ख़ून / भगवान अटलाणी / देवी नागरानी
थका हुआ हूँ पर नींद नहीं आती। गाँव के ऊबड़-खाबड़ कच्चे रास्ते पर कुल मिलाकर दो घंटे साइकिल चलानी पड़ी होगी। हड्डी-पसली शिथिल हुई है। चारों तरफ़ अंधेरा है। इस गाँव में बिजली भी तो नहीं है। दूर-दूर तक रोशनी की एक किरण भी नज़र नहीं आती। ऊपर से यह नींद का न आना।
वैसे तो बहुत सारे सेडेट्वि डिसपेंसरी की अलमारी में हैं। एक गोली ही नींद के लिये काफ़ी है, मगर मुझे पता है कि गोली लेकर सोने से कुछ नहीं होगा। नींद आएगी तो सपने में वह अंधेरी झोंपड़ी और उस झोंपड़ी में तड़पता, दवा के बिना दम तोड़ता मरीज़ मेरा पीछा करेगा। ऐसी नींद से जागना बेहतर है।
गोबर का ढेर, बदबूदार पानी से भरे खड्डे, भूँ-भूँ करते मच्छर! अनचाहे डर से निराश चेहरा, रूखा-सूखा खाना, कमरतोड़ मेहनत, सुबह के धुंधलेपन से शाम तक लगातार माँ, बाप, बीवी और तीन बच्चों को जिंदा रखने की चिंता। रोज़ाना दिन भर के तीन रुपये, फिर भी दिनों दिन घटती मज़दूरी और बाज़ार में बढ़ती महँगाई! लुढ़कती सांसों को ज़िन्दा रखने की कोशिश में एक मामूली बेकार आदमी सेहतमंद हो, तो भी ज़रूर बीमार पड़ जाए। बीमार के ठीक होने की क्या उम्मीद की जाए?
मैं साइकिल पर चलता जाता हूँ। इस गाँव की डिसपेंसरी में आए आज दूसरा दिन है। प्राइवेट - प्रैक्टिस के ख़याल से पहला केस गाँव में आने से पहले एक सीनियर डॉक्टर ने सलाह दी थी - ‘गांव में किसी से फ़ीस माँगने की ग़लती मत करना। मरीज़ को देखकर उसे अपनी दवा देकर, इन्जेक्शन लगाकर क़ीमत के नाम पर पंद्रह रुपये वसूल कर लेना। दवा और इन्जेक्शन डिसपेन्सरी में से मुफ़्त मिल ही जाएँगे तुम्हें। ’
मिली हुई शिक्षा मैंने गाँठ में बाँध ली। वैसे भी यहाँ नया आया हूँ। गाँव वालों पर अपना प्रभाव डालने का काम पहले करना चाहिए। एक मरीज़ का केस अगर बिना कुछ लिए कुशलता से किया तो आगे चलकर यह बात काम आएगी। यह सब सोचते हुए मैं साइकिल चला रहा हूँ। रास्ता बार-बार इतनी पगडंडियों में बँट जाता है कि अगर मैं अकेला होता तो निश्चित रूप से भटक जाता। जो लड़का मुझे लेने आया था, आगे साइकिल चलाते हुए मुझे रास्ता दिखा रहा है। अब तक तो शहर के पक्के रास्तों पर साइकिल चलाई है, कच्चे रास्तों पर साइकिल चलाते हुए यूँ महसूस होता है जैसे साइकिल सीखने के समय महसूस होता था। यहाँ-वहाँ मदार के पौधे, बबूल के झाड़ और बेरों की झाड़ियाँ इतनी आगे झुकी हैं कि कपड़े फट जाने या चेहरे पर ख़राशों के आ जाने का डर होता है।
लड़का तेज़ी से साइकिल चला रहा है। इन रास्तों पर साइकिल चलाने का उसे तो अभ्यास है पर मुझे उसका साथ देने में बहुत तकलीफ़ होती है। साइकिल के कैरियर में एमरजन्सी बैग लगी हुई है। मुझे शक होता है कि झटके खाकर अन्दर काफ़ी कुछ टूट-फूट गया होगा। रास्ते में साइकिल पर से उतरकर बैग खोलना मेरी मर्यादा के अनुकूल न था। यही सोचकर मैं आगे जाते हुए लड़के को पकड़ने के लिये साइकिल के पेंडल पर दबाव बढ़ाता हूँ।
