष पर लड़कियाँ एक लाल बत्ती लगा दें। ऐसे में स्वाभाविक संवेगों का क्या होगा?
रुचि को लगा, क्या चालीस की उम्र में कोई महिला अपने को लड़की कह सकती है! साथ ही यह भी कि क्या चालीस साल की लड़की प्रेम कर सकती है! उसका उदाहरण तो और भी विचित्र था क्योंकि न वह अविवाहित थी न विवाहित। वह परित्यक्ता भी नहीं थी क्योंकि पति ने उसे नहीं छोड़ा था, वही पति को छोड़ आई थी। तलाक की तकलीफ़देह प्रक्रिया में पाँच साल गुज़र गए। जब समस्त बंधनों से आज़ाद हुई तो उसके माता-पिता एक के पीछे एक जल्द ही गुज़र गए। पहली बार जीवन में तब उसे एकाकीपन का मर्म समझ आया। तुम घर से निकलो और घर पर ताला लगाना पड़े या घर लौटो तो ताले का काला मुँह देखना पड़े, कितनी बड़ी सज़ा है यह? कहाँ उसके बाहर जाते समय मम्मी और पापा दोनों बालकनी में खड़े होकर हाथ हिलाते थे, कहाँ उसके घर की बालकनी समेत तमाम ओनों-कोनों में चिडिय़ों और कबूतरों ने घोंसले बना लिए। उसे अपने पैतृक घर से इतनी दहशत हुई कि उसने उसे औने-पौने दामों में बेचकर यह ओशिवरा वाला मकान ले लिया।
अब यहाँ की चुप्पी भी चिकोटी काटने लगी थी। बाकी फ्लैटों से हा हा ही ही की आवाज़ें आतीं, लिफ्ट से लोग निकलते और अलग-अलग नंबरों के फ्लैटों में जाते। रुचि के फ्लैट में सिर्फ उसके काम से जुड़े लोग आते। लड़कियों से दोस्ती विकसित करने के लिए ढेर-सा समय चाहिए था, जो उसके पास एकदम नहीं था। दोस्त आतीं और उसकी व्यस्तता देखकर विदा हो जातीं। किसी से बहुत निकटता नहीं थी।
तमाम शोहरत, शोमैनशिप और शाबाशी के बावजूद रुचि के मन में एक सन्नाटा था, जिसे फिर से पुरुष सान्निध्य की प्रतीक्षा थी। मौजूदा दौर में ऐसी बहुत लड़कियाँ थीं, जिनकी एक शादी असफल रही मगर दूसरी सफल। ‘सेकंड टाइम लकी’ कॉलम अब वैवाहिक विज्ञापनों वाले अख़बारी पृष्ठ का एक स्थायी स्तंभ था।
रुचि उसे बड़े ध्यान से पढ़ती। उसने जीवन साथी डॉट कॉम पर एक अन्य नाम पते से अपना विवरण डाला हुआ था। उसमें एक-दो प्रत्याशियों ने उत्तर दिया। वे अपने शब्द चयन और अंदाज़ में रुचि को काफी उथले लगे। उसने उन दोनों को डिलीट कर डाला। चालीस साल की लड़की का अकेलापन चौबीस साल की लड़की के अकेलेपन से नितांत भिन्न होता है। चालीसवाँ जन्मदिन आते-आते तक लड़की के मित्र-संसार में गिने-चुने नाम बच जाते हैं। सहेलियों की संख्या सीमित हो जाती है, दोस्तों की उनसे भी विरल। चालीस साल की लड़की जब विवाह के बारे में सोचती है, उसे अपने आसपास की तमाम कायनात ब्याही हुई मिलती है। उसकी उम्र के सभी लड़के विवाहित होते हैं और लड़कियाँ एक-दो बच्चों की माँ। चालीस साल की लड़की अपने जीवन के पिछले पाँच सालों पर नज़र डालती है तो पाती है कि उसने उन वर्षों में खूब काम किया, नाम किया, धन और यश कमाया। बस, मुहब्बत के खाते में बड़ा-सा अंडा पाया उसने। वह आगामी दस वर्षों के समय पर नज़र डालती है तो थर्रा उठती है। ऐसे में जो उपलब्ध है, वही श्रेष्ठ का सिद्धांत मजबूरन सामने रखना पड़ता है। यह पता होता है कि प्रस्तुत व्यक्ति आदर्श नहीं, किंतु दिल दिमाग़ सब ग़लत सिग्नल देते हैं।
कई दिनों तक रुचि का ‘वॉट्स एप्स’ का इनबॉक्स सर्वेश के नाम पर खाली रहा। इस फोनाचार की वह आदी हो गई थी। बार-बार फोन हाथ में लेती, ‘माय एप्स’ पर जाती पर निराशा हाथ लगती। आि़खरकार एक दिन उसी ने पहल की, ‘‘क्या बहुत व्यस्त हो गए हो?’’
