खुशकिस्मत / मृदुला गर्ग
हाथ में दवा का पत्ता थामे, निश्चेष्ट नलिनी सोच रही थी, उससे गलती ठीक कब हुई। अगर यह दवा न खिलाई होती तो क्या नरेंद्र जीवित होता? या आखिरी क्षण अपोलो अस्पताल के डाक्टर से लिया अपॉइंटमेंट रद्द करके वह उसे दूसरे अस्पताल न ले गई होती तो जीवित होता? वहीं के न्यूरोलोजिस्ट ने दवा की मिकदार बढ़ाई थी न? वह सलाह परिवार के परिचित डाक्टर ने दी थी; उन्हीं के दवाखाने से फोन करके अपोलो का अपॉइंटमेंट रद्द करके दूसरे अस्पताल फोन लगाया था। तुरंत समय मिल गया तो ले गई। परिचित डाक्टर पर आस्था थी इसीलिए उनकी सलाह मान कर न?
नहीं... असल बात कुछ और थी। जान कर अनजान बनने का नाटक कब तक करेगी? असल वजह, उसके भीतर कुंडली मारे बैठी दहशत ठीक कब, जो बड़े अस्पतालों के अंदर जाने से रोक देती थी। एक रिश्तेदार को देखने गई थी एक बार तो दिमाग एकदम कोरा, खाली हो गया था। दीखना-सुनना बंद। जड़ जहाँ की तहाँ। एक दरियादिल जवान की मदद से बाहर निकली। अस्त व्यस्त। बाहर आते ही आँखों के आगे अँधेरा छाया कि गिरते-गिरते बची। गिरते-गिरते वह हमेशा बच जाती है, इस मामले में वाकई भाग्यशाली है। कभी हड्डी नहीं टूटी। किसी का सहारा ले उठना नहीं पड़ा; किसी ने लाद कर घर तक नहीं पहुँचाया।
हाँ, एक बार गिरी थी बीच सड़क, दुपहिया स्कूटर से टकरा कर। कसूर सवार का नहीं, उस का था। बीच रास्ते ताजा लिखी कहानी का धाँसू शीर्षक क्या सूझा, अहमक, दोनों तरफ के तेज यातायात से बेखबर, वहीं ठिठक गई। दाईं तरफ से आ रहे स्कूटर सवार ने काफी से ज्यादा कोशिश की पर इतनी जबरदस्त बेवकूफी से टक्कर लिए बगैर न रह पाया। चपेट में आ, वह दूर जा गिरी। नौजवान दिल्ली में नया होगा जो रिवायत के खिलाफ, रफूचक्कर होने के बजाय, रुककर पूछने लगा, "आप ठीक तो हैं?"
बेतरह शर्मसार, वह तीर की तरह उठी, जोरदार आवाज में ठीक होने के साथ गलती सोलह आने, स्कूटर सवार की नहीं, अपनी होने की तस्दीक की। तमाशबीनों की भीड़ छँट गई। किसी तरह लंगड़ाने पर काबू रख, वह सामने कॉटेज एंपोरियम में घुस गई। सोफे पर ढेर हो दरख्वास्त की कि तिपहिया मँगवा दें, सड़क पर फिसल कर खासी चोट आई है। उन्होंने मँगवा दिया। रास्ते में एक्सरे करवा, घुटने में बाल आने की जानकारी ले, पट्टी बँधवा, घर पहुँची। सही अर्थ में उसे गिरना नहीं माना जा सकता था। आखिर गिरना-उठना उसकी अपनी रचना थी। कहें कि वह वास्तविकता नहीं, कहानी थी।
तब की बात और थी। तब उसे खुश होने से डर नहीं लगता था। खूब मजे ले कर छोटे बेटे प्रशांत को घुटने में तरेड़ आने का किस्सा सुनाया था। उसने अपने खास अंदाज में आँख मार कर कहा था, "भाइयों, हमारी माँ एकदम अलग किस्म की पागल हैं!" बड़ा बेटा सुशांत तब अमरीका में नौकरी कर रहा था। वह भी कम बिंदास नहीं था पर प्रशांत और नलिनी कुछ अलग किस्म के दीवाने थे और एक-दूसरे के राजदाँ-दोस्त।
तब की बात और थी। तब प्रशांत था। पर उसके जाने के बाद भी नलिनी कभी ऐसे नहीं गिरी कि उठ न पाए।
नरेंद्र उतना भाग्यशाली नहीं रहा। वह गिरा तो खक्खड़ सड़क पर मुँह के बल और होश गँवा कर। चेहरे पर कई जगह चोट से खून बहा। चार जन उठा कर घर लाए। गनीमत कि गिरा घर के ठीक सामने। शायद बाहर निकलते ही। घर में काम करने वाली वीना से एक अजनबी ने आकर कहा, "एक गिलास पानी ले आओ, सड़क पर कोई बुजुर्ग गिरा पड़ा है।" गई तो पहचाना, यह तो अपने साहब के पिताजी हैं। हाँ, वह दिल्ली में अपने घर के नहीं, पुणे में सुशांत के घर के बाहर सड़क पर गिरा था। वे दोनों बीस दिन के लिए वहाँ गए हुए थे। पहले नरेंद्र नहीं जाता था; वह अकेली जाया करती थी, हर साल, महीनों ले लिए।
