खुली आँखों का दुःख / से.रा. यात्री
एक निहायत मामूली-सी नौकरी में गुजर-बसर करने वाला मेरा यह दोस्त पिछले कई महीनों से मुझे ढोता चला आ रहा था। उसके चेहरे पर या शब्दों में कभी कोई मुखर शिकायत नहीं उभरती थी। हां, एकाएक चिंता का आभास यदा-कदा उसके व्यवहार में अवश्य मिलता था। यह यों समझिए, जैसे कोई पिता अपनी कुमारी कन्या को लेकर परेशान हो उठे कि इस बेचारी का विवाह कब और कैसे होगा।
वेतन मिलते ही वह हम दोनों की जरूररत की चीजें घर में ला रखता था और बचा हुआ रुपया मेज की दराज में छोड़ देता था। उस दिन जब वह दफ्तर जाने लगा तो बोला, 'मेज पर पड़ी पत्रिका में एक रुपये का नोट रखा है - कहीं जाना हो तो चले जाना।'
लगभग ग्यारह बजे मैंने अपने सर्टीफिकेट और डिग्रियां पत्रिका के बीच में रखीं और नोट जेब के हवाले करके यों ही किसी दफ्तर में चक्कर लगा आने के ख्याल से बाहर निकल गया। बस स्टैंड पर जाकर देखा तो पाया कि वहां दफ्तरों का समय निकल जाने के बाद भी खासी भीड़भाड़ थी। जब मुझे बस जल्दी मिलने की कोई विशेष उम्मीद नजर नहीं आई तो मैं पैदल ही चलने को तैयार हो गया। यों भी मैं चार-छह मील तो पैदल चल ही लेता था।
अपनी भीतरी हलचल में डूबा मैं बाहर की दुनिया से बेखबर तेजी से सड़क पर बढ़ रहा था कि मैं एक अंधे से टकरा गया। आदतन मेरे मुंह से 'सारी' निकला और वस्तुस्थिति पहचाने बिना ही कह बैठा, 'भई जरा सामने देखकर चला करो।'
पता नहीं उस निपट अंधे आदमी के पास कौन-सी दृष्टि थी कि उसने मुझे चिह्न लिया और रिरियाहट में पूछने लगा, 'बाबूजी, यहां कहीं फून होगा?' मैं अभी पूरा बाजार पार नहीं कर पाया था, इसलिए यह झूठ नहीं बोल सका कि यहां कहीं फोन की व्यवस्था नहीं है। लेकिन एक दूसरी कठिनाई मेरे सामने आ गई। अंधा तो स्वयं कहीं पहुंच नहीं पाएगा - मुझे ही साथ जाना होगा और मैं फोन करने से हमेशा कन्नी काटता हूं। जरूरत पड़ जाए तो मैं किसी से मिलने हजार मील भी जा सकता हूं, मगर फोन सामने भी हो तो मेरी डायल करने की हिम्मत नहीं होती - जाड़ा-सा चढ़ने लगता है। अक्सर इतना असहज हो उठता हूं कि यह तक याद नहीं रख पाता कि चोगे का कौन-सा हिस्सा कान पर और कौन-सा मुंह पर लगाना चाहिए।
महानगर के उस भाग में मैं पिछले कई महीनों से था, मगर मुझे 'पब्लिक बूथ' की कोई जानकारी नहीं थी। पहले तो मैंने अंधे को जूल देने की सोची पर बाद में मन में एक दया का भाव उभर आया। अंधे आदमी को टका-सा जवाब देना मुझे यों लगता है जैसे मैं किसी बच्चे के हाथ से कुछ झपटने की कोशिश कर रहा होऊं।
मैं अभी कुछ कहने की सोच ही रहा था कि उस भाई ने अपनी रामकहानी आरंभ कर दी कि किस तरह वह पहाड़ से कुछ आदमियों के साथ भटकता हुआ यहां पहुंचा था। उन्होंने उसे बतलाया था कि यहां किसी संगीत के विद्यालय में उसे कुछ काम मिल जाएगा, मगर वे उसके रुपये ले कर पता नहीं कहां गायब हो गए। वह कई दिन से इधर-उधर मारा-मारा फिर रहा है। कल किसी दयालु आदमी ने उसके लिए कहीं फोन किया था तो आज वहां जाना था। कोई पर्वतीय अफसर थे जो अपने बच्चों को संगीत की तालीम देने के लिए एक अध्यापक की तलाश में थे। अपनी बात बताने के दौरान ही उसने एक रद्दी अखबार का पुर्जा मेरे हाथ में दे दिया जिस पर वैस्ट पटेल नगर के किसी दफ्तर का पता घसीटा हुआ था और कोने में फोन नंबर भी दर्ज था। अंतिम वाक्य बोलते समय उसके मुंह पर गहरी दयनीयता आ गई, 'आज मैं वहां पहुंच जाता तो स्यात काम मिल जाता।'