फौरन जवाब आया, ‘‘अस्त-व्यस्त हूँ, पस्त हूँ!’’
—क्या हुआ?
—बेटा खो बैठा मैं।
—ओह नो, ऐसा कैसे?
—उसकी माँ ने रोका नहीं। ड्रग्स लेता था। एक शाम ज़्यादा ले ली।
—ओफ़ मैं आती हूँ जल्द!
रुचि को तत्काल अपने बेटे गगन का ख़याल आया। कल को वह भी ड्रग्स लेने लगे तो उसे रोकनेवाला कोई नहीं होगा, क्योंकि उसका पिता प्रभाकर शर्मा तो खुद ऐबी है।
सारे सिरदर्द के बावजूद सर्वेश और रुचि अपने बच्चों से जुड़े हुए थे। तलाक पति-पत्नी का हुआ था, पिता-पुत्र या माँ-बेटे का नहीं। वहाँ तनाव था, रिश्तों में टकराव नहीं। अब तक अपनी हर परेशानी अंश अपने डैड से बाँटता था। लेकिन उसने अपनी नशाखोरी की लत की उन्हें कोई भनक नहीं लगने दी।
वर्ली समुद्र तट के पिछवाड़े जहाँ मार्कंडेश्वर का मंदिर बना है और जहाँ वर्ली गाँव की सीमा आरंभ होती है, वहाँ की आि़खरी इमारत के चौथे माले पर सर्वेश का घर था। अहाते से लेकर कमरों के अंदर तक प्रबल वेग से हवा आती थी, मगर उसके साथ ही सूखी मछली और झींगों की बू भी। रुचि को मछली की गंध नागवार थी। उसने नाक पर रूमाल रखा। सर्वेश की माँ समझ गईं। उन्होंने बाई से खिड़कियाँ बंद करवाईं।
सर्वेश काम पर नहीं जा रहा था। वह एक कोने में बैठा सिर्फ दीवार को घूर रहा था।
माँ ने पंजाबी मिश्रित बोली में कहा, ‘‘एनूं समझा तो सही, ओह दी माँ नू रब ने सजा दित्ती है।’’
सर्वेश ने चुप्पी तोड़ी और भभककर कहा, ‘‘सिर्फ माँ को सज़ा मिली, बाप को ईनाम मिला है, क्यों?’’
माँ गुस्से से दूसरे कमरे में चली गई। सर्वेश और रुचि देर तक अँधेरा घिरते कमरे में बैठे रहे। धीरे-धीरे सर्वेश ने बोलना शुरू किया, ‘‘इधर अंश ज़ेबख़र्च बहुत माँगने लगा था। मुझसे कहता, मम्मी कंजूस है, यह भी नहीं सोचती कि मोटरबाइक में पेट्रोल डलेगा, तभी वह चलेगी। कभी कहता, हफ्ते में तीन दिन मैं भूखा रहता हूँ। कॉलेज में देर हो जाती है, इतने पैसे नहीं होते कि बाहर कैफे में खा लूँ। जितनी बार वह अपना दुखड़ा बयान करता, मेरे कलेजे से आह निकलती। मेरे साथ तो मनजीत कमीनी थी ही, बेटे को भी उसने नहीं छोड़ा। मोटी तनख़्वाह पाती है। सरकारी नौकरी है, पर पैसा उसे पति और बच्चे से भी ज़्यादा प्यारा है। मैं अंश को पैसे भेजता, कभी-कभी तो पूरी तनख़्वाह उठाकर भेज दी। मुझे क्या पता था?’’