हर किसी से कहती, मेरी बहू अभिलाषा, सुशांत की पत्नी, बिल्कुल बेटी की तरह है। कोई कहता, आपकी साड़ी बड़ी सुंदर है, वह चट कहती, "अभिलाषा ने भेजी है। हथकरघे की नुमाइश में जाती है तो मेरे लिए साड़ी, दुपट्टा या कुर्ता खरीद लेती है। मैं खुद अपने लिए खरीदारी नहीं करती, वही करती है। आप तो जानते हैं, आजकल लड़कियाँ कितनी खरीदारी करती हैं, शगल मानिए कि खब्त। वह भी तरंग में आ कर कभी साड़ी खरीद लेती है, कभी सूट या नए ढब का कास्मेटिक। बाद में लगा, उस पर फबा नहीं तो बदलने के बजाय, मुझ से कहती है, आप पर जँचेगा, आप ले लीजिए। बस अपने लिए कुछ खरीदने से मेरी छुट्टी।"
बखान सुन, एक पड़ोसिन ने हँस कर कहा था, "साफ कहिए न, अपनी पुरानी चीजें पकड़ा देती है। आप भी..."
"बिल्कुल नहीं। एक से एक बढ़िया चीज होती है। न जँचे तो साफ कह देती हूँ मैं, नहीं चाहिए।" फिर मुग्ध भाव से जोड़ा था, "वह सोचती है, मैं अब भी जवान हूँ, कभी पैंट और टॉप भेज देती है। सफर में पहन लेती हूँ।"
"खुशकिस्मत हो!" दूसरी ने ओंठ चबा कर कहा था तो वह पसीना-पसीना हो गई थी। अठारह बरस बीत गए, कोई खुशकिस्मत कह दे तो बुरी तरह घबरा जाती है। जब से पत्नी सहित प्रशांत दुर्घटनाग्रस्त हुआ, वह बेहद अंधविश्वासी हो गई है। पहले नहीं थी। धड़ल्ले से कहती थी, मैं कर्मकांड में विश्वास नहीं करती। शादी में भी नेग और टोटकों को तरजीह नहीं दी थी। दहेज, टीका, मिलनी वगैरह से परहेज रखा था। नाते-रिश्तेदार नाराज हुए तो अपनी तरफ से साड़ी वगैरह दे मना लिया था।
पर कुछ ही महीने बाद... जब... वह हादसा हुआ और एक प्रख्यात लेखिका ने कहा, "बेटे की शादी में इतना खुश नहीं होना चाहिए था; तभी न..." तो मन की दारुण रिक्ति में जो रंच मात्र आत्मविश्वास बचा था, चुक गया। वह खुश होने से डरने लगी। अगले पाँच-छह साल बुरे गुजरे। सुशांत अमरीका से लौट, पुणे में बस गया। दो साल तक भाई की मृत्यु से उबर नहीं पाया, बीमारी से घिरा रहा। नलिनी नरेंद्र को दिल्ली छोड़, महीनों उनके पास रहती। लोग कहते भाग्यशाली हो कि पति तुम्हें इतने लंबे अर्से के लिए जाने देते हैं। वह डर जाती। कहती "न-न, दुर्भाग्य कहो। बीमार बेटे-बहू की देखभाल करने जाती हूँ, नरेंद्र इतने दिन के लिए काम नहीं छोड़ सकते न? मैं..." मन का चोर आगे बोलने न देता। वजह जो होती, यह तय था कि बेटे के पास रहना सुकून देता था। ज्यादा खुशी नहीं, हालात उस लायक नहीं थे, फिर भी दिल्ली में हरदम, हर पल, न होने का जो अहसास घेरे रहता था कम हो जाता। कोई कहता, "आपकी बहू बहुत अच्छी है जो आपको बुलाती है वरना आजकल लड़कियाँ नहीं चाहतीं, पति की माँ पास रहे, भले तीमारदारी को।" वह सच्चे पर डरे मन से कहती, "सोलह आने सच।" वह यकीन करती थी कि इस मामले में वह खुशकिस्मत थी पर कहने से डरती थी।
पाँच साल बाद जब पोती हुई और सात साल बाद पोता तो अपनी घबराहट पर इतना काबू उसने पा लिया कि जब-तब कहने लगी, "मैं हर जुलाई में दो-एक महीने के लिए पुणे चली जाती हूँ। क्या मौसम है शहर का, न सर्दी न गर्मी। सुहाना समाँ और खुला ओर-छोर।" कोई ओंठ टेढ़े करके कहता, खुशकिस्मत हो जो आवभगत करने वाली बहू पाई है तो पसलियों से बाहर निकलने को तैयार दिल को हाथों से दबा, खुद को करारी डाँट पिला कर कहती, "हाँ इस बात में मेरी किस्मत अचछी है।" मन-ही-मन भगवान से माफी माँग लेती, मैं खुश नहीं हूँ, भगवन, बस आपकी इस करुणा के लिए आभारी हूँ।
