ख़्वाबों की खूशबू(हाइकु डॉ.हरदीप संधु) / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु'
25 जून, 2010 को हरदीप सन्धु ने अपने ब्लॉग 'शब्दों का उजाला' पर लिखा था-"मैं तो हर मोड़ पर... हर समय ...कोई भी नई बात...किसी से भी...छोटा हो या बड़ा...सीखने को हमेशा तैयार रहती हूँ। मैं सभी भाषाओं का सम्मान करती हूँ। —" आगे लिखा था-"अंग्रेज़ी भाषा पेट की भूख मिटाने का साधन बनी। हिन्दी और पंजाबी भाषाएँ आत्मा की खुराक बनीं।" मैंने 20 जुलाई को इनके ब्लॉग को पढ़ा तो मुझे इनकी सहज साफ़गोई और वैचारिक निश्छलता अच्छी लगी। इन्होंने हिन्दी हाइकु का लिंक मुझे भेजा। मैंने भी कुछ हाइकु भेज दिए. यह जानकर भी कि मेरा सुझाव कहीं नागवार न लगे, ब्लॉग के बारे में ससंकोच अपना मन्तव्य भी लिख दिया; क्योंकि हिन्दी हाइकु के बारे में कुछ अनजान लोग सलाह का काम कम गुमराह करने का काम ज़्यादा कर रहे थे। एक दिन सन्देशा मिला कि आपको 'हिन्दी हाइकु' में सहयोग करना है। मैंने रचनात्मक सहयोग समझकर हाँ कर दी। तब हरदीप जी ने मुझे बड़े अपनेपन से कहा कि भैया आपको हाइकु के सम्पादन में सहयोग करना है। मुझे कोई आपत्ति नहीं हो सकती थी; लेकिन हरदीप जी ने मेरा नाम भी सम्पादन में जोड़ दिया। यह 8 अगस्त का दिन था। हरदीप जी ने कहा कि आप भी हाइकु पोस्ट करेंगे। मैं अवाक् रह गया। इतना विश्वास कोई अति आत्मीय ही कर सकता है।
इससे पूर्व मैं और डॉ भावना कुँअर 2009 से ही हाइकु पर कुछ काम करने का मन बना रहे थे। हम चाहते थे कि 'तारों की चूनर' जैसे गुणात्मक हाइकु लिखने के लिए कार्य किया जाए. इसे ईश्वरीय संयोग ही कहिए कि हम तीनों में हाइकु विधा को लेकर जो विचार साम्य था, उसने हमको परम आत्मीय का स्वरूप दे दिया। हिन्दी हाइकु के लिए एक प्रयास यह किया गया कि जो अच्छे कवि हैं, उनको हाइकु से जोड़ा जाए ताकि हाइकु में काव्य का समावेश हो, सिर्फ़ 5+7+5=17 का खिलवाड़ न हो, जो कि एक भीड़ बरसों से करके वितृष्णा पैदा कर रही थी। 'हिन्दी हाइकु' से भी कुछ (संख्या में बहुत कम) ऐसे ही 'शॉर्ट कट' तलाशने वाले लोग एक दो पोस्ट तक जुड़े फिर गायब हो गए. सुखद बात यह रही कि संवेदना, चिन्तन, कल्पना, भाषा पर गहरी पकड़वाले लोग अधिक रहे हैं, जिनमें ऐसे नाम भी थे; जो अन्य विधाओं के भी समर्थ रचनाकार हैं। इनमें प्रमुख हैं-अनिता ललित, अनीता कपूर, अनुपमा त्रिपाठी, अमिता कौण्डल, आरती स्मित, इन्दु रवि सिंह, उमेश महादोषी, उमेश मोहन धवन, उर्मि