खानदानी / भीकम सिंह

Gadya Kosh से
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मेरी पत्नी चीखकर बात शुरु करती और शीघ्र ही आपा खो बैठती। कभी -कभार मुझे उसकी चीख जायज़ भी लगती।

मैं महसूस करता हूँ, संयुक्त परिवार के प्रति मेरा मोह एक सीमा की माँग करता है, परन्तु मेरी पत्नी इस मोह को एकल परिवार की दृष्टि से देखने लगती है तो मुझे उसके संस्कारों पर दया आती है, जिसमें वह जन्मी -पली है। कभी -कभी वह अंट -शंट बोलते हुए घर सिर पर उठा लेती है। शुरु -शुरु में मैं सोचता ‘खानदानी’ ऐसी ही होती होंगी, क्योंकि जब मेरी शादी तय हुई तो यही गुण बताया था की लड़की पढ़ी -लिखी तो नहीं है, परन्तु ‘खानदानी ‘ है। एक दिन तो हद हो गई जब उसने मेरी ओर लाल -पीली आँखों से देखते हुए कहा, ‘‘ घर की सफाई, कपड़े धोना, खाना बनाना, कोई खानदानी करता है?’’”

आज मेरा माथा ठनका, जब मैंने अपने बेटे को खाना बनाते देखा… तो पता चला बहू भी ‘खानदानी ‘है।