धीरे-धीरे नलिनी और नरेंद्र की उम्र बढ़ी। अठारह बरस आखिर अठारह बरस होते हैं। नरेंद्र सत्तर का होने को आया। काम रहा नहीं। असल में प्रशांत के जाने के दस साल के भीतर, उसका बिजनेस ठप्प हो गया था। वह करीब-करीब कंगाल हो गया। असल कंगाल तो दोनों पहले ही हो गए थे, दसेक साल में रुपए-पैसे से भी हो गए। काफी दिन कारगर काम न होने पर, बिगड़े कामों की मार्फत चढ़े कर्ज को उतारने की जद्दोजहद में, नरेंद्र उसके साथ पुणे नहीं गए। वह अकेली जाती रही। कह देती नरेंद्र काम छोड़ कर आने को राजी नहीं। झूठ कितने दिन चलता? इस बरस नरेंद्र को साथ ले पुणे पहुँची। अब तक सब जान गए थे, नरेंद्र के पास काम छोड़, रुपया-पैसा भी नहीं था। तो क्या, नरेंद्र कहता, जिसका काबिल बेटा अच्छा कमा रहा हो उसे कंगाल कैसे कहें? उसका मानना था, बेटे को बूढ़े माँ-बाप की देखभाल करनी चाहिए। रिवायत है, हमारी परंपरा। उसने भी की थी अपने पिता की। नरेंद्र बेवकूफ था या अपने पिता की तरह आत्मकेंद्रित और स्वार्थी? कारोबारी नाकारापन के बोझ को बच्चों पर लादने को क्या कहेंगे?
ऐसे नहीं सोचना चाहिए। आखिर नरेंद्र अब इस दुनिया में नहीं है और नलिनी की गलती से। गलती की शुरुआत कब हुई? उसे पुणे न ले गई होती तो क्या वह आज जीवित होता?
वैसे कंगाल होने में सारी गलती नरेंद्र की नहीं थी। कुछ हाथ हालात का था। नलिनी तो दुकानदार नहीं लेखक थी पर हालात ने उसे भी वह तजर्बा करवा दिया था, जिससे नरेंद्र रोज वाबस्ता होता था। प्रशांत के जाने के कुछ महीनों बाद, एक फिल्मकार उसके पास पैसा माँगने आई थी। एक मशहूर लेखिका ने भेजा था कि, "बेटा-बहू गुजर गए, जिम्मेवारी रही नहीं, आपको पैसा दे सकती हैं।" पता नहीं, वाकई कहा था या फिल्मकार ने अपना तर्क उस पर थोपा था। ऐसा नहीं था कि सिर्फ मशहूर लेखक समझदारी की बातें करते थे; बस नलिनी के दायरे में थे सिर्फ लेखक। नरेंद्र का पाला अन्य जनों से पड़ता था, जिनमें से बहुतों ने प्रख्यात लेखिका-फिल्मकार का तर्क अपनाया था। जब-तब दोस्त-परिचित, कारोबारी प्रस्ताव के साथ "आपके बेटे समान" अपने बेटे-भतीजे-दामाद उसके पास भेज देते। व्यापार बुद्धि में नाकारा या चालबाजी का मारा, नरेंद्र, नई रीत के उनके उद्यमों में पैसा डुबा देता। अग्रेजी या मूल फ्रांसीसी में इसी को अंत्रेप्रनेयर कहते हैं, हिंदी में उद्यमकर्ता, वह उसे समझाता। उसके पिता भी यही कहा करते थे। पर कामयाब हो तभी दुकानदार उद्यमकर्ता कहलाता है; नाकाम हो तो कुंदजेहन,जुआरी या हद से हद, बदकिस्मत। नरेंद्र वह सब था, बस कामयाब नहीं था। "बेटे समान" नौजवानों के कारोबार में लगा पैसा डूब जाता या कम पड़ जाता तो कर्ज ले कर, कमी पूरी कर लेता। कर्ज उतारने का वक्त आता तो दूसरी जगह से कर्ज ले, पहला पाट देता। कभी दूसरे को तीसरे कर्ज से उतारता, कभी माहवार किस्त दे बनाये या बढ़ाये रखता। कर्ज देने वालों की कमी न थी। प्रशांत के जाने के बाद उदारीकरण का युग आ गया था। महाजन पुराने जमाने का खलनायक नहीं रहा था, उदारता का प्रतीक बन गया था, विकास का संवाहक। नामी-गिरामी बैंक घर आ कर भलमनसाहत से कर्ज देते थे। बार-बार देते थे, तब तक देते थे, जब तक उसका