खिड़कियाँ / कृश्न चन्दर

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अचानक चान्द झील की सतह पर कमल के फूल की तरह खिल गया।

और ग्राण्ड होटल की सारी खिड़कियाँ, जो किनारे की तरफ खुलती थीं, एक-एक करके खुलने लगीं और उनकी चौखटों से तरह-तरह के पर्यटकों के चेहरे बाहर झाँकने लगे।

पूरे चान्द की रात थी, इसलिए पूरा दृश्य दूधिया चान्दनी में धुल गया था। दूर तक पहाड़ों के फैले हुए सिलसिले किसी स्वप्निल मौन में खोए हुए मालूम होते थे। बादलों के काफ़िले तुंगमा दर्रे से गुज़रते हुए, वहीं थककर सो गए थे। झील के किनारे बोट-क्लब की गुलाबी रंग की सतमंज़िला बिल्डिंग यूँ उकड़ूँ बैठी थी, जैसे कोई जोगी आलथी-पालथी मारे ध्यान में मग्न हो। और झील के ऐन बीच में चान्द, जैसे बच्चा पालने में ! दूर झील की स्वच्छ सतह के चारों ओर बेदमजनूँ के सायों से उलझती हुई, कतराती हुई, लहराती हुई वह अकेली सुनसान-सी सड़क, जैसे कोई सुन्दरी दर्पण के चारों तरफ़ अपना रिबन रखकर भूल जाए !

अत्यन्त सुन्दर दृश्य था, किन्तु होटल भी अत्यन्त सुन्दर था । किनारे की तरफ़ खुलती हुई खिड़कियों के फ्रेम मोतिया रंग के थे । उनके अन्दर दोहरे परदे झिलमिला रहे थे । बाहर के परदे फूलदार रेशमी कपड़े के, अन्दर के परदे झिलमिलाती हुई लस के । और उन दर्पण के समान परदों के अन्दर से झाँकने वाले लोग भी बहुत सुन्दर थे ।

पहली खिड़की

एक पारसी सुन्दरी का मुखड़ा बाहर झांक रहा है। चेहरे पर ऐसी अनचीन्हीं मुस्कराहट है, जैसे वह मनमोहक पारसी सुन्दरी चान्द को नहीं, अपने विवाह के केक को देख रही हो। पहले दोनों हाथों से ताली बजाती है। फिर दोनों हाथ अपने सीने पर रखकर कहती है — ऐ फामरोज ! फामरोज !’

कमरे के अन्दर से एक कड़वी-सी आवाज आती है — सूँ छै (क्या है)?’

— मून छै ! मून !’’ पारसी सुन्दरी बताती है — जल्दी आओ नी !’

— मैं काम कर रहा हूँ ! — पुरुष फिर कठोर स्वर में कहता है ।

— काम सूँ कलावी देओ (काम समाप्त कर दो) ! जल्दी आओ नी रोमाण्टिक नजारा !

— ओ डैम ! — कहकर पुरुष भी खिड़की में आता है। उसकी आधी चान्द गँजी है और आधी नाक आगे को मुड़ी हुई है, लगभग एक हुक की तरह । वह नाक ऐसी है कि उसे आसानी से झील के पानी में डालकर उससे मछलियाँ पकड़ी जा सकती हैं ।

पुरुष पहले तो बहुत नाराज़ दिखाई देता है, परन्तु बाहर का दृश्य देखकर नरम पड़ जाता है । धीरे-धीरे मुख पर बीते हुए दिनों के हसीन साए से झिलमिलाने लगते हैं । वह पारसी सुन्दरी उसके बिलकुल निकट आ जाती है। वह उसकी कमर में अपना हाथ डाल देता है और कहता है — खुर्शीद !

— हाँ, फ्रामरोज !

— तुमको याद है, इतना ही बड़ा मून था, बल्कि इससे भी डबल होगा, जब हम तुम्हारा घर का टेरेस पर, कुम्बाला-हिल पर बैठे हुए थे और तेरे बाप ने मुझको शादी के लिए ना कर दी थी?

