खामोश ! अदालत जारी है / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :15 जून 2016
एक अदालत एक फिल्मकार के पक्ष में फैसला सुनाती है। फिल्म, कविता, कहानी इत्यादि माध्यमों को अदालत तक क्यों जाना पड़ता है? हमारी पूरी व्यवस्था की सड़ांध विविध ढंग से उजागर हो रही है और व्यवस्था किस तरह की है इसका आकलन आप वित्त मंत्री अरुण जेटली के उस बयान से करें, जो न्याय-व्यवस्था को एक धमकी की तरह था कि न्यायालय अपनी हद को पहचाने। आश्चर्य है कि अरुण जेटली सत्ता में आने के पहले वकालत के पेशे में थे और अब उनकी सरकार के खिलाफ फैसले आने पर वे उस व्यवस्था को धमका रहे हैं, जिसका वे स्वयं लंबे समय तक महत्वपूर्ण हिस्सा बने रहे हैं। राजनीतिक विचारधारा किस तरह एक पढ़े-लिखे व्यक्ति का नज़रिया बदल देती है कि वह उस डाल को काटने का प्रयास करता है, जिस पर वह स्वयं कभी बैठा था। कुछ स्कूल ऐसे होते हैं कि वे अपने छात्र की आत्मा तक बदल देते हैं। भारत में गणतंत्र व्यवस्था के चारों स्तंभ, संसद, न्यायपालिका, कार्यपालिका और स्वतंत्र-निष्पक्ष मीडिया अाज एक-दूसरे से टकरा रहे हैं और यह एक चौके में बहुओं के बरतन टकराने से अलग मामला है। इस टकराहट में कहीं भी कोई राजनीतिक आदर्श का मुद्दा नहीं है।
अदालत ने केवल एक दृश्य काटने की बात की है, जिसमें सार्वजनिक स्थल पर पेशाब करना दिखाया गया है। अनुराग कश्यप के सिनेमा स्कूल में इस तरह की बातें होती ही हैं। इस सारे विवाद में किसी ने भी 'उड़ता पंजाब' की फिल्मी गुणवत्ता का सवाल उठाया ही नहीं है। प्राय: इस तरह की विवादित फिल्मों में कोई सिनेमाई गुणवत्ता होती ही नहीं है। आपातकाल में 'किस्सा कुर्सी का' नामक फिल्म प्रतिबंधित की गई थी परंतु प्रतिबंध हटने के बाद उसके प्रदर्शन को कोई सफलता नहीं मिली। वह घटिया फिल्म थी। 'उड़ता पंजाब' की सिनेमाई गुणवत्ता पर किसी ने एक भी शब्द नहीं कहा है। विवाद के दिनों में इसके कुछ प्रदर्शन फिल्म उद्योग के लिए किए गए हैं और आज तक किसी ने एक शब्द भी नहीं कहा है। इस खामोशी से लगता है कि विवाद के प्रकाश वृत्त के अतिरिक्त इसका कोई उजास वाला पक्ष नहीं है परंतु इस फिल्म का गीत-संगीत पक्ष प्रशंसनीय है।
नशीले पदार्थ के सेवन से शरीर में कई व्याधियां हो जाती हैं और मस्तिष्क सोचने-समझने की ताकत खोने लगता है। उसे हैलुसिनैशन होते हैं अर्थात वह मनुष्य अजीब से दृश्य देखता है अौर विविध ध्वनियां उसे सुनाई देती हैं। नशे के कारण आंखों के सामने बेतरतीब दृश्य उभरते हैं। फिरोज खान की फिल्म 'जांबाज' में नायिका पर फिल्माए एक गीत में नशे का प्रस्तुतीकरण कुछ हद तक सटीक हुआ था। हमारे सिनेमा में इस तरह की व्याधियों के प्रस्तुतीकरण को फिल्मकार रोमांटिसाइज करता है और असहनीय वेदना को रंगीन बना देता है। ऋषिकेश मुखर्जी की 'आनंद' में कैंसर का मरीज रील दर रील सेहतमंद होता दिखाई देता है और जीवन से भरपूर आनंद ग्रहण भी करता है और अपने आस-पास के लोगों को भी आनंद देता है। यह नज़रिया फिल्म तक सीमित नहीं है। हमने तो अपने इतिहास को भी रोमांटिसाइज किया है। दरअसल, यथार्थ से भागने की हमारी पैदाइशी कमतरी है। हमने तो अवाम की गरीबी और भूख को आभामंडल प्रदान किया है, जबकि भूख से एेंठती अतड़ियां चेहरे को विदर्ण कर देती है। गरीबी और भूख को रोमांटिसाइज करने के पीछे गहरी साजिश है कि आदमी खूनी क्रांति का विचार तक न करे। रूखी-सूखी कभी-कभार मिलने वाली रोटी खाने से नींद अच्छी आती है और आत्मा में संतोष रहता है, जैसे झूठ को भी हमने ईस्टमैन कलर स्वप्न का रूप दे दिया है। आत्मा आकल्पन पूंजीवादी रचना है। इसी तरह धरती पर कष्ट भरा जीवन जीने से स्वर्ग मिलना भी एक भुलावा है। स्वर्ग व नर्क दोनों धरती की सच्चाइयां हैं। हमारे लालच, शोषण व अन्याय ने ही धरती पर नर्क रचा है। कुछ चुनिंदा लोगों को स्वर्ग के सुख प्राप्त हैं और अवाम को अाध्यात्मिकता की लोरी गाकर सुला दिया जाता है।
हमारी फिल्मों को हमने व्यवस्था की विज्ञापन फिल्मों की तरह बना दिया है अौर विज्ञापन फिल्में सपने, आकांक्षाएं और बाजार के संविधान की शपथ की तरह लगती हैं। अवाम दर्शक है, वह विज्ञापन को जीना चाहता है, सपनों की भूल-भुलैया मंे खोकर अपने को पाना चाहता है। रंगीन फिल्मों तक ही उसका सारा सैर सपाटा है। यथार्थ को खारिजकर दिया गया है।