कद इतना राक्षसी न हो जाए कि उसकी भूख मिटाने को, आप भलमनसाहत से सब कुछ बेच कंगाल हो जाएँ। बड़े सलीके से, खरामा खरामा, नरेंद्र व्यापारी से कर्जदार और कर्जदार से कंगाल बन गया। उस औपन्यासिक यथार्थ का ब्यौरा देने का औचित्य नहीं है। नलिनी उसकी बारीकियाँ जान न पाई। जानने की कोशिश भी नहीं की। कभी-कभी उसके नाम से भी कर्ज लिया जाता था। सरसरी तौर पर वजह पूछती तो नरेंद्र दो बातें कहता। एक, बिजनेस चलता ही कर्ज से है। दो, वह मोड़ आने ही वाला है, जिसे काट, बिजनेस वक्ती नुकसान की डगर छोड़, जबरदस्त मुनाफे के मुकाम पर पहुँचेगा। नलिनी ने ध्यान नहीं दिया था। क्या नरेंद्र की मौत की जिम्मेवार वह तभी होनी शुरू हो गई थी, जब उसने ध्यान नहीं दिया था। बस कराह कर कहा था, "पर किसके लिए? मुनाफा, पैसा, सब किसके लिए?"
उन दिनों पैसों की तंगी नहीं थी, पैसे की जरूरत भी नहीं थी। न वह कोई त्योहार मनाती, न कहीं आती-जाती, न मेहमानों को न्योतती, न बढ़िया खाती-खिलाती। उन्हीं त्योहारों पर, जिन्हें वह मनाती न थी; जिनके आगमन की आहट में प्रशांत की दूर होती पदचाप सुनाई देती थी; रफ्ता-रफ्ता अपने जेवर अभिलाषा को दे दिए थे। रंगीन साड़ियाँ-सूट कामवालियों को और बढ़िया रंगीन साड़ियाँ, भांजियों को। बेटी कोई थी नहीं। बरसों त्योहार नहीं मनाये थे, दीवाली भी नहीं। पोता-पोती हुए तो मन हुआ, कम से कम दीवाली मना ले। पर तब तक सब मान चुके थे कि वह नहीं मनाएगी। दीवाली पर सुशांत नए घर में गया तो दो दिन पहले वह दिल्ली लौट आई। गई थी क्योंकि बेटा बीमार था, लौट आई क्योंकि नीरोग हो चुका था। पर क्या उससे गलती वहीं शुरू हो गई थी जब उसने कहा नहीं था कि वह उनके साथ नए घर में दीवाली मनाना चाहती है? जब उसने खुद को "नेगेटिव" (अभिलाषा का प्रिय शब्द) करार होने दिया था?
शुरू में पैसे की जरूरत सिर्फ बस दवा-दारू के लिए थी। वह भी कभी-कभार। ज्यादा करके वह डाक्टर के पास जाती न थी। आँख का रेटिना चिर गया तो तेज दर्द के बावजूद, छह महीने तक डाक्टर के पास नहीं गई। फिर एक सहेली घसीट ले गई तो डाक्टर श्रौफ ने पूछा, "आखिर दर्द सहने की आपकी हद क्या है?" कराह कर उसने कहा, "मैं औरत हूँ, बच्चे पैदा किए हैं और... " आगे कह नहीं पाई। डाक्टर को उसमें दकियानूसी दिखी या औरत होने का फख्र, एनेस्थीसिया दिए बिना नश्तर लगा दिया। दर्द बढ़ा, राहत मिली, चुक गया। गोद खाली रही, शिगाफ भर गया।
उसने जानने की कोशिश नहीं की कि नरेंद्र को उतने पैसे की जरूरत थी या जुए की मानिंद, बिजनेस लत बन चुका था। काफी पैसे की जरूरत थी, इतना वह जानती थी। नरेंद्र ने बेटे की याद में एक खैराती दवाखाना खोला था, जो उसके कंगाल होने तक, यानी दस बरस चला। बंजर, खारी जमीन पर दरख्त उगा कर, दवाखाने को हरियाली बख्शने की "कोशिश" भी उद्यम में शामिल थी। जमीन इस कदर ऊसर थी कि कोशिश काफी से ज्यादा पैसा माँगती थी। जुआरी साथियों ने जम कर हौसला अफजाई की और कोशिश के लिए कर्ज लेने के रास्ते सुझाए। जो पैसा मिलता, कुछ दरख्त उगाने में, कुछ दवा बाँटने में, बाकी "बेटे समान" नौजवानों को अंत्रेप्रनेयर बनाने का सपना पूरा करने में लग जाता। उदारीकरण का कमाल था कि खैरात भी कर्ज से चलती थी। सब उदार थे; देनदार, सरकार, कानून, संगी-साथी। इसे क्या कहें कि उस जुए में उनका पासा सही पड़ा और नरेंद्र का गलत? तकदीर या उनकी काबिलीयत के बरक्स नरेंद्र की काहिली?