— हाँ, याद है। पर तुमने मेरे बाप को अपने बाप की पास-बुक दिखाई थी और मेरे बाप को विश्वास हो गया था कि तेरा बाप भी मेरे बाप की तरह लखपती है ।

— फिर तेरे बाप ने मेरे बाप का पास-बुक वापस कर दिया था और तेरी-मेरी शादी फिक्स कर दी थी, याद है ?

— ऊँह ! — कहकर खुर्शीद बाई ने फ्रामरोज के कन्धे पर अपना सिर रख दिया ।

फ्रामरोज थोड़ी देर तक चुप रहा। फिर बोला — खुर्शीद !

— हाँ, फ्रामरोज !

— अगले साल हम लोग दार्जिलिंग चलेगा। सुना है, उधर मून-लाइट का नजारा बहुत हाई क्लास होता है।

— मून-लाइट नहीं, डार्लिंग, सन-सेट, जब सूरज पहाड़ के पीछे डूबता है।

— तो अगले साल हम लोग दार्जिलिंग सन-सेट देखने चलेगा। मगर उधर का मून-लाइट भी गजब का है — एकदम बम्बई के जुहू का माफ़िक !

फिर दोनों प्रशंसासूचक दृष्टि से चान्द की ओर देखने लगते हैं ।

दूसरी खिड़की

घुँघराले बालों वाला, शायराना आँखों वाला, रंगीन बुश्शर्ट वाला, एक सुन्दर, लम्बा-चौड़ा नवयुवक खिड़की में खड़ा होकर चान्द की तरफ़ देखकर एक आह भरता है ।

अचानक कमरे के अन्दर से एक आवाज़ आती है — दिनेश ! दिनेश !

नवयुवक सिगरेट का एक कश ज़ोर से लेकर सिगरेट खिड़की से बाहर फेंक देता है और फिर बुरा-सा मुँह बनाकर कहता है — हाँ, शर्मिष्ठा, क्या है ?

— ग्यारह बज गए, कब सोओगे ?

नवयुवक खिड़की से मुँह फेरकर, कमरे की तरफ़ देखकर कहता है, — अभी नींद नहीं आ रही ।

फिर वही कमरे के अन्दर से आवाज़ आती है,— पलंग पर लेटोगे तो आ जाएगी ।

— तुम सो जाओ, मैं आता हूँ। ज़रा एक सिगरेट और पी लूंँ । — यह कहकर वह नवयुवक अपनी जेब से डिब्बी निकालकर, उसमें से एक सिगरेट निकालकर लाइटर से जलाता है और चान्द से पूछता है :

— नींद क्यों रात-भर नहीं आती ?

इतने में शर्मिष्ठा खिड़की में आ गई है । छोटे क़द की, भारी शरीर की, फसौटे बालों वाली, बहुत कुरूप स्त्री है । उसके गहरे मेकअप ने उसे और भी कुरूप कर दिया है । आते ही वह दिनेश का बाजू पकड़कर, उसे अन्दर कमरे की तरफ़ घसीटते हुए कहती है, — रात-भर जब चान्द की तरफ़ देखते रहोगे तो नींद कैसे आएगी ? (घड़ी दिखाकर) देखते नहीं हो, ग्यारह बज गए हैं । चलो, अब सो जाएँ ।

— तुम जाओ, मैं बाद में सो जाऊँगा ।

शर्मिष्ठा (बड़े प्यार से), — चलो, दिनेश ! — उसका बाजू पकड़कर फिर घसीटती है ।

दिनेश क्रोध से बाजू छुड़ाकर, लगभग चिल्लाकर कहता है, — कह जो दिया, मैं बाद में सोऊँगा ! बार-बार परेशान क्यों करती हो ?

शर्मिष्ठा की आँखों में आँसू आ जाते हैं। वह ज़ोर-ज़ोर से रोते हुए कहती है, — जब देखो, चान्द को देखते रहते हो । मेरी तरफ़ कभी नहीं देखते । क्या रखा है, इस मुए चान्द में ?

