खामोशी / संजीव

Gadya Kosh से
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(यह एक पूर्णत: काल्‍पनिक कहानी है जिसका किसी व्‍यक्ति या संस्‍था से कोई संबंध नहीं है।)

एक उद्दाम आवेग था उसकी बातों में, उसके व्‍यवहार में, अदा में...। दूसरों को प्रभावित करने और गिरोह बनाने के गुणों से लैस थी वह। एक ही कमी थी उसमें, फोर्स तो थी मगर दिशा नहीं।

दूसरी ओर थे मानवेन्‍द्र स्‍वामी। जिनमें आवेग भी था, लीडरशिप के गुण भी, फोर्स भी, दिशा भी। बात-की-बात में भीड़ जुटा लेते मानवेन्‍द्र।

वे पार्टी के सिद्धांतकार थे। सिर्फ अपनी ही नहीं, अन्‍य राजनैतिक पार्टियों में भी उनके वजन का अध्‍येता मिलना मुश्किल था। उनका स्‍फटिक की तरह स्‍पष्‍ट उच्‍चारण, स्‍वर का आरोह-अवरोह और बीच-बीच में उद्धरणों के मोती। अद्भुत विद्वत्ता और वाग्मिता के धनी थे मानवेन्‍द्र।

कांता का अतिरिक्‍त आकर्षण उसकी जवान नारी देह थी जो मानवेन्‍द्र के पास न थी। पर पार्टी को उन दोनों की जरूरत थी। बाहरी आकर्षण भी, अंदरूनी आभा भी।

मानवेन्‍द्र जब बोलते तो चुपके-से खड़ी पीती रहती उनकी बातों को कांता। कहानी सच पूछिए तो उस दिन शुरू हुई जिस दिन पार्टी के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कांता की यह चोरी पकड़ ली थी मानवेन्‍द्र ने।

‘वो कौन है?’ उन्‍होंने एक कार्यकर्ता से पूछा।

‘कांता जी।’

‘वहां दीवाल की ओट में क्‍या कर रही हैं?’

‘पता नहीं। रोज ही तो वहां खड़ी-खड़ी आपको सुनती रहती हैं।’

मानवेन्‍द्र को अच्‍छा लगा। अगले दिन उन्‍होंने कांता को बुला लिया।

‘आप बहोत अच्‍छा बोलते हैं।’ कांता ने कहा।

‘आप बहोत पवित्र लगती हैं,’ स्‍वामी ने पार्टी अनुशासन के तहत ‘सुदंर’ की जगह ‘पवित्र’ कहकर पार्टी अनुशासन के ब्रह्मचर्य को बनाए रखा।

‘काश, मैं भी बोल पाती!’

‘काश, मैं भी आपकी तरह अनिन्‍द्य होता!’

यहां भी स्‍वामी ने यथाशक्‍य सतर्कता बरती। इस तरह आकाश के दो पतंग आपस में काटने और कटने के लिए मंडराने लगे, मंझा, ढील और खिंचाव...!

न! बात ठीक ऐसे नहीं शुरू हुई थी।

फिर कैसे शुरू हुई थी?

दोनों ने दोनों को देखा तो लगा दोनों को दोनों की जरूरत है। उहूं! इतने सपाट ढंग से भी नहीं।

फिर कैसे?

दरअसल सम्‍मोहन, स्‍वार्थ, समर्पण और भावनाओं के परस्‍पर उलझे इतने ताने-बाने, रंग-रेशे हैं कि उन्‍हें अलग कर पाना मुश्किल है, सो मजबूरन कुछ स्थूल चीज़ों से ही काम चलाना होगा, मसलन, ‘ब्रह्मचर्य के महिमामंडित घटाटोप के अंदर स्‍वामी की बंदी आत्‍मा ने किसी क्षण बाहर निकलने के लिए कांच की दीवार पर चोंच मारी होगी, ‘यह जीवन कितना खाली-खाली है। खाली-खाली है और बीतता जा रहा है - मेरा भी, काता का भी (कांच की दीवार के पार कांता) दोनों ही पिछड़ी जातियों के हैं जिनका वैसे भी इस घोर ब्राह्मणवादी पार्टी में कोई स्‍थान नहीं। क्यों न मैं खुद भी इस बंदी शाला से मुक्ति पा लूं और बांह पकड़कर कांता को भी निकाल लाऊँ?