चक्रवर्ती, उषा अग्रवाल 'पारस' , ॠता शेखर 'मधु' , ॠतु पल्लवी, कमला निखुर्पा, कृष्णा वर्मा, क्रान्तिकुमार, चन्द्रबली शर्मा, जया नर्गिस, जेन्नी शबनम, ज्योतिर्मयी पन्त, ज्योत्स्ना प्रदीप, ज्योत्स्ना शर्मा, तुहिना रंजन, दविन्द कौर सिद्धू, दिलबाग विर्क, नवीन चतुर्वेदी, निर्मला कपिला, नूतन डिमरी गैरोला, पुष्पा मेहरा, प्रियंका गुप्ता, भावना सक्सैना, मंजु गुप्ता, मंजु मिश्रा, मंजुल भटनागर, मुमताज़-टी एच खान, रचना श्रीवास्तव, राजीव गोयल, रेणु चन्द्रा माथुर, वरिन्दरजीत सिंह बराड़, शशि पाधा, शशि पुरवार, शैफाली गुप्ता, शोभा रस्तोगी शोभा, श्याम सुन्दर 'दीप्ति' , श्याम सुन्दर अग्रवाल, सरस्वती माथुर, सीमा स्मृति, सुधा ओम ढींगरा, सुनीता अग्रवाल, सुप्रीत संधु, सुभाष नीरव, सुभाष लखेड़ा, सुरेश यादव, सुशीला शिवराण, हरकीरत 'हीर' आदि प्रमुख हैं। इनके अलावा स्थापित रचनाकारों में डॉ सुधा गुप्ता, डॉ भगवत शरण अग्रवाल, डॉ रमाकान्त श्रीवास्तव, नलिनी कान्त, नीलमेन्दुसागर, डॉ उर्मिला अग्रवाल, डॉ गोपाल बाबू शर्मा, डॉ मिथिलेश दीक्षित, डॉ भावना कुँअर, डॉ सतीशराज पुष्करणा, राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी बन्धु, रमेश चन्द्र श्रीवास्तव, हरेराम समीप, मीनाक्षी धन्वन्तरि आदि रचनाकार भी हिन्दी हाइकु से जुड़े। आज 'हिन्दी हाइकु' पर 221 रचनाकारों के 8 हज़ार से ज़्यादा हाइकु हैं। हिन्दी के इतने हाइकु इतने कम समय में 'हिन्दी विश्व' में कहीं संगृहीत नहीं हैं। इसका मुख्य कारण था-डॉ हरदीप सन्धु का सबको साथ लेकर चलना, सबको उदारतापूर्वक अपने परिवार का हिस्सा मानना। यही रचनात्मक सहयोग डॉ भावना कुँअर के साथ सम्पादन के क्षेत्र में और आगे बढ़ा। जो स्वयं इतना उदार और निर्मल हृदय का धनी हो, तो उसका रचनात्मक संसार अवश्य कुछ नयापन लिये हुए होगा।
'ख़्वाबों की खुशबू' उसी नएपन की एक इबारत है। निष्ठापूर्वक हिन्दी हाइकु, त्रिवेणी और हाइकुलोक (पंजाबी में 5-7-5 का अनुपालन करते हुए) का सम्पादन, नौकरी, परिवार की देखभाल के साथ इतना समय नहीं निकाल पा रही थी कि अपने हाइकु की फ़ाइल बनाएँ। एक दिन मैंने कह दिया-'जब तक आप अपने हाइकु की फ़ाइल नहीं बनाएँगी तब तक मैं अपना कोई संग्रह प्रकाशित नहीं कराऊँगा।' बड़े भाई का यह अल्टीमेटम काम कर गया और पाण्डुलिपि तैयार हो गई. 'ख़्वाबों की खुशबू' के ये 584 हाइकु पाठकीय सुविधा के लिए नौ भागों में बाँटे गए हैं-1-गाँव वह मेरा, 2-बिखरी यादें, 3-रिश्ते जीवन के, 4-ज़िन्दगी के सफ़र में, 5-एक अनोखा सच, 6-प्रकृति, 7-पावन एहसास, 8-संसार-सरिता, 9-त्रिंजण।
