खाली हाथ / नज़्म सुभाष
चचा ने सफेद कुर्ते पर काली सदरी पहनी। सिर पर टोपी लगाई, कांधे पर रूमाल रखा और अपनी साइकिल बाहर निकाली, चूड़ियों का बक्सा कैरियर पर रखा और दो थैले हैंडल पर टांग लिए। वो निकलने वाले ही थे कि रशीद ने पूछ लिया-" अब्बा कहाँ जा रहे हैं?
"बैठे बैठे जी ऊबता है...बस ज़रा बसंतपुर तक जा रहा हूं"
"अब क्यों परेशान हैं? अब कोई कमी तो नहीं... दो-दो दुकानें हैं फिर ये फेरी?"
"बेटा मैं कमाई के लिए नहीं जा रहा बहुत वक्त हुआ लोगों से दुआ सलाम हुए इसी बहाने मिलना जुलना हो जाएगा"
"मगर साइकिल संभलेगी?"
"देखता हूं" कहकर वह साइकिल घसीटते हुए पैदल चल दिए। जो भी राह में मिलता दुआ सलाम खैरियत ज़रूर पूछते।
पूरे 3 साल बाद बसंतपुर जा रहे हैं। एक ऐसा गाँव जहाँ से उन्होंने पैसे से ज़्यादा मोहब्बत कमाई। फेरी लगाने से लेकर 2 दुकानों तक का सफर... कितना कुछ बदल चुका है मगर आज भी लगता है जैसे कल की बात हो।
थोड़ी दूर पैदल घसीटने के बाद उन्होंने साइकिल पर बैठने की कोशिश की मगर हैंडिल लड़खड़ाने लगा। मजबूरी में उन्होंने पैदल बढ़ना ही जारी रखा। आधे रास्ते पहुँचे तो प्यास लग आयी। उन्होंने एक छायादार पेड़ के नीचे साइकिल रोकी। स्टैंड लगाया और थैले में पड़ी पानी की बोतल निकाली। दो घूंट पानी पिया तो कुछ तरावट महसूस हुई। चलते-चलते पैरों में थकन उतर आयी थी लिहाजा कुछ देर के लिए सुस्ताने बैठ गये।
चचा सुस्ताने बैठे तो अबतक सुस्त पड़े बहुत सारे खयाल जेहन में धमाचौकड़ी मचाने लगे।
तीज त्यौहार में उनकी चूड़ियों की खूब डिमांड रहती थी शादी ब्याह के मौके पर स्पेशली उन्हें बुलाया जाता। ऐसा कभी नहीं हुआ कि वह घर से निकले हों और खाली हाथ लौटकर आए हों...उनके बक्से और थैले में पड़ी चूडियाँ हाथों हाथ बिकती थीं। तब लोगों के पास पैसा कम था मगर दिलों में मुहब्बत थी...सैकड़ों किस्से उन्हे जस के तस आज भी याद हैं।
सन् 1999...
रामकरन की बिटिया नीलू की शादी थी। रामकरन चचा के घर पर जाकर 15 दिन पहले ही कह आए थे-"चचा बिटिया कि शादी है चूड़ियाँ आपको ही पहनानी हैं"
और उन्होंने हंसते हुए कहा-"ज़रूर ...इसके लिए कहने की ज़रूरत थोड़ी है।"
विदाई वाले दिन 7: 00 बजे सुबह ही चचा पहुँच गए। चाय नाश्ता करने के बाद उन्होंने थैला उठाया और उस कोठरी की तरफ बढ़ गये जहाँ दुल्हन बनी नीलू बैठी थी। चूड़ियाँ पहनाने लगे तो दर्जनभर चूड़ियाँ पहनाते समय ही टूट गईं। हाथ कड़ा था। मगर अंततः उन्होंने भर कलाई फैंसी चूडियाँ पहना ही दीं। अब बारी नेग की थी जिसे लड़के वालों को देना था मगर कोई दिखा नहीं तो उम्मीद में बैठे रहे।
कुछ देर बाद थोड़ा घूंघट किए नीलू की अम्मा सामने हाजिर थीं-"चचा बताइए कितना दिया जाए?"