इस बीच बाई आकर चाय और बिस्किट रख गई थी। वे वैसे ही पड़े रहे। बोलने के बाद सर्वेश कुछ हलका हुआ। उसने बाई को आवाज़ दी, ‘‘मंदा, चा पाहिजे।’’
उसने सिगरेट सुलगाई और धुएँ के पहले गुबार में जैसे अपने आप से कहा, ‘‘अमृतसर से यह जो एक रिश्ता था, उसका तार भी टूट गया। अब मैं किसी का नहीं, कोई मेरा नहीं।’’
— जीवन फिर शुरू हो सकता है सर्वेश!
— मुझ-जैसे खंडहर के साथ कौन जीवन शुरू करेगा रुचि!
— दो खंडहर मिल जाएँ तो एक मुकम्मल मकां बन जाए।
— क्या मैं कहूँ कि अब तुम वापस मत जाना!
— इतनी अकस्मात् मैं क्या कहूँ? कुछ वक्त दो। अभी तुम शोक में हो।
— अंश की रूह खुश होगी मुझे तुम्हारे साथ देखकर। जब वह छोटा था, उसने हम मियाँ-बीवी की भयानक लड़ाइयाँ देखी थीं।
विदा लेकर रुचि चल दी। उसके मन में उमंग की जगह एक चाह करवट ले रही थी, किस तरह वह सर्वेश को वापस जीवन के बीचोंबीच पहुँचाए?
जि़ंदगी का यह नया अध्याय बिना शोर-शराबे शुरू हुआ। सबको ईमेल करके नया पता भेज दिया गया। अपना ओशिवरा वाला मकान रुचि ने ताला लगाकर बंद कर दिया। उसका कुल सामान वहीं रहने दिया। सर्वेश के यहाँ सब कुछ इफ़रात में था। दो बड़े कमरों के बाद एक बालकनी भी, जिसके दूसरे छोर पर माँ का कमरा था। घर की व्यवस्था मंदा के हाथ में थी। वह सवेरे सात बजे आती और शाम सात बजे वापस अपने घर जाती। माँ के प्रशिक्षण से वह अच्छा खाना बनाना सीख गई थी।
रुचि और सर्वेश के इस नव-संबंध पर न तो किसी ने फूल बरसाए न काँटे। उन्होंने दो मित्रों की उपस्थिति में नोटरी से अपने विवाह की रजिस्ट्री करवाई और हल्दीराम के रसगुल्ले से सबका मुँह मीठा कर दिया। घर में माँ ने रुचि के गले में सोने की एक ज़ंजीर पहनाई और कहा, ‘‘देख कुड़े, मेरी फिकर ना करीं। बस तू ओनू सांभ!’’ नई-नई शादी के बावजूद सर्वेश बार-बार अपने बेटे को याद करता, ‘‘अंश कहता था डैड बड़ा होकर मैं भी आपकी तरह पत्रकार बनूँगा, खोजी पत्रकार। उसकी माँ ने कभी उसे अपने क़ब्ज़े से दूर नहीं होने दिया।’’
कभी सर्वेश लगातार सिगरेट पीते हुए स्वगत कथन करता, ‘‘आदमी हज़ार बार बिस्तर में जाता है पर एक या दो बार ही बाप बनने में कामयाब होता है। पितृत्व के ख़िलाफ़ औरतों के हाथ में कई हथियार हैं। वे आसानी से अपने को गर्भवती नहीं होने देतीं, वे कोई जि़म्मेदारी नहीं उठाना चाहतीं। अब तो मैं चाहूँ, तब भी बाप नहीं बन सकता। मैंने सन् दो हज़ार में ही नसबंदी करवा ली थी।’’ रुचि को इन बातों से खीझ और ऊब होती। यह क्या कि फैले हुए दूध पर रोये जा रहे हैं। बेटे से इतना ही लगाव था तो उसे साथ रखते!