अपनी जन्म भूमि से दूर आस्ट्रेलिया में आकर कवयित्री को अपना गाँव, गाँव के खेलकूद, लोक नृत्य, खानपान, परिवारी जन का स्नेह, उनकी आत्मीयता, उनके रीति रिवाज सभी बहुत याद आते हैं। मैं यह कहना चाहूँगा कि डॉ सन्धु के हाइकु उस गाँव की तलाश में भटकते-तरसते नज़र आते हैं। इतनी गहराई और सूक्ष्मता से ग्राम्य जीवन का वर्णन कम से कम हाइकु में तो अब तक नहीं हुआ है। कभी ओटे पर छपी मूरतें याद आती हैं, तो कभी समवयस्कों के साथ खेले डण्डा डुक, नूण निहाणी व्याकुल करते हैं तो कभी लोक नृत्य किकली की स्मृतियाँ आँखों में तैरती हैं, चाटी (कढ़े हुए दूध की) की लस्सी का अमृतमय स्वाद, कभी मुहल्ले में गुलगुलों और मठरी की तैरती हुई खुशबू लुभाती है। इन सबके बीच बाण की खाट की डिब्बीदार छाँव का अलग ही आनन्द है।
1-चिड़िया तोते / ओटे छपी मूरतें / चहकी यादें।
2-पीपल नीचे / खींच चक्र खेलते / वे डण्डा डुक।
3-हम उमर / रेतीले टिब्बे खेलें / नूण-निहाणी।
4-ठण्डी हवाएँ / नाच किकली* डालें / अल्हड़ जवाँ।
5-चाटी की लस्सी. गाँव जाकर माँगी / अम्मा हँसती।
6-सावन-झड़ी / गुलगुले-मठरी / माँ की रसोई.
7-बाण की खाट / डिब्बीदार छाँव / मिलती कहाँ।
लेकिन वह गाँव इतने वर्षों बाद एक सपना बनकर रह गया है। वह गाँव आज गायब है। उस गाँव में बूँद-बूँद को तरसते मटके हैं; क्योंकि पीने का पानी भी भूमिगत जलदोहन के कारण दुर्लभ हो गया। अब पीपल के नीचे डेरा जमाने वाले बाबा भी नज़र नहीं आते। बर्तनों पर कली करने वाला ठठेरा भी अब नज़र नहीं आता। सबके रोज़गार और कुटीर उद्योग विकास की दौड़ में शामिल पागल हाथी जैसे कारखानों ने छीन लिये हैं। रुपया-पैसा ज़रूर आ गया, लेकिन इस भावशून्य समृद्धि ने हमारे आत्मीय सम्बन्ध भी हड़प लिये हैं। कवयित्री उस बड़े परिवार को याद करती है, जो एक ठिकाने पर अभावों के बीच भी प्रेमपूर्वक रहते थे। सबको याद करके एक ठण्डी आह निकलती है। ताई का कैमरे के सामने पड़ने पर मुँह छुपाना और लाज के कारण फोटो खिंचवाने से मना करने का कितना सहज चित्रण किया है!
1-गाँव जाकर / मुझे मिला ही नहीं / गाँव जो मेरा।
2-बूँद-बूँद को / तरसा अब प्यासा / मटका तेरा।
3-कहीं न मिलें / पीपल नीचे बाबा / जमाते डेरा।
4-कली करने / पीतल के बर्तन। आए ठठेरा।
5-क्या था ज़माना! / बड़ा था परिवार, / एक ठिकाना।
6-कैमरा क्लिक / मुँह छुपाए अम्मा / ताई कहे न!
