खादी का जन्म / सत्य के प्रयोग / महात्मा गांधी
मुझे याद नही पड़ता कि सन् 1908 तक मैने चरखा या करधा कहीं देखा हो। फिर भी मैने 'हिन्द स्वराज' मे यह माना था कि चरखे के जरिये हिन्दुस्तान की कंगालियत मिट सकती है। और यह तो सबके समझ सकने जैसी बात है कि जिस रास्ते भुखमरी मिटेगी उसी रास्ते स्वराज्य मिलेगा। सन् 1915 मे मै दक्षिण अफ्रीका से हिन्दुस्तान वापस आया , तब भी मैने चरखे के दर्शन नही किये थे। आश्रम के खुलते ही उसमें करधा शुरू किया था। करधा शुरू किया था। करधा शुरू करने मे भी मुझे बड़ी मुश्किल का सामना करना पडा। हम सब अनजान थे, अतएव करधे के मिल जाने भर से करधा चल नही सकता था। आश्रम मे हम सब कलम चलाने वाले या व्यापार करना जाननेवाले लोग इकट्ठा हुए थे , हममे कोई कारीगर नही था। इसलिए करधा प्राप्त करने के बाद बुनना सिखानेवाले की आवश्यकता पड़ी। कोठियावाड़ और पालनपूर से करधा मिला और एक सिखाने वाला आया। उसने अपना पूरा हुनर नही बताया। परन्तु मगनलाल गाँधी शुरू किये हुए काम को जल्दी छोडनेवाले न थे। उनके हाथ मे कारीगरी तो थी ही। इसलिए उन्होने बुनने की कला पूरी तरह समझ ली और फिर आश्रम मे एक के बाद एक नये-नये बुनने वाले तैयार हुए।
हमे तो अब अपने कपड़े तैयार करके पहनने थे। इसलिए आश्रमवासियो ने मिल के कपड़े पहनना बन्द किया और यह निश्यच किया कि वे हाथ-करधे पर देशी मिल के सूत का बुना हुआ कपड़ा पहनेगे। ऐसा करने से हमे बहुत कुछ सीखने को मिला। हिन्दुस्तान के बुनकारो के जीवन की , उनकी आमदनी की, सूत प्राप्त करने मे होने वाली उनकी कठिनाई की, इसमे वे किस प्रकार ठगे जाते थे और आखिर किस प्रकार दिन-दिन कर्जदार होते जाते थे, इस सबकी जानकारी हमे मिली। हम स्वयं अपना सब कपड़ा तुरन्त बुन सके, ऐसी स्थिति तो थी ही नही। कारण से बाहर के बुनकरो से हमे अपनी आवश्यकता का कपड़ा बुनवा लेना पडता था। देशी मिल के सूत का हाथ से बुना कपड़ा झट मिलता नही था। बुनकर सारा अच्छा कपड़ा विलायती सूत का ही बुनते थे , क्योकि हमारी मिले सूत कातती नही थी। आज भी वे महीन सूत अपेक्षाकृत कम ही कातती है , बहुत महीन तो कात ही नही सकती। बडे प्रयत्न के बाद कुछ बुनकर हाथ लगे , जिन्होने देशी सूत का कपडा बुन देने की मेहरबानी की। इन बुनकरो को आश्रम की तरफ से यह गारंटी देनी पड़ी थी कि देशी सूत का बुना हुआ कपड़ा खरीद लिया जायेगा। इस प्रकार विशेष रूप से तैयार कराया हुआ कपड़ा बुनवाकर हमने पहना और मित्रो मे उसका प्रचार किया। यों हम कातनेवाली मिलो के अवैतनिक एजेंट बने। मिलो के सम्पर्क मे आने पर उनकी व्यवस्था की और उनकी लाचारी की जानकारी हमे मिली। हमने देखा कि मिलो का ध्येय खुद कातकर खुद ही बुनना था। वे हाथ-करधे की सहायता स्वेच्छा से नही , बल्कि अनिच्छा से करती था।
यह सब देखकर हम हाथ से कातने के लिए अधीर हो उठे। हमने देखा कि जब तक हाथ से कातेगे नही, तब तक हमारी पराधीनता बनी रहेगी। मिलो के एजेंट बनकर देशसेवा करते है , ऐसा हमे प्रतीत नही हुआ।
लेकिन न तो कही चरखा मिलता था और न कही चरखे का चलाने वाला मिलता था। कुकड़ियाँ आदि भरने के चरखे तो हमारे पास थे, पर उन पर काता जा सकता है इसका तो हमे ख्याल ही नही था। एक बार कालीदास वकील एक वकील एक बहन को खोजकर लाये। उन्होने कहा कि यह बहन सूत कातकर दिखायेगी। उसके पास एक आश्रमवासी को भेजा , जो इस विषय मे कुछ बता सकता था, मै पूछताछ किया करता था। पर कातने का इजारा तो स्त्री का ही था। अतएव ओने-कोने मे पड़ा हुई कातना जाननेवाली स्त्री तो किसी स्त्री को ही मिल सकती थी।
सन् 1917 मे मेरे गुजराती मित्र मुझे भड़ोच शिक्षा परिषद मे घसीट ले गये थे। वहाँ महा साहसी विधवा बहन गंगाबाई मुझे मिली। वे पढी-लिखी अधिक नही थी , पर उनमे हिम्मत और समझदारी साधारणतया जितनी शिक्षित बहनो मे होती है उससे अधिक थी। उन्होने अपने जीवन मे अस्पृश्यता की जड़ काट डाली थी, वे बेधड़क अंत्यजों मे मिलती थी और उनकी सेवा करती थी। उनके पास पैसा था , पर उनकी अपनी आवश्यकताये बहुत कम थी। उनका शरीर कसा हुआ था। और चाहे जहाँ अकेले जाने मे उन्हें जरा भी झिझक नही होती थी। वे घोड़े की सवारी के लिए भी तैयार रहती थी। इन बहन का विशेष परिचय गोधरा की परिषद मे प्राप्त हुआ। अपना दुख मैने उनके सामने रखा और दमयंती जिस प्रकार नल की खोज मे भटकी थी, उसी प्रकार चरखे की खोज मे भटकने की प्रतिज्ञा करके उन्होने मेरा बोझ हलका कर दिया।