खिड़की से / लिली पोतपरा / आफ़ताब अहमद
अंका खिड़की के पास बैठी बाहर आँगन में देख रही थी। वहाँ बेंच पर नीज़ा और कारमेन बैठी खिलखिला रही थीं। वे हंस-हंसकर दोहरी हुई जा रही थीं। अंका को लगा कि वे कभी-कभी उसकी खिड़की की ओर भी देखती थीं। अंका ने अपने होंठ भींच लिए और उसकी हल्की नीली आँखों का रंग बदलकर कुछ काला हो गया। “मुझे नीज़ा और कारमेन से नफ़रत है,” वह बड़बड़ाई। लेकिन ज़ाहिर है कि इतने ज़ोर से बड़बड़ाई कि ओमा ने सुन लिया, जो उसी समय धुले कपड़े लेकर कमरे में दाख़िल हुई थी।
“क्या बात है अंका? तुम बाहर आँगन में क्यों नहीं जा रहीं। और अभी तुमने क्या कहा?”
“मैं बाहर नहीं जाऊँगी! मैं वहाँ कभी नहीं जाऊँगी!” उसने होंठ भींचकर कहा। एक बार फिर वह ज़ोर से बड़बड़ाई थी। उसकी यह सोच इतनी बड़ी होती जा रही थी कि अब उसके छोटे से सिर में समा नहीं पा रही थी।
ओमा सही अर्थों में एक अच्छी नानी थी और वह इस दुनिया में काफ़ी अरसे रह चुकी थी। वह खिड़की के पास गई, जैसे खिड़की का पर्दा ठीक करना चाहती हो, और जल्दी से बाहर झाँका। जब किसी ने दुनिया बहुत देख ली हो तो उसे बहुत जल्दी से नज़र आ जाता है कि बाहर छोटे आँगन में क्या हो रहा है, चाहे उस समय उसका चश्मा उसकी नाक की नोक पर ही क्यों न हो, और चाहे वह हर रोज़ शिकायत करती हो कि उसकी आँखें रोज़-बरोज़ कमज़ोर होती जा रही हैं।
“बच्ची, किचन में आना,” मैंने तुम्हारे लिए कुछ बनाया है !”
“नहीं, नहीं, मैं यहीं ठीक हूँ !” अंका ने अड़ियलपन से जवाब दिया और अपनी नाक खिड़की के शीशे से सटा ली।
ताज़े सेब और सिंके हुए आटे की महक अपार्टमेंट में फैल गई थी और उसके पेट में गुड़गुड़ाहट शुरू हो गई थी।
ओमा ने और कुछ नहीं कहा। वह कमरे से बाहर चली गई। न चाहते हए भी अंका न जाने क्यों उसके पीछे चली गई।
किचन में ओमा मीठी महक वाला ताज़ा मालपुआ काट रही थी। फिर उसने तीन टुकड़े तीन छोटे-छोटे प्लेटों में रखे।
“ ये किसके लिए हैं ?” अंका ने हैरत से पूछा।
“नीज़ा और कारमेन भी तो आ रही हैं न ? जाओ उन्हें बुलाओ। पिछली बार नीज़ा की नानी ने कुकीज़ बनाई थीं। तुमने मुझे बताया था कि वे बहुत लज़ीज़ थीं —- याद है ?”
अंका को नीज़ा का किचन याद आया: कुकीज़ से भरी मेज़, प्लेटें, जूस, और तीन लड़कियों के साथ उसकी नानी — वे कुकीज़ खा रही हैं, हंस रही हैं, और वे दुनिया की सबसे अच्छी दोस्तें हैं। उसकी घनी नफ़रत ने इस तस्वीर को दबाना चाहा लेकिन नाकाम रही, फिर यह सोच हल्की होकर आख़िर में पूरी तरह ग़ायब हो गई।
अंका दौड़कर खिड़की के पास गई और उसे पूरा खोल दिया। लड़कियों ने अपना नाम सुना तो चौंककर ऊपर देखा, और फिर चमकीली मुस्कानों से उनकी बाछें खिल गईं।
“ओमा ने मालपुआ बनाया है? ज़रूर अंका, हम अभी पहुँचे !”
अंका ने नीचे का दरवाज़ा खोलने वाला बटन दबाया। फिर उसने सोचा, हम तीसरी मंज़िल पर हैं, और कुछ ज़्यादा ही सीढ़ियाँ हैं, और कोई लिफ़्ट भी नहीं।
“अंका, तुम नीचे क्यों नहीं आईं ?” उन्होंने कमरे में दाख़िल होकर हाँफते हुए पूछा। “ तुम आतीं तो रस्सी कूदने में बहुत मज़ा आता। तुम तो सबसे ऊँचा कूदती हो !”
तीनों लड़कियाँ मालपुए खा रही थीं, खिलखिला रही थीं, जूस पी रही थीं, और हंस-हंसकर दोहरी हुई जा रही थीं। ओमा धीरे से बाहर निकली और अलगनी पर बाक़ी कपड़े डालने चली गई।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : आफ़ताब अहमद