दूसरी तरफ़ रुचि को मनोवैज्ञानिक उलझन होती। उसे बड़ी शिद्दत से माँ के रूप में अपनी नाकामयाबी महसूस होती। उसका बेटा गगन भी इन्हीं परिस्थितियों का शिकार था और कभी भी किसी गड्ढे में गिर सकता था। गगन के छुटपन में रुचि ने ज़रा भी धैर्य से काम नहीं लिया। वह पति का गुस्सा बेटे पर निकालकर सोचती, मैंने बदला ले लिया। एक बार गगन धूप में बाहर जाने की जि़द कर रहा था, रुचि ने खीझकर उस पर स्टील का गिलास दे मारा था। गगन के माथे पर चोट लगी, जिसका निशान बड़े होने पर भी बना रहा। प्रभाकर की हरकतों के विरुद्ध रुचि में आक्रोश इकट्ठा होकर गगन के प्रति हिंसा के रूप में आकार लेता। उसके मन में गाँठ बनती गई कि गंदे इंसान का बच्चा भी गंदा निकलेगा।
अब जब वह सर्वेश को अंश की यादों में निमग्न देखती, उसके अंदर नए सिरे से अपराध-बोध होता। इसमें कोई शक नहीं कि उसके और प्रभाकर के रिश्तों की तल्ख़ियाँ सबसे ज़्यादा गगन ने झेलीं। कभी माँ उसे मारती तो कभी पिता। बचपन से ही वह हद दर्जे का उग्र और जि़द्दी बन गया।
रुचि की समस्या थी कि वह गगन से जुड़ी अपनी चिंताएँ पति से बाँट नहीं सकती थी। उसने उसे यह बताया ही नहीं था कि उसके कोई बच्चा भी है। अब वह पछताती। अगर उसने यह तथ्य उजागर किया होता तो अब वह सुझाव दे सकती थी कि वे लोग गगन को साथ रखें। यह अलग बात है कि गगन यह प्रस्ताव मानता या नहीं। बड़ी उम्र के इस समझदार संबंध में रुचि और सर्वेश ने एक नूतन प्रणाली का प्रणय निर्मित किया था। अपने कार्यजगत की व्यस्तताओं का दोनों ख़्ायाल रखते। दोनों के अलग बैंक खाते थे और कोई किसी के आय-व्यय में हस्तक्षेप नहीं करता। सबसे बड़ी आज़ादी इस बात की थी कि रुचि जब अपने घर जाकर रहना, काम करना चाहे, उसे पूरी छूट थी। अगर सर्वेश को फुर्सत होती तो वह भी कभी-कभी ओशिवरा पहुँच जाता। कभी-कभी रुचि अपने शो के सिलसिले में इतने लोगों से घिरी होती कि पति-पत्नी में अंतरंग बात भी नहीं हो पाती। रुचि उसे रोकने की कोशिश करती तो वह हँसता हुआ उठ देता, ‘‘बाकी बातें इस पर।’’ वह अपना स्मार्ट फोन दिखाता। रुचि की मित्र-मंडली को उसकी क़िस्मत पर रश्क़ होता, ‘‘कितना लिबरल शौहर पाया है तुमने! तुम्हें जीने की, काम करने की पूरी आज़ादी देता है।’’
रुचि कहती, ‘‘इसीलिए तो मैं उससे कहती हूँ, तुम तो मेरे पंद्रह अगस्त हो।’’
‘‘और वह तुम्हें क्या कहता है?’’
‘‘वह मुझे अपनी छब्बीस जनवरी कहता है।’’
सच्चाई यह थी कि इक्कीसवीं सदी के पहले दशक तक अपने मुल्क में शिक्षा और रोज़गार ने लड़के-लड़कियों के सामने उम्मीदों का संसार खोल दिया था। हुजूम की हुजूम लड़कियाँ पढ़-लिखकर काम पर जाने लगीं। माता-पिता के दबाव में उन्हें शादी के फ्रेम में बँधना पड़ता, पर दिन पर दिन यह फ्रेम उन्हें दमघोंटू महसूस होता। पारंपरिक विवाह में लोकतंत्र की संभावना कठिन थी। हर जीवन साथी की इच्छा रहती कि वह पत्नी के संपूर्ण जीवन को संचालित करे। सुबह उसके जागने से लेकर रात को उसके सोने तक वह उसका नक्शा तैयार रखता कि पत्नी को क्या करना है। कुछ जीवन साथी तो ऐसे थे कि पत्नी को बाथरूम या टॉयलेट में भी अगर देर लगती देखते, तो नर्वस हो जाते। पत्नी के बाहर निकलते ही पूछते, ‘‘अंदर बैठी क्या कर रही थी?’’
