खानाबदोश / गीताश्री

Gadya Kosh से
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कोई मुझे नींद में ज़ोर ज़ोर से झकझोर रहा है। मैं गहरी नींद में छलाँग लगा चुकी हूँ।

"उठो.. उठो... मुझे छोड आओ.. जहाँ से लाई हो मुझे... मुझे नहीं रहना यहाँ... मुझे ले चलो वहाँ.. यही मौक़ा है.. निकल चलो...उठो..."

कोई मर्दाना आवाज आ रही है...

"ऊंह..." मैं कुनमुनाती हूँ और करवट बदल कर सो जाती हूँ.

कोई ज़ोर से हिला रहा है मुझे... अब चेतना जागने लगी है, कमरे में अंधेरा है. हौले से पलके उठीं.. अबे कौन है, क्या आफ़त आ गई...

सामने दीवार पर टीवी के नीचे रखा टाटा स्काई में पीली लाल बत्ती जल रही थी. कमरे के अंधेरे से लड़ने के लिए रोशनी की ये दो बूँदें नाकाफ़ी थीं. अंधेरे में दाएं हाथ से सिरहाने टटोल कर मोबाइल उठाया. स्क्रीन टच होते ही हल्का उजाला मेरे आसपास फैल गया. रोशनी की क़ीमत गहन अंधेरे में पता चलती है.

चारों तरफ नज़र दौड़ाई, कहीं कोई नहीं था..कमरा अंदर से लॉक था. बग़ल में जयंत सोया था, दीन दुनिया से बेख़बर.

कौन जगा रहा था मुझे...और क्यों..?

यक़ीनन यह सपना नहीं था। मैं हिली हुई थी। नींद कच्ची थी, टूट गई। सपना तो बिल्कुल नहीं। फिर...!

सवाल ने फन काढ़े तो मैं हड़बड़ा कर बेड पर उठ कर बैठ गई. जयंत जगा होता तो चिल्लाता-" कितनी बार बोला, करवट लेकर उठा करो, रीढ़ की हड्डी करकरा जाएगी एक दिन...!"

वह फिर दुबारा लेट गई और फिर दाएं करवट लेकर उठी. कहीं कुछ नहीं था. दीवारों पर वाल पेपर वैसे ही चमक रहा था. टेबल कुर्सी , ड्रेसिंग टेबल पर यथावत. कोई भूचाल भी नहीं. अक्टूबर के महीने में पंखें की हवा बहुत मीठी लगती है. लेकिन मुझे पसीना आ गया.

भय की लहर उठी और पूरे शरीर में फैल गई. मैं आत्मा-वात्मा में बिल्कुल यकीन नहीं करती. भूत प्रेत मानने का तो सवाल ही नहीं. चमत्कारों में यकीन नहीं. कभी आँखों से देखा होता तो यकीन होता न. समूचा जीवन तो होस्टल में कटा और शेष जीवन नौकरी करते महानगर में कट रहा. कहाँ से आई थीं आवाज़ें ? बोल एकदम स्पष्ट थे।

किसी पुरुष की आवाज थी, थोड़ी भारी और हकलाई हुई. अटक अटक कर आ रही थी. मन किया जयंत को जगा कर बताऊं. फिर इरादा बदल दिया. वह नींद में बौखला जाता और मुझे वहमी करार देकर सो जाता इस चेतावनी के साथ कि “दुबारा जगाना मत, बहुत थका हुआ आता हूँ, दिन भर कंप्यूटर पर आँखें फोड़ता रहता हूँ, रात को चैन से सो लेने दिया करो यार...तुम्हारी तरह नहीं हूँ, आराम की ज़िंदगी...जब मन हुआ दो चार कविताएँ लिख लीं, कहानियाँ लिख लीं या फिर किटी पार्टी में नाच आए"

"तुम लिखने को कम मेहनत का काम समझते हो क्या ?"

