खुजली महिमा / ललित शर्मा
देश आजाद होते ही राजतंत्र, लोकतंत्र में बदल गया। नए जनराजा ने सत्ता संभाली। सत्ता सुख के साथ राजाओं के सुख एवं अधिकार भी जनता तक पहुंचे। राजतंत्र में प्रत्येक सुख राजा एवं उसके रागियों के लिए उपलब्ध होते थे। राजा प्रसन्न हो जाता था तो वह सुख कभी-कभी मुंहलगे को भी मिल जाता था। इसमें एक सुख खुजली करने का सुख था। खुजली का सुख तो सिर्फ़ खुजाने वाला जानता है। खुजली को भी एक राज रोग ही माना जाता है। खुजाते हुए जो आनंद की अनुभूति होती है, उसे तो सिर्फ़ खुजाने वाला ही जानता है। लोकतंत्र में प्रजा को भी खुजाने की छूट है। जिस तरह तख्त तक आम जन की पहुंच हो गयी उसी तरह खुजली के द्वार आमजन के लिए खुल गए हैं।
रचनाकारों को खुजली के बड़े भाई दाद की जरुरत होती है। खाज तो थोड़ी देर खुजाने का सुख देती है लेकिन दाद होने पर लम्बे समय तक खुजाने का सुख लिया जा सकता है, यह दीर्घकालिक आनंद देता है। इसकी मीठी-मीठी खुजली के तो क्या कहने। आनंद बयान करने के लिए शब्द नहीं मिलते, मान कर चलिए गुंगे के गुड़ जैसी बात है।
खुजली चलती रहती है तो नयी-नयी रचनाओं का जन्म हो जाता है। बिना खुजली के कैसी रचना? और कोई रचना छप गयी तो समझिए खुजली मोहल्ले भर को आनंद देती है। क्योंकि रचनाकार के साथ मोहल्ले का भी नाम जुड़ा होता है। खुजाने का सुख मोहल्लेवालों को भी मिलता है। भले ही खुजा-खुजा कर लहूलुहान हो जाएं, लेकिन खुजाएगें जरुर।
खुजाने के लिए नाखून जैसे अस्त्र भगवान ने दिए हैं। अगर नाखून न हो कैसे खुजाएं? कहावत है कि गंजे को नाखून नहीं दिए भगवान ने, नहीं तो खुजा-खुजा कर खोपड़ी लहूलुहान कर लेता। अब गंजे की खोपड़ी दूसरा कौन खुजाएगा, उसे खुद ही खुजानी पड़ेगी। इसके लिए बाजार में नाखून भी आ गए हैं। तरह-तरह के रंगबिरंगे नाखून लगाओ और जी भर के खुजाओ। हाँ नाखून काटने की सुविधा नहीं मिलेगी, क्योंकि ये नाखून बढते ही नहीं हैं। चलो बढ जाएं तो पीठ खुजाने के काम आएं, बड़ी समस्या तब होती है जब पीठ खुजाती है।
अब खुजाने वालों की क्या कथा बताएं, एक से एक खुजाने वाले पड़े हैं। कोई मतलब से खुजाता है कोई बेमतलब के। मेरे साथ एक मित्र दिल्ली आए, बड़े नेताओं से मिलने के लिए। हम जहाँ भी थोड़ा आराम से बैठते, वे मुंह, कान से लेकर हाथ-पैर सब खुजा डालते। मैने दो चार जगह देखा, फ़िर रहा नहीं गया। यार जहाँ भी बैठो वहीं खुजाने लगते हो, कम से कम जगह तो देख लिए करो, साले अपने साथ हमें भी खुजली बांट रहे हो। तो दूसरे मित्र ने कहा कि-“ इसको वो खुजली वाली खुजली नहीं है, ये तो सिर्फ़ यह चेक करने के लिए खुजाता है कि अमल का नशा उतरा तो नहीं है।“ अमल का नशा उतरा याने हरकत बंद।