लेकिन इसके पहले देखना होगा कि कांता की खुद के पहल का तरीका कैसा था। मानवेन्‍द्र को सुनती तो लगता, सुनती ही चली जाए।

एक दिन उसने स्‍वयं ही मानवेन्‍द्र से कहा, ‘आपके भाषण में शेर और उक्तियां मोती की तरह पिरोये रहते हैं। उनसे बड़ा अच्‍छा प्रभाव पड़ता है। दो-चार हमें भी सिखा दें न।’

‘दो चार क्‍यों, जितनी सीखना चाहें, ले जाएं।’

और मानवेन्‍द्र उसे सुग्‍गी की तरह पढ़ाने लगे –

‘नोट करती चलिए - यथायोग्‍य इनको भाषण में पिरोती जाइए,

‘अब तो इस तालाब का पानी बदल दो।’

ये कमल के फूल कुम्‍हलाने लगे हैं।,

‘हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम,

वो कत्‍ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती।

‘मुझे तोड़ लेना वनमाली...’

‘यह मालूम है।’ कांता ने बताया

‘काजू पड़े हैं प्‍लेट में, विह्स्‍की गिलास में,

उतरा है रामराज्य विधायक निवास में।’

‘बस एक ही उल्‍ली काफी है...’

‘यह मैं जानती हूँ’

‘आगे लिखिए –

‘न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता

डुबाया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्‍या होता

‘वो आते हैं मक़तल में खंजर बदल-बदल के

यारब कहां से लाऊँ मैं सर बदल-बदल के’

‘अरे आपने नोट नहीं किया?’ मानवेन्‍द्र चौंके! लजा गई कांता, ‘दरअसल मैं आपके बोलने के ढंग में ही उलझ कर रह गई। प्‍लीज आप ही लिख कर दे दें न!’

लिखकर दे दिया मानवेन्‍द्र ने। इन्‍हें भाषणों में कैसे और कहां जोड़ा जाय - रिहर्सल करा दिया और जब राजनीति के मंच पर कांता ने इसे मंचस्‍थ किया तो किरचें चमकने लगीं किरणों की, मानो अनगढ़ हीरे को तराश मिल गई हो। मानवेन्‍द्र ने मुग्‍ध भाव से निहारा अपनी शिष्‍या को।

‘अध्‍यात्‍म ही हमारी पार्टी का आधार है।’

‘आधार नहीं, हथियार।’ मानवेन्‍द्र ने संशोधन किया।

‘जी, और यह आश्रम उसका प्रशिक्षण या कार्यकर्ता तैयार करने की बुनियाद।

‘तो?’

’मुझे कुछ एक गुर बता देते तो...बातें करती हूं तो आधार कमजोर लगने लगता है। कभी-कभी आत्‍मविश्‍वास नहीं आता।’

और शुरू हो गया अगला पाठ। कांता को प्रभावित करने के लिए स्‍वामी अधिक से अधिक गूढ़ विषयों का प्रतिपादन करते, और अधिक से अधिक प्रभावित होती जाती कांता। स्‍वामी ने बताया, गीता में भगवान कृष्‍ण कहते हैं –

‘हे अर्जुन तुम और मैं कई बार जन्‍मे हैं। विश्‍व का स्रष्‍टा होने के बावजूद अपनी माया द्वारा मैं स्‍वयं अस्तित्‍व में आता हूं। मैं सृष्टि का पिता हूं और मैं ही माता हूं। मैं मार्ग हूं, मैं ही साक्षी और मैं ही अंतिम शरण्‍य।’

‘मैं आदि, अंत, विश्राम स्‍थल, अशेष कोष और आदि बीज हूँ। मैं अस्तित्‍व हूं और अनस्तित्‍व भी... ‘ कांता चकित भाव से सुनती।,

स्‍वामी ने बताया,

‘शब्‍दों का तात्‍पर्य विशुद्ध अस्तित्‍व है। अद्वैत का मतलब ईश्‍वर एक है। पूछेंगी, ‘फिर द्वैत कैसा’ तो परमात्‍मा और जीवात्‍मा में अविद्या के कारण द्वैत है। इस प्रकार शब्‍द और अशब्‍द दो अलग-अलग ब्रह्म हैं शरीर-आत्‍मा, जीवन-मरण, अस्तित्‍व-अनस्तित्‍व - अब कुछ लोग शब्‍द को ब्रह्म मानते हैं या फिर ध्‍वनि, नाद को- ओउम्। फिर अशब्‍द को कहां रखेंगे?’

