खाविंद-दाँ / हुस्न तबस्सुम निहाँ

Gadya Kosh से
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चालीस की सितारा फूल-गुम्मों से सजी अपनी उम्र-दराज सहेलियों से घिरी बैठी थी। बरामदे के दूसरे कोने में थोड़ी सी औरतें जो अब आखिरी पड़ाव पर टिकी हुई थीं, उनकी धीमी, गूँजती बेलौस आवाजों में बंदरे और बन्ने की तरंगें लय पा रही थीं। वहीं जवान हो चुकी बेटियों की माँएँ एक हैरतअंगेज टोह लिए काना-फूसी कर रही थीं।

'...यहाँ तो कँवारियों के उठने में लाले लगे हैं, और ये है कि... शादी पर शादी... एक छोड़ा' नहीं कि दूसरा हाथ बाँधे खड़ा है।'

'छोड़ो भाभी जान... तुम भी, अगर ऐसे ही लौंडे ढूँढ़ने हैं तो दर्जनों मिलेंगे... कोई दोहला है...कोई तेहला...' ...वे हर्फ-हर्फ किसी बनावटी तसल्ली से चुन देना चाहतीं, लेकिन फिर भी सच यही था कि उन औरतों को अंदर-ही-अंदर कोई खलिश जैसी चीज जरूर चाटती रही थी। फिर कहीं किसी ने फुसफुसाते हुए कहा था -

'हे...हे...ह... खाविंद-दाँ...' - फिर देर तक उनके बीच धीमी तंजिया हँसी कुलबुलाती रही थी। असल में तीसरी तलाक के बाद वह इसी नाम से मोहल्ले में मशहूर हो गई थी। पड़ोसिनें पीठ पीछे उसका जिक्र इसी नाम से किया करती थीं। बहरहाल, ये सितारा का चौथा निकाह था।

सितारा बेवा माँ की छह लड़कों पर अकेली लड़की थी। घर में काफी लाड़-प्यार में पली थी। बस्स, मोहल्ले भर में चमक्को बनी फिरा करती। कभी इस घर, कभी उस घर। कभी ये कूचा, कभी वो बाग...।

पंद्रह साल की होते-होते उसे पड़ोस के करीम टैप्पोवाले से इश्क हो आया था। वही करीम जिसके सँग पतंग उड़ाते... बीता था उसका बचपन। तब साथ की सहेलियाँ अक्सर उसे छेड़ बैठतीं -

'...सितारा, करीम सँग पतंग उड़ाने का खेल खेलते-खेलते तूने नैन लड़ाने का खेल कब चालू कर दिया...?' और उसका साँवला चेहरा थोड़ी हया, और खुशी लिए कलछऊँ पड़ जाता। होंठों पे सुबह की धूप खिल जाती। मगर करीम की कहानी ज्यादा नहीं चल पाई थी। सितारा के भाइयों ने करीम को किनारे कर पड़ोसी गाँव के एक खेतिहर से ब्याह दिया उसे। उसका खाना-पीना छूटा सो अलग। शुरुआती महीनों में तो वह दोहरी-तेहरी जिंदगी जीती रही। मगर इस दोहरी-तेहरी जिंदगी के दरम्यान जाने कब कफस चीर कर हाथों के जुगून आलोप हो गए थे। और वह... बेतरह... बेतरफ... बची रह गई थी। लेकिन खुदायी ने नसीबों के आसमान पर उसके लिए लिखा ही कुछ अलहदा था। दो साल के तबील इंतजार के बाद भी उसकी गोद में कोई फूल ना खिला और उसे कुनबे में ही अफला कह कर बेदखल कर दिया गया था। हर तरफ की कोचन तो मिली ही उसे, रफ्ता-रफ्ता पूरे कुनबे में उसके लिए एक मुखालफत हाईल हो गई। जेठानियाँ कोंचती-देवर को -

'देवर जी... आखिर बंजर जमीन पर कब तक हल चलाते रहोगे..?