शर्मिष्ठा रोती हुई खिड़की से चली जाती है । कुछ क्षण तक उसकी सिसकियों की आवाज़ सुनाई देती है। फिर दिनेश क्रोध में आकर खिड़की बन्द कर देता है ।

तीसरी खिड़की

एक अधेड़ आयु का आदमी खिड़की से लगा चान्द की ओर देख रहा है । उसके एक हाथ में शराब का गिलास है, दूसरे में सिगरेट है । कभी एक कश लेता है, कभी एक घूँट पीता है, कभी चान्द की तरफ़ बड़ी बेचैन निगाहों से देखता है । फिर घबराकर अपनी घड़ी की तरफ़ देखने लगता है । फिर खिड़की से कमरे के अन्दर चला जाता है । खिड़की कुछ क्षणों के लिए खाली हो जाती है । इतने में कमरे से घण्टी बजने की तेज़ आवाज़ आती है। फिर वही अधेड़ आयु का आदमी खिड़की में आ जाता है और तेज़ी से शराब के दो-तीन घूँट और सिगरेट के दो-तीन कश जल्दी-जल्दी से लगाता है । मालूम होता है, उसकी बेचैनी क्षण-प्रति-क्षण बढ़ रही है ।

इतने में खिड़की में उसके समीप होटल का एक बेयरा प्रकट होता है ।

— यस, सर !

— अरे, वह अभी तक नहीं आई ?

— बस, आती ही होगी।

— कब आएगी ?

— उसने बोला था, ग्यारह बजे के आद आएगी।

— ठीक-ठीक बताओ, तुम ख़ुद गए थे उसको लेने के लिए ?

— हुजूर, जो ठीक-ठीक पूछते हो तो मैं तो नहीं गया था, क्योंकि मुझको मैनेजर साहब ने काफ़िर-हिल वाली मेम साहब के बँगले पर भेज दिया था । इसलिए मैं ग्यारह नम्बर के बैरे को बोल गया था ।

— वह क्या बोलता है ?

— वह बोलता है, साहब, कि उसको अठरा (अट्ठारह) नम्बर की मेम साहब ने एक टेलीग्राम देने के लिए पोस्ट-ऑफ़िस भेज दिया था । इसलिए वह जाते-जाते नौ नम्बर के बैरे से कह गया था।

— तो नौ नम्बर का बैरा किधर है ? उसको बुलाओ इधर !

— नौ नम्बर का बैरा अपने घर गया है, जी ! फिर वह मुझको बोल गया कि वह उसको बोलने के लिए गया था, मगर वह घर पर नहीं थी। तो वह उसके घर पर किसी से बोल के आया है कि इधर ग्यारह बजे आ जाओ। और वह बोले कि हम उसको बोल देगा कि तुम बोलता है कि साहब ने बोला है कि...

— शट-अप !

(सहमकर) — जी, हुजूर !

— गेट आउट !

— यस सर !

बैरा जल्दी से खिड़की से गायब हो जाता है । अधेड़ आयु का आदमी चान्द की तरफ़ देखते हुए शराब का गिलास ख़ाली कर देता है और खिड़की से मुड़ते हुए कहता है, — हेल ! ऐसी ख़ूबसूरत चान्दनी रात गारत हो गई ! ब्लडी-स्वाइन !

चौथी खिड़की

खिड़की के एक पट पर एक नवयुवक बहुत ही सुन्दर पोज बनाए खड़ा है । उसके बिलकुल सामने एक परी-सी सुन्दर लड़की तंग और चुस्त कमीज़-सलवार पहने इस तरह खड़ी है, जैसे वह कैमरे के सामने हो। लड़की प्रसिद्ध हीरोइन चान्दबाला है। लड़का प्रसिद्ध हीरो सुखदेव राज है। लड़का प्यार से चान्दबाला को मरजानी कहकर पुकारता है। लड़की हीरो को लाड़ से टिच्चू कहती है।

हीरो — मरजानी !