चाचा मुस्कुराए-" छोटकी! विदाई की चूड़ियाँ हैं इनकी कीमत नहीं... आज तो जमाई बाबू के घर वालों से नेग वसूलना है।
उनका चेहरा उतर गया। बड़ी मुश्किल से कह पायीं-' चचा वह तो शायद न मिलें मगर अभी आप इतने रख लीजिए"
कह कर उन्होंने सौ का नोट बढ़ा दिया।
चाचा ने सौ का नोट हाथ में लिया उलट पलट कर देखा कुछ देर खामोश रहे फिर बोले-"उम्मीद थी नेग मिलेगा"
"चचा रात को लड़के वालों से कुछ बात बिगड़ गई थी लिहाजा इस वक्त उनसे कहना ठीक नहीं है हम अपने पास से दे रहे हैं"
"फर्ज तो उनका ही बनता था"
"चचा लड़के वालों के कौन से फर्ज...? यही बहुत है जो हमारे घर बेटा ब्याह रहे" आवाज सर्द थी।
"सही कहा छोटकी...मगर इतने में नुकसान हो जाएगा"
"अपनी ही बिटिया समझकर रख लो"
चचा एक पल छुटकी को देखते रहे।
शब्द मर्म को भेदते चले गये। आंखें भर आयीं। बिल्कुल हमारी भी बिटिया है। तीज त्यौहार हमेशा चार पैसे कमाए हैं। उन्होंने सोचा और उठ खड़े हुए।
"अच्छा चलता हूं"
कहकर बाहर निकले तो देखा आंगन में कलेवा चल रहा था। मनोहर कलम कॉपी लिए आने वाले उपहार और नगदी नाम सहित दर्ज करने में लगा था।
चचा ठिठके। कुर्ते की जेब टटोली। सौ रुपये अभी मिले थे 20 उनकी जेब में पड़े थे 1रुपया और मिल जाता...खैर, दूसरी जेब में मिल गया।
"मनोहर यह मेरी तरफ से"
कह कर उन्होंने 121रुपये उसकी ओर बढ़ा दिए।
11, 21, 51 के दौर में 121 रुपये... मनोहर ने हैरानी से नजर उठा कर देखा।
"अरे चचा आप... क्या आपको भी कार्ड मिला था?"
"बिटिया कि शादी के लिए कार्ड की ज़रूरत नहीं होती"
मनोहर ने सगुन लेकर अपनी बैग में रखा और बोला-"क्या नाम लिख दूं चचा"
"नाम... नाम लिखने की ज़रूरत नहीं है बच्चा" कहकर वह बढ़ने लगे।
"रुको चचा हिसाब किताब के लिए ज़रूरी है"
"फिर चचा ही लिख दीजिए"
सन 2003...
सावन चल रहा था। इस वक्त हरी चूड़ियों की डिमांड बढ़ जाती है और आज तो गुड़िया हैं। चचा फेरी लगा रहे थे। जिधर से भी निकले किसी ने दो दर्जन तो किसी ने तीन दर्जन चूड़ियाँ पहनी। धीरे-धीरे चूड़ियाँ खत्म हो रही थी। अवधराम के घर के पास पहुँचे तो अंदर से आवाज आई-"रुकिये चचा"
उन्होंने साइकिल दीवार के सहारे टिकाई। थैला उतारा और बरामदे में बैठ गए।
"अंदर चले जाइए.।बहुरिया चूड़ी पहनेगी"
उन्होंने थैला उठाया और अंदर चले गए।
चचा को देखा तो बहुरिया ने ज़रा घूंघट कर लिया और सामने बैठ गई। उन्होंने 3-4 तरह की चूड़ियाँ निकाल कर रखीं-"पसंद कर लो बहुरिया"
पसंद की चूड़ियाँ पहनाने के बाद जब वह उठने लगे तो उसने कहा-"चचा बैठिए... गरम-गरम पूरियाँ छन रही है आपके लिए भी लाती हूं"
"मैं तो घर से ही खाकर चला हूँ"
"जानती हूँ चचा... मगर आज त्यौहार है"
"ऐसी बात है बहुरिया तो ले आना मगर दो से ज़्यादा न नहीं"
सामने एकदम साफ सुथरी नयी थाली आई तो उसमें घुइयाँ की भुजिया और पूरी थीं। चाचा 2 मिनट थाली देखकर असमंजस में बैठे रहे।
"क्या हुआ चचा"
"बहुरिया पत्तल होता तो..."
"चचा खाइए कोई परेशानी नहीं"
"वो तो सब ठीक है मगर मामला धरम का है"
"चचा आपका धरम क्या है मुझे क्या करना...आप इंसान हैं यही बहुत है"
चचा कि आंखें भर आयीं। दो पूरी खाना चाह रहे थे चार खा गये।
सन् 2004
रामदीन की बिटिया सीमा कि शादी थी। उन्हें सुबह ही जाना था मगर तेज बुखार के साथ कमजोरी इतनी थी कि उठना ही मुश्किल था। मगर उन्हें फर्ज याद आया "ब्याही बिटिया क्या ससुराल नंगे हाथ जाएगी?"
