खुदा / पद्मजा शर्मा
उन दिनों शहर में सांप्रदायिक तनाव बढ़ रहा था। छोटी-छोटी बातों पर बड़े-बड़े झगड़े हो रहे थे। उस दिन चूंकि बरसात थी। मैं दफ्तर की गाड़ी से लौट रही थी। युवाओं की भीड़ ने रास्ता जाम कर दिया। उनके हाथों में सरिए, डंडे थे। वे कार के शीशे नीचे करवाने के लिए चीख रहे थे। शीशे उतारने का अर्थ था, सीधे-सीधे मुसीबत को दावत देना। मैंने शीशे तो नहीं उतारे पर डर के मारे माथे से बिंदिया ज़रूर उतार दी।
वे शीशे तोडऩे ही वाले थे कि दूसरी तरफ से नौजवान हॉकी, चेन लहराते हुए अचानक प्रकट हो गए. अब दोनों गुट आमने सामने थे। एक कह रहा था ' मैं हिन्दू हूँ। दूसरा कह रहा था मुसलमान। पर मेरी तरफ किसी का ध्यान नहीं था। उन्हें लडऩा था। वे आपस में लडऩे लगे। बिंदी-बुरका, गीत-गजल, मंदिर-मस्जिद, झांकी-ताजिया किसी भी मुद्दे को लेकर कभी-भी लड़ा जा सकता है। वे बेहिचक एक दूसरे की माँ-बहन कर रहे थे। जबान से होते हुए बात डंडों और चेनों पर आ गयी थी। दोनों ही गुट मुझे मारना चाहते थे। पहले वाले के लिए मैं हिन्दू थी दूसरों के लिए मुसलमान।
असल में उनके सामने धर्म और देश के तथाकथित ठेकेदारों द्वारा निर्मित धर्म का एक संकीर्ण चौखटा था। उसमें जो फिट होता था वह उनका अपना था। जो फिट नहीं होता था वह पराया था। वे खुद को खुदा समझ रहे थे। जबकि खुदा उनके कारनामों को देख कर खुद आंसू बहा रहा था।