पत्नी के कहने पर कि वह टॉयलेट में अख़बार पढ़ रही थी या क्रॉसवर्ड कर रही थी, जीवनसाथी ने बुरा माना और कहा, ‘‘ये सब काम बाहर आकर भी किए जा सकते हैं!’’
कुछ पतियों को इस पर एतराज़ था कि उनकी पत्नी फोन पर लंबी बातें करती है तो कुछ को इस पर कि वह फेसबुक पर ढेरों दोस्त बनाती है। लड़कियाँ हक्की-बक्की रह जातीं। यह तीसरी क़िस्म की दासता थी और चौथी क़िस्म की जकड़बंदी जहाँ आपकी हर गतिविधि के पैरों में डोरी बँधी हो। आज़ादख़याल लड़कियाँ शादी से बचने लगी थीं।
सर्वेश और रुचि एक-दूसरे की क्षमता और सामथ्र्य पहचानते थे। उनकी कामकाजी दुनिया फैली हुई थी। किसी राजनीतिक कांड या आर्थिक घोटाले के पीछे सर्वेश और उसके अख़बार ‘खुलासा’ की टीम लग जाती तो कई दिनों तक उसका अता पता न मिलता। उन्हें गुमनाम रहकर काम करना पड़ता, जिसमें कई बार कामयाबी की जगह तोहमत हाथ लगती। हालाँकि ‘खुलासा’ भी समाचार प्रधान अख़बार था, अख़बार जगत के ही विभिन्न चैनल उनके पीछे जासूसी में लगे रहते कि वे आजकल किस टोह में हैं। रुचि को सप्ताह में दो टीवी कार्यक्रमों की तैयारी करनी होती। कभी-कभी काम की रफ्तार इतनी बढ़ा दी जाती कि एक बार में दो एपिसोड की शूटिंग कर लेते। लगातार कैमरे के सामने प्रस्तुति देते-देते रुचि की मानसिक दशा वह हो जाती कि वह घर की रसोई में भी उसी प्रदर्शन के अंदाज़ में बोलती जाती, ‘‘अब हम आधा चम्मच जैतून के तेल में प्याज़ सुनहरा भूरा होने तक पकाएँगे।’’ कभी माँ अपने कमरे से निकल उसकी कमेंट्री सुनतीं तो उसे टोकतीं, ‘‘बस भी कर, एत्थे कोई कैमरे नहीं लगे हैं।’’
तीन महिला पत्रिकाओं में रुचि का पाककला कॉलम छपता। तीनों की पत्रकार उससे मिलने ओशिवरा वाले फ्लैट में आतीं। रुचि का भी मन यहीं रमता काम में। वह कई बार ओशिवरा चली आती। इधर मसाला उद्योग, बर्तन निर्माता और क्रॉकरी कंपनियाँ भी रुचि के पास आ रही थीं कि वह उनके उत्पाद अपने टेलि-शो में इस्तेमाल होते दिखाए। आए दिन इन जगहों से उपहार आते। अख़बारों में छपे इश्तिहारों में भी रुचि एक जाना-पहचाना चेहरा बन गई थी, जिसके हाथ में इनमें से कोई उत्पाद होता और उसका बयान कि ‘अमुक मसाले में बने खाने की लज़्ज़त ही कुछ और है।’ अथवा ‘सचिन स्टील के बर्तनों से अपना घर संसार चमकाइए।’ उसका सहायक अली हर काम में उसकी सहायता के लिए खड़ा मिलता। सेट की तैयारी, शूटिंग का मिनिट-टु-मिनिट ब्रेकअप, मेहमानों की देखभाल, निर्देशक की माँग, सब वह सँभालता। वह हर काम की सिलसिलेवार तैयारी रखता। कुर्बान अली कलाकार की तरह मेज़ सजाना जानता था। हरी शिमला मिर्च की बग़ल में लाल टमाटर, नमक की बग़ल में हल्दी और देगी मिर्च कितना अच्छा विज़ुअल देंगी, उसे पता था। वह पूरी दोपहर तैयारी में लगा रहता। समय सीमा में अधिकाधिक व्यंजन बनाने का राज़ यही था कि आधी तैयारी पहले से कर ली जाती। जिन