वो लड़खड़ाते कदमों से बिस्तर से उठे। साइकिल निकाली किसी तरह गिरते पड़ते पहुँचे। सब उनका ही इंतजार कर रहे थे। आज की तरह मोबाइलयुग होता तो शायद अब तक 8-10 फोन पहुँच चुके होते।
"बहुत देर कर दी चचा अब तो विदाई होने वाली है"
किसी मेहमान ने कहा तो उन्हें शर्मिंदगी महसूस हुई।
"बस 10 मिनट में हो जाएगा" उन्होंने जल्दी से थैला उतारा और चूड़ियाँ पहनाने लगे।
अपना सामान समेट कर वह बाहर निकले ही थे कि देखा सब रो रहे हैं विदाई हो रही थी। आज देर हो गयी थी अन्यथा इस दृश्य तक वह कहीं नहीं रुकते। भले ही चूड़ियाँ अब तक उन्होंने सैकड़ों बेटियों को पहनाई हैं मगर रोती बेटियों को कभी नहीं देख पाये।
उन्होंने जल्दी से साइकिल में थैला टांगा और जाने के लिए मुड़े ही थे कि कोई उनके कंधे पर झूल गया। चचा अवाक्। कुछ संभले तो देखा दुल्हन के लिबास में सीमा थी जिसे वह अभी चूड़ियाँ पहना कर आए थे।
"जा रही हूँ चचा... बचपन से आपको देखती हूँ कई बार चूडियाँ भी पहनीं। पता नहीं अब कब मौका मिले मगर आप आते रहिएगा" कहकर उसने आंसू पोछ लिए।
भावविह्वल चचा ने अपना हाथ सीमा के सिर पर रख दिया-" खुशी-खुशी जाओ बिटिया... गौने में आना तो खबर करना... मैं आऊंगा... और तुम्हारे लिए फैंसी चूड़ियाँ भी लाऊंगा।
कह तो गये चचा मगर महसूस हुआ कलेजा फटा जा रहा है आज जैसे अपनी बेटी ससुराल जा रही हो।
यादों की धुन्ध छंट चुकी है ये चाचा को तब मालूम हुआ जब आंखों से निकलकर आंसू उनकी सफेद दाढ़ी को भिगोने लगे। उन्होंने कंधे पर पड़े रुमाल से आंखें साफ कीं और उठ खड़े हुए। साइकिल का स्टैंड पैर की ठोकर से हटाया फिर पैदल गाँव की तरफ चल पड़े। अब तो न ऐसे रिश्ते बचे हैं न मनिहारों की कद्र...साड़ी के मैचिंग की चूड़ियाँ खरीद लाइए। कहीं आने जाने पर पहन लीजिए फिर उतारकर रख दीजिए। उन्हें अरसा बीत गया चूडियाँ पहनाए हुए।
गाँव के बाहर पहुँचकर चचा जब गाँव में घुसे तो मुस्कुराकर सबसे दुआ सलाम होने लगी।
"अरे चचा बहुत दिन बाद..."
धीरजराम थे।
"हाँ बस आप लोगों से दुआ सलाम करने चले आए और सब खैरियत है"
"सब ठीक है चचा ...पहले से कमजोर हो गये हैं"
चचा मुस्कुराए। "हमेशा जवान ही रहेंगे क्या..."
दोनों तरफ से ठहाका गूंज गया। वो एक छोर से घुसे थे और दुआ सलाम करते हुए दूसरे छोर की तरफ बढ़ रहे थे।
"और भैया राम सुमिरन सब खैरियत है"
"सब खैरियत है चचा आज बड़े दिन बाद"
"हाँ बस आप सबसे मिलने की इच्छा थी तो चला आया"
"आव चचा ज़रा सुस्ता लो"
उन्होंने कुर्सी की तरफ इशारा किया।
"नहीं भैया! बड़े दिन बाद आया हूँ तो सबसे मिल लूं"
"जैसी आपकी इच्छा चचा"
चचा आगे बढ़ रहे थे। अचानक पीछे से आवाज़ आई-"ये मुल्लाजी '"
चचा के कदम एक पल के लिए ठिठके मगर उन्हें तो सब चचा कहते हैं कोई और होगा लिहाजा उन्होंने साइकिल बढ़ा दी।
"लगता है मुल्लाजी बुढ़ापे में ऊंचा सुनने लगे हैं"
इस बार चचा खड़े हो गए। सामने देखा तो चार लड़के खड़े थे।
"क्या हुआ बच्चा?"