मैं आँखें फाड़ कर उसका चेहरा देखती। क्या बक रहा है ये आदमी? अपने बचे हुए समय में लेखन या किटी कर लेती हूँ तो क्या बुरा है? मसालों की गंध से ऊब कर कीबोर्ड की खटपट में ऊँगलियाँ थिरकती हैं आजकल, और ये हैं कि मेरे गंभीर सुख को हल्के से लेते हैं।

"और क्या...! बौद्धिक विलास का भी अपना सुख है डार्लिंग , मज़े करो...यहाँ टारगेट सिर पर सवार, न करो तो डंडा खाओ बॉस का...!"

जयंत का चेहरा दयनीय हो उठता। मुझे बौद्धिक विलास शब्द से चिढ होती और जब तक मैं शाब्दिक प्रहार करती तब तक उसका चेहरा दयनीय हो उठता और मैं अपने हमले रोक लेती।

अभी आधी रात को जगाऊँ तो शेर की तरह दहाड़ने न लगे। फिर माथा घूम गया। क्या करुं। मोबाइल के स्क्रीन पर अंधेरा पसरा तो कमरा फिर अंधेरे में डूब गया । बस सामने दो आँखों की तरह पीली लाल बत्ती जलती दिखाई दे रही थी । रोशनी की दो आँखें, अलग अलग रंगों वाली। साथ साथ लेकिन अलग अलग रंग। उन्हें घूरती हुई चुपचाप फिर लेट गई। मुझे याद आया, पिछले दिनों चित्रकार सीरज सक्सेना की चंद लाइनें पढ रही थी - ऐसे ही दो रंगी आँखों के बारे में कुछ कहा था.

मैं लेटे लेटे उन पंक्तियों को याद करने की कोशिश करने लगी- माथे पे रख कर। नींद गायब हो चुकी थी.

" वे दो पाट हैं, काला और सफेद. इन्हीं के बीच रंगों की नदी बहती है। उनके बीच कोई भी रंग डाल दो, बदल जाएंगे. रंगों की माया है ही नहीं, मैं यह कह रहा हूँ। मेरी एक आँख श्वेत है, दूसरी श्याम। इसमें कोई भी रंग डाल दो, मैं एक चित्र बना कर निकलूँगा। मेरी दोनों आँखें दो पाट हैं..."

अचानक मुझे दो अलग अलग रंगों वाला रास्ता दिखा। दोनों आंखें अलग अलग रास्ता देख रही थीं।

एक तरफ हरे पहाड़, दूसरी तरफ रुखा-सूखा पहाड़। मैंने ऊंगली उठाते हुए पूछा था- “कौन-सा पहाड़ चाहिए तुम्हें? किस ओर जीना है...एक तरफ लाल है, दूसरी तरफ पीला। बीच में काला...काले का कोई भविष्य नहीं, सिर्फ अतीत है, अंधियारा अतीत। तुम्हें पीले रंगों की जरुरत है, घाटी में रहोगे तो सिर्फ लाल रंग ही मिलेंगे...तुम जी न पाओगे, चलो...मेरे संग।“

उस रात हम दोनों चुपचाप सोए। मिट्टी के बने उस घर में जहां खनाबदोश रातें और दिन हुआ करती हैं। जो घर मीठे चश्मे के शोर और पानी से भरा रहता है। मिट्टी की मजबूत छतें सब्जियां उगा रही होती थीं, उनमें जीवन रात दिन धड़कता था, मैं उनकी सांसे बिस्तर पर लेटे लेटे सुन सकती थी।