जब हरदीप दादी द्वारा उपले तोड़कर हारे में डालने का, बादल छाने पर उपले ढकने का, बाड़े में गुहारा (बिटौड़ा) बनाने का चित्र खींचती हैं, तो गाँव सजीव हो उठता है। हाइकु के नाम पर मुँह बिचकाने वालों को यह देखना चाहिए कि यह जापानी संस्कृति का चित्रण है या पंजाब के किसी गाँव की सौंधी माटी का सजीव चित्र! भारतीय छन्दों में, यह गाँव कितना है, कहाँ है? ज़रा तलाश करें। रातों को पहरा देती बापू की खाँसी की अभिव्यक्ति की तीव्रता को अपने हृदय की धड़कन में तलाशें-
1-तोड़ उपले / दादी हारे में डाले / आग सुलगे!
2-दादी बनाती / जोड़-जोड़ उपले / बड़ा गुहारा।
3-बादल छाए / दादी न चैन पाए / उपले ढके.
4-रात अँधेरी / दे रही है पहरा / बापू की खाँसी.
हमारा जीवन जैसा भी हो, यादें उसका बहुत बड़ा सहारा ही नहीं अटूट सिलसिला भी हैं। हम लाख कोशिश करें, इनसे मुक्ति पाना असम्भव है। यादें हैं कि मन की खिड़की खोलकर किसी किशोरी की तरह किलोल करती रहती हैं। 'बिखरी यादों' में सुख-दु: ख की इन अनुभूतियों को बहुत गहनता से उकेरा गया है। जीवन में इस तरह की ठेस भी लगती है कि समय भी उन ज़ख़्मों को नहीं भर पाता। जो कोसों दूर चले गए, वे केवल स्मृतियों का हिस्सा बनकर रह जाते हैं। मन जब जीवन-संघर्ष के कारण थक जाता है तो यादें ही उसका सहारा बनती हैं-
1-चले गए यूँ / कोसों दूर हमसे / यादों में मिलें।
2-याद उनकी / हर पल है आती / बड़ा रुलाती।
3-याद किशोरी / मन खिड़की खोल / करे कलोल।
4-थका ये मन, / ले यादों का तकिया / जी भर सोया।
5-भूल न पाया, / जब-जब साँस ली; / तू याद आया।
6-वक्त ने भरे / तेरी याद के जख्म / फिर से हरे।
हर व्यक्ति का एक समाज होता है। सामाजिकता ही रिश्तों को जन्म देती है। यदि भार न समझा जाए और आत्मीयता से निर्वाह किया जाए तो हर रिश्ते में जीवन की ऊष्मा समाई हुई है। सन्धु जी ने 'रिश्ते जीवन के' अध्याय में इसे खूबसूरती से पेश किया है। रिश्तों की यह गर्माहट घर-परिवार से लेकर बाहरी दुनिया तक व्याप्त है। बिटिया पर केन्द्रित एक साथ कई हाइकु हैं; जो अपनी विविध भाव-भंगिमा से मुग्ध करने वाले हैं। वह बिटिया कहीं ओस के मोती-सी है, कहीं दिव्य सर्जना है, वह कहीं खुशबू और उजाला बनकर आई है, कहीं चाँदनी है तो कही माँ के हृदय की धड़कन है, तो कही वाणी का रस है। हाइकु जैसे छोटे छन्द में अनुस्यूत बेटी की गौरवगाथा हृदय को छू जाती है। उसी नन्ही को जब पिता गोद में उठाते हैं, तो पूरी दुनिया भूल जाते हैं। अनुभूति और अभिव्यक्ति के स्तर पर सभी हाइकु अपनी शक्ति का अहसास कराते हैं। हिन्दी में किसी एक ही रचनाकार के बेटी पर एक साथ रचे इतने हाइकु मुझे नज़र नहीं आए. सभी हाइकु शब्दजाल या उपदेश से कोसों दूर एक पावनता का अहसास कराते हैं-
