खिड़की / फ़्रांज काफ़्का / सुकेश साहनी

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जीवन में अलग-थलग रहते हुए भी कोई व्यक्ति जब-तब कहीं-कहीं किसी हद तक किसी न किसी से जुड़ना ज़रूर चाहेगा। दिन के अलग-अलग समय, मौसम, काम-धंधे की दशा आदि में लगातार आने वाले बदलावों के इस दौर में वह कम से कम एक ऐसी स्नेहिल बाँह की ओर खुलने वाली खिड़की के बगैर बहुत अधिक समय तक नहीं रह सकेगा।

कुछ भी न करने की मनःस्थिति के बावजूद वह थके कदमों से खिड़की की ओर बढ़्ता जाता है और बेमन से कभी लोगों और कभी आसमान की ओर देखने लगता है। फिर उसका सिर धीरे से पीछे की ओर झुक जाता है। इस स्थिति में भी सड़क पर दौड़ते घोड़े, उनकी बग्घियों की खड़खड़ और शोरगुल उसे अपनी ओर खींच लेते हैं और अन्ततः वह जीवन-धारा से जुड़ ही जाता है।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुकेश साहनी