कांता को प्रभावित करने के लिए स्‍वामी गूढ़ से गूढ़तर होते जाते। वाचन के बीच रुक कर कांता के चेहरे पर पड़ रहे प्रभाव को आंकते जाते। कांता उकसाती, ‘बोलते जाइए, अच्‍छा लगता है। मन पवित्र होता जाता है।’

‘सृष्टि के बाहर कोई ईश्‍वर नहीं और ईश्‍वर के बाहर कोई सृष्टि नहीं। सत्‍य और असत्‍य में कोई अंतर नहीं लेकिन सबके ऊपर परम सत्ता शून्‍य है।’

कांता के सिर के ऊपर से गुजर जाता, ‘यह कैसे स्‍वामी जी? सृष्टि कब से है, ब्रह्मांड कितना बड़ा है और वह किसमें समाहित है?’

‘उपनिषदों में लिखा है कि सृष्टि स्‍वतंत्र पैदा हुई है। स्‍वतंत्र ही स्थित है और स्‍वतंत्र ही विलीन हो जाती है। मैंने आपको एक पुस्‍तक दी थी। उपनिषदों की, उसमें कहीं लिखा था कि ब्रह्म की नगरी में जो मानव शरीर है उसके हृदय के अंदर एक छोटा-सा घर है। यह घर कमल की आकृति का है। उसके अंदर वह निवास करता है, जिसे खोजना है, उसके स्‍वरूप को जानना है। वैसे तो वह अगाध है पर एक रास्‍ता है, वो ऐसे कि जो बूंद में है, वो समुद्र में है - ब्रह्म, परब्रह्म! यद्यपि वह एक जगह बैठा है, लेकिन उसकी गति, व्‍याप्ति दूर-दूर तक है। स्‍वयं सुख से पूर्ण है वह लेकिन हर शै के अंदर बेचैन है। सर्वत्र उसकी सत्ता है। वह आनंद है और आनंद से परे भी...विद्वानों की कल्‍पना से भी परे।

‘ऐसा क्‍यों स्‍वामीजी?’

‘स्‍वामी जी!’ मानवेन्‍द्र ने संबोधन को अंदर ही अंदर चुभलाया, उससे जो इंद्रियोत्तेजक रस निकला, वह उनके कौमार्य को सहला गया। बोले, ‘वह असीम है लेकिन जीव मात्र तो ससीम है। प्रकाश की गति कितनी है मालूम?’

‘न।’

‘एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेण्‍ड। इस वेग से चलें फिर भी करोड़ों करोड़ वर्ष चलते रहने के बावजूद उसके छोर तक नहीं पहुंच सकते। कितने ही ऐसे तारे हैं जिन्‍हें हम देख तो पाते हैं मगर उनकी वह किरण कितने प्रकाश वर्षों में आई है हम तक? हम क्‍या स्‍थूल भाव से उस तक पहुंच पाएंगे!’

कांता मूर्खों-सा ताकती। जब-जब ऐसा होता स्‍वामी विजयी भाव से उसे देखते।

स्‍वामी ने शेव करते समय आईने में खुद को गौर से निहारा - काला, रुक्ष पठारी चेहरा!

‘वेद व्‍यास!’ चौक गए। अरे यह तो कांता की आवाज है। पलट कर देखा, कहीं कोई नहीं।

कांता ने चंदन की बिंदी लगाते समय आईने में खुद को निहारा - मामूली, सपाट चेहरा!

‘पवित्र और अनिन्‍द्य!’ चौक गई। यह तो स्‍वामी जी की आवाज है। पलट कर देखा, कहीं कोई नहीं।

दोनों के चेहरों पर मुस्‍कान भरा गुरूर निखर आया। ब्रह्म की नगरी में जो मानव शरीर है, और उसके अंदर जो कमल की आकृति का घर है, वह खिल गया था, कोई भ्रमर वहां गुंजार कर रहा था। कांता की वाग्मिता और व्‍यक्तित्‍व में दिनोंदिन तराश आती गयी। उसका चेहरा अपना था, मगर जुबान मानवेन्‍द्र की, पाँव अपने थे, मगर चाल मानवेन्‍द्र की, आँख अपनी थी मगर दृष्टि मानवेन्‍द्र की। कांता के इस चेहरे पर जवानी की दीप्ति के साथ विद्वत्ता की लाली खिलने लगी थी, मगर यह तो खिलने की शुरुआत भर थी। कांता को अभी नई-नई बुलंदियां छूनी थीं। इसके साथ एक विजयदर्प भी... पार्टी में जिस शख्‍स के सभी कायल हैं, वह खुद कांता से घायल है। वह अपनी छठी इंद्रिय से मानवेन्‍द्र की मनोदशा को भांप रही थी और इसका अहसास होते ही ठसक से भर जाती।