पता नहीं मरीज़ कितना पैसे वाला है? कहते हैं गाँव वालों का उनके घर में रखे सामान और कपड़ों से मूल्यांकन करना बहुत मुश्किल है। बाहर से फटे हाल पुराने कपड़े पहने हुए कंगाल नज़र आने वाले आदमी की झोंपड़ी के किस कोने में कितना माल दबाया गया है, कुछ कह नहीं सकते। अगर पता चल जाए कि मरीज़ क्या करता है तो उसकी आमदनी का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। फ़ीस की बात न भी सोचूँ, पर दवा तो अपनी जेब से न देनी पड़े। मैं और भी ज़ोर लगाकर लड़के के बिलकुल पीछे पहुँचता हूँ।
‘साइकिल बहुत तेज़ चलाते हो भाई! क्या नाम है तुम्हारा? ’ मैं बातचीत का सिलसिला शुरू करता हूँ।
‘होरी’ वह शरमाकर मुस्कराता है।
‘पढ़ते हो? ’
‘नहीं। ’
‘तो क्या करते हो? ’
‘खेतों में काम करता हूँ। ’
‘यह मरीज़ कौन है? तुम्हारा रिश्तेदार है? ’
‘नहीं। ’
‘तो? ’
‘हम एक ही गाँव के हैं! ’
‘अच्छा, वह क्या करता है? ’
‘मज़दूरी! ’
‘दिन में कितना कमा लेता होगा? ’
‘तीन रुपये। ’
‘खाने वाले कितने सदस्य हैं? ’
वह कुछ सोचकर जवाब देता है, ‘सात लोग। ’
‘वे लोग उसके कौन हैं? ’
‘माँ-बाप, वह खुद, घरवाली और तीन बच्चे। ’
‘उनमें से और कोई नहीं कमाता? ’
‘घरवाली और बड़ा लड़का भी मज़दूरी करते हैं। ’
‘उन दोनों को क्या मिलता है? ’
‘ढाई रुपये भाभी को और दो रुपये बड़े को। ’
‘फिर तो अच्छी आमदनी है उनकी। ’
वह उदास हो गया है। ‘मज़दूरी पूरा साल कहाँ मिलती है, साहब! फ़सल के चार महीने ही तो मिलती है। ’
तीन, ढाई और दो। साढ़े सात रुपये ऱोज, सवा दो सौ रुपये महीने के। मोटे अनाज का दाम भी आजकल दो सौ से कम नहीं। परिवार के सात सदस्य मुश्किल से अपना पेट भरते होंगे।
मरीज़ की माली हालत का अनुभव होते ही यह मुश्किल सफ़र, ऊबड़-खाबड़ रास्ता, कुल मिलाकर चारों ओर का माहौल मुझे बेहद नागवार लगने लगा। केस मिल जाने की अज्ञात खुशी झुंझलाहट में तब्दील होने लगी।
‘तुम्हारा गाँव और कितनी दूर है? ’
‘यह सामने ही है साहब। ’
गंदा सीलन भरा कुँआ, पनघट, घूँघट से मुँह ढांपे, सर पर मटके लेकर पनघट से आती औरतें हमें देखकर एक तरफ़ हो गईं।
‘होरी के साथ आज यह जेन्टिलमैन कौन है? ’
‘नए डॉक्टर साहब हैं! दीनू को देखने आए हैं। ’
अपनी जानकारी का सिक्का जमाती हुई एक आवाज़ पीछे से आकर मुझे छेड़ जाती है।
‘ख़ाक डॉक्टर साहब हैं! ’ मैं मन ही मन में बड़बड़ाता हूँ।
साइकिल मिट्टी में धँस गई है। होरी साइकिल पर बैठे-बैठे ही ज़ोर लगाकर बीस क़दम आगे बढ़ गया है। मैंने ज़ोर लगाने की कोशिश नहीं की है। साइकिल से उतरकर अपने साथ साइकिल को भी घसीटने लगा हूँ।
मैं यह केस देखने जा रहा हूँ। जितना परिश्रम अभी किया है, उतना ही वापस लौटते वक़्त फिर करना पड़ेगा। एमरजन्सी बैग में अगर कुछ टूटा-फूटा होगा तो भरपाई जेब से करनी पड़ेगी। मरीज़ का चेकअप करना होगा। उसे दवा देनी पड़ेगी। वक़्त ख़राब करना पड़ेगा। बदले में मुझे क्या मिलेगा? सिर्फ़ और सिर्फ़ सिर का दर्द। इस तरह हो रहा है मेरा प्राइवेट प्रैक्टिस का मुहूर्त!