और जो हो, नरेंद्र बेवकूफ जरूर था जो याद न रख सका कि बुढ़ापा तभी इज्जत से कटता है जब दो चीज पास हों; पैसा और सेहत। पैंसठ की उम्र तक पहुँचते, वह दोनों गवाँ चुका था। अब सत्तर का हो कर पथरीली-कंकरीली सड़क पर मुँह के बल गिर, कुछ पल बेहोश रहने के बाद, कुर्सी पर फिंका पूछ रहा था, "क्या मैं गिर गया था?"
नलिनी भीतर घुसी तो यही मंजर देखा। जरा देर पहले, उम्रदराज बंदे की तरह टहलने निकली थी। नरेंद्र को साथ चलने के लिए कहा था पर उसने मना कर दिया था। वीना थी ही घर पर। काबिल लड़की थी। कुर्सी पर फिंके नरेंद्र के चेहरे के जख्म डेटोल से साफ कर रही थी। सुशांत को मोबाइल पर इत्तिला दे दी थी।
क्षण भर हतप्रभ रह कर नलिनी, अपने सामान से लायसील क्रीम निकाल लाई और जख्मों पर लगा दी। खून रुक गया। कितनी खुशकिस्मत थी वह कि कुछ दिन पहले, गहरी चोट आने पर डाक्टर ने वह दी थी। वह गिरी नहीं थी, दूसरी मंजिल से गमला उस पर गिरा था। क्रीम साथ ले आई थी कि बच्चों के लिए छोड़ जाएगी; उन्हें चोट लगती रहती थी। कमाल क्रीम थी, लड़ाई के मैदान के जख्मों तक पर लगाई जाती थी, बशर्ते जख्म बेरहमी से साफ कर लिया जाए, जो वीना कर रही थी।
नलिनी को जो डरा रहा था वह नरेंद्र का बार-बार पूछना था, " क्या... मैं ...गिर गया... था?"
"हाँ, सड़क पर," वीना ने कहा तो बोला, "मैं... बाहर गया.. नहीं।"
"बेखयाली में निकले थे क्या?" घबरा कर नलिनी बोली तो वीना ने बतलाया, बाकायदा उससे कह कर गए थे, घूम कर आता हूँ। पाँच मिनट नहीं हुए कि एक आदमी आ कर बोला, कोई गिरा पड़ा है, पानी ला दो। ले कर गई तो...
नलिनी के जाने के बाद सोचा होगा, घूम आए। बाहर निकलते ही गिर गया। पर याद क्यों नहीं? गिरना याद नहीं। बाहर जाना तक याद नहीं!
तभी सुशांत आ गया।
"आइए, बिस्तर पर लेटिए", उसने कहा पर नरेंद्र उठ न पाया। सहारा दे कर उठाना चाहा, हुआ नहीं।
पोती ईषिता को साथ लिए अभिलाषा आ पहुँची। उसे फोन नहीं किया गया था; ईषिता की गिटार की क्लास बीच में छोड़ वह नहीं आया करती थी। ईषिता नरेंद्र की तरफ दौड़ी तो अभिलाषा ने डाँट कर कहा, "तुम ऊपर जाओ।" वह चली गई।
क्यों? तेरह बरस की है; इतनी नन्ही नहीं कि जरा-सा जख्म न देख पाए; नलिनी को उड़ता-सा खयाल आया। तब तक वह पूरी तरह "नेगेटिव" हो चुकी थी। उसे याद आ गया था, तीन साल पहले भी नरेंद्र, अपने दोस्त के बेटे नवीन के आँगन में गिर गया था और याद नहीं था कि गिरा था। नवीन ने फौरन न्योरोलिजिस्ट को दिखलाया था पर चश्मदीद गवाह न होने पर, सौ फीसद निदान नहीं हो पाया था। ई.ई.जी. में विकार न होने पर भी जासूसी उपन्यासों के "सर्कम्स्टान्शियल एविडेन्स" की बिना पर संयोग को तर्क मान, मिर्गी की दवा दे दी गई थी। पिछले साल मिकदार घटाई गई थी। क्या यह मिर्गी का दौरा था? पर पिछली बार उठने में दिक्कत नहीं हुई थी। सिर पर चोट भी नहीं आई थी। तब क्या यह स्ट्रोक है या...