एक दिन कांता ने मानवेन्‍द्र से पूछा, ‘आपने विवाह क्‍यों नहीं किया?’ पलट कर वही प्रश्‍न मानवेन्‍द्र ने कांता के सामने कर दिया, ‘और आपने?’ दोनों एक साथ हंस पड़े। दो जलतरंग बज उठे। फिर मानवेन्‍द्र ने कांता को राबर्ट फ्रॉस्‍ट की अपनी प्रिय पंक्तियां सुनाईं –

द वुड्स आर लवली, डार्क, एण्‍ड डीप

बट आय हैव प्रॉमिसेज़ टु कीप

एण्‍ड माइल्‍स टू गो बिफोर आय स्‍लीप

एण्‍ड माइल्‍स टू गो बिफोर आय स्‍लीप!

कविता ही नहीं उसका अनुवाद भी ...

जंगल घने, गहरे और सुहावने हैं

मगर मुझे अभी वायदे निबाहने हैं

सोने से पहले मीलों चलना है मुझे

मीलों चलना है मुझे सोने से पहले!

राजनीति, भाषा, साहित्‍य, दर्शन, विज्ञान कुछ भी तो नहीं छोड़ा मानवेन्‍द्र ने। सब पर समान अधिकार। यह आदमी आदमी है या ज्ञान का पहाड़! कांता सोचती।

रोज ही कुछ न कुछ पूछती कांता। एक दिन पूछा, ‘स्‍वामी जी, ‘कोरा’ का मतलब क्‍या होता है?’

‘कोरा मतलब स्‍वच्‍छ, कोरा मतलब अभी तक जिसका इस्‍तेमाल न हुआ हो, कोरा मतलब जिसमें दाग न लगा हो।’

‘कोरा मतलब ब्रह्मचर्य... जैसे हम, तुम!’ स्‍वामी ने यह भी बताना चाहा और कोरा की व्‍याख्‍या भी, ‘कोरा कागज था ये मन मेरा, लिख लिया नाम उस पर तेरा।’ पर यह छिछला लगा, कह नहीं पाये। अचानक चौंके, अरे, यह ध्‍वनि थी या प्रतिध्‍वनि! आखिर उसने ‘कोरा’ शब्‍द का अर्थ ही क्‍यों जानना चाहा? और जानना चाहा या बताना चाहा? ‘कोरा कागज’ के हिं‍डोले पर कई दिन झूलते रहे मानवेन्‍द्र।

मानवेन्‍द्र का छोटा-सा कमरा पत्र-पत्रिकाओं, अखबारों, पंफ्लेटों, पांडुलिपियों, पुस्‍तकों से अंटा हुआ कमरा। कुछ दिनों से यह अव्‍यवस्थित कमरा व्‍यवस्थित नजर आने लगा। सारी चीजें करीने से सजी नजर आने लगी। घर भी बुहारा-बटोरा...! ‘कौन करता है यह सब,’ सोचा करते मानवेन्‍द्र और एक दिन उन्‍होंने चोर को पकड़ लिया, ‘कांता जी आप... ?’

शरमा कर जाने लगी कांता। हाथ बढ़ा कर रोक दिया मानवेन्‍द्र ने, ‘चली जाना, पर एक चीनी कहानी सुनने के बाद...’