वैसे तो मैं फूंक-फूंक कर कदम रखता हूं, पर सावधान रहने के क्षण में मेरी होशियारी धरी रह जाती है और झंझट में फंस जाता हूं। बाद में स्वयं को अहमक, पागल-वागल तक भी कहता रहता हूं पर खटरागों में पड़ने का रस मुझसे कभी नहीं छूटता। इस किस्से में भी यही हुआ कि मैं किनारा करते-करते भी फंस ही गया। जब वह बोला, 'दाज्यू साब, मैं अंधा ठहरा - आप ही कहीं से फून कर दीजिए।' तो मैं उसको लेकर एक लंबे बराण्डे में दाखिल हो गया।
कई दुकानों पर फोन की व्यवस्था थी, पर बेधड़क कहीं भी जा पहुंचने का साहस मुझमें नहीं था। एक दुकान के दरवाजे पर मैंने विनम्रता से फोन की बात पूछी तो किसी ने कोई उत्तर ही नहीं दिया - दूसरी 'जगह फोन खराब है' का टका-सा जवाब मिल गया - तीसरी जगह ग्राहकों की भीड़ थी। जब यही कुछ काफी देर तक चलता रहा तो मेरे भीतर निष्क्रियता से उबलती खिजलाहट पैदा होने लगी और मैं एक दुकान में घुसकर ताबड़तोड़ अंग्रेजी बोलता फोन के चोगे पर झपट पड़ा। दुकानदार ने मुझे बेसब्री में डायल करते देखा तो वह सहसा कुछ अनुमान नहीं लगा सका। हो सकता है उसने समझा हो कि कहीं कोई बड़ी दुर्घटना हो गई है और मैं दमकल विभाग को सूचित कर रहा हूं।
जब मैंने डायल करने के बाद संयोग से वांछित व्यक्ति से संपर्क कायम कर लिया तो दुकान के बाहर खड़े अंधे से भीतर आने को कहा। वह टकराहट से बचता हुआ दरवाजे में घुसा और बोला, 'कह दो शिवराम आज दोपहर तक पहुंच जाएगा।' मैंने फोन पर उसके शब्द दोहरा कर चोंगा रख दिया और झपटते हुए दुकान से बाहर जाने लगा।
मैं अभी दो कदम ही रख पाया था कि मुझे दुकानदार की कर्कश वाणी पीछे से सुनाई पड़ी, 'फून मुफ्त में करने के लिए नहीं लगवा रक्खा है, के आए और करके चल दिए, अठन्नी लगती है।'
इस आड़े वक्त पर मित्र का दिया हुआ रुपया काम आया। मैंने उसे जेब से निकाल कर माफी मांगते हुए, दुकानदार की ओर बढ़ा दिया। उसने जो पैसे वापस किए उन्हें बगैर गिने जेब में डालकर बाहर बराण्डे में निकल आया और इस परिस्थिति पर गौर करने लगा कि मेरे पास जो पैसे रह गए हैं उनसे कितनी सेवा ली जा सकती है -एक प्याला चाय - एक बस टिकिट अथवा एक बंडल बीड़ी। ज्यादा से ज्यादा यही उन पैसों की बिसात थी। अठन्नी की बेबसी ने मेरे भीतर एक तलखी पैदा कर दी और मैं अंधे पर झुंझला उठा - यह बला बैठे-बिठाए कहां से पीछे लग गई, पर प्रकट में इतना ही बोला, 'भई, शिवराम वो जगह यहां से बहुत दूर है। बस मिल भी जाए तो घंटों लेगी। इतनी देर में लंच हो जाएगा और वे साहब तो आज फिर मिलेंगे भी नहीं।'
लेकिन अपना पिंड छुड़ाने की मेरी यह कोशिश भी नाकाम हुई। इतनी देर में पता नहीं कहां से शिवराम ने, दो और पांच रुपये के नोट निकालकर अपनी मुट्ठी में रख लिए थे। उन मुड़े-तुड़े नोटों को मेरी दिशा में बढ़ाते हुए वह रिरियाया, 'दाज्यू! आप तो मुझे भगवान सरीखे मिले हैं। मुझ पै दया करो - कैसे भी चलो, इन रुपयों से जल्दी पोंचने का इंतजाम कर लो।'