"अस्पताल ले जाना चाहिए न..." वह सुशांत के बजाय अभिलाषा की तरफ मुड़ी; रोग की समझ उसे ज्यादा थी।
"आज इतवार है," उसने कहा।
"पर इमरजेन्सी...?"
"चल सकेंगे?" एक बार फिर खींचा-खाँची हुई पर नरेंद्र को उठाया न जा सका।
"एंब्यूलेन्स..." नलिनी फुसफुसाई।
पिछ्ली बार भी इतवार था। पर नवीन के पास जीप और दो दरबान थे। वे उठा कर अस्पताल ले गए थे। यहाँ एंब्यूलेन्स की दरकार होगी... होती तो होगी ही... फोर्टिस! उसे अस्पताल का नाम याद आ गया। कई बार अभिलाषा को वहाँ डाक्टर से फोन पर मशविरा करते सुना था।
"जरूरत है भी? मिर्गी का दौरा होगा। कल आप दिल्ली जा ही रही हैं, अपने डाक्टर से पूछ लीजिएगा।"
कल दिल्ली लौटना है, नलिनी को याद ही नहीं रहा था। इस हालत में कैसे जाएँगे! स्थगित करना पड़ेगा। बाद में सोचेंगे...
बोली, "जान-पहचान के डाक्टर से फोन पर पूछ लें... वह है न... डाक्टर सुरेश?"
"फोन करके देख लिजिए।"
"मैं? मैं तो उन्हें... जानती नहीं। मुझसे बात करेंगे?" कराह कर वह सुशांत की तरफ घूम गई।
देखा, वह और वीना, गिरते-पड़ते नरेंद्र को घसीट कर बिस्तर पर लिटाने में सफल हो गए थे। उतना तो हुआ।
तभी पोता शुभांशु आ गया। दौड़ कर दादा के पास पहुँचा, बोला, "क्या हुआ दादा?"
"शुभू... देख ... मैं ...गिर गया। क्या... बहुत... चोट...लगी...?" शुक्र है, नरेंद्र शुभू को पहचान गया; नलिनी की आँखें भीग गईं।
"परवाह नहीं। मुझे भी लगती रहती है। ममी डाक्टर के पास ले जाएँगी। अभी ठीक हो जाएगी," शुभू बोला।
डूबती नलिनी, तिनके की तरह उसे थाम कर बोली, "शुभू, और बात करो दादा से। पूछो, कल कहाँ गए थे हम लोग?"
"शुभू, तुम जाओ होमवर्क करो," अभिलाषा बोली।
"वह तो दो दिन बाद देना है।"
"तो? टाइम लगेगा करने में। तुम चलो, मैं आती हूँ।"
"पर दादा..."
"मुझे... बाथरूम... जा... ना है," नरेंद्र ने कहा।
"मैं ले चलता हूँ, नाना को भी मैं सहारा देता था।"
"तुम जाओ, पापा हैं न।"
शुभू चला गया।
सुशांत खींच-खाँच कर नरेंद्र को बाथरूम ले गया। वह बार-बार दाएँ रुख लुढ़क जाता पर गिरा नहीं। सुशांत ने सँभाल लिया।
वापस बिस्तर पर धम से गिरा तो नलिनी ने पास जा कर पूछा, "तुम्हें याद है, कल हम कहाँ गए थे?"
"हाँ," उसने रुक-रुक कर कहा, "शुभू... के...स्कूल।"
"क्यों?"
"मेडल... मिला... था।"
"वाह, तुम्हें तो सब याद है।"
"मैं... गिरा... कहाँ, चेहरे पर... घाव... क्यों हैं?"
वह कुछ कहती कि सुना, सुशांत फोन पर डाक्टर सुरेश से बात कर रहा है। वह बीच में बोल पड़ी, "कहो, इमरजेन्सी में लाना है, कैट स्कैन होना है।"
पिछली दफा हुआ था।
फोन कट गया।
"कह रहे हैं, बेहोश नहीं हैं, बात कर रहे हैं तो कल सुबह ले लाना, देख लेंगे।"
"पर तब तक... रात में कुछ हुआ तो... सिर की चोट है..."
"मैं सोऊँगा न उनके पास। कुछ नहीं होगा। फिक्र मत करो।" उसके स्वर की सरसता ने उसे आश्वस्त किया कि सुना, "आप इतना नेगेटिव क्यों सोचती हैं?" अभिलाषा लौट आई थी।
"कल दिल्ली कैसे जाएँगे? टिकट बदलवाना पड़ेगा। कितने पैसे लगे जाएँगे?" नलिनी ने कहा। और नेगेटिव!
