खिलाड़ियों पर बायॉपिक बनाये जाने का सीजन / नवल किशोर व्यास

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
खिलाड़ियों पर बायॉपिक बनाये जाने का सीजन

खिलाड़ियों पर बायॉपिक बनाये जाने का सीजन है। श्रद्धा कपूर हसीना पारकार के बाद सायना नेहवाल पर बनने वाली फिल्म में नजर आने वाली है। कपिल देव पर भी फिल्म की घोषणा हुई है। इससे पहले मिल्खा सिंह, पान सिंह तोमर, सचिन, धोनी पर फिल्म बन चुकी है। इन सभी फिल्मो में सबसे ज्यादा चर्चित फिल्म मिल्खा सिंह और धोनी की रही जबकि पान सिंह तोमर इन सभी फिल्मो से ज्यादा मजेदार और रचनात्मक है। आज भी फिल्म मिल्खा सिंह को मिली तमाम तारीफों के बीच आज भी ये लगता है कि फिल्म ओवररेटेड है। मिल्खा सिंह निसंदेह ही जीवन की संघर्ष गाथा से पार पाते देश के गौरव है पर उन पर बनाई गई भाग मिल्खा भाग एक बेहद सतही और साधारण फिल्म हैं, फिर चाहें बात प्रसून जोशी की स्क्रिप्ट की हों, दो साल तक फिल्म के लियें खुद को मांज रहें फरहान अख्तर के अभिनय की हो या फिर राकेश ओमप्रकाश मेहरा के निर्देशन की। मिल्खा सिंह के संघर्ष को जानने समझने के लिहाज से फिल्म बेहतरीन है पर स्क्रिप्ट और मेकिंग में फिल्म कमजोर है। अमूमन राष्ट्र गौरव के चरित्रों और खेल के उन्माद को जब जब सेल्युलाइड पर उतारा जाता है तो उस उन्माद में साधारण दृश्य भी असाधारण से प्रतीत होने लगते है। पार्श्व ध्वनि में चिल्लाते दर्शकों में खुद को भी आत्मसात कर शामिल मान लेना आम बात है। राष्ट्रीय चरित्र और गौरव पर बनी सभी सतही फिल्मों को प्रायः व्यक्ति से जोडकर देखना और फिर उन्हें महान सिनेमा की डिक्शनरी में सजा कर रखना गलत परम्परा है। भाग मिल्खा भाग के साथ भी शायद यही हुआ है। असल ये महान नही बल्कि एक ईमानदार फिल्म है। 


प्रसून जोशी की तीन घंटे लम्बी स्क्रिप्ट में कुछ अच्छे सीन है तो बहुत जगह पेंच भी हैं। फिल्म की शुरूवात रोम ओमंपिक के उस टुर्नामेंट से हुई जिसमें मिल्खा सिंह भागते भागते पीछे देखते है ओर फिर रेस हार जाते है। भागते भागतें पीछे देखने का कारण मिल्खा सिंह की उस त्रासदी से जुडा बताया जाता हैं जिसमें विभाजन के खूनी दंगो में पिता के भाग मिल्खा भाग कहने और पीछे मुडने के लिये मना करने के बावजुद वो पीछे मूुडकर देखते है जहां उसके परिवार को दंगाइयो द्वारा मार दिया जाता है। पूरी फिल्म में इसे एक रहस्य की तरह परत दर परत खूलतें दिखाया जाता है परन्तु खूनी विभाजन कोई ऐसा आख्यान नही है जिसे रहस्य की तरह पेश किया जाये। विभाजन के दृश्य में हत्यारों का काला नकाब पहने घोडो पर आना और स्लो मोशन में हत्यारें करना और उसके पार्श्व में काल्पनिक कम्प्यूटरीकृत घने काले मौसम को तैयार कर ऐसा वातावरण बनाया जाता है जहां विभाजन का दर्द स्वाभाविक ना होकर फिल्मी फिक्शन में बदल जाता है। उन्मादी लोगो के बीच हुई सांप्रदायिक हिंसा को युद्व दृश्यों के रूप में दिखानें पर मानवीय करूणा की दर्शको से उम्मीद करना बेमानी है। जब राकेश ओमप्रकाश मेहरा और प्रसून जोशी भी स्क्रीनप्ले को फिल्मी फंडो से आगे बढ़ाएंगे तो टीस तो उठेगी ही। अभिनेता फरहान अख्तर ने जितनी मेहनत अपने मिल्खा लुक और शरीर पर की, उतनी मेहनत अपनी स्पीच और डायलाॅग डिलीवरी पर भी करते तो बेहतर होता। अभिनेता के रूप में अब तक की उनकी फिल्मो में उनका वाॅइस टैक्चर निभाये गए चरित्र के हिसाब से चल जाता था पर इस फिल्म में उनका वाॅइस टैक्चर बहुत जगह चुभता है, स्पीच पर पकड तो कभी थी ही नही। हालांकि दो फिल्मो की तुलना करना बेमानी है परन्तु जब दो फिल्में  धावक के जीवन संघर्ष पर बनी हो तो तुलना होना लाजमी भी है। मिल्खा सिंह और पानसिंह तोमर की सिनेमाई और चारित्रिक तुलना की जाये तो पानसिंह तोमर व्यक्तिगत और सिनेमाई दोनों ही रूप में ज्यादा रूचिकर है। तिग्मांशु धूलिया निर्देशित पानसिंह तोमर इरफान खान के जादुई अभिनय से सजा महान सिनेमाई दस्तावेज है, वही भाग मिल्खा भाग सौ करोड क्लब में शामिल होने जा रही बेहद साधारण बाॅलीवुड फिल्म है। व्यक्तिगत चरित्र चित्रण को भी देखे तो मालूम होगा कि मिल्खा सिंह ने अपने बेटे जीव सिंह को अपनी तरह दौडने में खर्च नही कराकर घनकुबेरो के खेल गोल्फ के लिये प्रोत्साहित किया वही पानसिंह तोमर ने व्यक्तिगत जीवन के तमाम कटु अनुभवों के बावजुद अपने बेटो को देशहित में फौज का हिस्सा बनाया। राष्ट्रीय चरित्रों के व्यक्तिगत निर्णयो की सामाजिक समीक्षा लाजमी है।