होरी रुक गया। उसके साथ आकर मैं भी खड़ा हो गया हूँ। सामने एक साइकिल दुर्दशाग्रस्त हालत में पड़ी है। लगभग पाँच फुट ऊपर बदरंग मिट्टी की दीवारें, सड़ी हुई पाटी, टूटा हुआ छप्पर चरमराते पुट्ठों का बना हुआ। हर वक़्त गिरने को तैयार छप्पर बाहर यूं निकली हुई कि साधारण-सी लापरवाही में सर टकरा जाए। होरी अपनी साइकिल को स्टैंड पर लगाकर मेरे एमरजेन्सी बैग की ओर लपकता है। मैं हाथ के इशारे से उसे रोकता हूँ। साइकिल स्टैंड पर खड़ी करके एमरजेन्सी बैग कैरियर से निकालता हूँ।
होरी झोंपड़ी के दरवाज़े में गुम हो गया। अँधेरा और मनहूसियत! इस बात का ध्यान रखते हुए कि पट्टी या चौखट सर से न टकराए, मैं कुछ झुककर भीतर क़दम रखता हूँ। तेज़ बदबू का एक झोंका अचानक धकेलता है। घबराहट में मेरा सिर ऊपर उठता है और ज़ोर से पट्टी के साथ टकरा जाता है। मेरे होश उड़ जाते हैं। खुद को सँभालते हुए जेब से रूमाल निकालकर नाक से लगाए रखता हूँ।
बदबू बर्दाश्त करते हुए, दिल मज़बूत करके मैं झोंपड़ी में आता हूँ। बिना चादर सन की रस्सी की खाट पर अट्ठाईस-तीस साल का हड्डी और मांस का ख़ाका, बेजान-सा पड़ा है। खाट के आसपास उल्टी की गंदगी है। झोंपड़ी में सब कुछ बिखरा-सा है। पैबंद लगे कपड़े, गोल मोल मोड़े बिस्तर, चक्की, मरीज़ की बेलिबास खाट, गंदगी और उल्टी - कुल मिलाकर एक अजीब हिकारत की भावना उत्पन्न कर रहे हैं। होरी के बताए हुए परिवार के सभी सदस्य मरीज़ के आसपास हैं। उसकी पत्नी झोपड़ी में कोने में, चेहरे पर घूंघट डाले हुए, घुटनों में अपना सिर दबाए बैठी है। बुड्ढा ग़मगीन अंदाज में खाट के एक तरफ़ बैठा है। बुढ़िया और तीन बच्चे खाट के पायदान की ओर बैठे हैं।
मेरे भीतर घुसते ही बुड्ढा अपनी जगह पर खड़ा हो जाता है और बूढ़िया झोपड़ी में क़ायम मातमी ख़ामोशी को तोड़ती हुई मेरी ओर बढ़ती है - ‘मेरे बेटे को बचाओ, डॉक्टर साहब। ’
नाक़ाबिले बर्दाश्त बदबू को सहने की कोशिश करते, बुढ़िया की दीनता से विनय करती आँखें और डॉक्टर साहब का संबोधन मुझमें खीझने का सबब पैदा करते हैं। बुढ़िया को डाँटने को जी करता है। उसी वक़्त मरीज़ खाट की ईस पर छाती लगाए उल्टी करता है। छींटों से बचने के लिये मैं तुरंत दो क़दम पीछे हट जाता हूँ। फिर ध्यान आता है कि ज़मीन पर पड़ी गंदगी में ख़ून की मात्रा बढ़ गई है।
