खिड़की / पंकज सुबीर
वो लड़की आज भी उसी प्रकार खिड़की में नज़र आ रही है। दोनों तरफ़ खड़े गुलमोहर के पेड़ों के ठीक बीच बनी हुई वह खिड़की दूर से देखने पर किसी चित्र की तरह नज़र आती है। उस मकान के जितने दूर से होकर वह रोज़ गुजरता है उतनी दूर से किसी की चीज़ के बारे में केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है, ठीक ठाक रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता। उस मकान का एक पार्श्व उस ओर से दिखाई देता है जिस तरफ़ से वह निकलता है। कंटीले तारों की घेरदार बाड़ के उस तरफ़ कुछ छोटे फूलदार पौधे लगे हैं। उसके बाद खड़े हैं गुलमोहर के दो पेड़। जिसके बीच से नज़र आती है मकान की वह दीवार जिसमें वह खिड़की बनी है। गहरे नीले रंग से पुती हुई खिड़की। इसी खिड़की पर शायद हाथों की टेक लगा कर उसी प्रकार खड़ी रहती है वह लड़की। रोज़ बिना नागा किसी नियम की तरह।
एक माह हो गया है शिरीष को यहाँ आये तब से ही वह रोज़ कालेज आते और जाते समय इस दृष्य को देख रहा है। जिस सड़क से होकर वह गुजरता है उसके बाद एक बड़ा-सा खाली मैदान है और उसके बाद है वह खिड़की वाला मकान।
मकान के ठीक समांनातर पर आकर शिरीष ने मकान की ओर देखा। लड़की उसी प्रकार वहाँ थी, शिरीष को लगा कि वह लड़की मुस्कुरा रही है, फिर उसे अपने ही विचार पर हंसी आ गई। भला इतनी दूर से नज़र आ भी सकता है कि किसी के चेहरे पर किस प्रकार के भाव हैं? यहाँ से तो उस लड़की की पीली फ्राक पर बने हुए लाल फूल भी ठीक-ठीक दिखाई नहीं देते हैं। पीली फ्राक ...? लाल फूल ...? चलते-चलते शिरीष को अचानक झटका-सा लगा, ये तो उसने कभी सोचा ही नहीं। एक माह से रोज़ वह लड़की इसी फ्राक में नज़र आ रही है। उसने ठिठक कर मकान की ओर देखा लड़की उसी प्रकार वहाँ थी। ज़ुरूर ही यह कोई पेंटिंग है जो किसीने मकान की इस तरफ़ वाली दीवार पर बना दी है। उसने ग़ौर से खिड़की की तरफ़ देखा और कुछ देर तक देखता रहा, लड़की इस बार उसे बिल्कुल स्थिर किसी पेंटिंग की तरह नज़र आई। उसने मुस्कुराते हुए अपने ही सर पर चपत लगाई "फिज़ूल ही एक पेंटिंग के चक्कर में एक महीने से परेशान है" और आगे बढ़ गया।
शाम को जब कालेज से लौट रहा था तो अपनी सुबह की खोज पर मुस्कुराते हुए उसने खिड़की की ओर देखा एक बार फिर उसके पैर जम गये। लड़की खिड़की पर नहीं थी। एक माह में ये पहली बार हुआ है कि शिरीष को वह लड़की खिड़की पर नहीं दिखाई दी है। सुबह की उसकी खोज पर पानी फिर गया।
अगले दिन जब शिरीष वहाँ से गुज़रा तो लड़की वहीं थी, उसी प्रकार अपनी लाल फूलों वाली पीली फ्राक पहने हुए। शिरीष खिड़की की ओर देखकर मुस्कुराया आज उसे लगा कि वह लड़की भी मुस्कुरा रही है। तिराहे पर आकर उसके पैर ठिठक गए यहाँ से ही तो एक रास्ता उस नीली खिड़की वाले मकान की ओर गया है। कुछ देर तक ठहर कर सोचता रहा फिर सधे कदमों से उस मकान की ओर जाने वाले रास्ते पर बढ़ गया। छोटा-सा मकान खामोशियों में डूबा हुआ था। मकान का वह पार्श्व जहाँ वह खिड़की है सामने से नज़र नहीं आ रहा था। गेट खोलकर शिरीष अंदर आया और झिझकते कदमों से आगे बढ़ा।
"कौन?" गेट के खुलने की आवाज़ से अंदर से एक स्त्री स्वर आया।
"जी मैं हॅ शिरीष" अपने ही उत्तर के अटपटेपन को महसूस किया शिरीष ने।
कुछ देर में दरवाज़ा खुला, एक अधेड़ उम्र की महिला दरवाजे पर खड़ीं थीं। स्थिति असहज बनने से पहले ही शिरीष ने उनके पैर छू लिए "नमस्ते आंटी"।
"बस बस, खुश रहो। आओ, अंदर आओ" कहते हुए वे दरवाज़े से हट गईं।
अंदर आकर शिरीष ने देखा चारों तरफ़ ख़ामोशी है "तुम बैठो बेटा मैं अभी आती हूँ" कह कर वह महिला अंदर चली गईं।
कुछ देर बाद एक ट्रे में कॉफी के दो कप लेकर-लेकर लौटीं। टेबल पर रखते हुए बोलीं "लो बेटा कॉफी पिओ, अपने लिये बना ही रही थी कि तुम आ गये, चलो आधी-आधी पी लेते हैं"।
एक कप उठाते हुए कहा शिरीष ने "और कोई नहीं है घर में?"।
"मैं यहाँ अकेली ही रहती हूँ" महिला का उतर सुनकर शिरीष बुरी तरह से चौंक गया। उसने देखा सामने दीवार पर लड़की की फोटो लगी है, उसने अटकते हुए पूछा "और ये?"।
"ये मेरी बेटी थी, दो साल पहले नहीं रही।" महिला ने ठंडे स्वर में उत्तर दिया।
महिला का एक-एक शब्द शिरीष को किसी कुंए में गूंजता प्रतीत हो रहा था "दोनो पैरों से विकलांग थी सुधा, मगर दोनों आँखें सपनों से भरी रहतीं थीं हमेशा। जैसे-जैसे बड़ी होने लगी उसके सपने प्रेम की दस्तक सुनने की प्रतीक्षा में सुनहले रुपहले होने लगे। खिड़की पर बैठकर घंटों रास्ते की ओर देखती रहती। मानो किसी की प्रतीक्षा कर रही हो। किसी से प्रेम करना चाहती थी वह और इसी लिए अपने जीवन में प्रेम की प्रतीक्षा करती रहती थी। सपने देखने वाली उसकी आँखें दो साल पहले अचानक बुझ गईं" कहते-कहते महिला का कंठ रुंध गया।
शिरीष अवचेतन से वर्तमान में लौटा और बोला "सॉरी आंटी मुझे पता नहीं था"।
"कोई बात नहीं बेटा।" महिला ने अपने को संभालते हुए कहा। "नहीं आंटी अब मैं चलूंगा।" कहते हुए शिरीष उठ कर खड़ा हो गया।
जब वह चलने लगा तो पीछे से महिला की आवाज़ आई "बेटा" । सुनकर शिरीष ठिठक कर पलटा और बोला "जी आंटी"।
वो महिला कुछ न बोली बस शिरीष की ओर देखती रही। शिरीष भी चुपचाप खड़ा कुछ देर तक महिला के निचले होंठ और ठुड्डी में होते हुए कंपन तथा पलकों के भीगते किनारों को देखता रहा, फिर अचानक महिला ने कांपते स्वर में शिरीष की ओर देखते हुए पूछा
"क्या तुम्हें भी नज़र आई थी वह?"