- वह कट कर रह जाती ।

- कभी उसे चिड़कातीं -

'देवरानी जी, काम-धाम में जरा फुर्ती दिखाया करो... तुम तो ऐसे रूगुस-रूगुस करती हो जैसे अब्भी बच्चा जायी हो...'

- एक रोज गर्मी की ढलती साँझ में वह ओसारे में बैठी अपने ...खाविंद दाँ के सँग लूडो खेल रही थी, कि उधर से गुजर रही जेठानी ने छेड़ा

'देवर जी, अब ये बचपना छोड़ो अपनी नसल बढ़ाने की कोई तरकीब करो... जब गुड़िया-गुड्डा ही खेलना था तो क्या जरूरत थी जोईया लाने की, कंकड-पत्थर गले बाँध लाने की...'

- वह तमतमा गई। अच्छी-खासी चाल चलने जा रही थी, मियाँ को पटखनी देने ही वाली थी कि शह पलट गई। ये क्या तरीका है किसी की खुशी में दखलअंदाजी का? झप्प से हाथ मारा। गोटियों, पासा सब तितर-बितर...। लपक के बाहर निकली। निकलते-निकलते ठक से ड्योढ़ी की बल्ली से सिर टकराया। हल्की आह से सिर पर हथेली जमा ली और जेठानी को ललकारा -

'भाभी जान, तुम तो बड़ी जरखेज हो। छह-छह बच्चे जने हैं। क्यूँ नहीं देवर को भी अपने पास सुला लेतीं... देवर की नसल भी कल्ले फोड़ने लगेगी।'

इत्ता कहना क्या था कि मियाँ साहब ने भाभी का फेवर लेते हुए दौड़ कर डंडा उठाया, भाभी भी झपटीं मगर उससे भी पहले सितारा ने कोठरी में गड़ाप से घुस कर भीतर से कुंडी लगा ली। कोठरी के दरवाजे पर डंडे पीटे जाते रहे, गालियाँ बकी जाती रहीं। तब थक कर वह मैदान छोड़ आई थी। अंदर ही अंदर उसने नकाब समेटा, और पीछे गली में खुलनेवाली खिड़की से गली में उतर गई। गली में ही बुर्का पहना और चली आई। घर आते ही वह फट पड़ी थी -

'तुम लोगों ने आखिर कर ली अपनी मर्जी की? ...करीम क्या बुरा था उस मुए से...?'

और खूब रोई। आखिर थोड़े इंतजार के बाद उसके खाविंद कासिम ने उसे तलाक दे कर दूसरा निकाह पढ़वा लिया था। मगर इस बार भी उसके यहाँ कोई चिराग नहीं जन्मा था और तब वह अपना सा मुँह लिए इसे रिजा-ए-इलाही कह कर तसल्ली कर गया था। ये और बात है कि ऐसे सारे इल्जामात हमारी रिवायतों के मुताबिक औरत के सिर ही टाँक दिए जाते हैं। शायद इसलिए कि इन्हीं रिवायतों के मुताबिक औरत बदली जा सकती है, मगर ऐसा कभी नहीं देखा गया कि जब ऐसी ही नौबत मर्द से पेश आई हो तो औरत ने मर्द बदला हो। हालाँकि औरत के मन में भी अपने तसव्वुरात के फूल खिलते हैं मगर वह अपनी हर चाहत दबा कर अपने खाबों से चुक जाना ही मुनासिब समझती है। सितारा का मुखालिफ मन यही दोगलापन मानने को तैयार ना होता।

बहरहाल, भाइयों ने अगले साल फिर उसकी कमान नजदीक के गाँव के एक तांगेवान रजाक के हाथों थमा दी। और वह फिर से स्याह दायरे में घिसटती-फिसलती कोई और ड्योढ़ी आबाद करने चली गई थी। मगर कहाँ? उसकी हमवार राहों पर फिर से संग उतर आए थे। इस बात से वह नावाकिफ थी कि वह काली धूप की तरफ बढ़ आई है। यूँ तो सब मुनासिब सा ही गुजरने लगा था, लेकिन तब उसे उस रोज झटका लगा था जब रजाक ने बड़ी खोजिया नजरों से घूरते हुए उसकी जानिब एक आतिशी टुकड़ा उछाला था -

'एक बात बताओ सितारा, शादी से पहले तुमने कहीं इश्क तो किया ही होगा...'