1-बिटिया होती / फूल-पंखुरियों पर / ओस के मोती।
2-माँ के आँगन / फूलों जैसी बिटिया / दिव्य सर्जना।
3-जन्मी बिटिया / खुशबू ही खुशबू, / आँगन खिला।
4-कौन है आया! / है किसका उजाला! / जन्मी बिटिया।
5-गोद में नन्हीं / माँ के आँचल में ज्यों / खिली चाँदनी।
6-बिटिया जन्मी / हृदय-धड़कन / ज्यों माँ की बनी।
7-नन्ही को पिता / जब गोद उठाए / दुनिया भूले।
माँ के महत्त्व पर भी जो हाइकु रचे हैं, सभी हृदयस्पर्शी हैं। माँ ईश्वर का ही दूसरा स्वरूप है। माँ का आटे की चिड़िया देकर बेटी को बहलाना, बेटी के बिदा होने पर उसकी गुड़िया और गुड़िया के कपड़ों को देखकर माँ का भावुक होना, कूँज (क्रौन्च पक्षी) का डार से बिछुड़ने की तरह हृदयविदारक है। माँ के हाथों कढ़ाई की गई चादर का स्पर्श बेटी को परम सुख दे जाता है।
1-रब न देखा / तो कोई गम नहीं / रब-जैसी माँ।
2-मुन्नी जो रोए / आटे की चिड़िया से / माँ पुचकारे।
3-बिदाई हुई / गुड़िया व पटोले / नीर बहाएँ।
4-विदा की घड़ी / कूँज बिछुड़ गई / आज डार से।
5-माँ की कढ़ाई / चादर को बिछाऊँ / माँ-स्पर्श पाऊँ।
शिशु का रोना-सोना माँ ही समझ सकती है। उसका रोना माँ के दिल को पिघला देता है। माँ भी उसकी तरह ही तुतलाकर बात करती है जैसे बच्चा सब कुछ समझता हो-
1-कब है सोना / एक माँ ही समझे / शिशु का रोना।
2-शिशु जो रोए / माँ के मोम-दिल को / कुछ-कुछ हो।
3-माँ तुतलाए / शिशु जैसे वह भाषा / पूरी समझे।
दोस्ती को कवयित्री ने फूल-सी नाज़ुक पंखुरी बताया है। इस रिश्ते को बहुत सहेजकर रखना पड़ता है; क्योंकि जीवन के दु: खों में दोस्ती ही प्यार की छुअन है गर्माहट है-
1-फूल-पंखुरी / तितली से पंख-सी / नाज़ुक दोस्ती।
2-सर्द माथे पे / है गर्म हथेली की / छुअन दोस्ती।
चतुर्थ अध्याय " जिन्दगी के सफ़र में' सन्धु जी ने जीवन के यथार्थ को, आने वाली कठिनाइयों एवं झकझोरने वाले संघर्षों के साथ रास्ता तय करने की बात कही है। हताशा-निराशा, छल-प्रपंच जीवन को तोड़ने का काम करते हैं; लेकिन आस्थावान् व्यक्ति विषम परिस्थितियों में भी हार नहीं मानता। जीवन की नदी में वह बिना चप्पू के भी अपनी नौका को खेता जाता है। वह उजाले की एक किरण, प्यार के एक स्पर्श से सबको अपना बनाकर चलता है। कारण है-रिश्ते खून से नहीं, प्यार से बनते और पनपते हैं। सपने तक में भी अपनों को गले लगाना उसी असीम प्यार का उदात्त रूप है। प्यार की यह एकनिष्ठता ही उसके जीवन का आधार बनती है-
1-कैसे जिओगे / जब जीवन से हो / प्यार लापता।
2-चप्पू न कोई / उमर की नदिया / बहती गई.
