खुले में शौच / हरिशंकर राढ़ी

Gadya Kosh से
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सरकार का प्रण है कि अब वह किसी को खुले में शौच नहीं करने देगी। बेहतर तो होगा कि लोग शौच ही न करें। लेकिन लोग हैं कि मानते नहीं। भोजन करें न करें, शौच ज़रूर करेंगे। सदियों से करते आए हैं। जब चाहे, जहाँ चाहे, करते रहे। खाते हुए कोई देखे न देखे, शौच करते ज़रूर दिखाएँगे। शौच करने से लोगों को पता चल जाता है कि यह खाता भी होगा। अपने पड़ोसी मुल्क को छोड़ सारी दुनिया दिखाना चाहती है कि उसके यहाँ खाने की कमी नहीं है। क्या करें, पड़ोसी और विपक्षी तो कभी चाहते ही नहीं खाने-पीने में देश आत्मनिर्भर हो।

पहले सरकारों को जनता के शौच से कुछ लेना-देना नहीं था। करती है तो करती रहे। जहाँ उसकी मर्जी हो, वहाँ करे। उसे किसी ने पुरानी कहावत समझा दी थी- बैल जी गोबर करो पुआल में, जाएगा तेरे गाल में। लोकतंत्र में इतना तो हक़ होना ही चाहिए कि खाने की सुविधा और आज़ादी हो न हो, शौच की अवश्य हो। जनता भी वही है, उँगली पकड़ते-पकड़ते गट्टा पकड़ने लगती है। सो, अब सरकारों को शौच से समस्या होने लगी है। तब अनपढ़ों की संख्या ज़्यादा थी। अनपढ़-गँवार सरकारों पर शौच नहीं करते। वे जंगल और खेत में करते थे। धीरे-धीरे लोग धरना-प्रदर्शन लेकर वनपथ से जनपथ और राजपथ तक आने लगे। राजपथ पर ऐसा नहीं चलेगा। वहाँ से राज्य की व्यवस्था दिखती है। विदेशी आते हैं, वीआईपी आते हैं। वे शौच पर बहुत ध्यान देते हैं।

शौचालय पहले भी थे, लेकिन कम थे। पुरानी तकनीक के थे। विज्ञान और तकनीक में क्रांति आने से शौचालय में भी क्रांति आई। उधर सुलभ शौचालय बने तो इधर सोशल मीडिया शौचालय बने। दिक्कत तब हुई जब वैचारिक शौच की दुर्गंध फैलने लगी। इधर रासायनिक खादों का प्रयोग क्या होने लगा, पेट में विचारों की उमड़-घुमड़ आफत करने लगी। पेट भरा तो किसी को धार्मिक अफारा, किसी को जातिवादी गुड़गुड़, कहीं सांप्रदायिकता का कब्ज तो किसी को धन का अजीर्ण सालने लगा। अब तो ऐसे रोगियों की संख्या बढ़ने लगी है। सच कहिए तो कोई-कोई ही बचा जो उपर्युक्त राजरोगों से बचा है। अब ये चीजें पैदा हो गईं तो अंदर तो टिकेंगी नहीं। उन्हें किसी न किसी रूप में बाहर आना ही होता है। समस्या यह हुई कि इतने लोगों को शौचालय मिले कहाँ? यह तो भला हो तकनीक और इंटरनेट का कि जिसने सोशल मीडिया का सामुदायिक शौचालय मुहैया करा दिया।

जहाँ अफाराग्रस्त लोग इस सोशल मीडिया सामुदायिक शौचालय पर लाइन लगाकर बैठ गए, वहीं कुछ लोगों ने अखबारों-पत्रिकाओं की ओर रुख किया। जिनके पास अख़बार रूपी बड़े शौचालय नहीं थे, उन्हेंने मुहल्ला टाइम्स टाइप के चलताऊ यानी पोर्टेबल शौचालय बना लिए। एक बार दस्त की बीमारी से छुटकारा हुआ तो ये शौचालय भी बंद। अब इस समस्या से सरकार परेशान है। वह चाहती है कि इस प्रकार के खुले शौच बंद हों। जिसे करना है, वह अपने घर में निपटे। किसी को पता न चले। विचारों का दस्त लोगों को पहले भी लगता था, लेकिन ये चुपचाप निपट लेते थे।