"जय श्रीराम"
इस पूरे गाँव में क्या छोटा क्या बड़ा आज तक सबने उन्हें चचा ही कहा है यूं तो मुल्लाजी कोई गाली नहीं मगर उनकी उम्र साठ के आसपास है और ये 15-16 साल के लड़के... उन्हें हैरानी हुई। बड़ी मुश्किल से थूक निगला और बोले-"सलाम बच्चा और कैसे हैं?"
"हम तो ठीक हैं मगर तुम सठिया गए हो... हिंदुओं का गाँव है और तुमको सलाम सूझ रही है मुल्ले"
"बेटा अब जुबान पर यही चढ़ा है बाकी सठिया तो खैर गया ही हूँ। मगर अबतक सभी चचा बोलते थे तो..."
"मुल्ले को मुल्ला न कहूँ तो क्या कहूँ?"
"जैसी मर्जी" चचा ने सिर झटका।
"अबतक कितनों को ठगा"
"30-35 साल से आ रहा हूँ यहाँ बच्चा... जिसने जो दिया रख लिया...कभी किसी से पैसों के लिए मैल न रही।"
"दो दुकानें बिना ठगे ही बन गयीं"
"ईमानदारी के पैसे पर अल्लाह बरकत देता है। खैर चलता हूं" कहकर वह आगे बढ़ने लगे।
"मुल्लाजी ऐसे नहीं पहले जय श्रीराम का जवाब तो दो"
"जवाब तो दिया था ..."
"हिंदुओं के गाँव में जय श्रीराम के बदले सलाम"
"सबका अकीदा अलग-अलग है अन्यथा ऊपरवाला एक ही है...क्या राम क्या अल्लाह"
"मतलब राम न कहोगे"
बेबसी चचा के चेहरे पर उतर आयी।
"बच्चा तुम्हारे दादा कि उम्र का हूँ कुछ तो लिहाज करो...मैंने हमेशा सलाम की है सबने जवाब दिया...किसी ने ऐतराज़ न किया। इस गाँव से हमारा बहुत पुराना नाता है फिर आज अचानक..."
"हिंदुओं के मोहल्ले में आकर सलाम करते हो...और ऊपर से नसीहत देते हो... अभी बताता हूं"
वो लड़का बोल ही रहा था कि उसके साथ खड़े तीनों लड़कों ने उनके हाथ से साइकिल छीनी और हैंडिल पकड़कर पटक दी। थैले में पड़ी रंग बिरंगी चूड़ियाँ किर्ची-किर्ची होकर जमीन पर बिखर गयीं।
"सुन बे मुल्ले अगली बार गाँव में घुसने से पहले जय श्रीराम रट लेना"
कहते हुए लड़के कबके भाग चुके।
इतना सबकुछ उनकी समझ से परे था। बसंतपुर में ऐसा पतझड़...उनकी आंखें पसीज गयीं। जिस गाँव ने उन्हे चचा-चचा कहकर मान सम्मान दिया आज उसी गाँव के लिए वह मात्र मुल्ले थे। उनकी सिनाख्त बस इतनी भर ...आज वह बेटियाँ कहाँ गयीं जो विदाई के समय चचा-चचा कहकर लिपट जाती थीं। अपने घर की थाली में मुझ मलेच्छ को खिलाने वाली वह बहुएँ...कहाँ गया वह गाँव जो अपनी बेटियों को मेरी बेटी भी बताता था। चचा को महसूस हुआ भरी बाज़ार में कोई उनकी इज्जत नीलाम। चला गया।
नजरें झुकाये खड़े चचा ने चोर नजर से चारों तरफ देखा कोई देख तो नहीं रहा मगर वहाँ कोई नहीं था। बुढ़ापे में लाखों टन बोझ सरीखी जिल्लत उठाये हुए भी कांपते हाथों से उन्होंने साइकिल उठाई। बक्सा लादा। थैले टांगे और भारी मन से गाँव से बाहर निकलने लगे। कुछ ही दूर आगे बढ़े थे कि एक बच्चा दौड़ता हुआ आया।
"चचा चचा आपको अम्मा बुला रही हैं।"
"किसलिए"
"चूड़ियाँ पहननी है"
"बच्चा अम्मा को बोल देना आज चचा खाली हाथ हैं" उन्होंने बड़ी मुश्किल से इतना कह पाये और आगे बढ़ गये।