वह इस सवाल के लिए कतई तैयार ना थी। चेहरा एकदम से फक हो गया। सँभलते हुए बोली थी

'अ...ब ऐसी क्या बात है... ये क्यूँ पूछ रहे हो...?'

'क्योंकि बन्ने की बीबी के पहले इश्क का राज आज शादी के चार साल बाद खुला है...'

'देखो ये सब तुम्हें पहले सोचना था, अब जब कह रही हूँ नहीं तो नहीं ही समझो...'

'...कमस खाओगी...?' वह ढिठाई से बोला।

'...क्...कसम...', ...लगा वह गिर कर चकनाचूर हो जाएगी...। वह खुद को सँभालती हुई पलँग के एक कोने पर बैठ गई।

'इन सारी बातों का भला क्या फायदा ... मुझे तो बस अब तुम्हीं से इश्क है...' वह लहजे में थोड़ी शोखी लाती बोली कि बात बन जाए, लेकिन रजाक... का तो रोम-रोम जुनूनी हो आया था। चेहरे का वाहियातपन और गहराता गया था।

दौड़ कर कुरआन उठा लाया और लपक कर उसके सिर पर रख दिया 'मुझे बहलाओ मत, अब बोलो...' वह छिटक कर दूर खड़ी हुई जैसे शोले से छू गई हो। गुस्से के मारे जिस्म थर-थर काँप रहा था, चेहरा तमतमा उठा था। चीखी थी -

'नहीं खानी कसम... कभी नहीं...' वह बौखलायी सी कह गई मगर दूसरे ही पल सन्न रह गई

'सितारा, तुम्हें तलाक दिया... तलाक दिया... तलाक दिया...'

सितारा का मुँह खुला का खुला रह गया। मगर जब होश लौटे, गला फाड़-फाड़ रोई और फिर एक और दीया बुझा, धूप की चाल चलती अपनी पनाह में सिमट आई थी। वह कई दफा हँसी थी खुदायी निजाम पर। क्या चीज बनाई है खुदा ने... औरत है या तमाशा!

- तीन माह की बच्ची के साथ वह घर लौटी तो घर में भी तमाशा बन गई। बस, थोड़े से दिनों तक जरूर भाभियों ने उसकी कहानी मजे ले-ले कर सुनी थी। फिर कुछ नहीं। मगर उसे उन काँटों पर फिर भी सोना था। अलबत्ता, वह अपनी अफ्सुर्दा तबियत को जिंदगी के किसी ना किसी कोने से बाँध जरूर लेती थी। उधर वह इद्दत के दिन गुजारती रही और दूसरी तरफ उसके तीसरे सेहरे के लिए भागम-भाग मच गई। घर से बाहर कदम ना रखनेवाली अम्मा खूब पड़ोस में आने-जाने लगी थीं। सभी औरतों से खूब मिलती-जुलतीं और बातों-बातों में दबी जुबान में इशारतन कोई कायदे का लड़का देखने की बात भी उनके कानों में डाल आतीं। हालाँकि वही औरतें बाद को हाथ नचाती हुई बिचका जाती -

'हुँ...ह... अब उसे लड़का मिलेगा... कोई दोहला-तेहला मिल जाए यही शुकर है...'

