खिड़की / हेमन्त शेष

Gadya Kosh से
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खिड़की मकान का वह उपयोगी आविष्कार है जिसका इस्तेमाल घर के बाहर की दुनिया और कमरे के बीच एक परदे की तरह किया जाता रहा है. आप खिड़की खोलते हैं, और बाहर खड़ा दृश्य भीतर आ जाता है. बंद करते ही बाहर का दृश्य बाहर ही रह जाता है..... तब आप दृश्य को, खिड़की बंद करते हुए नज़र आते होंगे. खिड़की का सम्बन्ध धूल, हवा, और धूप से भी है, जो उसके रास्ते फर्श पर अपनी राह बनाते हैं. खिड़की मनुष्य की निर्मिति है, पर खिड़की मनुष्य समाज के बारे में क्या सोचती होगी, ये बात ठीक से बिना खिड़की हुए समझी नहीं जा सकती. पर हाँ, खिड़की से मानव समाज के बारे में बहुत से तथ्य सामने आते हैं. मसलन यह कि हमारे राजमहलों और रनिवासों में. विशाल दालानों और टेनिस कोर्ट या फुटबौल मैदान से भी बड़े कमरों की खिड़कियाँ अगर बेहद छोटी होती आयी हैं तो यह वास्तुकला का वह समाजशास्त्रीय पक्ष है जिसे कक्षा ५ की भाषा में 'पर्दा-प्रथा' के नाम से जानते हैं. यहाँ आकर ‘स्त्री-विमर्श’ के रसिया, खिड़की की साइज़ में गहरी दिलचस्पी दिखा सकते हैं.

बात खिड़की से शुरू हुई थी और जेंडर तक आ गयी इसलिए हम विश्वासपूर्वक कह सकते हैं कि खिड़की जैसी साधारण सी आकृति में एक बड़ा सा उपन्यास भी निहित हो सकता है.

अगर भरोसा न हो यही बात आप विनोद कुमार शुक्ल जी से पूछें, जो रायपुर में रहते हैं.