चीज़ों को ओवन में रखकर भाप द्वारा पकाते, एक शॉट में उन्हें ओवन में डालते हुए दिखाते तो दूसरे शॉट में बेक होकर तैयार दिखाते। ये सब जि़म्मेदारी अली की थी। वह बेक्ड व्यंजन का एक पात्र पहले से तैयार रखता। परंपरा यह थी कि शूटिंग के बाद यूनिट के सभी सदस्य व्यंजन चखते और सराहना करते। कभी-कभी व्यंजन बहुत अधिक बन जाता या फिर कुछ खास होता। यूनिट के लोग बड़े इसरार से उसका एक हिस्सा रुचि की कार में रखवा देते कि ‘‘सर्वेश जी तो स्वयं पारखी हैं। उन्हें भी यह लाजवाब बानगी दिखाइए।’’ रुचि को बड़ा धक्का लगा, जब घर में किसी ने उसके बनाए व्यंजन को चखा तक नहीं। माँ ने कहा, ‘‘मैं हर किसी का हाथ लगा खाना खांदी नहीं।’’
सर्वेश का मूड उस दिन उखड़ा हुआ था, उसने अपने कमरे से आवाज़ लगाई, ‘‘मंदा, मेरे लिए एक कटोरी दलिया बना दो, पेट ख़राब है।’’
खीझकर रुचि ने वह व्यंजन मंदा को घर ले जाने के लिए दे दिया और भूखी सो गई।
कार्यक्रमों और चैनलों के वैश्विक विस्तार से यह संभव हो गया था कि देश-विदेश के सभी चैनलों के एक से बढ़कर एक मशहूर पाककला कार्यक्रम सबको देखने को मिलते। भारतीय दर्शक उन्हें देखता, भले ही व्यंजन समझ आए न आए। उन कार्यक्रमों में विशेषज्ञा के प्रस्तुतीकरण में इतनी उछलकूद और नाटकीयता भरी होती कि दर्शक लोटपोट हो जाता। कोई कार्यक्रम समुद्रतट पर तो कोई रेगिस्तान के बीच आयोजित दिखाते। जो कार्यक्रम रसोईघर केंद्रित होते, उनमें भी पाक-विशेषज्ञ मटकती हुई व्यंजन सिखाती। रुचि के दोनों कार्यक्रम, ‘सुरुचि’ और ‘स्वाद’ में तड़क-भड़क की बजाय सादगी और स्वाभाविकता थी। दोनों चैनल दावा करते कि उनके सभी व्यंजन पहले से आज़माए हुए हैं। दोनों चैनल के मालिक मारवाड़ी थे और उनका फोकस शाकाहार पर था। बड़ी मुश्किल से ‘म’ चैनल वालों ने कुछ हफ्तों पहले अंडे वाले व्यंजनों के लिए अपनी मंज़ूरी दी थी। लाला जी को समझाना पड़ा कि केक, पेस्ट्री वगैरह अंडे के बिना बेमज़ा बनती हैं। ‘म’ चैनल के कार्यक्रम में विविधता बढ़ गई थी। वीर अंडों की सफेदी को फेंटकर झाग का ऐसा सफेद पहाड़ बना देता कि बिना बेक किए भी वह व्यंजन-जैसा ही चित्र उपस्थित करता।
‘म’ चैनल की चुनौती में ‘क’ चैनल के मालिकों ने आपसी विचार-विमर्श से यह तय किया कि वे अपने कार्यक्रम में सामिष व्यंजन बनाना भी सिखाएँगे। साथ ही, उन्होंने इस संभावना पर भी गौर किया कि स्वाद कार्यक्रम की होस्टेस बदली जाए। मालिकों की दलील थी कि रुचि शर्मा की छवि एक घरेलू मध्यवर्गीय गृहणी की है। उसके हाथों में गोश्त और मुर्गे की विधियाँ सजेंगी ही नहीं। एक मालिक ने कहा, ‘‘ऐसा कर सकते हैं, हम ‘स्वाद’ प्रोग्राम के दो हिस्से कर दें। सोमवार मंगलवार वैसे भी हिंदुस्तानी लोग मांस-मच्छी खाते नहीं हैं। शुक्रवार को भी लोगों को परहेज़ रहता है। तीन दिन ‘स्वाद’ प्रोग्राम रुचि शर्मा करें, तीन दिन कोई और।’’
