खुद्दारी की रोटी / अंजू खरबंदा

Gadya Kosh से
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"भैया गांधी आश्रम चलेंगे?" मुखर्जी नगर में रिक्शा वाले भैया से पूछने पर मीठी-सी आवाज़ में जवाब मिला-"जी ज़रूर चलेंगे!"

जैसे ही रिक्शा पर बैठी वह बताने लगा-"आपको पता है यहाँ पर अभी हमने एक चोर पकड़ा।"

"चोर!" मैंने चौंक कर पूछा।

"हाँ जी! चोर! एक लड़की ने ए टी एम से दो हज़ार निकाले, जैसे ही वह एटीएम से बाहर आई एक चोर ने उस का पर्स झपट लिया। ये तो हम लोगों ने देख लिया और भागकर उसे पकड़ लिया। पहले तो ख़ूब मारा, अब कुछ लोग उसे पुलिस थाने ले कर गए हैं।"

"अरे वाह! आपने चोर को पकड़ कर तो बहुत बढ़िया काम किया।"

"जी! हम तो मेहनत करके खाने वाले लोग है।"

"बिलकुल भैया! मेहनत की रोटी सबसे सुखकारी होती है।" मैंने कहा तो वह अपने बारे में बताने को उत्साहित हो उठा-"हमारा नाम सुनील कुमार है। डेढ़ साल पहले भागलपुर से आए थे। पहले दिहाड़ी मजदूरी की, अब कुछ समय से रिक्शा चला रहा हूँ।"

"गाँव में क्या काम करते थे!" मैंने उत्सुकता से पूछा तो उसने बताया-"वहाँ काम बहुत मंदा है। दिल्ली में कम से कम तीन सौ की दिहाड़ी तो बन ही जाती है।"

"घर में पैसे भेजते हो!" मैंने हँसते हुए पूछा, तो सीना तान कर जवाब दिया-"हाँ जी हर महीने! माँ-बाप हमारे सहारे ही तो बैठे हैं, उनका ध्यान न रखेंगे क्या? हमने तो एक बात सीखी है ज़िन्दगी में-मेहनत की खाएंगे और मेहनत की ही परिवार को खिलाएँगे।"

इतनी देर में गाँधी आश्रम आ गया। सुनील को रिक्शे का किराया देते हुए मैंने मुस्कुराकर धन्यवाद कहा तो वह मुस्कुरा दिया। उस निश्चल मुस्कान से पूरा वातावरण महक उठा जैसे। -0-