हीरोइन — टिच्चू !

हीरो — वह चान्द तुमसे ज़्यादा ख़ूबसूरत नहीं है ।

हीरोइन — पर तुम चान्द से भी ज़्यादा ख़ूबसूरत हो ।

हीरो हँस पड़ता है और पोज बदलता है और कहता है,— ये किस फ़िल्म के डायलॉग थे ?

हीरोइन — भूल गए? ‘मैं मर गई सैयां’ के थे। बड़े प्यार से डायलॉग लिखे थे सैलाब लखनवी ने।

हीरो — सैलाब लखनवी नहीं, साहब लखनवी ने !

हीरोइन — अच्छा ।

हीरोइन बड़े प्यार से अच्छा कहकर पोज बदलती है । हीरोइन के पोज बदलने से हीरो भी पोज बदल लेता है और कहता है, — मरजानी !

हीरोइन कहती है, — हाँ, टिच्चू !

हीरो — देखो, एक चान्द आसमान पर है, एक झील में है, एक मेरी खिड़की में है ।

हीरोइन — एक मेरी आँखों में है, एक मेरे दिल में है, एक मेरी रूह में है ।

हीरो (दोनों बाजू फैलाकर) — आओ, इस चान्दनी रात में कहीं खो जाएँ । दीन-ओ-दुनिया से बेख़बर सो जाएंँ । सच्चे प्रेम के साबुन से झूठी मुहब्बत के इल्जाम को धो जाएँ।

हीरोइन — यह मोहब्बत है कि किसी साबुन-कम्पनी का विज्ञापन है ?

हीरो (हँसकर, स्वर बदलकर कहता है), — बिल्कुल ठीक कहा तुमने। ये साबुन-कम्पनी वालों ही की फ़िल्म के डायलॉग थे । कमबख़्त ऐसे ज़बान पर चढ़ गए हैं कि असली सिचुएशन पर भी नकली डायलॉग ज़बान पर आ जाते हैं ।

हीरो खिड़की से ज़रा हीरोइन की तरफ़ झुकता है और आँखों में और स्वर में एक विशेष रंग पैदा करते हुए कहता है, — मरजानी ।

हीरोइन भी हीरो के समीप उतनी ही झुकती है और सीने पर हाथ रखकर धीरे से कहती है, — टिच्चू ! मेरे टिच्चू !

इतने में कमरे के बाहर से दरवाज़े पर दस्तक की आवाज़ सुनाई देती है और कोई स्त्री का भारी स्वर कहता है, — चान्दबाला ! चान्दबाला ! अरी तू तो दो मिनट के लिए आई थी ?

हीरोइन, (घबराकर) — माताजी बुला रही हैं। मैं जाती हूँ। (ऊँची आवाज़ में) आई, माताजी !

एक हवाई चुम्बन उड़ाते हुए चली जाती है ।

खिड़की में हीरा अकेला खड़ा है । चान्द को देखकर एक नया पोज देता है और मुस्कराता है ।

पांचवीं खिड़की

दो आदमी नाइट गाउन पहने, खिड़की की तरफ पीठ किये, एक-दूसरे से बातों में व्यस्त हैं। एक के हाथ में फाइल है और दूसरे के हाथ में कुछ कागज हैं।

‘‘ओए खन्ना! मैं कहता हूं कि अगर तू चीफ सेक्रेटरी को पटा ले तो पचास लाख से कम का प्रॉफिट नहीं होगा।’’

‘‘सरदारसिंह! मैं चीफ सेक्रेटरी को पटा लूंगा।’’

‘‘ओ छड़, यार, पहले भी तू ऐसा ही कहता था। खामख्वाह मेरे दस हजार रुपये गुल कर दिए और काम भी न बना।’’

‘‘मगर एदकी कहता हूं, सरदार सिंह! तू देखता जा, मैं कैसे चीफ सेक्रेटरी को पटाता हूं! (जरा-सा घूम कर खिड़की से बाहर एक दृष्टि डालकर) ओ सरदार सिंहा, आज तो फुल मून है!’’