एक गरीब आदमी था। कुंआरा था। दिन भर के काम से थक कर आता, सोचा करता, काश, घर में कोई औरत होती! साफ-सफाई कर देती। बाहर से थके-माँदे आने पर घर इतना सूना-सूना तो न लगता। दीवार पर एक कैलेण्‍डर था, जिसमें एक सुंदर जवान औरत का चित्र था। वह अक्‍सर उस जवान स्‍त्री के चित्र को सुनाते हुए यह सब कहता। एक दिन घर आकर उसने देखा कि घर की साफ-सफाई हो गई है, खाना भी बनाकर रखा हुआ है। गरीब आदमी को आश्‍चर्य हुआ, कौन करता है यह सब। एक दिन समय से पहले आकर उसने अपने घर में झांका तो देखा कि कैलेण्‍डर वाली औरत झटपट घर का सारा काम निबटा रही है। काम निबटा कर वह वापस कैलेण्‍डर में जा समायी। अब उसे याद आया कि इसके पहले कैलेण्‍डर खाली था। उस दिन उसने कुछ न कहा, लेकिन दूसरे दिन वह फिर चुपके से आया। कैलेण्‍डर वाली औरत हड़बड़ा कर कैलेण्‍डर में समाने जा रही थी कि उसने उसका हाथ पकड़ कर रोक लिया-अब तुम मेरे घर में मेरे मन-मंदिर में समा चुकी हो, कैलेण्‍डर में वापस नहीं जा सकती।’... कांता को होश आया तो उसने पाया कि उसका हाथ खुद मानवेन्‍द्र के हाथ में था। कांता ने हाथ छुड़ाया नहीं। मानवेन्‍द्र पर मस्‍ती छा गई। उम्र के बीस साल पीछे चले गए। चूमना चाहा।

‘कोई देख लेगा!’ धीरे से हाथ छुड़ा कर चली गई कांता।

दोनों ही ब्रह्मचर्य में थे। ऐसा करना तो दूर, सोचना भी पाप था।

अगले ही दिन मानवेन्‍द्र ने पार्टी प्रधान और आश्रम के प्रभारी दोनों को पत्र लिखा; मजमून एक ही था – ‘मैं ब्रह्मचर्य का परित्‍याग कर गृहस्‍थ (वैवाहिक) जीवन जीना चाहता हूं। कृपया मुझे इसकी अनुमति प्रदान करें।’

पत्र पढ़ कर गंभीर हो गए पार्टी प्रधान। सामने खड़े मानवेन्‍द्र से कहा -

सरबस खाइ भोग करि नाना

समर भूमि भै दुर्लभ प्राना।

‘जी, ऐसा तो नहीं है। पार्टी के लिए तो मैं आज भी समर्पित हूं, आगे भी रहूंगा। रही बात गृहस्‍थ जीवन की तो आश्रम के चंद लोगों को छोड़ कर सब वैवाहिक जीवन जी रहे हैं।’

‘आपसे बहस में तो हम उलझना चाहते नहीं, पर यह तो बताइए विश्‍वामित्र का तप खंडित करने वाली वह उर्वशी है कौन।’

‘कांता जी।’

‘कांता... ?’ पूछ कर मौन हो गए पार्टी प्रधान।

आश्रम में भूचाल आ गया।

‘हमें तो पहले ही दाल में कुछ काला नजर आ रहा था।’ एक टिप्‍पणी।

‘गौतम बुद्ध ने इसीलिए अपने संघ में स्त्रियों का प्रवेश वर्जित कर रखा था।’ दूसरी टिप्पणी।

‘पर वर्जित रह पाया? उनके न चाहने के बावजूद औरत ने अंतत: संघ के वज्र कपाट तोड़कर संघ में प्रवेश पा ही लिया।’ तीसरी टिप्‍पणी।

‘कौन आम्रपाली? वह तो तथागत की प्रेमिका थी।’ चौथी टिप्‍पणी।

‘वह आम्रपाली हो या यह आम्रपाली, आप स्‍त्री को रोक नहीं सकते। स्‍त्री एक जरूरत है, उसी तरह जिस तरह पुरुष।’ पांचवीं टिप्‍पणी।

आश्रम प्रधान के पास एक छोटी-मोटी भीड़ जमा हो गयी, यह कांता के एकांतिक विफल प्रेमियों की भीड़ थी।

आश्रम प्रधान ने कहा, ‘यह तो सच है कि आम्रपाली को संघ में प्रवेश करने से रोका न जा सका लेकिन तथागत ने उसी दिन आनन्‍द को बता दिया था, कि संघ की आयु आधी हो गई। हमें कांता भी चाहिए, स्‍वामी भी, मगर दोनों एक साथ नहीं, अलग-अलग। और मानवेन्‍द्र, कांता... यह तुम लोगों ने क्‍या किया... !