गंदगी से बचते हुए मैं मरीज़ के क़रीब जाता हूँ। एमरजेन्सी बैग खोलकर टार्च निकालता हूँ। झोंपड़ी में अंधेरा और बेपनाह सीलन है। बिना टार्च जलाए एमरजेन्सी बैग की हालत देखनी भी मुमकिन नहीं।
टार्च जलाता हूँ गनीमत है, एमरजेन्सी बैग में सब सलामत है। मुझे तसल्ली होती है कि थप्पड़ लगते-लगते रह गयी है। अब बेफ़िक्र होकर टार्च की रोशनी मरीज़ की आँखों पर डालता हूँ। देखते ही चौंक जाता हूँ। लगता है पानी की कमी के कारण किसी भी समय उसका दम निकल सकता है।
‘कब से तकलीफ़ है? ’ मैं सावधान हो गया हूँ।
‘कल रात से दस्त व उलटियाँ हैं। पानी की एक बूँद भी पेट में नहीं टिकती। ’
‘कल कितनी बार उलटियाँ की हैं? ’
‘बार-बार आ रहीं हैं, डॉक्टर साहब। ’ बुढ़िया ने बेबसी में हाथ फैलाते हुए कहा - ‘अब तो ख़ून भी आ रहा है’ उसकी आवाज़ भर्रा गई।
इन्टरावेन्स ग्लूकोज़ उसकी पहली ज़रूरत है। एमरजेन्सी बैग खोलकर स्टेथेस्कोप निकालता हूँ। जाँच करते हुए हिदायत देता हूँ - ‘किसी साफ़ बर्तन में पानी गर्म करो और यह ज़मीन भी साफ़ कर दो। बाहर से मिट्टी लाकर इसपर डाल दो। ’
अचानक मुझे होश आता है। यह क्या कर रहा हूँ मैं? यहाँ से फ़ीस मिलने की उम्मीद तो नहीं है, मेहनत को भी गोली मारो। पर क्या इन्ट्रावेन्स इंजेक्शन भी अपनी जेब से लगानी होगी? ऐसा ही अगर करता रहा तो हो गई यहाँ नौकरी! उलटी बंद करने की इन्जेक्शन इसे पहले लगानी पड़ेगी , जो कि डेढ़-दो रुपये की है। पर ग्लूकोज़ के इन्जेक्शन तो महंगे पड़ जाएँगे।
‘मैं नुस्खा लिखकर देता हूँ, तुम जल्दी से जाकर ले आओ। पंद्रह-बीस रुपये साथ में ले जाना। ’ स्टेथेस्कोप को समेटते हुए मैं होरी से कहता हूँ।
बुड्ढे-बुढ़िया ने मजबूर नज़रों से एक दूसरे की ओर देखा। मैं दिल में खुसर-पुसर करता हूँ - ‘अरे तो क्या, तुम्हारी दवा का पैसा भी डॉक्टर दे, हूँ....!’
मैं ख़ुद को नुख़्सा लिखने में मसरूफ़ रखता हूँ। परची होरी को देता हूँ। बुढ़िया होरी को साथ लेकर झोंपड़ी के बाहर निकल जाती है। बाहर से फुसफुसाहट सुनाई देती है। फिर आवाज़ आती है - ‘बहू बाहर तो आना। ’
मरीज़ की घरवाली पहली बार हिली है, अब तक मैले कपड़ों की गठरी की तरह कोने में पड़ी थी। उठते ही उसके पैरों में पड़े चांदी के दो मोटे कड़े आपस में टकराकर आवाज़ पैदा करते हैं। जल्दी ही बूढ़े को भी बाहर बुलाया जाता है। उन तीन निर्बल बच्चों की मौजूदगी के बावजूद भी मुझे, बूढ़े के बाहर जाते ही झोपड़ी में बेहद सन्नाटे का अहसास घेर लेता है। मौत-सा सन्नाटा!