रुचि को यह सुझाव नागवार लगा। अब तक इस कार्यक्रम पर उसका एकछत्र साम्राज्य था। उसने थोड़ा कठिन रुख़ अपनाया, ‘‘या तो मैं पूरा प्र्रोग्राम करूँगी नहीं तो बिलकुल नहीं।’’
दिनेश झुनझुनवाला ने कहा, ‘‘जैसी आपकी मर्जी। हमको कोई बाधा नहीं है।’’
रुचि को अपनी स्थिति के अस्थायीपन का अंदाज़ हो गया। मन मारकर उसने मालिकों की बात मान ली। इसके सिवा कोई चारा नहीं था।
प्रभाकर शर्मा का स्वास्थ्य दिन-पर-दिन गिरता जा रहा था। वाशी के सेक्टर सत्रह में उसके पास ‘अष्टम’ नामक हाउसिंग सोसायटी में जो पुश्तैनी मकान था, उसका गृह कर, जल कर और बिजली का बकाया अब एक छोटे-मोटे पहाड़ की शक्ल ले चुका था। बिजली विभाग ने तो उसके फ्लैट 808 की बिजली काट दी, गृह कर और जल कर का आए दिन नोटिस आता रहता। इन दिनों पूँजी निवेश का उसका धंधा भी मंदा चल रहा था। दरअसल इतने बरस बाद भी प्रभाकर अपनी शादी के फ्लॉप होने के धक्के से उबर नहीं पाया था। अपनी पुरुष मानसिकता में उसके लिए इस बात से समझौता करना मुश्किल था कि उसकी पत्नी उसे छोड़ कर चली जाए; ऊपर से अपना अलग जीने का रास्ता स्वयं ढूँढ़ ले। बहुत दिनों तक वह सोचता रहा कि एक दिन रुचि लुटी-पिटी वापस घर आएगी और उसके पैरों पर गिरकर अपनी भूलचूक की माफी माँगेगी। प्रभाकर के ज़ेहन में स्त्री की छवि एक समर्पित, सहनशील अनुगामिनी की थी। अपनी ज़्यादतियों के बारे में उसका दृष्िटकोण बड़ा उदार था। वह मानता था कि अगर पुरुष के पास अतिरिक्त पौरुष है तो वह पत्नी से इतर रिश्ते बनाएगा ही। वह अकसर दोस्तों के बीच शेखी बघारता, ‘‘आय एम सरप्लस फॉर माय वाइफ़।’’ इन जुमलों पर ठहाका लगता और प्रभाकर का मनोबल कई गुना बढ़ जाता। उसके सारे क़िस्से और लतीफे यौन संबंध से ताल्लुक़ रखते। जब रुचि साथ रहती थी, इस तरह की अभिव्यक्ति पर एतराज़ करती, ‘‘बच्चे के सामने ऐसी बातें मत किया करो!’’ प्रभाकर उसका एतराज़ हँसी में उड़ा देता, ‘‘मेरा बेटा मर्द बच्चा है, इसे शेरेपंजाब बनाऊँगा मैं।’’ उसे अपनी अनियमित जीवन शैली पर नाज़ था। गगन को भी वह धारा के विरुद्ध काम करना सिखाता। जब तक माँ-बाप की दी हुई संपत्ति घर में थी, इन अनीतियों के दुष्परिणाम स्पष्ट नहीं हुए लेकिन बाद में प्रभाकर परिवार के सुखचैन पर ग्रहण लगता गया। अपने जीने के ऊटपटाँग ढर्रे पर सोच-विचार न कर प्रभाकर कहता, ‘‘यह आठ नंबर बड़ा सिरफिरा होता है, मुझे इसने कभी चैन से नहीं रहने दिया। मेरी जन्मतिथि आठ है, जन्म का महीना भी आठ है। बाऔजी ने आठ को शुभ अंक मानकर उस ‘अष्टम’ सोसायटी में आठवीं मंजि़ल पर आठवाँ फ्लैट ले लिया। इस अट्ठू ने आठ साल अच्छा फल दिया बस। आठ नंबर बड़ा ज़ालिम होता है, ‘कभी अर्श पर कभी फ़र्श पर’ इसी के लिए कहा जाता है। अगर बग़ल की नवम या दशम सोसायटी में वे घर ले लेते तो आज यह हाल न हुआ होता!’’