खुशबू / तलविंदर सिंह / सुभाष नीरव
कान्फ्रेंस के दौरान मुझे किसी ने बताया कि हनीफा बीबी मुझे खोजती घूम रही है। मैं भी उसे ढूँढ़ रहा था। सोच रहा था कि अब दोपहर के खाने के समय ही मुलाकात होगी, पर अचानक किसी ने पीछे से आकर मेरे कंधे पर आहिस्ता से धौल जमाई। मैंने पलट कर देखा तो पैंसठ-छियासठ साल की, कसी कदकाठी वाली एक औरत मुस्करा रही थी। उसके गोरे चेहरे पर सुनहरे फ्रेम वाली ऐनक खूब फब रही थी। बोली, “तू सुरिंदर ही है न?”
मैंने सिर हिलाया, “आप...?”
“हाँ वही।” उसने जवाब दिया, “उठकर बाहर आ जा।”
मैं उठकर उसके पीछे-पीछे बाहर आ गया। ऑडीटोरियम की सीढ़ियों के करीब खड़े होकर वह बोली, “आ गले मिल।” और उसने मुझे अपनी बांहों में कसकर प्यार दिया। “चलते वक्त से ख्वाहिश थी मेरी, तुझसे मिलने की। तेरी चिट्ठियों ने तो मोल ही खरीद लिया मुझे, और तेरा वह लेख...।”
“मैंने भी आपका नावल पढ़ा। उर्दू अक्षरों में पंजाबी पढ़ते समय जोर तो बहुत लगा, पर एक बार तो हिल गया मैं।”
“इसका मतलब अच्छा लगा तुझे।” वह बोली।
“बहुत बढ़िया। मुझे लगा, इसकी कहानी आपके निजी जीवन से जुड़ी हुई है, तभी तो विवरण इतने सजीव हैं।” मैंने कहा।
“तू बता, अपने असली जीवन से कैसे टूट सकता है बंदा? जिसको जिया, झेला, भोगा वह...वह हमारी लिखत में तो आएगा ही, कि नहीं?” वह कह रही थी और मैं सहमति में सिर हिला रहा था।
“चल, ज़रा भीड़ से दूर हटें। कहीं चाय नहीं मिल सकती बढ़िया सी?”
“मुझे चंडीगढ़ की अधिक जानकारी नहीं। पर आओ नीचे चलें, कोई राह खोजते हैं...।” सीढ़ियाँ उतर कर हम नीचे आ गये। वह मेरे साथ ऐसे चलने लगी मानो बरसों से परिचित थी। मुझे भी लगा जैसे हम पहले अनेक बार मिल चुके हों। मैंने इधर-उधर देखा, पर कोई मनपसन्द जगह नज़र नहीं आयी। मेरी उलझन को समझकर वह बोली, “चल यहाँ से भी निकल, कहीं और चलें।”
चाय के दो कपों के लिए मैंने कई किलोमीटर कार घुमाई। उसका करीब होना मुझे अच्छा लग रहा था। आसपास की इमारतों को देखती वह कई प्रश्न पूछती रही, जिनका उत्तर मैं अपनी जानकारी के अनुसार देता रहा।
“मैं आपको दीदी कहकर बुलाऊँ?” उसके अपनत्व में घिरते हुए मैंने पूछा।
“अगर बहन जी कहते हुए तुझे जोर पड़ता है तो मौसी-बुआ कुछ भी कह ले, पर दीदी-शीदी बिलकुल नहीं।” उसने हँसकर उत्तर दिया।
दोपहर के खाने के वक्त भी वह मेरे करीब रही। अगली बैठक में मेरे पास बैठी। रात में उसने स्टेज पर से बेहद सोज़भरी आवाज में एक ग़ज़ल सुनाई। सुनकर मैं दंग रह गया। खूब तालियाँ बजीं।
स्टेज से उतरी तो मैंने मुबारकबाद दी, “आपकी आवाज में तो जादू है।”
जवाब में वह सिर्फ मुस्करायी।