3-तू मेरा सूर्य / घूमती जाऊँ ऐसे, / मैं तेरी धरा।
4-रक्त से नहीं, / ह्रदय से बनते, / पावन रिश्ते।
5-गले लगाऊँ / मेरे जो हैं अपने / सपनों में भी।
6-दर्द व प्रेम / मुझे जो तूने दिया / आँचल भरा।
'एक अनोखा सच' में जीवन का यथार्थ बोध चित्रित हुआ है। एक ओर जूठन उठाने वाले बच्चे हैं, कटु वचनों का आहत करने वाला प्रभाव, ऊँचे भवनों में भी पर्दे के पीछे दु: खी रहने वाले लोग हैं तो, आज़ादी के बाद एक ऐसा भी वर्ग उभरकर आया है, जो गुलामी के दिनों के शोषण की याद दिला देता है-
1-खाने वालों की / उठा रहे जूठन / ये भूखे बच्चे।
2-छोड़ें निशान / उखाड़ी हुई कील / कड़वे शब्द।
3-ऊँचे मकान / रेशमी हैं परदे / उदास लोग।
4-गैरों ने मारा / अब अपने मारें / आज़ाद हम!
इस पाताली अँधेरे के बीच ऐसे भी हाथ हैं जो सर्जना में लगे हैं। ऐसे ही लोगों के बलबूते पर यह विश्व और समाज बचा हुआ है-
1-कर्म से सजे / सबसे सुन्दर हैं / सर्जक हाथ।
सामाजिक परिवेश का सूक्ष्म चित्रण करने वाला रचनाकार जब 'प्रकृति' से साक्षात्कार करता है, तो वह चप्पे-चप्पे के सौन्दर्य का मनोहारी उद्घाटन भी उसी त्वरा से करता है, जैसे जीवन के अन्य पक्षों का। नीम की छाँव ही नहीं बल्कि उस छाँव में चर्खा चलाती और गुनगुनाती हुई दादी छाँव को और अधिक जीवन्त कर देती है। मानो दादी नहीं वरन् नीम गुनगुना रहा है। वतन से दूर आज भी यह छवि हरदीप जी के मानस-पटल पर उत्कीर्ण है, जबकि समय के ज्वार के साथ सब कुछ बह गया या पीछे छूट गया है-
1-नीम की छाँव / गुनगुनाती दादी / चरखा काते।
प्रकृति का मनमोहक रूप वसन्त के रूप में, ओस के रूप में, नीली आँखों वाली झील के रूप में, घाघरा उठाए घूमती घटाओं के रूप में प्रतिबिम्बित हो रही है। धूप भी विविध भावभंगिमाओं में नज़र आती है। ऐसे हाइकु में भाषा का सौन्दर्य सहज होने साथ और अधिक सम्प्रेष्य हो जाता है। मानवीकरण और बिम्बविधान की छटा इन हाइकु की अतिरिक्त विशेषता है-
1-हरे पात पर / यूँ बन गई मोती / ओस की बूँदें।
2-ऊँचा पर्वत / नीली अँखियों वाली / झील निहारे।
3-घटा घूमती / यूँ घाघरा उठाए / जमीं चूमती।
4-शर्मीली धूप / कोहरे में से छने / सिंदूरी रंग।
5-छुईमुई–-सी / चुप मिले अकेली / धूप सहेली।
दूसरी ओर प्रकृति का रौद्र रूप भी है। हवा के कई भयावह रूप भी हैं। भूगोल से अनभिज्ञ व्यक्ति इस तथ्य को नहीं समझ सकेगा। सन्धु जी ने 'सर्प की फुफकारों' का ध्वनिबिम्ब के रूप में सार्थक और सहज प्रयोग किया है।
1-शीत के दिनों / सर्प—सी फुफकारें / चलें हवाएँ।
प्रकृति का दोहन और विरूपण आज विश्व समस्या बन गई है। विज्ञान की विदुषी होने के कारण सन्धु जी ने प्रकृति में आए चिन्ताजनक परिवर्तन को हाइकु में संवेदना के स्तर पर बहुत कलात्मक ढंग से सफलतापूर्वक चित्रित किया है। वसन्त का रूठना, खुशबू का खो जाना, गूँगे जंगल, धुआँ-धुआँ बादल, मछलियों का रोना और मुकुल का मौन हो जाना बहुत शिद्दत से पेश किया गया है। शब्द चयन की सहजता के कारण सभी हाइकु दिल को छूने की सामर्थ्य रखते हैं-
1-रूठा वसन्त / भेजी न पाती कोई / न नए पात।
2-खोई खुशबू / गुलाब पंखुरियाँ / अश्रु नहाई.
