ख़ूबसूरत ज़िंदगी के माथे पर … / सुधा गुप्ता

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सुश्री मंजु मिश्रा का शीघ्र प्रकाश्य कविता संग्रह – ‘जिदगी यूँ तो ....’ मेरे सामने है. इसमें छोटी-बड़ी कुल 141 कविताएँ हैं। इससे पूर्व मैंने मंजु जी के हाइकु और ताँका पढ़े थे, उनसे प्रभावित भी हुई थी. उनकी कविताओं से प्रथम साक्षात्कार है। कविताएँ क्या हैं - ज़िंदगी के हर रंग, हर स्वाद, पुलक और सिहरन को, अनमने क्षणों को, अनसुलझे सवालों को सामने रखती चली जाती हैं.... कभी आप डूब जाते हैं, कभी उतरा आते हैं, कभी सहमे-से खड़े रह जाते हैं ! एक बुद्धिजीवी स्त्री का विविध रंगों भरा संसार आपके सामने खुलता जाता है पन्ने दर पन्ने .....

सुश्री मंजु मिश्रा प्रवासी भारतीय हैं और भारत आना कभी कभी होता है; किन्तु भारत की माटी की महक से सनी-पुती, देश-प्रेम से लबरेज़, देश के प्रति गहन आसक्ति में डूबी, आतंकवाद के दर्द में पगी, पर्यावरण-समस्या और समकालीन राजनीति से संत्रस्त, गिरते मूल्यों की भयावहता के प्रति पूर्ण सचेत एवं चिंतातुर उनकी कविताओं को पढ़कर यह विश्वास करना कठिन होगा कि कवयित्री प्रवासी है... देश की हर पीड़ा, हर समस्या को वह जिस ईमानदार कोशिश के साथ साँझा करती है, उससे यही कहना पड़ता है कि वह कहीं भी रहें, दिल उनका भारत में ही धड़कता है ! कवयित्री की यह बहुत बड़ी उपलब्धि है! ‘आज गंगा रोई है खून के आँसू’, ‘ ऐ मेरे देश’, ‘अँधेरों अपनी ताकत पे इतराना मत’, ‘जंग’, ‘ एक और बम विस्फोट’, ‘गणतंत्र के तिरसठ वर्ष’, ‘जागो’ शीर्षक कविताएँ मेरे कथन का सशक्त प्रमाण हैं ।

कविता-संग्रह का दूसरा रंग है प्रेम.... जिसकी एक छटा है ’वात्सल्य’ अपनी प्यारी बेटी को संबोधित करते हुए ‘अगर तुम न होती’, ‘मेरी बिटिया’, ‘मेरी बेटी’ कविताएँ वात्सल्य में डूबी माँ के हृदय का वह परितृप्त कोना खोलती हैं, जिस तृप्ति को पाकर नारी स्वयं को पूर्ण समझती है। प्रेम की दूसरी छटा है मानव-मानवी के आदिम आकर्षण, अनुराग और आसक्ति के प्रखर रंग-बिरंगे छींटों से सजी कविताएँ भी संग्रह में यत्र-तत्र बिखरी हैं। जहाँ भाव प्रवण कवयित्री की लेखनी अनायास शोख हो उठती है और ’ज़िंदगी कचनार हो गई’ जैसी मोहक कविताएँ रच देती है और ’सहरा सी ज़िंदगी नखलिस्तान हो जाती है पल भर में’  !

संग्रह का प्राण-तत्त्व है इंसानी रिश्तों की आधार-भूमि पर रची गई वे सशक्त कविताएँ जो रिश्तों की अबूझ पहेली को सुलझाने की की एक पुरज़ोर कोशिश हैं, जहाँ ’दिए के साथ आँधियों से रिश्ता’ कायम करने की चुनौती है, जहाँ हर तकलीफ, दर्द, तड़प और अलगाव के बजूद इंसानियत को बचाए रखने की सलाह देते हुये कवयित्री मनोभूमि के उस उदात्त धरातल पर पहुँचकर अपना मुक़ाम हासिल करती है जो प्रायः दुर्लभ है ! रिश्तों को व्याख्यायित करती लगभग आधा दर्जन कविताएँ - ‘एक घर में’, ‘बेजान रिश्ते, ‘रिश्ते रिश्ते हैं’, रिश्ते होते हैं एक दूसरे को सँभालने के लिए’, ‘संबंधों के समीकरण’ आदि कवयित्री की धारदार सोच, प्रखर बुद्धिजीवी महिला की तर्क-संगत, तटस्थ और मौलिक चिंतन धारा की परिचायक हैं, जहाँ भावना का ग़ैर जरूरी घाल-मेल नहीं वरन उलझनों को शुद्ध बुद्धि के द्वारा सुलझाने और हल ढूँढने के सकारात्मक प्रयत्न हैं। ‘अलगाव’ से सम्बंधित तीन छोटी रचनाओं को कथ्य की दृष्टि से सर्वाधिक सशक्त, विवेक पूर्ण रचना मानना होगा।

शिल्प देखें तो विधाओं की दृष्टि से वैविध्य है - कविता, गीत, मुक्तक, दोहे, हाइकू, शेर और क्षणिकाएँ - सभी कुछ है यहाँ.... भाव देखें तो मन की तरंग है, शैशव की स्मृति है, पलाश और कचनार के ख़ुशनुमा रंग है, नन्ही गौरैया भी है... और फ़िर सहसा कोई कविता पढ़ते-पढ़ते ऐसी अव्यक्त मासूम उदासी घेर लेती है कि मेघ-घिरा मन इन्द्रधनुषी होते-होते बदरंग-मटमैला हो उठता है ! मंजु जी की कविताओं का यह उदास स्थाई भाव मुझे बहुत मोहता है....संग्रह की शीर्षक कविता का जिक्र किये बिना यह परिचयात्मक पंक्तियाँ अधूरी रहेंगी। ‘ज़िंदगी यूँ तो..’ में कवयित्री का निष्कर्ष है - ’ज़िंदगी जीना / एक हुनर- सा है / जो सीख गया / वो ज़िंदगी की बाज़ी / जीता, नहीं तो हारा ’ निःसंदेह यह कविता-संग्रह इस हुनर को सीखने की एक सार्थक पहल है और मै इस रूप में संग्रह का हार्दिक स्वागत करते हुए शुभकामनाएँ उन्हें अपनी शुभकामनाएँ भेजती हूँ।

                                               सुधा गुप्ता,०1 जून, 2012