- हुआ भी यही। भाइयों ने जोर-जबर्दस्ती करके तिबारा उसके गले दो बच्चों के बाप जमील कबाड़ी को मढ़ दिया था। बीवी उसकी कब की गुजर गई थी। साल भर की बच्ची लिए वह तकदीर पर आँसू बहाती तीसरे खाविंद-दाँ के यहाँ उतरी। हालाँकि ससुराल के लोगों ने बच्ची ले जाने से साफ इंकार कर दिया था खुद दूल्हे ने भी। मगर सितारा की ममता ये कुर्बानी कुबूल नहीं पाई थी। तब बड़ी खुशामद-दरामद करके माँ ने बच्ची ले जाने के लिए उसके शौहर को राजी कर लिया था। हालाँकि वहाँ पहुँच कर बच्ची की वो गत बनी थी कि मत पूछो। विदाई से ले कर अगली सुबह तक उसे बच्ची की सूरत तक ना दिखाई गई। जब वह सवेरे बेजार हो कर रो पड़ी तो कोई बच्ची लेके उसकी गोद में डाल गया। बच्ची-भूख से हकर-हकर कर रही थी। उसकी आवाज पहचानते ही उससे चिपट गई।

- बहरहाल साल पूरा हुआ मगर साल भर पुराने रिश्तों में अभी भी कोई पाएदारी आ नहीं पाई थी। और इन्हीं तलातुम के बीच झूलता नसीब-ओ-खराश उसे ज्यादा देर तक बाँध कर नहीं रख सका था। जमील अपने बच्चों और उसकी बच्ची को ले कर अक्सर असबियत बरतता। एक दिन उसकी बिटिया ने बाप से जिद की थी -

'अब्बा, मुझे भी भाई जैसे जूते दिला दो...'

'हाँ...हाँ क्यूँ नहीं... जूते ला दूँगा, जोड़े सिलवा दूँगा, गहने जड़वाऊँगा और एक यार तलाश दूँगा...'

'अरे... अरे... क्या बक रहे हो, कम अज कम ये तो होश रखा करो कि बात किससे कर रहे हो... बच्ची से ऐसी बात...।'

'तो क्या कहूँ? ...शाहजादी साहिबा आपके हुक्म की तामील होगी...? जैसे इसका बाप यहाँ खजाना गाड़ गया हो...'

'देखो उसके बाप तक मत जाना...।'

'क्यूँ... उसके बाप के लिए बड़ी मोहब्बत उमड़ रही है... पुराना यार याद आ रहा है...'

फिर हाथापाई की नौबत भी आ गई। आखिर रोज की झक-झक से तंग आ कर एक रोज सितारा ने बड़ी खामोशी से उससे कहा था

'जमील मियाँ, तुम चाहो या ना चाहो... लेकिन मैं तुम्हें तलाक दे कर जा रही हूँ...'

- तो वह बिफर पड़ा था। उसकी अना हौलने लगी थी। छूटते ही उसके क्या-क्या ना कह डाला था

'कसबिन..., बेसवा... दाश्ता... कहीं की, तू... तलाक देगी... तू देगी तलाक..., बोल कितने तलाक दिए है तूने... तू तो छुटकारा तब पाए जब मैं तीन बोल बोलूँ... और मैं बोलूँगा नहीं... तुझे अपने बच्चों की लौंडाई करने लाया हूँ...ऐश नहीं...'

'तो ठीक है, मैं इस लौंडीगिरी से इस्तीफा लगाती हूँ तुम कोई और लौंडी तलाश लेना...'

- अलगनी से खींच कर बुर्का, ओड़ा। हाथ भिगो कर लड़की का मुँह पोंछा गुड़मुड़ पड़ी पलँग पर छुटकी को उठा, कंधे लगाया

'चल बिटिया, कबाड़ी कबाड़ी ही रहेगा।'

