खामोश : अदालत जारी है / जयप्रकाश चौकसे

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खामोश : अदालत जारी है
प्रकाशन तिथि :29 सितम्बर 2015


जवाहरलाल नेहरू स्कॉलरशिप लेकर विजय तेंडुलकर ने भारतीय समाज में हिंसा और अन्याय पर गहन शोध किया, जिसके बाय प्रोडक्ट हैं उनके महान नाटक 'शांतता कोर्ट चालू आहे'। जिसे हिंदुस्तानी में अनुवाद किया गया 'खामोश अदालत जारी है' के नाम से। उनके 'सखाराम बाइंडर,' 'गिधाड़े' इत्यादि नाटकों ने धूम मचा दी और सोचने से हमेशा बचते रहने वाले भारतीय समाज को सोचने पर मजबूर किया। इस मुद्‌दे से जुड़ी एक अजीबोगरीब बात यह है कि अजंता की गुफाओं के निर्माण में कई सौ वर्ष लगे और कलाकार की एक पीढ़ी ने एक आकृति का एक भाग बनाया, दूसरी पीढ़ी ने आगे काम किया। इस तरह कलाकारों की अनेक पीढ़ियों ने 'अजंता' रचा। परंतुु सामूहिक अवचेतन पर एक पीढ़ी या कुछ कलाकार कोई अधूरी-सी आकृति गढ़कर गुजर जाते हैं तो दूसरी पीढ़ी आती है। परंतु विगत पीढ़ी की बनाई अधूरी छवि चंचल और फिसलनभरे सामूहिक अवचेतन से मिट चुकी होती है और हर पीढ़ी को नए सिरे से काम करना पड़ता है। यही कारण है कि सदियों से पनपते अंधविश्वास और कुरीतियों के खिलाफ हर पीढ़ी को नए सिरे से काम करना पड़ता है। यही कारण है समाज को 'तर्क सम्मत विचार' करने के लिए बार-बार मजबूर करना पड़ता है।

बहरहाल, आज अदालत का विचार जहन में इसलिए भी आया कि युवा फिल्मकार चैतन्य तम्हाणे की यथार्थवादी प्रस्तुतीकरण वाली फिल्म 'कोर्ट' इस वर्ष ऑस्कर में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली है। फिल्मों में प्राय: अदालत के दृश्य अति नाटकीय होते हैं और यथार्थ की अदालत से तो उन्हें अदावत (दुश्मनी) ही नजर आती है। फिल्मी अदालती दृश्य में चीखते-चिल्लाते काला कोट पहने वकील कुछ दरख्त पर कांव-कांव करते कौए में नजर आते हैं। जज महोदय का मेज पर हथौड़ा ठोंककर ऑर्डर ऑर्डर कहना भी पारसी थियेटर की अति नाटकीयता की याद दिलाता है। हम कभी अगाथा क्रिस्टी का लिखा 'विटनेस फॉर प्रॉसिक्यूशन' नहीं रच पाते, जिस पर फिल्म भी बनी है। स्टीवन स्पिलबर्ग की एक फिल्म में दक्षिण अफ्रीका से अमेरिका बंधुआ मजदूर बनाकर लाए जाने वाले गरीब लोगों पर मुकदमा चलता है कि उन्होंने जहाज पर विद्रोह करके उसे कुछ समय के लिए अपने 'अवैध' कब्जे में ले लिया था। अदालत के दृश्य में उन गरीबों का वकील अदालत में लगे अब्राहम लिंकन और अन्य राष्ट्रपतियों की तस्वीरों की ओर देखते हुए कहता है कि यह झूठा मुकदमा इन महान लोगों को कितना दु:ख पहुंचा रहा होगा, जिन्होंने समान अधिकार के लिए लंबी लड़ाई लड़ी थी। हमारे यहां भी कुछ ऐसा ही लग रहा है। 'तमाम उम्र का हिसाब मांगती है जिंदगी, हम क्या कहें कि खुद पे शर्मसार हैं हम।'

बहरहाल, चैतन्य तम्हाणे की 'कोर्ट' इस कदर यथार्थवादी है कि रोंगटे खड़े हो जाते हैं और सारे दर्शक अपने से शर्मसार नजर आते हैं। एक दलित आशु कवि नारायण काम्बले अपने गीतों के द्वारा आम जनता को अन्याय के खिलाफ जागरूक होने के जन-गीत गाता है और आत्म मुग्ध अन्याय व शोषण करने वाली व्यवस्था उसे एक धरती के नीचे बनी गटर को साफ करने वाले कर्मचारी को आत्महत्या के लिए प्रेरित करने का आरोप लगाती है। सचाई यह है कि गटर में तीव्र गंध से जूझने के लिए काम करने वाले शराब पीकर काम करते हैं और ऐसा ही एक गरीब शोषित कामगार मर जाता है, जिसका पूरा दोष निर्मम व्यवस्था पर जाता है। परंतु दलित कवि को फंसाने का ताना-बाना सफाई से बुना गया है। सुखद आश्चर्य है कि युवा ताम्हाणे ने हर प्रेम को प्रतिभा से रचा है और कहीं भी वह अपना संयम नहीं खोता। मृतक की पत्नी की भूमिका करने वाली विधवा का चेहरा अदालत में इतना घबराया हुआ है, मानो वह हिरणी है और शिकार की जीप का तीव्र प्रकाश उसके चेहरे पर पड़ता है, तो वह दौड़ना भूलकर वहीं गतिविहीन हो जाती है। यह फिल्म अनायास ही बादल सरकार के नाटक 'बाकी इतिहास' की याद दिलाता है, जिसमें एक आत्महत्या के कारणों पर दो अलग काल्पनिक हालात प्रस्तुत होते हैं और नाटक के अंत में आत्महत्या करने वाले मंच पर आता है, जिससे कारण पूछते हैं तो वह प्रति-प्रश्न करता है कि 'आप हत्या क्यों नहीं करते, इस अन्याय आधारित विभाजित व्यवस्था ने जीने के लिए कोई बहाना ही नहीं छोड़ा।'

ऑस्कर प्रतियोगितामें व्यवसायी प्रचार संस्था का सहारा लेने के लिए करोड़ों रुपए खर्च करने पड़ते हैं, अत: सवाल यह है कि युवा तम्हाणे की कौन सहायता करेगा? इस प्रतियोगिता में सलमान की महान 'बजरंगी भाईजान' और आमिर की 'पीके' भी थी। जूरी का फैसला 'कोर्ट' के पक्ष में रहा। अत: क्या सलमान और आमिर तम्हाणे को आर्थिक मदद देंगे? इस वर्ष की सभी फिल्में महान थीं।