3-गूँगे जंगल / ज़ार-ज़ार रो रहे / जख्मी आँचल।
4-कहाँ से लाएँ? / धुआँ-धुआँ बादल / निर्मल जल।
5-गंदला पानी / रो रही मछलियाँ / वे जाएँ कहाँ!
6-मौन मुकुल / आम पर बौर कहाँ / रोए कोयल।
सातवें अध्याय 'पावन एहसास' में सर्वाधिक यानी 125 हाइकु हैं। इनमें से सभी हाइकु उल्लेख्य लगते हैं। जीवन के सुख-दु: ख, हर्ष-विषाद, प्यार-मुस्कान बहुत सारे पड़ाव हैं, जिनके बीच से होकर जीवन की धारा बहती है-कल-कल, छल-छल। कहीं प्यार है फूलों में बसी खुशबू की तरह, कहीं दु: खों की झड़ी है, कहीं हवाओं में किसी के आँसुओं की नमी जज़्ब है, कहीं दर्द में एक स्पर्श की चाहत है। कहीं जीना और मरना है तो बस उनके लिए, जहाँ प्रेम की एकनिष्ठता और ख़्वाहिश लहू बनकर दौड़ती है। कहीं देने के लिए धन-दौलत न होकर केवल प्यार बचा है। दूसरी ओर प्यार नहीं मिला; लेकिन सारा जीवन प्यार के इन्तज़ार में ही बीत गया। कवयित्री जीवन के विभिन्न कोनों को झाँक आई है, ज्वार-भाटा को छान आई है। ये हिन्दी हाइकु की सशक्त परम्परा का निर्माण कर रहे हैं, अत: अलग से एक पुस्तक का रूप भी ले सकते हैं। कुछ उदाहरण-
1-फूलों के अंग / खुशबू ज्यों रहती / तू मेरे संग।
2-दु: खों की झड़ी / मन और दामन / भिगोती रही।
3-भरी है नमी / जो इन हवाओं में / रोया है कोई.
4-जब हो दर्द / बस एक चाहिए / तुम्हारा स्पर्श।
5-जी-जी के मरें / मर-मर के जिएँ / बिन आपके.
6-जुदा कैसे? / लहू बन दौड़ती / तेरी ख्वाहिश।
7-देने के लिए / कुछ न बचा पास / सिवा प्यार के.
8-सारी ज़िन्दगी / रहा ये इंतजार / कोई दे प्यार।
समय बीतता गया, अब केवल समय बचा है पाखी के उड़ जाने का, पिंजरा खाली करने का। इस हाइकु की करुणा बहुत गहरे तक छू जाती है। अन्त में बचता है-दिल दहला देने वाला खाली फ़्रेम। विश्वास का पाखी हरी शाखाओं पर बसेरा पाने के लिए तरसता है। नेह की उम्मीद की एक किरण फिर भी नज़र आती है-
1-उड़ता पाखी / देखे आखिरी बार / छोड़े पिंजरा।
2-मौन हैं सब / खाली फ्रेम बोलता / दिल डोलता।
3-विश्वास-पाखी / ढूँढ़े हरी शाखाएँ / फैला भुजाएँ।
4-नेह-किरणें / उतरीं मेरे द्वार / लेकर प्यार।
'संसार–सरिता' में कहीं चेहरों का जंगल है, कहीं विकराल भँवर हैं, कहीं प्यार के बदले मिला दर्द का रिश्ता है तो कहीं जीवन के हर कदम पर तपाती धूप है तो दूसरी ओर कहीं धरती पर उतरा चन्द्रमा जैसा मोहक सौन्दर्य है, छलकती हँसी है, कहीं सिर से चूनर फिसलने पर छा जाने वाली घटाएँ हैं जो मन-प्राण शीतल कर देती हैं-
1-चारों ओर है / चेहरों का जंगल / मन अकेला।
2-संसार-नदी / विकराल भँवर / पार हों कैसे?