बुढ़िया और उसकी बहू अन्दर आती हैं। इस बार आवाज़ न सुनकर मैं उसके पैरों की ओर देखता हूँ। वहाँ कड़े नहीं हैं। बूढ़ा शायद होरी के साथ चला गया है।
मेरी हिदायतें अमल में लाई जा रही हैं। बुढ़िया बाहर से मिट्टी लाकर खटिया के आसपास बिछा रही है। उसकी बहू अल्यूमिनियम की कटोरी में पानी भरकर बाहर गई है। मैं सिरिंज और नीडिल लेकर बाहर आता हूँ। अल्यूमिनियम की कटोरी जलते हुए ओपलों पर रखी हुई है। मैं झुककर देखता हूँ कि पानी साफ़ है या नहीं, फिर सिरिंज और नीडिल पानी में डाल देता हूँ।
‘कटोरी को किसी बर्तन से ढक दो। ’ मैं भीतर आते हुए कहता हूँ।
उसी वक़्त ही मरीज़ उलटी करता है। पहले की तरह मैं झटके से पीछे हटता हूँ, पर इस बार कुछ छींटे मेरी जीन्स को ख़राब कर देते हैं। गुस्से भरी नज़रों से पहले हाँफते हुए मरीज़ को और फिर बुढ़िया की ओर देखता हूँ। मेरी आँखें बुढ़िया की आँखों से टकरा जाती हैं। उसकी आँखों में बेचैनी, निराशा, याचना, मजबूरी और बेबसी झलक रही है। न जाने क्यों वे आँखें मुझे अन्दर तक सुराख़ करती हुई महसूस हुईं। मैं जेब से रूमाल निकाल कर ख़ून साफ़ करने लगा हूँ। जीन्स पर ख़ून के दाग़ हैं। अभी-अभी की गई उलटी की ओर देखता हूँ, वहाँ भी ख़ून के सिवाय कुछ नहीं।
‘उसकी उल्टी में ख़ून क्यों आ रहा है, डॉक्टर साहब? ’ बुढ़िया ने बेहद घबराई हुई आवाज़ में पूछा।
अगर बैग से ग्लूकोज़ का इन्जेक्शन निकाल कर मैंने उसे नहीं लगाया तो वह मर जाएगा। इच्छा के विरुद्ध मेरे हाथ बैग की ओर बढ़े हैं। पर जल्द ही ख़ुद को रोक लेता हूँ। मेरा तो पेशा ही ऐसा है, किस-किस पर दया करूँगा? घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या, पेट कैसे भरेगा?
बुढ़िया जवाब न पाकर मिट्टी लेने के लिये फिर बाहर चली गई है। उसकी बहू ने उबलते पानी की कटोरी लाकर मेरे सामने रखी है। मैं बैग खोलकर उलटी रोकने की इन्जेक्शन लगाने की तैयारी में जुट गया हूँ।
बुढ़िया हलके हाथ से मिट्टी बिछा रही है। उसकी बहू फिर से जाकर कोने में बैठ गई है।
‘होरी गया? ’ बुढ़िया की आवाज सुनकर मैं दरवाज़े की तरफ़ देखता हूँ। बूढ़ा लौट आया है। सफेद बालों वाला उसका सिर ‘हाँ’ में हिल रहा था।
इन्जेक्शन तैयार करके, टार्च जलाई। बूढ़े को टार्च की रोशनी डालने के लिये कहकर, मैंने उसे अपने पास आने का इशारा किया। मरीज़ की नस पकड़ी। बूढ़े से बाँह पकड़वाई और मैंने सुई नस में डाली। ख़ून सिरिंज में आने लगा। मैं आहिस्ते-आहिस्ते इन्जेक्शन लगाने लगता हूँ।
‘होरी कितनी देर में आएगा? ’ मैं बूढ़े से पूछता हूँ।
‘जल्दी ही आ जाएगा। ’ वह भर्राए स्वर में जवाब देता है।
‘अम्मा, पानी,’ मरीज़ ने होंठो में कहा। बुढ़िया पानी लेने के लिये लपकती है। मैं उसे रोकता हूँ।
‘नहीं, अब पानी मत दो। वरना फिर उलटी करेगा। ’
बुढ़िया रुक गई। लड़का बेहद प्यासी निगाहों से माँ की ओर देख रहा है। आँखें चुराते हुए वह बेटे के सिरहाने जाकर उसके बालों में उँगलियाँ फेरने लगी।
लड़के की प्यासी आँखें फिर ऊपर उठाकर माँ को तकने लगीं। उसका मुँह खुला हुआ था। उँगलियाँ फेरते-फेरते बुढ़िया बेटे की पेशानी पर झुक आई है। ‘टप-टप’ आँखों से निकलकर दो आँसूं सीधे उसके बेटे के मुँह में जाकर पड़े हैं। लड़के ने जीभ को होठों पर फिराने की कोशिश की है और अचानक उसकी आँखें घूम जाती हैं। सिर झटके के साथ बाईं ओर लुढ़क गया है। मैं फुर्ती से उसके हार्ट पर झुककर, हाथ से नब्ज़ पकड़ने की कोशिश करता हूँ। वहाँ कुछ भी नहीं है, पथराई आँखों में प्यास लिये एक निर्जीव जिस्म मेरे सामने है, बस!