'हाँ जा-जा, कोई गवर्नर ढूँढ़ लेना... अपने एक बाप की हुई लौट के ना आना।' सितारा ने तैश में आ कर एक भरपूर लात जमील की कबाड़ से लदी साइकिल पर दे मारी। जमील ने चीते की फुर्ती दिखायी, झपटा। मगर तब तक वह उछल कर बाहर निकल चुकी थी, दरवाजे की कुंडी तड़ से चढ़ा दी थी। भीतर से जमील दरवाजे पर मुक्के बरसा-बरसा के गालियों की बौछार किए जा रहा था। छोटी बिटिया अम्मा की उँगली पकड़ खिलखिलाई थी

'अम्मा... अब्बा को बंद कर दिया मज्जा आ गया...' सितारा ने बच्ची को झिड़का था 'चुप्प...' 'ये खूब रही बीबी हम तुम्हें ससुराल पहुँचा-पहुँचा के आते हैं, और तुम हो कि फिर हमारे पीछे-पीछे चली आती हो। क्या हम तुम्हारे लिए उम्र भर मर्द ही ढूँढ़ा करेंगे...? बड़ी भाभी बिफर रही थीं। भाइयों ने थोड़ी दिलदिही करनी चाही मगर बीवियों के तेवर देख चुप रहे।

- अम्मा ने समझाया था -

'चली जा वापस...' - तो वह चिढ़ कर बोली थी -

'क्यूँ चली जाऊँ, उसने हमारी बेहुरमती की है। उसकी निगाह में मैं फाहिशा हूँ... दाश्ता हूँ... मैं उसे तलाक दे कर आई हूँ अम्मा...

- अम्मा ने फिर कोशिश की थी -

'बिटिया ससुराल की रोटी खाना लोहे के चने चबाने के बराबर है। गुजर करने के लिए मर्दों की लटी सुननी ही पड़ती है। वह जो कहे चार बात, सिर झुका कर सुन लिया कर। मखलूक ने हमें ऐसी ही जमीन बख्शी है। बकिया तलाक तो हुआ ही नहीं क्योंकि जमील ने तो तलाक दिया नहीं है...'

- सितारा और तव्वा पड़ीं।

'काहे तलाक नहीं हुआ अम्मा, क्या सब कुछ उसी के चाहने से होगा?' वह चाहे तो बाँध कर रखे और चाहे तो गार में ढकेल दे। मैं भी इंसान हूँ अम्मा। सिर्फ औरत नहीं। ये सारी करतूत मर्दों की हैं अम्मा कि तमाम नाजायज रिवायतें हम पे थोप दी हैं। सारे हुकूक मर्दों के हिस्से के और सारे फरायज औरत के हिस्से के। औरत का फर्ज है कि मर्द की दुलत्ती चुपचाप सहती रहे वर्ना गुनाहगार। मर्द को हक मिला है कि वह मन भर औरत को रौंदे। मैं लौंडी नहीं हूँ उसकी जो चंद महर के टुकड़ों पर खरीद ले गया था... औरत की पढ़ाई मुझे मत पढ़ा अम्मा। खुदा ने हमारे साथ दुरूखा बर्ताव किया है... मर्द की तकदीर उसकी पेशानी पे लिखी है, और औरत की उसके जिस्मों पर... बता अम्मा ...खुदा ने अपनी मखलूक में हमें कौन सा दर्जा दिया है... ना हमारी गिनती मवेशियों में है... ना इंसानों में...। बोलो... किस नाम से पहचानूँ इस जिस्म को...? - और दूसरे ही पल चटाख की आवाज से पाँचों उँगलियाँ अम्मा की छप गई थीं उसके गाल पर -

'बेहया... बेगैरत... तुझे शर्म छू तक नहीं गई...' भाभियाँ उसकी तकरीर से हक्का-बक्का थीं सो अलग। मगर सितारा भी आज चीखने पर ही तुली थी। सारा गुबार निकाल देने को बेचैन -

'क्यूँ शर्म आए अम्मा? शर्म सिर्फ दो हस्तियों को अनी चाहिए, खुदा को और मर्दों को, जिसकी वजह से आज हम गैरतअंगेज जिंदगी जीने के लिए मजबूर हैं। मर्द कैसा भी बर्ताव करे, खतावार नहीं, औरत जुंबिश भी खाए तो उसके बजूद पे सवाल दाग दिए जाते हैं। ज्यादह नहीं, मगर थोड़ी बहुत समझ तो मुझे भी है जिंदगी की। ...गरीब ही तो हूँ, कहीं झाड़ू-बर्तन करके खाने भर का ले ही आऊँगी...'