3-प्यार न पाया / एक दर्द का रिश्ता / सदा निभाया।
4-जब भी मिली / टुकड़े-टुकड़े हो / क्यों धूप मिली।
5-तेरा मुखड़ा / ज्यों आसमाँ का चाँद / जमीं उतरा।
6-छलकी हँसी / ये गगन से जमीं / अपनी लगी।
7-छाईं घटाएँ / ज्यों सिर से फिसली / तेरी चूनर।
इन हाइकु में प्रतीकों के सहज समावेश तथा बिम्बविधान ने चार चाँद लगा देते हैं।
अन्तिम और नौंवा अध्याय है 'त्रिंजण' । त्रिंजण का प्रयोग पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 'तीजन' के रूप में होता है। शहरी सभ्यता की चकाचौंध में हम इन सांस्कृतिक शब्दों का अर्थ और मूल्य भूलते जा रहे हैं। डॉ हरदीप सन्धु का कहना है-*त्रिंजण शब्द पंजाब की लोक संस्कृति से जुड़ा शब्द है। पंजाब की लोक-संस्कृति में चर्खे का विशेष स्थान रहा। आज से तीन-चार दशक पहले अविवाहित लड़कियाँ मिलकर चर्खा काता करती थीं। सामूहिक रूप से चर्खा कातने वाली लड़कियों की टोली को त्रिंजण कहा जाता था। यह संसार भी एक त्रिंजण ही है; जहाँ हम सब मिलकर एक दूसरे के सहयोग से अपना जीवन व्यतीत करने के लिए आए हैं। हमारा मन भावों का त्रिंजण ही है जो दिन-रात भावों के रेशे काता करता है और हम अपने अनुभवों को शब्दों की माला में पिरोकर अभिव्यक्त करते हैं। " संसार की व्याख्या करते ये हाइकु लीक से हटकर गहन-गम्भीर जीवन दर्शन को अभिव्यक्त करते हुए भी बोझिल नहीं, वरन् ग्राह्य है-
1-ये मुलाकातें / मन-त्रिंजण मेले / संदली रातें।
2-मन-त्रिंजण / लो तेरी याद आई / हँसी तन्हाई.
3-मन-त्रिंजण / पत्थर में ढूँढ़ता / प्यारा-सा दिल।
4-मन त्रिंजण / मेरी साँसों से जुड़े / तेरी यूँ साँसें।
5-कात रे मन / संसार त्रिंजण में / मोह का धागा।
6-जग-त्रिंजण / उजली चादर से / ढकता दुःख।
डॉ हरदीप सन्धु का यह हाइकु-संग्रह दूसरी पीढ़ी की परम्परा की सशक्त रचनाकार डॉ भावना कुँअर की परम्परा को समृद्ध करता है तो दूसरी ओर देशान्तर में डॉ भावना कुँअर अकेली रचनाकार थीं, जिनके दो स्तरीय एकल संग्रह प्रकाशित हुए हैं। डॉ हरदीप सन्धु अब दूसरी हाइकुकार है, जिनका एकल हाइकु-संग्रह सामने है। भारत के साथ आस्ट्रेलिया को भी इन दोनों युवा कवयित्रियों पर गर्व होना चाहिए. 'ख़्वाबों की ख़ुशबू' सहृदय पाठकों के मन को अवश्य सुरभित करेगी, ऐसा मेरा विश्वास है।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
नई दिल्ली, 25 जुलाई, 2013