उस रात जब वह बेखबर सो गया, मैंने जागते हुए एचडी फार्मेट में फाइव डी सपने देखे...कोई और ऐसे फार्मेट में सपने देखता है या नहीं, मुझे नहीं मालूम, मैंने देखे हैं। सारे दृश्य बेहद स्पष्ट । पास-पास, अपने ओरिजिनल रंगो के साथ। जगंल को छू सकती थी मैं, जंगली बारिश में भींग रही थी मैं। बस इसी जंगली हवा की चाहत थी। सारी आवाजें मुझे भेद कर आरपार हो रही थीं। झाड़ियां मुझे चुभ रही थीं। मैं चट्टानों की शीतलता महसूस कर सकती थी। इन्हीं चट्टानों पर सुस्ताना था कुछ देर के लिए। मेरे हौसलो के लिए ऊर्जा यहीं से निकलती है। सामने तीखे मोड़ दीख रहे हैं...मुझे वहां ठिठकना है...

दूर पहाड़ियां नजर आ रही है वृक्षों से लदी हुई। इन हरे वृक्षों से जैसे प्यार करती हुई पहाड़ियां, जो उसके लिए हवा और पानी का इंतजाम करती है। उसकी पथरीली, बलिष्ठ देह में माटी जमा कर उर्वर बनाती हुई हरियाली...

पहली बार ही उसे देखते मेरे मुंह से निकला था- “तुम्हारी बांहे हैं या पत्तों से लदी हुई सघन डालियां...तुम इस निर्जन में अकेले क्या कर रहे हो वनदेव...चलो न...हमारे साथ...”

वह मुकाराया तो लगा पीछे गिरता हुआ चश्मे का पानी थोड़ा और मीठा हो गया। इस स्वाद का जिक्र मेरे फसानों में हमेशा रहेगा। मैंने उम्मीद से उसकी तरफ देखा-हैरान करने वाला दृश्य।

एक चेहरा शिखरों पर अटका है...उसके हाथ आकाश में हिल रहे हैं...”ना ना ” की मुद्रा में..जैसे मना कर रहा हो...क्यों मनाही है..क्या है ऐसा नत्था टॉप की इन पहाड़ियों पर, सब जा चुके मैदानों में...ये क्यों वेताल की तरह लटक गया है यहां...

मैं गुस्से में हूं...आंखें लाल, कभी रुआंसी..कभी भभक रही हूं...”मैं तुम्हें ले जाऊंगी...चाहे जो हो जाए..तुम भी नहीं रोक सकते मुझे..जो होगा, देखा जाएगा..सामना करेंगे..”

एक डाली मेरी तरफ लपकी...बचने के लिए मैं भागी, किसी ठोस वस्तु से टकराई और लड़खड़ा गई। पूरी देह हिली और मेरा फाइव-डी सपना टूट गया।

सुबह हो चुकी थी। मैं सबकुछ जागी हुई छू सकती थी। यह हकीकत की छुअन थी। उसे भी और खुद को भी। वो मेरे सिरहाने ही बैठा था, मुझे अपनी बलिष्ठ भुजाओ से घेरे हुए। कच्चे दूध की खुशबू आ रही थी, उसकी हथेलियों से।

“भैंस दूह कर आ रहा हूं...कच्चा दूध पीओगी...”

“यासिर...” मैं बुदबुदाई.

“मेरे साथ चलो न...छोड़ो ये सब...कुछ दिनों में बर्फ गिरेगी यहां..सब नीचे चले गए। तुम अकेले क्या करोगे यहां...मेरा भी रिसर्च वर्क पूरा हो गया, अब बस सिलसिलेवार लिखना है और जमा कर देना है...”

मेरी आवाज की खानाबदोशी को कोई खानाबदोश ही भांप सकता था। मेरे माथे पर उसने अपनी ठंडी ठुड्डी रख दी। कुछ उसकी गरमाई, कुछ कमरे में हौले हौले रात भर सुलगने वाली अंगीठी की गरमाई, मेरी आंखें फिर से बंद करने के लिए काफी थीं।

इससे पहले कि मैं फिर सपनों में घुसती, उसने जो कहा, मैंने बाहर की तरफ देखा..दरवाजा खुला था...बाहर फुहिया पड़ने लगी थीं...

