खामोश, अदालत जारी है, चीन कठघरे में / जयप्रकाश चौकसे

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खामोश, अदालत जारी है, चीन कठघरे में
प्रकाशन तिथि : 24 अप्रैल 2020


जर्मनी ने चीन पर अदालत में दावा ठोंक दिया है। इंग्लैंड, फ्रांस और इटली ने जर्मनी का साथ दिया है। अरबों डॉलर का हर्जाना मांगा गया है। हम हमेशा बड़े देश से भयभीत और छोटे देश को धमकाते रहे हैं। चीन अपने बचाव में इंग्लैंड से प्रकाशित मेडिकल मैग्जीन ‘लेन्सेट’ का हवाला देगा कि चीन ने 31 दिसंबर 2019 को ही कोरोना वायरस के फैलने की चेतावनी दी थी। इस तरह कोरोना वायरस ने अब अदालतों में खलबली मचा दी है। साहित्य में जल प्रलय पर महाकाव्य रचे गए हैं। जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ ऐसी ही रचना है।

दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात अदालत में हिटलर के लिए काम करने वालों पर मुकदमा चलाया गया था। सभी आरोपियों का कथन यह था कि अगर वे हुक्मरान के आदेश का पालन नहीं करते तो उन्हें देशद्रोही घोषित करके मार दिया जाता। दक्षिण अफ्रीका में छिपे नाजियों की खोज की गई और उन्हें अदालत में प्रस्तुत किया गया। इसे न्यू रैम्बल ट्रायल कहते हैं।

यथार्थ का विवरण देने वाला काल्पनिक उपन्यास ‘क्यू.बी.सेवन’ अर्थात ‘क्वीन्स कोर्ट नं. बी सेवन’ है। इंग्लैंड में एक पत्रकार ने दावा किया कि लंदन में प्रैक्टिस करने वाला डॉक्टर हिटलर के आदेश पर यहूदियों की किडनी निकालता और उन्हें नपुंसक भी बनाता था। डॉक्टर ने अदालत में मानहानि का मुकदमा दायर किया। ठोस सबूत प्रस्तुत नहीं किया गया। नाजी डॉक्टर ने अपना हुलिया इतना बदल लिया था कि उसके पुराने फोटोग्राफ से वह बिलकुल अलग दिखता था। डॉक्टर द्वारा नपुंसक बनाए गए व्यक्ति अदालत में गवाही देने के लिए तैयार नहीं हुए। वे सरेआम कैसे अपनी बीमारी स्वीकार करते? जज महोदय यह जान गए थे कि पत्रकार सच कह रहा है, परंतु ठोस प्रमाण नहीं दे पाया। जज ने यह फैसला दिया कि डॉक्टर को उसकी मानहानि के एवज में एक पेंस दिया जाए। स्पष्ट है कि यही उस डॉक्टर की औकात है। डॉक्टर मुकदमा जीतकर भी हार गया और पत्रकार हारकर भी जीत गया।

गांवों में अदालत का काम पंचायत करती है। मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘पंच परमेश्वर’ में यह प्रस्तुत किया गया है कि पंच व्यक्तिगत मित्रता और अदावत से ऊपर उठकर फैसला देते हैं। आजादी के बाद भारत में पंचायत नामक संस्था को सक्रिय रखा और सशक्त बनाने का प्रयास नेहरू ने किया। नियमानुसार एक पंच का महिला होना आवश्यक माना गया। महाजनी संस्कृति में पाले-पोसे समाज ने महिला को पंच स्वीकार किया, परंतु सारे निर्णय उसका पति ही लेता था। पति की आज्ञा लेकर पत्नी शासन करती है। अदालत का वामन अवतार परिवार की अदालत होती है, जिसमें सदस्य को दंडित नहीं करते हुए सुधारने का प्रयास किया जाता है। यह बात हमें शांताराम की फिल्म ‘दो आंखें बारह हाथ’ की याद दिलाती है।

फिल्मों में अदालत के दृश्य होते हैं। स्टूडियो में अदालत का स्थायी सेट लगा दिया गया है। सुभाष कपूर की ‘जॉली एलएलबी’ में जज की भूमिका में सौरभ शुक्ला ने भारतीय अदालतों की न्याय प्रक्रिया पर सटीक टिप्पणी की है। उनका एक संवाद है कि आज भी कोई विवाद होता है तो व्यक्ति अदालत जाने की बात करता है। तिकड़मबाज वकीलों की बेहूदगी के बावजूद आम आदमी का न्यायालय में भरोसा टूटा नहीं है। श्री लाल शुक्ला की ‘राग दरबारी’ का एक पात्र फैसले की कॉपी बिना रिश्वत दिए लाने का प्रयास ताउम्र करता है।

ख्वाजा अहमद अब्बास और राज कपूर की ‘आवारा’ में अदालत के दृश्य जबरदस्त प्रभाव पैदा करते हैं। पटकथा गोलाकार है और अदालत से प्रारंभ होकर अदालत में ही समाप्त होती है। फिल्म के अंत में जज रघुनाथ ही दोषी पाए जाते हैं कि उनकी मिथ्या धारणा कि अच्छे का बेटा अच्छा और बुरे का बेटा बुरा होता है, के कारण ही सभी पात्र कष्ट झेलते हैं। इस ब्ल्यू ब्लड धारणा के धब्बे उड़ जाते हैं।

अगाथा क्रिस्टी की रचना ‘विटनेस फॉर प्रोसीक्शन’ से प्रेरित नाटक लंदन में कई वर्ष तक मंचित किया गया, कलाकार बदलते रहे। अमिताभ बच्चन और शशि कपूर अभिनीत सलीम-जावेद की फिल्म ‘ईमान धर्म’ में दोनों पेशेवर झूठे गवाह हैं। ज्ञातव्य है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इंग्लैंड से वकालत की डिग्री ली, परंतु अपने जीवन में वे केवल एक बार मुकदमा लड़े। अंग्रेज हुकूमत ने लाल किले में अदालत लगाई थी। नेहरूजी सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के लोगों के बचाव पक्ष के वकील थे।