सरदारसिंह चांद की तरफ एक सरसरी-सी निगाह डालकर, फिर पीठ मोड़ लेता है और कहता है, ‘ओ छड़, पुत्तर, मून दा! ध्यान कर आटे-नूंन दा! अगर तू चीफ-सेक्रेटरी को पटा ले तो इस सौदे में पचास लाख का प्रॉफिट है। और मैं तुझको तेरी कमीशन के अलावा पंद्रह परसेंट पार्टनरशिप देगा। अब यह देख और हिसाब कर कि अगर फुल प्लांट गवर्नमेंट मंजूर कर दे तो...’’

इतना कहते हुए सरदार सिंह खन्ना की कमर में हाथ डाले, उसे खिड़की से परे कमरे में ले जाता है। खिड़की खाली हो जाती है।

छठी खिड़की

एक मंझोले क़द के आदमी का उदास और गम्भीर चेहरा चान्द की तरफ़ देखकर ख़यालों में खोया हुआ है । पीछे दरवाज़े पर हल्की-सी दस्तक होती है । लेकिन उस आदमी के सोच में डूबे हुए चेहरे से पता चलता है, जैसे उसे इस दस्तक का कोई पता नहीं चला । वह आदमी उसी तरह चान्द की तरफ़ देखता हुआ, अपने सोच में डूबा हुआ है। इतने में कोई दबे पाँव चलता हुआ, धीरे-धीरे खिड़की की तरफ़ बढ़ता है । सोच में डूबे हुए आदमी को उस दबी-दबी आहट का भी पता नहीं चलता । होंठों को दाँतों से दबाए एक ख़ूबसूरत औरत दबे पाँव चली आती है । उसने घुड़सवारी का लिबास पहन रखा है । खुले कॉलर वाली कमीज़ ब्लू, जोधपुरी, हाथ में एक छोटा-सा चाबुक ।

खिड़की के पास आकर वह पुरुष के मुँह की तरफ़ ध्यान से देखती है, जो सोच में डूबा हुआ है ।

उसे देखकर आप ही आप मुस्कराती है ।

वह आदमी चौंक जाता है और उस औरत की ओर घूमे बिना एक हाथ से उसकी पलकों में उँगलियाँ फेरने लगता है ।

औरत कहती है, — चान्दनी रात में घोड़े की सवारी करने में बहुत मज़ा आया । काश, तुम भी चल सकते !

— जब जोड़ों का दर्द जाता रहेगा तो मैं भी चला करूँगा ।

— उफ ! मुझे तो फिर से भूख लगी है !

— घुड़सवारी के बाद बेहद भूख लगती है ।

— क्या खाऊँ ?

— टिफ़न कैरियर में कुछ चिकन-सैण्डविच रखे हैं । वे खा लो ।

वह औरत कुछ पलों के लिए खिड़की से गायब हो जाती है। अब जो आती है तो चिकन-सैण्डविच खाते हुए आती है और खाते-खाते पूछती है, — तुम क्या करते रहे ?

— मैं चान्द को देखता रहा और तुम्हारा इन्तज़ार करता रहा।

— झूठ बोलते हो । तुम तो किसी सोच में डूबे हुए थे । (समीप आकर शोखी से) किसकी याद सता रही थी ?

— तुम्हारी ! तुम्हारे होते हुए इस ख़ूबसूरत चान्दनी रात में भला किसी और की याद आ सकती है ?

औरत, (ख़ुशी से आह भरकर) — हाँ, यह चान्द बहुत सुन्दर है। इसने ज़िन्दगी के हर गाम पर हमारे प्यार को रास्ता बताया । इसने हमारी आहें भी सुनी हैं, हमारे आँसू भी देखे हैं, हमारी चाहत के चुम्बन भी महसूस किए हैं । एक-एक करके याद करो ! ये सुन्दर चान्दनी रातें ! हाय ! मुझसे कोई सारी दुनिया ले ले, मेरा चान्द मुझे दे दे !