खुजली का सबसे बड़ा वेयर हाऊस सत्ता का केन्द्र दिल्ली बना। सत्ता के गलियारों में तरह-तरह के खुजली वाले मिल जाएगें। कुछ तो मौका पाते ही खुजाने लगते हैं। इनको बस खुजाने से मतलब, चाहे किसी की भी खुजाएं। मूड़ खुजाने से लेकर सब खुजा डालते हैं। कुछ लोगों को तो चलते-चलते खुजाने की बीमारी होती है। जहाँ दिखे नेता जी उनकी खुजाना शुरु कर देते हैं। दिल्ली की खुजली गाँव में पंच-सरपंच तक पहुंच गयी है। यहाँ भी ये खुजाते ही रहते हैं। कुछ तो खुजा-खुजा कर ही बड़े-बड़े पदों तक पहुंच गए हैं। कुछ की इन्होने खुजा खुजा कर वाट लगा दी है। जिनकी वाट लग गयी वे कोने में खड़े-खड़े सोचते रहते हैं कि अब किसकी खुजाई जाए जिससे कुछ खुजाने लायक ठिकाना तो मिल जाए। कुछ तो खुजाने में इतने माहिर हो गए कि खुजली श्री ही पा गए।
कुछ लोगों को खुजली सिर्फ़ पंगा लेने के लिए होती है। दिन भर बैठे गुंताड़ा लगाते रहते हैं कि आज किसकी खुजाएं जिससे पंगा हो और उनकी खुजली मिटे। ऐसे लोगों की कमी नहीं है। हम भी कु्छ परजीवी टाईप के लोगों से परिचित हैं, जो कभी इधर-कभी उधर झांकते फ़िरते हैं कि किधर पंगा लिया जाए या पंगा कराया जाए, जिससे उनकी दिमागी खुजली मिटे, अगर वे साक्षात सामने मिल जाएं तो हाथ-गोड़, मूड़-कान, पीठ-पेट की खुजली भी मिटा दी जाए।
कुछ लोग तो जब तक बंदर जैसे खुजा नहीं लेते नहाने की सोचते ही नहीं। जब खुजाने में खर्र खर्र की आवाज ना आए नहाने का क्या मतलब? तब तक पंगे लेते रहो और खुजली मिटाते रहो। पंगे की खुजली वालों के लिए एकमात्र दवाई जालिम लोशन ही है ये मान कर चलिए। जब तक आप जालिम नहीं बन जाएगें, तब तक ये जालिम मानते नहीं है।
कु्छ लोगों की उंगलियाँ तो दिन भर नाचती हैं। अगर पाकिटमारी करते तो दिन भर में खूब कमाते। इसमें खेल उंगलियों का ही होता है। उंगलियों के पोर इतने संवेदनशील होते हैं कि इनके स्पर्श से ही पता चल जाता है कि किसकी जेब में कितना माल है। उंगलियों की खुजली मिटाने के लिए पाकिटमारी सही रास्ता नहीं है। अच्छा भला आदमी खुजाल के चक्कर में अपराध की ओर न मुड़ जाए, यही सोचकर कम्पयुटर के कीबोर्ड का अविष्कार हुआ होगा। खटाखट उंगलियाँ चलाओ और खुजली मिटाओ। कीबोर्ड का सिपाही उंगलियों में चल रही खुजली मिटाने के लिए कीबोर्ड पर खटाखट उंगलियाँ चलाता है, स्पर्श सुख से उंगलियों की खुजाल मिटती है और धड़ा-धड़ टाईप भी होते चला जाता है। आम के आम और गुठली के दाम, खुजाल भी मिटी, रचना भी तैयार हो गयी। अगर कीबोर्ड न हो तो उंगलियों की खुजली कैसे मिटे यह एक यक्ष प्रश्न है।
लोकतंत्र में खुजाने का अधिकार सबको है और सभी को खुजली का समान वितरण होता है। आज तक किसी ने शिकायत नहीं की है, किसी ने धरना, प्रदर्शन आन्दोलन नही किया कि उसके हिस्से की खुजली कोई बेच खाया या नकली मस्टररोल बना कर खुद हजम कर गया। खुजली के लिए बजट में भी कोई अतिरिक्त प्रावधान नहीं किया जाता। जिस तरह अमेरिकन गेंहूँ के साथ कांग्रेस(गाजर) घास चुपचाप बंट गयी देश में।
उसी तरह खुजली भी आम बजट के साथ बराबर हिस्सों में स्वत: बंट जाती है। जिसकी जितनी औकात उसको उतनी ही खुजली का कोटा अपने आप मिल जाता है। अगर खुजली के इस आनंद का पता वित्त मंत्री को चल गया तो इस पर मनोरंजन कर तत्काल लगा दिया जाएगा। तू मेरी खुजा और मैं तेरी खुजाऊँ, मतलब खुजाऊँ। खुजाने का अनंत सुख लेना है तो खुजाना ही पड़ेगा। जब तक खुजली पर मनोरंजन टैक्स नही लगा है, तब तक खुजा खुजा कर खुजली का असली सुख लें।