बहरहाल बात कहा-सुनी में आई-गई हो गई थी। भाभियाँ मुँह बिचकाती इधर-उधर टल गईं। अम्मा थक कर हार गईं। भाई पहले ही बीवियों के तेवर देख खिसक लिए थे। वह देर तक बच्ची को थपथपाती बैठी रही थी।

साल भर बीतने को हुआ था। इस बीच जमील ने कई बार संदेशा भेजा था। मगर वह जैसे किल्ला गाड़ के ही बैठी थी। सबको दो टूक वापस कर दिया। अम्मा अब समझाने वाली गलती नहीं करना चाहती थीं। हाँ, भाभियाँ किसी लाग-लपेट में बोल जातीं।

'और कित्ते सैंपुल इकटठा करोगी बीबी...? या फिर

'बीबी की तो जायका बदलने की आदत है...'

- वह भीतर ही भीतर सुलगने लगती।

- एक दिन सुनने में आया के जमील ने कहीं और निकाह पढ़वा लिया है। फिर खुद एक रोज आ कर उसे... तलाक भी दे गया। उस दिन उसने बड़ी बेजारी महसूस की थी। लेकिन मालूम उसे भी नहीं कि कहाँ कुछ टूट गया था। जिंदगी का एक और कसैलापन वह चुपचाप पी गई थी। 40 साल की उम्र में वह तीन शौहरों की बीवियाँ और दो बच्चों की माँ बन चुकी थी। फिर भी उसके चेहरे की लताफत देखते ही बनती थी उसे देख कोई कह नहीं सकता था कि वह जिंदगी की ऐसी गहरी तजुर्बेकार बन चुकी है। जिस राह पर चलते-चलते लोग गुम हो रहते हैं वहाँ वह दूनी हिम्मत से पहाड़ तोड़ने बैठी थी। उसने दो-चार घरों का धंधा सँभाल लिया था। इत्तेफाकन, करीम की बीवी ने भी उसे काम पर लगा लिया था। और जाने किन जज्बात के तहत वह इनकार ना कर पाई थी।

- लेकिन उधर का रुख करते हुए उसका कलेजा हलक को आने लगता। जाने कहाँ से करीम पा गया इतनी दौलत कि साहब सा बना बैठा था। लेकिन उसकी किस्मत में ना थी उसकी ऐश-ओ-इशरत। उसे भोगने तो कहीं बाहर की आई थी। कहते हैं वह नंबर दो का धंधा करके बन गया है। तो क्या हुआ, जैसे भी बना, बन तो गया। वर्ना ईमानदारों परहेजगारों की इस दौर में क्या पूछ... वही गिनी रोटी... नपा शोरबा... अगर उसका कुनबा चाहता तो आज खुद वह करीम के यहाँ ऐशफर्मा होती। करीम का था ही कौन? एक बड़ी बहन थी वह भी अपने घर की थी। बाकी बस्स...। मगर भाइयों को तो यही जिद सवार थी कि उसने मुहब्बत की, तो क्यूँ की...?