पुरुष, ‘‘एक दिन वह भी आएगा!...इंसान ने सितारों पर कमन्द फेंकी है।।चांद सबसे पहले हमारे जाल में आएगा!’’

स्त्री, ‘‘हाय! मेरा जी चाहता है- मैं स्पुतनिक पर बैठकर सबसे पहले चांद में जाऊं!’’

खिड़की के नीचे से अचानक एक आवाज उठती है-‘एक रोटी दे दो! सुबह से भूखी हूं। मेम साहब की जोड़ी सलामत रहे !...एक रोटी दे दो !...’

पुरुष और स्त्री दोनों घबराकर खिड़की के नीचे देखते हैं, तो उनकी खिड़की के बिलकुल नीचे, भूरी बजरी के फ़र्श पर, फटे-पुराने चीथड़े पहने, आठ नौ साल की उम्र वाली एक लड़की खड़ी है। दुबला-पतला सा भूखा चेहरा, भूखे होंठ, भूखी निगाहें, पतली-पतली बाँहें फैला हुआ हाथ बनकर ऊपर उठी हुई हैं ‘एक रोटी, मेम साहब!’

वह स्त्री जो सैण्डविच खा रही है, अपने बाएं हाथ में पकड़े हुए एक सैण्डविच को देखती है। अचानक पुरुष उसे रोक देता है और नीचे देखकर जरा ऊंची आवाज में पूछता है, ‘‘चंदा मामा लेगी?’’

— रोटी, बाबूजी !

— देख तेरे चन्दामामा कितने सुन्दर हैं ! बता, चान्द पर जाएगी ?

— रोटी, बाबूजी ! — बेसमझे-बूझे उस लड़की ने सैण्डविच की तरफ़ देखकर रट लगा रखी थी ।

— क्या करते हो, उस ग़रीब बच्ची को क्यों तंग करते हो ? — वह औरत ज़रा नाराज़गी से बोली और उसने अपना सैण्डविच नीचे ग़रीब भिखारिन की झोली में गिरा दिया । सैण्डविच लेकर वह भिखारिन फौरन वहाँ से भाग गई । अब वह तेज़ी से सैण्डविच खाती जा रही थी और भागती जा रही थी, और पीछे मुड़-मुड़कर देखती जा रही थी, जैसे उसके पीछे कोई पीछा करता हुआ, उसका सैण्डविच छीनने के लिए आ रहा था ।

औरत की आँखों में आँसू आ गए ।

पुरुष ने कहा, — जो लोग ऊपर की मंज़िल में रहते हैं, वे लोग ज़रूर चान्द पर जाएँ और चान्द को पा लें। चान्द पर जाना अच्छा है और मानवता के लिए बहुत लाभकारी भी है। लेकिन वे लोग, जो निचली मंज़िल पर रहते हैं, उन करोड़ों इनसानों को तो अभी तक वह चान्द भी नहीं मिला, जो आध-पाव गीले आटे से तैयार होता है और दिन-रात की मेहनत से उतरता है। आसमान के ऊपर शून्यों में घूमने वालो ! एक नज़र ज़मीन की ओर भी देखो और देखो कि किस मुसीबत से इनसान अभी तक उस नन्हें-से स्पुतनिक को ढूँढ़ रहा है, जिसका नाम रोटी है !

— यह तुम्हारी फ़िलासफ़ी की क्लास नहीं है ! तुम यहाँ हिल-स्टेशन पर आराम करने के लिए आए हो ! — उस औरत ने अपने आँसू पोंछते हुए, बड़े गर्व और प्यार से अपने पति की ओर देखा और उसका हाथ पकड़कर बोली, — चलो, अब आराम करो । रात बहुत बीत गई है ।

वे दोनों एक-दूसरे के हाथ में हाथ दिए खिड़की से परे चले गए ।

नीचे झील में चान्द लहरों के पालने में लेटा हौले-हौले हुमक रहा है और मुस्कराकर सातवीं खिड़की की ओर देख रहा है ।