खारिज तोप के दहाने पर नन्हीं चिड़िया का घोंसला / जयप्रकाश चौकसे

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खारिज तोप के दहाने पर नन्हीं चिड़िया का घोंसला
प्रकाशन तिथि : 15 जनवरी 2020


अमेरिकन फिल्मकार डी.डब्ल्यू. ग्रिफिथ की फिल्म 'बर्थ ऑफ ए नेशन' के पहले बनी परंतु बाद में प्रदर्शित फिल्म 'इनटोलरेंस' आज भी समसामयिक रचना है। यह फिल्म 3 सितंबर 1916 को प्रदर्शित हुई थी। फिल्मकार का मूल संस्करण 8 घंटे का था, परंतु दोबारा संपादन करके ढाई घंटे का संस्करण प्रदर्शित किया गया। ग्रिफिथ ने फिल्म का नाम 'मदर एंड लॉ' रखने का सोचा था। असमानता आधारित व्यवस्था की कोख से हड़ताल जन्म लेती है। रूस के फिल्मकारों ने इस फिल्म पर अनगिनत लेख लिखे हैं और विश्व सिनेमा में 'इनटोलरेंस' का विशेष स्थान है। फिल्म में प्रसिद्ध उद्योगपति रॉक फेल्ट के एक कारखाने में मजदूरों ने अपने अधिकार के लिए लंबी हड़ताल की थी। जिसे तोड़ने के लिए तत्कालीन हुक्मरान ने पुलिस से लाठियां चलवाईं और गोलियां मारी। जिस कारण 23 हड़ताली मजदूरों की मृत्यु हुई। रॉक फेल्ट ने साधनहीन प्रतिभाशाली लोगों की सहायता के लिए एक संस्था का निर्माण किया। यह संभवत उनका प्रायश्चित था।

ग्रिफिथ की दोनों फिल्में 'बर्थ आॅफ ए नेशन' और 'इनटोलरेंस' के बीच भी एक रिश्ता है। पहली फिल्म में स्वतंत्रता और समानता के लिए युद्ध लड़ा जाता है और दूसरी फिल्म में उन जीवन मूल्यों के पतन का विवरण है, जिनके लिए युद्ध लड़ा गया था। ग्रिफिथ की फिल्में अपने समाज के गैरसरकारी दस्तावेज की तरह रखी गईं। फिल्मकार इतिहासकार भी होता है। फिल्मों के प्रदर्शन के बाद ग्रिफिथ को महसूस हुआ कि उसने विषय के साथ न्याय नहीं किया। हैवानियत को अपने संपूर्ण घिनौने रूप में भी वे प्रस्तुत नहीं कर पाए। उनकी कशमकश को हम समझ सकते हैं कि हड़ताल पर लिखी पटकथा रक्त से लिखी जाना चाहिए और इस रक्त में आंसू भी मिले हुए होना चाहिए। यह एक अलग किस्म का काउंटर क्लोजर है। ज्ञातव्य है कि लेखिका सिमॉन दा व्वू ने काउंटर क्लोजर का इस्तेमाल किया, मनुष्य के अवचेतन को दिखाने के लिए। व्यक्ति अपनी सफलता के समय ही जान जाता है कि दरअसल वह असफल हो चुका है, जैसे महात्मा गांधी स्वतंत्रता मिलने के समय हुए विभाजन और हिंसा के कारण स्वयं को असफल मानते थे।

नूतन और बलराज साहनी अभिनीत 'सोने की चिड़िया' फिल्म में नूतन सुपर सितारा हैं और उसकी कमाई पर उसके वृहद परिवार के सदस्य ऐश कर रहे हैं। बलराज साहनी फिल्म स्टूडियो के कामगार यूनियन के अध्यक्ष हैं। कामगारों को सहूलियतें दिलाने के लिए वे हड़ताल करते हैं। बलराज साहनी एक फिल्म बनाते हैं, जिसका मुनाफा स्टूडियो कर्मचारियों में बराबरी से बंटना है। नूतन इस फिल्म में बिना मेहनताना लिए अभिनय करती हैं। इस दौरान नूतन और बलराज साहनी में प्रेम हो जाता है। नूतन, बलराज साहनी के जीवन मूल्यों और आदर्श से प्रभावित हैं। वह अपने निकम्मे रिश्तेदारों से मुक्त हो चुकी है। यह निकम्मे लोग किसी तरह फिल्म निर्माण कंपनी में घुसपैठ करते हैं और लाभ को कर्मचारियों में बंटने नहीं देते। इस तरह का 'फिफ्थ कॉलम' हर संस्था में खड़ा हो जाता है। बलराज साहनी अभिनीत पात्र पर धन के हिसाब-किताब में घपला करने का आरोप लगाया जाता है। उसके खिलाफ नफरत की अफवाह आधारित मुहिम चलाई जाती है। नूतन उसका बचाव करती है। प्रकरण के सुलझ जाने के बाद बलराज साहनी इसलिए आहत हैं कि हर अच्छे काम में बुराई घुसपैठ कर जाती है। बलराज साहनी अपना संगठन और स्टूडियो छोड़कर पैदल ही अंजान मंजिल की ओर चल पड़ते हैं। नूतन अपनी कार में बैठकर उनकी खोज में निकल पड़ती हैं। राह में उनकी मुलाकात होती है और नूतन अपनी कार और गहने त्याग कर बलराज साहनी के साथ पैदल ही चल पड़ती हैं। याद आता है विजय आनंद की 'गाइड' का दृश्य। सुपर सितारा वहीदा रहमान अपने गहने एक-एक कर उतारकर फेंकते हुए आमरण अनशन पर बैठे राजू की ओर जाती हैं। राजू गाइड का निर्वाण मृत्यु के समय होता है, परंतु वहीदा रहमान ने आभूषण त्याग करके ही अध्यात्म प्राप्त कर लिया।

अमेरिका में मजदूरों को अपना संगठन बनाने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा। सीनेटर वेगनर ने मजदूरों को संगठन बनाने के अधिकार के लिए संघर्ष किया। लंबी लड़ाई के अंत में संगठन बनाने का अधिकार प्राप्त हुआ परंतु व्यवस्था ने अपने हितों की रक्षा करने वाले घुसपैठियों को संगठन में भेज दिया। ज्ञातव्य है कि अंग्रेजी फिल्म 'बैकेट' की प्रेरणा से बनी ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्म 'नमक हराम' में राजेश खन्ना अभिनीत पात्र मजदूर संगठन का नेता बन जाता है। ये मालिक के बेटे अमिताभ बच्चन का बचपन का मित्र है।

बहरहाल, आज भी छात्र हड़ताल पर हैं। शाहीन बाग, दिल्ली में छात्र हड़ताल कुछ इस तरह है, जैसे मानव जंग में खारिज की गई तोप के दहाने पर नन्हीं चिड़िया ने अपना घोंसला बनाया हो।