"फ्लाइट चार बजे है। डाक्टर सुबह देख लेगा। सुशांत उनसे कहना पापा ज्यादा देर बैठ नहीं सकते। मैं अपने पापा को ले जाती थी तो यही कहती थी।"
"पर यह तो चल तक नहीं सकते, कैसे जाएँगे?" नलिनी का मतलब था, वह कैसे सँभालेगी?
"व्हील चेयर ले लेंगे, सुशांत एयरपोर्ट तक पहुँचा कर आएगा। एक दिन की छुट्टी ले लेगा।"
नलिनी नरेंद्र से भी ज्यादा गुमसुम हो रही।
डाक्टर ने देखा, बार-बार पूछा, नाक-कान से खून तो नहीं आया? न कहने पर पर्ची पर लिखा, "यात्रा में दवा बदलना ठीक नहीं है। मरीज हवाई जहाज से सफर कर सकता है। घर पहुँच, अपने डाक्टर से सलाह ले कर फौरन सी.टी. स्कैन, एम.आर.आई. वगैरह करवाए, तभी सही निदान हो पाएगा।"
"देखा, आप नाहक नेगेटिव सोच रही थीं, डाक्टर ने दिल्ली जाने की इजाजत दे दी न?"
हाँ अभिलाषा, दे दी।
सामान बाँध रही थी कि देखा, नरेंद्र का रूमाल खून से तरबतर है, नाक से खून आ रहा है।
"सुशांत!" एकबारगी घबरा कर पुकारा पर अभिलाषा के जवाब ने चुप करवा दिया, "नक्सीर फूट गई। बच्चों की फूटती रहती है।"
नलिनी ने अपने को काठ कर लिया। नहीं कहा, नरेंद्र बच्चा नहीं है... उसके सिर पर चोट आई है... डाक्टर इसी बात को ले कर परेशान था...।
प्रशांत को याद किया, उसका कहा जुमला याद किया, "भाइयों हमारी माँ एकदम अलग किस्म की पागल हैं" और पागलपन को बैसाखी की तरह थाम लिया। तब भी थामे रखा जब रास्ते में नरेंद्र ने कहा, "मेरी पसलियाँ... टूट गईं... छाती में बहुत... दर्द है।"
हँस कर कहा, "पसलियाँ तो टूटती ही रहती हैं, पहले भी टूटी थी न एक बार? याद है फर्स्ट एड क्लास में क्या सिखाया था, बेहोश को कृत्रिम साँस देते हुए तड़ाक की आवाज आए तो समझो पसली टूट गई। परवाह मत करो, साँस देते रहो। पसली टूटने से खास नुकसान नहीं होता।"
व्हील चेयर ले ली गई। पुणे ही नहीं, दिल्ली एयरपोर्ट पर भी व्हील चेयर चालक का बर्ताव उदार नहीं, स्निग्ध था। इतना कि काठ बने रहना मुश्किल हो गया। नरेंद्र की जेब से चश्मे का डिब्बा गिर गया तो लाख मना करने पर ढ़ूँढ़ कर माना। बोला, "बीमार की चीज खोनी नहीं चाहिए।"
वे इतने भले न होते तो वह काठ बनी रहती। अस्पताल जाने के भय को दुबारा हावी न होने देती। पर कब तक? आखिर दर्द सहने की उसकी हद क्या थी?
परिचित डाक्टर ने कहा, तीन पसलियाँ टूट गई थीं, जुड़ जाएँगी, गोलियाँ खाने से दर्द कम हो जाएगा। असल मसले दूसरे थे। किस न्यूरोलिजिस्ट को दिखाएँ? निदान क्या होगा? क्या-क्या टेस्ट करवाने होंगे?
पैसे की दिक्कत नहीं थी। चलते वक्त सुशांत ने दे दिए थे। इनकार करने लायक हालत नहीं था। उसके अलावा मदद की जरूरत नहीं थी, उतनी कमजेहन या कमजोर वह नहीं थी। बेटे-बहू की बीमारियों से अकेले निपट चुकी थी। वैसे मदद कोई दे भी नहीं रहा था; सलाह सब। परिचित डाक्टर पहला आदमी था जिसने यकीन के साथ पक्की राय दी थी। तभी अपोलो अस्पताल का अपॉइंटमेंट रद्द करके, उसके सुझाए डाक्टर के पास गई। डाक्टर ने टेस्ट करवाने से पहले पूछा, पुणे बड़ा शहर है, तुरंत अस्पताल क्यों नहीं ले गईं? नलिनी ने कह दिया वे यात्रा पर थे, वहाँ किसी को जानते न थे। इमरजेन्सी में कहा गया, मरीज घर जाना चाहे तो जरूर जाए, स्वस्थ होने में मरीज की मर्जी मायने रखती है। इसलिए लौट आए, आप के पास।
डाक्टर ने बेशुमार टेस्ट करवाए। पर उससे पहले कहा, "स्पष्ट कर दूँ, मैं फोन पर बात नहीं करता। कि कहीं आप फोन करके मुझे तंग करें।"
फोन पर बात करके ही क्या हुआ था?
