खामोश अदालत आ रही है/ जयप्रकाश चौकसे

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खामोश अदालत आ रही है
प्रकाशन तिथि : 25 फरवरी 2013


सुभाष कपूर की 'जॉली एलएलबी' पंद्रह मार्च को प्रदर्शित होने वाली है। यह फिल्म अदालतों पर व्यंग्य है और कानूनी प्रक्रिया में बारीक से छेद ढूंढ़कर न्याय को विलंबित करने के वकीलों के प्रयास की पोल खोलती है। गोया कि राजकुमार संतोषी की फिल्म 'दामिनी' में वकील की गुर्राहट कि 'तारीख पे तारीख' वाली आम आदमी के आहत होने को गुदगुदी करने के ढंग से प्रस्तुत किया गया है। फिल्म का टाइटिल ही प्रसन्न वकील है। ज्ञातव्य है कि राजकुमार हिरानी मुन्नाभाई एमबीबीएस के बाद अदालत पर व्यंग्य करने के लिए मुन्नाभाई एलएलबी बनाने का इरादा रखते थे, परंतु उन्होंने कुछ समय दिमागी कुश्ती के बाद अदालती अखाड़े को छोड़ दिया और अब सुभाष अदालत को कॉमेडी सर्कस की तरह प्रस्तुत करने जा रहे हैं। हिंदुस्तानी प्रतिभा ने कानून को छलनी बना दिया है।

इस प्रक्रिया में मनुष्य के आहत होने को श्रीलाल शुक्ला की 'राग दरबारी' में बखूबी प्रस्तुत किया गया है, जब एक लंगड़ा पात्र फैसला हो जाने के बाद उसकी प्रति के लिए महीनों चक्कर लगाता है और न्याय पाने के पहले ही स्वर्ग चला जाता है, वहां भी शायद लंगड़े व्यक्ति के देर से पहुंचने के कारण कतार लंबी हो जाए। संभवत: नीचे और ऊपरी अदालत की प्रक्रिया समान है। इस हास्य फिल्म में एक अमीरजादे के अपराध का मुकदमा है और बचाव पक्ष के वकील का पात्र राम जेठमलानी से प्रेरित होकर रचे जाने की बात प्रचारित की जा रही है। ज्ञातव्य है कि राम जेठमलानी ने इंदिरा गांधी के हत्यारों का मुकदमा भी लड़ा था।

उन्होंने अनेक केस ऐसे लड़े हैं, जिनमें अपराधी के खिलाफ अनेक साक्ष्य मौजूद थे। वे एक पेशेवर वकील हैं और उनका फैसला गलत नहीं था, क्योंकि कानून का आधार यह है कि अभियुक्त को समान अवसर मिलना चाहिए और एक भी निरपराध दंडित नहीं हो। अत: कई बार स्पष्ट से दिखने वाले साक्ष्य भी झूठे सिद्ध होते हैं। बहरहाल यह पात्र जो तथाकथित तौर पर राम जेठमलानी द्वारा पे्ररित है, बोमन ईरानी अभिनीत होने जा रहा है। ईरानी विलक्षण प्रतिभा के धनी हैं।

सुभाष कपूर की पिछली फिल्म 'फंस गए रे ओबामा' अत्यंत मनोरंजक एवं सार्थक फिल्म थी। उन्होंने अमेरिका की आर्थिक मंदी के आधार पर एक गुदगुदाने वाली फिल्म रची थी और इसमें अपहरण को व्यवसाय के रूप में चलाने वाले मंत्री की भूमिका 'तारे जमीं पर' के लेखक अमोल गुप्ते ने बकमाल अभिनीत की थी। यह सुभाष कपूर का जीनियस है कि भ्रष्ट नेता बवासीर का मरीज है और उसकी जहालत की हद है कि शल्यक्रिया से ज्यादा यकीन उसे मंत्र पढऩे पर है। वह वॉशरूम में भीषण पीड़ा सहते हुए अजीबोगरीब मनगढ़ंत मंत्र का जाप करता है कि वह शौच क्रिया से निवृत्त हो सके, परंतु भ्रष्टाचार से कमाए धन ने उसे अपच का रोगी बना दिया है।

अमोल ने इस पात्र की जहालत, निर्ममता और अपच की पीड़ा को जीवंत कर दिया था। उसके चेहरे पर स्वाभाविक क्रिया से निवृत्त न हो पाने की पीड़ा हमेशा बनी रहती है और वह उपचार के लिए मूलियां चबाता रहता है, जिससे मात्र गंध ही बाहर होती है।

'फंस गए रे ओबामा' के सारे पात्रों का चरित्र-चित्रण ही इतना मजेदार हुआ था कि सारे पात्र फिल्म समाप्त होने के बाद आपके साथ चलते हुए महसूस होते हैं। अत: यह उम्मीद की जा सकती है कि 'जॉली एलएलबी' भी अत्यंत मनोरंजक फिल्म सिद्ध होगी और फॉक्स स्टार इसके प्रचार में कोई कसर नहीं रख रहा है। इस तरह की सिताराहीन फिल्मों का प्रचार आवश्यक है, ताकि एक अच्छी फिल्म अनदेखी नहीं रह जाए। विगत कुछ समय में फंस गए रे ओबामा, तेरे बिन लादेन, विकी डोनर, पानसिंह तोमर और कहानी जैसी फिल्मों ने मसाला फॉर्मूला फिल्मों के साथ ही अपने सीमित बजट पर अच्छा-खासा मुनाफा अर्जित करके सिनेमा की विविधता और दर्शक द्वारा उसके सम्मान को रेखांकित किया है। यह एक जीवंत उद्योग के लिए अच्छा लक्षण है।

'विकी डोनर' जैसे विचार पर मनोरंजक फिल्म रचना और आर्थिक मंदी पर 'फंस गए रे ओबामा' रचना सृजनशीलता के लक्षण हैं। सुभाष कूर ने बतौर पत्रकार चुनाव के समय उत्तरप्रदेश और बिहार का सघन दौरा किया है और हमारे चुनावों को देखना एक बहुत बड़ी सामाजिक शिक्षा है, जो आपको किसी महाविद्यालय में नहीं मिल सकती। वहां तो मृत पाठ्यक्रम को थके-हारे लोग बोझिल ढंग से पढ़ाते हैं। आज जीवन और सिनेमा की पाठशालाओं पर ज्यादा यकीन किया जा सकता है। इस समय 'काई पो छे' का निर्बाध एवं सफल प्रदर्शन भी उत्साहवर्धक है।