बेटी ने एक रोज पूछा था - 'अम्मा, रोज कहाँ जाती हो...?' तो उसकी आँखों में तारे टूट आए थे - 'अपनी जिंदगी का मर्सिया पढ़ने जाती हूँ बिटिया...' - बच्ची चुप सी उसे देखती रही थी और वह चली आई थी। तबसे डेढ़ घंटे की छुट्टी थी। ऐसे ही दिन आ-जा रहे थे।

करीम के घर जाते-जाते अब भी उसका चेहरा गुलरू होने लगता था। कभी-कभी करीम उसका हाल-चाल पूछ लेता तो घर वापस आने से रात तक वही उसके ही हर्फ दुहराती रहती। अपनी घर दारी में वह अपने काले दिन-रात बिसरा चुकी थी। अच्छा पहनना, अच्छा खाना... दोनों बेटियों की दुलारी बाँहें। उन्हें बुलंदियों तक पहुँचाने का सुनहरा ख्वाब... बाकी जो बेढब था, उसे करीम को देख कर बिसरा देती। मन फूलों सा हल्का-हल्का हो जाता। अब जीने के लिए और क्या चाहिए।

एक सुबह वह ताजे फूलों के गुलदस्ते सी महकती उठी और गुनगुनाती हुई सारे काम निबटाए फिर बच्ची को स्कूल भेजा और काम पर निकल ली। आज उसका एक प्याला और चाय पीने का जी हो रहा था। सोचा पहले करीम के यहाँ काम निबटा लेती हूँ तो अभी चाय का बखत है, एक प्याली चाय तो मिलेगी ही। बाकी तो सब टुच्ची तबियत कै हैं, नाप-जोख कर ही चाय रखते हैं। कभी ये भी नहीं सोचते कि एक महरी भी है। ...उसका भी जी होता होगा कभी कुछ खाने-पीने को। पहुँची दरवाजे पर दस्तक दे वह चुपचाप अंदर की चाप तोलने लगी। बर्तनों की खट-पट, पानी चलने की आवाज या करीम की बीवी की आँय-बाँय-साँय घर में उमग रही थी। बच्चा रो रहा था। उसने थाप दोवारा दी तो करीम का बड़ा लड़का टोह लेते हुए बोला -

'अब्बा, बाहर कोई आया है, लगता है... दरवाजा खोल दो...'

- एक सरसराती सी आवाज में जवाब -

'खाविंद दाँ होंगी, और कौन होगा इस वक्त...।'

- वह सकते में आ गई।

'क्...क्या... करीम भी... करीम भी ऐसा सोचता है...।'

- लगा, गिर जाएगी। मन खट्टा गया। वह दरवाजा खुलने का इंतजार किए बिना ही दूसरी गली में मुड़ गई। कुछ दूर पहुँचने पर दरवाजा खुलने की आवाज आई थी। मगर वह बगैर पलटे सीधी घर वापस आ गई थी। अम्मा हैरत से देखती रह गई थीं, वह उल्टे पाँव लौट क्यूँ आई? वह हारी सी अम्मा के पास धीमे से बैठ गई थी -

'सितारा... खैरियत?'

'अम्मा, इस बार कोई निस्बत आए तो इनकार मत करना।' अम्मा की आँखें हैरत से तन गई थीं

'और वो, इनकारी तेरी...?'

'अब इनकारी का कोई मतलब नहीं रह गया अम्मा, ...आज... हार गई हूँ...'

- कहते-कहते उसकी आँखें छलक आई थीं। भीतर हूक सी उठी थी - आह... ऐसा दर्द, ऐसी टीस... ये तकलीफ... ऐसा दर्द तो उन तीनों शौहरों का घर छोड़ते हुए ना... हुआ था। इत्ती तल्खी तो उन सबकी जहरबुझी जुबानों और गालियों में नहीं महसूस हुई थी। सच है दूसरे पत्थर भी मारें तो वो दर्द नहीं होता, मगर अपने फूलों से भी मारे तो रूह तक घायल हो जाती है। आज कैसे-कैसे लहू-लुहान हुआ है उसकी रूह का परिंदा...। अब ये भला क्या परवाज करेगा... कभी भी नहीं।

अम्मा बड़े दुलार से उसके सिर पर अपनी खुरदरी हथेली फेरने लगी थीं। और उन सारे रिश्तों पर मन ही मन निगाह फेरने लगी थीं जिसे सितारा की इनकारी पर उन्होंने वापस लौटा दिया था।