एक बार फिर प्रशांत का जुमला याद करके, अनुभवी नलिनी ने हँस कर कहा, "इमरजेन्सी हुई तो अस्पताल आ जाएँगे, फोन से क्या होगा?"
न जाने कितने टेस्ट हुए। सब का मुआयना करके डाक्टर ने राय दी कि नरेंद्र को मिर्गी के दौरे नहीं पड़े थे।
"तब... हुआ क्या था? और अब..."
"ठीक कहा नहीं जा सकता। टेस्ट तुरंत हुए नहीं। जो भी हुआ था... अब..."
"मुझे कुछ कहना है!" सहसा नरेंद्र बोल पड़ा।
दिल्ली के रास्ते में दर्द की शिकायत करने के बाद, तीन दिन से वह चुप था। टेस्ट के दौरान, डाक्टर की तफ्तीश के दौरान... हर सवाल का जवाब नलिनी ने दिया था।
"कहिए, "घड़ी पर नजर डाल कर डाक्टर ने बेरुखी से कहा।
"दोनों बार जब मुझे फिट पड़ा..."
"फिट! आपको कैसे पता, फिट था?" उपहास में हँसा डाक्टर।
"डाक्टर ने कहा था, दवा देते हुए! बतलाया तो था आपको," तिलमिला कर नलिनी ने बाधा दी।
पर नरेंद्र सिसक-सिसक कर कह रहा था, "दोनों बार... जब... मैं गिरा... मेरा बेटा... अठारह साल पहले... वह..."
डाक्टर समझा नहीं, बोला, "क्या कह रहे हैं?"
नलिनी को फिर काठ होना पड़ा, सपाट स्वर में कहा, "हमारा बेटा मर गया था।" बीमार सुशांत के साथ डाक्टरों के पास जाने पर कई बार पहले कह चुकी थी।
"तो?"
"मैं... उस के ...बारे में... सोच... रहा था... गिरने से पहले..." नरेंद्र फुग्गा मार कर रो दिया।
परेशान डाक्टर बार-बार घड़ी देखने लगा, फिर बोला, "यह वजह हो सकती है, मिर्गी के दौरे की। दवा की डोज बढ़ा देते हैं।"
जल्दी से नुस्खा घसीटा और नलिनी को पकड़ा दिया।
"पर आप तो कह रहे थे... मिर्गी नहीं है।"
"हो भी सकती है। एब्सॉर्बशन टेस्ट ने खून में दवा नाकाफी दिखलाई है।"
"मैं समझी नहीं।"
"जरूरत क्या है! डाक्टर मैं हूँ आप नहीं। अब जाएँ, दूसरा मरीज इंतजार कर रहा है। पंद्रह दिन बाद का अपॉइंटमेंट ले लें।"
"पर..."
"प्लीज जाइए!" शब्द कोड़े की तरह बजे।
उसने देखा नरेंद्र कमरे में नहीं है। वह भी बाहर निकल आई।
दवा ने अपना जलवा दिखलाया पाँच दिन बाद, दीवाली को देर रात। एक झंझावात आया। नरेंद्र के जिस्म को गिरफ्त में ले यूँ झिंझोड़ा ज्यूँ धुली चादर फटक-फटक निचोड़ रहा हो। उस रात एंब्युलेन्स मिलना नामुमकिन था। पटाखों के बेमुरव्वत शोर और बिजली के बल्बों की बेलिहाज रोशनी से पगलाई दीवाली की अमावसी रात की बेरुखी के सामने, इतवार की रात की कुछ बिसात न थी।
निचुड़ी चादर-सा नरेंद्र बिस्तर पर गिरा तब भी चक्रवात थमा नहीं, उसी ठौर घुमड़ता रहा, उसे मथता-कूटता रहा। अवाक नलिनी टोहती रही... अब थमे... अब थमे... बिला मोहलत पटाखे फूटते रहे, फूहड़ रोशनी कुदक्कती रही... रात बाकी रही, त्योहार बना रहा। जैसे आया था, झंझावात अकस्मात थम गया, नरेंद्र की देह पीछे छोड़ गया... निश्चेष्ट, निश्चल, निर्जीव।
लोग आए, रिवायती रोना-पीटना हुआ, फिर सभी ने दिलासा देते हुए कहा, खुशकिस्मत था नरेंद्र। पहले स्ट्रोक में भगवान को प्यारा हुआ। लकवे की गलीज बीमारी भुगतने से बच गया।
दवा का पत्ता हाथ में थामे निश्चेष्ट नलिनी सोच रही थी, क्या कभी कोई गलती हुई ही नहीं?