एक दर्दनाक चीख़ के साथ बुढ़िया बेटे के ऊपर गिर पड़ी है। बूढ़े ने ज़मीन पर बैठकर खाट की पाटी पर अपना सिर रख दिया। बहू दौड़ती आई है और मर्द पर बिछ कर विलाप करती रो रही है। बड़ों को रोते देखकर छोटे भी ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे है। झोंपड़ी में कोहराम मच गया है।
सिर झुकाए मैं बाहर निकल गया हूँ। रुदन लोगों को खींचने लगा है। आने वालों में से एक ने हिचकिचाते मुझसे पूछा - ‘दीनू... दीनू... मर गया क्या? ’
मेरे जवाब मिलने का इन्तज़ार करने से पहले ही वह झोपड़ी में घुस गया है। मैं यहाँ से, इस माहौल से, इस गाँव से जल्द से जल्द निकल जाना चाहता हूँ। पहला केस, वह भी मर गया। फ़ीस गई। जेब से इन्जेक्शन लगाई, जीन्स ख़राब की, इतना करने के बाद भी बदनामी हिस्से में आएगी।
भीतर जाने की इच्छा बिलकुल नहीं है। मगर एमरजेन्सी बैग झोंपड़ी में ही रह गया है। अन्दर जाना पड़ रहा है। वहाँ कृंदन और दिलासों का तूफ़ान बरपा है।
खड़े हुए लोगों में से एक ने मेरी तरफ़ देखा है। मैं मौक़े का फ़ायदा ले रहा हूँ। ‘मेरी बैग उठाकर दो। ’
बूढ़े का सिर अब भी खाट की पाटी पर झुका हुआ है। मेरी आवाज़ सुनकर वह ऊपर देखता है। मैं बैग लेकर बाहर निकलता हूँ तो वह भी मेरे पीछे आता है। संवेदना जताने के लिए मैं कहता हूँ - ‘मुझे अफ़सोस है बाबा, मैं तुम्हारे बेटे को न बचा पाया। ’
‘मौत को आज तक कौन रोक पाया है डॉक्टर साहब’ कहकर वह सिसक-सिसककर रो रहा है।
कुछ भी समझ में न आने के कारण मैं उसके बाजू में खड़ा रहा हूँ। जल्द ही ख़ुद को संभालकर, वह धोती के कोने से अपने आँसू पोंछ लेता है। फिर इन्तहाए संकोच से कहता है - ‘डॉक्टर साहब! हम ग़रीब आपकी और कोई ख़िदमत नहीं कर पाए। पर...!’
फिर धोती की परतों में एहतियात से बंधे हुए एक पाँच और एक दो रुपये वाला नोट अपने दाहिने हाथ से निकालकर मेरी ओर बढ़ाता है। दाएँ हाथ को छूती बाएँ हाथ की उँगलियाँ उसकी श्राघा के मनोभावों का इज़हार कर रही थीं।
बहू के कड़े बेचकर इन्जेक्शन के लिये रुपये देने के बाद, बचे हुए सात रुपये मेरी फ़ीस... और कफ़न...? अंदर पड़ी हुई लाश का कफ़न कहाँ से आएगा?
मैं झटके से साइकिल लेकर भाग निकलता हूँ।
और अब लेटे-लेटे सोच रहा हूँ, मेरी एमरजेन्सी बैग में रखे ग्लूकोज़ के इन्जेक्शन की क़ीमत क्या इतनी ज़्यादा है? एक ज़िन्दगी?