खाई की भरपाई / एक्वेरियम / ममता व्यास
एक बच्चा था बहुत ही मासूम और प्यारा। वैसे तो मांएँ अपने बच्चे को बहुत प्यार करती हैं, लेकिन वह बच्चा अपनी माँ को बहुत प्यार करता था। वह कभी भी अपनी माँ के स्तनों को नहीं छोडऩा चाहता था। अपनी माँ के स्तनों को होंठों में भर लेना, उसे परमानन्द देता था। उसकी दुनिया वहीं से शुरू वहीं पर खत्म होती थी, लेकिन ज़िन्दगी उसी समय आपसे उस चीज को छीनती है, जब आप उस पर निर्भर हो जाते हैं और जब आपको सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है उस चीज की।
बहरहाल, उसकी उम्र बढ़ी और वह मासूम माँ के स्तनों से वंचित हुआ, दुखी हुआ और खोजता रहा, वह सच्चा प्रेम, वह स्पर्श, लेकिन उसे कहीं नहीं मिला। वह बड़ा होने लगा। बड़ा होना, समझदार होना भी एक सजा है। वह कभी भी बड़ा होना नहीं चाहता था। खैर...
प्रेम से दूर होकर वह फिर प्रेम को खोजने लगा। हर स्त्री के स्तन उसे माँ के प्रेम की याद दिलाते और माँ का उसे बार-बार चूमना भी...खूब याद आता। अपने तनाव, अपने दुख, अपनी पीड़ा को लिए वह मन में घुटता रहा। घुटता ही रहा...गुम हुआ वह प्रेम अब फिर कैसे मिलेगा? तलाश करता रहा। अफसोस... स्तन रखने वाली हर स्त्री प्रेममयी हो, ये ज़रूरी नहीं। स्तन तो सभी के पास थे, लेकिन उनमें से प्रेम की मीठी धारा नहीं बहती थी।
वो प्यारा बच्चा प्रेम की उस धारा की खोज में था। अपने होंठों पर उस विलक्षण स्पर्श की स्मृति लिए अब वह बड़ा होने लगा, लेकिन उसके सुन्दर होंठ प्यासे ही रहे।
फिर उसने एक उपाय खोजा उसने सिगरेट पीना शुरू किया। अपने होंठों पर सिगरेट उसे झूठा ही सही, लेकिन लगभग वैसा ही परमानन्द देने लगी। अब उसके सुन्दर सच्चे होंठों पर स्तन नहीं, किसी के होंठ नहीं सिर्फ़ सिगरेट सजने लगी। धीरे-धीरे वह निर्भर हो गया, उस सिगरेट पर। अब वह सिगरेट उसके जीवन का अभिन्न अंग थी। उसकी पीड़ा, उसका क्रोध, उसका दुख, उसके तनाव, उसके दबाव, सब की साक्षी। सभी परेशानियों को वह सिगरेट के संग खुद में जज्ब करने लगा।
जीवन में सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रेम किया। टूटा वह जब-जब, तब-तब उस सिगरेट ने ही मरने नहीं दिया। प्रेम की प्यास ने जब उसे सताया। झट से उसने होंठों पर सिगरेट को सजाया। जब-जब भी दुनिया ने उसे सताया। उसने अकेले में जाकर सिगरेट के साथ खुद को जलाया। जब-जब प्रेम की कोई लहर उसे भिगोने आई, उसने तड़प कर एक सिगरेट सुलगाई.
मुझे तो लगता है। अपने जीवन में उसने अपनी प्रेमिका के होंठों से ज़्यादा सिगरेट को चूमा। उसे उस सिगरेट में अब परमानन्द मिलने लगा था। अपने भीतर उमड़ते प्रेम के झरने को उसने आग से जलाना शुरू कर दिया। खिलते फूलों को धुएँ से ढंक दिया। अपनी तरह का विशेष व्यक्ति था वो। उलटी राहों पर चलता था। रातों को जगता था, उसका आत्म-विश्वास, उसका मनोबल। उसकी ताकत प्रेम नहीं, सिगरेट बन गयी।
उलटी बातें करता था। स्त्री के स्तन से प्रेम की बरसात नहीं करवाता था। गायों के थन से दूध की बात करता था। अपने भीतर के प्रेम को ढंक कर, छुपा कर रखता था। उसके जैसा प्रेमी नहीं देखा। अपनी अनुभूतियों को कैसे छुपा लेता था वो। मांगता नहीं था, सिर्फ़ देने में विश्वास रखता था। अजीब प्यासा था, जो किनारे बैठ कर भी अपनी प्यास छुपाता था। ज़रूर ये सब वह उस सिगरेट के साथ पी जाता होगा। उसने प्रेम की तलाश छोड़ कर सिगरेट को विकल्प बनाया था।
कभी-कभी सोचती हूँ बचपन में जब मन का कोई कोना अतृप्त रह जाता है, फिर ताउम्र उसकी भरपाई नहीं हो पाती। हम जीवन भर उस खालीपन को लिए भटकते हैं लेकिन कोई नहीं भर पाता उस बचपन की खाई को।