“बर्फ गिरने का अंदेशा है...जिद छोड़ो, चलो, चलता हूं...तुम न मानोगी...”

इतना सुनते ही मेरे लिए सारे रंग बदल गए थे। ये जिद भी न, उम्मीद के दम पर ही टिकी रहती है। दोनों का अबूझ रिश्ता है। जिद न हो तो उम्मीदें कहां। उम्मीदें न हो तो जिद का क्या मतलब...

उम्मीद की ताकत है जिद। जैसे तने की ताकत उसकी जड़े होती हैं। स्त्री की ताकत उसका आत्मविश्वास, जैसे नदी की ताकत उसका पानी, जैसे सांस की ताकत हवा।

वो महीने भर की जिद थी जो उम्मीदें पूरी कर रही थीं। मेरी आंखों में सीरज के रंग उमड़ने लगे, मुझे यकीन हो आया कि जरुर सीरज भी इसी तरह अनुभव के बाद चित्र बना कर ही निकला होगा। मैं भी जीवन-चित्र बना कर निकल रही थी। जीवित कैनवस लेकर शहर लौट रही थी। मुझे लगा कि मैं समूचा पहाड़ अपने साथ उठा कर ले जा रही हूं। सदियों से जमीन में धंसा, अपनी देह पर ग्लेशियर, जंगल, झरना, नदियां को झेलता सामधिस्थ पहाड़, मेरे साथ चल रहा था। “दी रॉक” फिल्म के शीन कॉनरी के पांव याद आए। फिल्म के पहले ही सीन में जंजीरों से जकड़े दो भारी पांव...कैद के अभ्यस्त पांव, जैसे ठिठक कर चल रहे थे, वैसे ही यासिर के खानाबदोश पांव मेरे साथ डर भर रहे थे। मैं उसे लाल रंगों से दूर ले जाना चाहती थी। आतंक के साये से दूर, जहां वह गोलियों की तड़तड़ाहट और गोले बारुद के खतरों से दूर रहेगा। मुखबिरी करने के लिए जहां बाध्य न किया जा सकेगा। वह खुल कर जी सकेगा। उसके हिस्से में भी प्रेम आएगा। टुकड़ो में ही सही, बंटा हुआ ही सही, खतरे से बाहर तो रहेगा।

“मुझे मत ले जाओ...मैं मैदानों में बीमार पड़ जाता हूं, मैं पक्का बकरवाल हूं, इसीलिए कभी जम्मू के तराई इलाके में भी नहीं बसा। काफिले को भेज कर खुद यही रुक जाता हूं...उनके वापस आने तक। ढोर ढंगर सब चले जाते हैं, मैं यहीं रुक जाता हूं, पहाड़ कभी हिलते नहीं...पहाड़ के पांव नहीं होते...”

वह हंस पड़ता। कच्चे दूध-से दांत बिजली की तरह चमकने लगते।

“कैसे काटते हो, बर्फीले दिन और रातें...सिर्फ दो ही रंग होते होंगे जीवन में, मैं तुम्हें सतरंगी दुनिया में ले जा रही हूं...पहाड़-सा जीवन कितना आरामदायक हो जाएगा। पूरे विश्व से जुड़ जाओगे...तकनीक का चमत्कार देखोगे...”

“आप रहोगी हमारे साथ...ऐसे, जैसे महीने भर रही हमारे साथ...?”

उसकी सुरमई अंखियों में सवालों के निर्जन द्वीप तैरते देखे। कुछ भी तो नहीं जानता मेरे बारे में, जयंत के बारे में, मेरी मुश्किल दुनिया के बारे में , फिर मैं क्यों जिद ठाने लिए जा रही, किस उम्मीद पर इसकी दुनिया बसाऊंगी...

सवाल मेरे जिस्म में कुलबुलाए। जैसे बरसात पानी में कीड़े कुलबुलाते हैं, सफेद, काले...असंख्य छोटे छोटे...