शिवराम की प्रार्थना पर मैं एक क्षण ठहर कर सोचता रहा और मुझे लगा कि मुझे तो कहीं भी जाने की जल्दी नहीं है - एकदम निठल्ला और बेकार हूं पूरे दिन भी के लिए - चाहूं तो अभी मित्र के कमरे में लौट कर सो जाऊं। हालांकि मेरी डिग्रियां और सर्टीफिकेट मेरे हाथ की पत्रिका में दबे पड़े थे, पर मुझे कहीं से भी नौकरी के लिए कोई आमंत्रण नहीं था। मैंने फैसला किया कि आज अपने इसी नामराशि के साथ चलूं - फालतू में निराश होते रहने में क्या रखा है।
सड़क पर पहुंच कर मैंने एक तिपहिया लिया और ड्राइवर को दफ्तर का पता बतला कर शिवराम के साथ उसमें बैठ गया। स्कूटर की भद-भद करने वाली आवाज के दौरान शिवराम मुझे तरह-तरह से आशीर्वाद देता रहा। उसने अपनी जिंदगी के बारे में भी कुछ बतलाया कि किस तरह यतीम हालत में उसने संगीत की शिक्षा ली और बराबर इधर-उधर भटकता फिरा।
बीस मिनट में हम दोनों वैस्ट पटेल नगर के उस दफ्तर में जा पहुंचे। मैंने निदेशक महोदय के कक्ष के बाहर स्टूल पर बैठे चपरासी को चिट लिखकर दी। ज्यों ही वह चिट देकर बाहर आया, साहब ने घंटी बजाकर हमें तलब कर लिया। मैं शिवराम को अपने साथ पकड़ कर भीतर ले गया। साहब को सलाम करने के बाद मैंने शिवराम को एक कुर्सी पर बिठा दिया। साहब ने उससे उसका नाम और गांव, गढ़वाली या पहाड़ के किसी अंचल की भाषा में ही मालूम किया। पांच-सात मिनट की बातचीत में ही वे दोनों अंतरंग हो गए। और उस समय तो मैं उनके पारस्परिक प्रेम का कायल हो गया, जब डायरेक्टर महोदय ने कुर्सी से उठते हुए कहा, 'अच्छा! तो तुम मेरे साथ चलो - मैं तुम्हें मकान पर छोड़ता आऊंगा - वहां रहने को भी जगह मिल जाएगी।'
निदेशक महोदय की नजर मुझ पर भी कई बार पड़ी। मैंने अंग्रेजी बोल-बोल कर उन्हें कई बार प्रभावित करने की कोशिश भी की, पर उन्होंने शायद मेरी वास्तविकता को नहीं समझा। हां, एक बार शिवराम की बात से यह अवश्य लगा कि उसने साहब को बतलाया है कि उसे साथ लेकर आने वाला मैं एक निहायत शरीफ आदमी हूं। इससे प्रभावित होकर साहब ने मेरे लिए चाय लाने का आर्डर भी दे दिया।
निदेशक महोदय और शिवराम मुझे चाय पीता छोड़कर चले गए तो मैं बाहर भीतर से एकदम खाली हो गया। चाय खत्म करने के बाद मैं कमरे से बाहर निकल कर आया तो मैंने बड़ी ही बेचैनी के बीच अनुभव किया कि मेरी डिग्रियां और वह प्रमाणपत्र फालतू का बोझ थे, जिनमें मुझे बड़ा कर्मठ, उत्साही और निष्ठावान घोषित किया गया था। उस रद्दी से मुझे एकाएक घोर विरक्ति हो उठी। उस बोझ को उठाए फिरने में क्या तुक थी जिसमें गुणवत्ता का झूठा ढिंढोरा पीटा गया था और मेरे देखते-देखते एक अंधा आदमी मुझ से बाजी मार ले गया था।
गहरे तनाव में ग्रस्त होने के कारण मैंने कमरे के बाहर स्टूल पर बैठे चपरासी से एक बीड़ी मांग ली। चूंकि मैं निदेशक महोदय के कमरे से बाहर निकला था, इसलिए उसने अदब से बीड़ी का पूरा बंडल मेरी ओर बढ़ा दिया। मैंने उसमें से एक बीड़ी निकाल कर जला ली और सोचने लगा शिवराम आज से ही काम पर लग जाएगा और दूसरा शिवराम बीस वर्ष कालिजों और विश्वविद्यालयों के ज्ञानदानी कक्षों में गुजार कर महज डिग्रियों का बोझ उठाए घूमेगा।
यह चेतना मेरे अस्तित्व पर हावी होती चली जा रही थी - काश मैं कुर्सी बुनना ही जान लेता, क्योंकि दफ्तर के बाहर आकर मैंने देखा कि एक निहायत टूटा-फूटा-सा आदमी चार-छह कुर्सियां लेकर बैठा था - शाम तक वह शायद सभी को बुन डालेगा।