सत्ता ने सोच लिया है कि उसे खुले में शौच रोकना है। यह सरकार दूरदर्शी है। दूर की सोचती है। अब वह विचारों की खुराक ही बंद करेगी। इसके लिए उसने शिक्षा मुफ्त कर दी है। सरकारी स्कूलों में ऐसी पढ़ाई कराएगी, जिससे बच्चा बिना पढ़े ही सारी कक्षाएँ पास कर लेगा। नहीं पास करता है तो शिक्षक को दंडित करेगी। सारी समस्या की जड़ ये शिक्षक ही हैं। नंबर देने में इनकी नानी मरती है। पास ही नहीं करना चाहते किसी बच्चे को। जब ये नपना शुरू होंगे तो बच्चे को पढ़ाएँ या न पढ़ाएँ, पास ज़रूर करेंगे। कॉपी-किताब, पेंसिल, कपड़ा और नशे के लिए आर्थिक अवदान सरकार देगी। ससुरे, अब तुम बताओ दस साल बाद विचार कहाँ से लाओगे? न विचार लाओगे, न खुले में वैचारिक शौच करोगे।

इधर राजनीतिक शौचालयों का हाल बुरा हो गया है। उस पर किसी का ध्यान ही नहीं। जिन्हें इन पर ध्यान देना था, वे ख़ुद शौचालयों में घुसे पड़े हैं। बाहर लंबी लाइन है। अपने अपने दल का झंडा लपेटे, डिब्बा लिए लोग इंतज़ार कर रहे हैं कि सत्ता के शौचालय में जिन्हें पाँच साल हो गया है, वे जल्दी निकलें तो हम अंदर घुसें। लेकिन वे हैं कि अंदर से सिटकिनी लगाकर मानो आराम फरमा रहे हैं। क्या पता, अंदर कोई बीड़ी जला ली हो या मुफ्त की कोई खैनी मल रहे हों। आजकल के लोग तो मोबाइल लेकर जाते है। वहीं गेम खेलते हैं या फिर जानू को मैसेज करते रहते हैं।

सुना है कि विकसित देशों में लोग खुले में शौच नहीं करते। वहाँ ढाबे और होटल से ज़्यादा शौचालय होते हैं। एक से एक, चमकते-दमकते और ग़मकते। बुद्धिराम जी कई देशों के शौचालय से हो आए हैं। वे बताते हैं कि वहाँ के शौचालय इतने स्वच्छ और सुंदर होते हैं कि यहाँ के आदमी की आत्मा ही नहीं कहेगी कि उसमें शौच की जाए। अपने यहाँ की जनता इस मामले में न्यायप्रिय है। जैसा पशु, वैसा बंधन। शौचालय हो तो शौचालय की तरह रहो। देखकर लगे कि यहाँ शौच की जाती है।

सदियों से उसके लिए तो अपने यहाँ सड़क की पटरियाँ, चकरोड के किनारे, नदियों के तट और खाली प्लाॅट ही ठीक रहे हैं। रहने के लिए ढंग की झोपड़ी मिल जाए तो शौचालय की सोचे। यानी सदी की रात और गरमी की दोपहरी तो खुले में काटे और शौच के लिए आधुनिक शौचालय में जाए। लेकिन सरकार है कि खुले में जाने नहीं देगी और प्रधान जी पक्का बनने नहीं देंगे। बेचारा जो आधा-अधूरा खा रहा है, उसे भी बंद करना पड़ेगा।