“चलो तो सही...कोई उपाय करेंगे...जहां चाह हो, वहां राहें निकल आती हैं...”

मैंने गाड़ी में बैठते हुए उसकी बांहे गह ली थीं। संशय उसकी रगो में बह रहा था, लहू के साथ, उसकी देह से मुझे ऐसी झनक सुनाई दे रही थी।

मुझे जम्मू में कुछ दिन उसके साथ गुजारना था फिर आगे प्रस्थान करना था। मैं उसके साथ कठुआ समेत उन मैदानी इलाको में जाना चाहती थी, जहां खानाबदोशों ने अस्थायी डेरा बना रखा है। पहाड़ों पर बर्फ पिघलते ही फिर वे मैदानों से पहाड़ों की तरफ कूच कर जाएंगे। सब चले गए थे सितंबर में ही, दिसंबर तक यासिर वहीं जमा हुआ था। वह कभी नहीं जाता तराई में। मिट्टी के घर में अपने लिए पर्याप्त आग बचा कर रखता है और पानी भी। मैं उसे इन सबसे दूर, अपने साथ लिए चली जा रही थी। पहाड़ों पर बर्फ गिरनेवाली थी कि मैं वहां पहुंच गई थी।

“एक खानाबदोश स्त्री, खानाबदोश पुरुष से जा मिली थी...”

यासिर ठहाके लगा लगा कर कहता और मैं एक पल के लिए झरना बन जाती।

फाइव डी सपने हमें गीला कर देते हैं, गर सपने पानी पानी हों। रात भर अजनबी फुसफुसाहटों ने ठीक से सोने न दिया था। रावी नदी के तट पर बने रिजार्ट में टिकने के लिए जयंत भी आ गया था। यासिर बगल वाले कमरे में था। हम कुछ दिन और रुक गए थे। जयंत के आने के बाद यासिर बुझ बुझ सा गया था। अपने भीतर गुम हो। हम दिन भर घूमते, यंत्रवत वो घुमाता और रात को अपने अपने कमरे में निशब्द। सुबह भींगी हुई मैं जगी थी। जयंत सोया पड़ा था। बाहर निकली तो यासिर खड़ा था। साथ में सामान। उसने मुझे दूर हाइवे से गुजरते हुए बकरवालो का काफिला दिखाया।

आंखों से सवाल उबल रहे थे- वो फट पड़ा...

“मैं यहां क्या कर रहा हूं...मेरी दुनिया तो गतिमान है, चलती रहती है, ऊपर नीचे, नीचे ऊपर...पहाड़ो पर, झरने के साथ बहता हूं, नदी के साथ सोता जागता हूं...बर्फ से लिपटता हूं...उसे आग देता हूं..आग लेता हूं...”

“मैं आपकी दुनिया का बाशिंदा नहीं बन सकता...मुझे जाना होगा...आप चाहे तो मेरे साथ चल सकती हैं...खाने भर को बहुत सब्जियां उगा लेता हूं, दूध , पनीर बहुत सप्लाई करता हूं, सबसे शुद्ध हवा और पानी पिलाऊंगा...”

“मोबाइल का सिगनल आता है, बड़े बड़े टावर लगे हैं, टी वी खरीद लेंगे...”

उसका गोरा चेहरा दहक रहा था। मैंने जैसे ही अपने कमरे की तरफ चेहरा घुमाया, आंखों में लाचारी भर कर आंखें यासिर की तरफ लौटाना चाही कि सामने कोई नहीं था। रावी नदीं का बहाव और तेज हो गया था।

कोई मर्दानी पुकार बच गई थी जो मेरे भीतर चीख बन कर बाहर उछली और हवाओं में घुल गईं। कैसे कहूं कि अब मेरे पास सिर्फ दो रंग है जिनसे मैं सीरज की तरह चित्र बनाकर नहीं लौट सकती।