जो खलु दंड देउ नहिं तोरा।

भ्रष्‍ट होई श्रुति मारग मोरा।

गुरुजी ने कांता को ‘प्रज्ञा कक्ष’ में बुलाया। प्रणाम निवेदित कर खड़ी हो गई कांता।

‘हमने तो समझा था तुम काफी आगे जाओगी पर तुम तो... अपनी और स्‍वामी दोनों की हत्‍या कर दी तुमने तो...।’ कांता के होठ थरथराये, मगर उंगलियों के इशारे से रोक दिया गुरुजी ने, ‘यह विवाह नहीं, डबल मर्डर है। तुम ब्रह्मचारियों का जीवन किसी एक के लिए नहीं, पूरे समाज के लिए संकल्पित होता है। विवाह करके तुम अपनी विपुल संभावनाओं के आगे स्‍वयं पूर्ण विराम लगा रही हो। कभी तुमने सोचा भी कि कहां तक ले जाएगा यह प्रौढ़ तुम्‍हारी जैसी युवा औरत को? तुम्‍हारा ही नहीं उसका भी पूर्ण विराम है यह विवाह! तुम खुद के साथ उसका भी सर्वनाश करने पर तुली हो।

‘मैं पूछता हूं क्‍या यह स्‍वामी ही तुम्‍हारा लक्ष्‍य था, लाखों को अमृत बांटने वाली इस कल्‍याणी अक्षय सलिला को इसी पठार में आकर अपमृत्‍यु का वरण करना था? हमने तो तुममें मुख्‍यमंत्री, केंद्रीय मंत्री, यहां तक कि प्रधान मंत्री तक के सपने पाले थे और तुम...! तुम कैसे भूल रही हो कि स्‍वामी हद से हद एक सीढ़ी हो सकता है, मंजिल नहीं। उससे जितना लेना था, ले चुकी, अब छोड़ो उस सिट्टी को जो नारद मोह से ग्रस्‍त तुमसे चिपक रहा है। तुम एक के लिए बनी ही नहीं हो, कांते।’

गहरे कशमकश में बीतता है दिन, गहरी बेचैनी में बीतती है रात। सात दिनों का सोचने का समय दिया है गुरुजी ने। आज आठवां दिन है। धीरज चुकता जा रहा है स्‍वामी का - ‘कांता अगर राजी हो तो आज ही मंदिर जाकर वरमाला का आदान-प्रदान कर लेंगे।‘

कांता के कमरे के बाहर दरवाजे पर खड़े हैं। अंदर औरतों की कचर-पचर है। हाथ के दबाव से खेल देते हैं दरवाजा। यह क्‍या? कांता की जगह यहां तो कोई मुंडित चेहरा कुशासन पर पालथी मारे बैठा है। मस्‍तक पर चंदन का टीका है। गौर से देखते हैं और चौक जाते हैं, तो यह तुम हो, कांता। सामने एक दफ्ती पर लिखा हुआ है ‘मैंने सन्‍यास ले लिया है और आज से मैं मौन व्रत पर हूं।’

लौट पड़े। आंखों में अभी भी टंका है गेरुए वस्‍त्र में लिपटा कांता साध्‍वी का वह मुंडित चेहरा। यह संन्‍यास क्‍या एक दूजे को और पार्टी को उबारने का साधन है या किन्‍हीं कोमलतम भावनाओं की हत्‍या? अंदर के ब्रह्मकमलनुमा आसन पर अधिष्ठित दो आत्‍माओं का वध हुआ है, रक्त रंजित है गेरुआ। पार्टी क्‍या हमारे प्रेम की समाधि पर खड़ी होगी?

किसी काशेय-वसना कोमलांगी को अंक में भर लेने वाले हाथ अब खाली थे – रिक्त! अंक भी, आवाज भी...

‘कोई बात नहीं। यह तुम्‍हारा निर्णय है, कांता। तुम्‍हें मीलों आगे जाना है न! मैं तुम्‍हारा अंतिम शरण्‍य कैसे हो सकता था। मीलों आगे निकल जाओ, मीलों... वहां तक जहां मैं नजर भी न आऊं। अफसोस सिर्फ इतना है कि यही पहले कह देती। हम दोनों रुसवा होने से तो बच जाते, जानना सिर्फ इतना कि तुम्‍हारा इतना वाचाल व्‍यक्तित्‍व यकायक इतना खामोश क्‍यों हो गया।

* मेरे जवाब से बेहतर है मेरी खामोशी न जाने कितने सवालों की आबरू रक्‍खी