रात में उसके रहने का इन्तजाम होटल में था। मुझे अपने दोस्त के साथ जाना था। बिछुड़ते वक्त मेरे हाथों को अपने हाथों में लेकर उसने कहा, “एक दिन मेरे लिए थोड़ा कष्ट झेल। मुझे अमृतसर दरबार साहिब और मेरा गाँव अटारी दिखा दे।”
“मुझे कोई उज्र नहीं। मेरे लिए तो यह गर्व की बात है।” मैंने कहा।
“सवेरे होटल में आ जाना। वहीं से सीधे निकलेंगे और शाम को वापस।”
“ठीक है।”
सवेरे कार अमृतसर के रास्ते पर दौड़ रही थी। एक दिन की मुलाकात ने मीलों लम्बा सफ़र तय कर लिया था। उसे और कुरेदने के ख्याल से मैंने पूछा, “मुझे लगता है, आप अपने नावल 'इन्तहा' की नायिका सरगम खुद ही हो।”
दूर तक पसरे गेहूँ के खिले हुए खेतों पर नज़र दौड़ाती हनीफा कहीं गुम हो गयी। कहीं गहरे नीचे उतरती चली गयी वह। उसका चेहरा संजीदगी के लबादे में लपेटा गया। बोली, “तुझे कल भी बताया था शायद कि मनुष्य अपने अतीत से टूट नहीं सकता। उसके संस्कार साथ-साथ चलते हैं। मेरे साथ भी...।”
“कैसे हुआ था?” मैंने पूछा।
“उस समय दार जी लायलपुर पोस्टिड थे। वह क़हर मुझे आज भी याद है, ज्यों का त्यों। आग की लपटें, खून, लाशें... या अल्लाह... हे वाहेगुरु...।” उसने दोनों हाथों से कानों को छुआ। मेरा पैर अचानक रेस पर से उठकर ब्रेक पर आ टिका। रफ्तार धीमी करके मैंने उसके चेहरे की ओर देखा। 'इन्तहा' की कहानी मेरी स्मृति में खुलने लगी।
वह बोली, “सरगम मैं ही हूँ। असल में सरगम नहीं, सुरजीत हूँ मैं।” धीमी रफ्तार देखकर वह बोली, “चलता चल, बड़ा लम्बा रास्ता है, फिर वापस भी तो लौटना है।”
मैंने रफ्तार तेज की। वह कहने लगी, “अच्छा आदमी था वह। मुझे सुरजीत से हनीफा बनाने में उसने बिलकुल जल्दबाजी नहीं की। मुझे कई दिन घर में रखा। मेरी रजामंदी पर ही उसने अपनी बेगम बनाया मुझे।”
“अब कभी मन नहीं करता वापस लौटने का?” मैंने पूछा।
“यह भी ज़िंदगी की हकीकत बन गयी है एक। मेरे मन ने परवान कर लिया है इसको। अब तेरे जितना मेरा जवान बेटा है। खूबसूरत बहू, दो छोटे बच्चे। औरत तो दरख्त होती है, जहाँ जा बैठी, वहीं जड़ें पकड़ लीं।”
अपने परिवार के छोटे-छोटे विवरण, शाखाओं-पत्तियों के बारे में बताती रही वह। उसकी कहानी से एकमेक हुआ मैं अनदेखी राहों पर चलता रहा।
दरबार साहिब की परिक्रमा करके हनीफा आँखें मूंदकर और हाथ जोड़कर शान्त मुद्रा में काफी देर खड़ी रही। मैं चुपचाप उसके करीब खड़ा रहा। चेतन हुई तो हम आगे बढ़े। उसे अपने अन्दर उतरने का अवसर देने के विचार से मैंने कोई बात नहीं छेड़ी। 'दुख-भंजनी बेरी' के पास उसने चरनामृत लिया। फिर बोली, “कहाँ से गोले चलाये थे भारतीय फौज ने?”
इस प्रश्न की तो मैंने कतई कल्पना नहीं की थी। फिर भी, मैंने इशारा किया, “इस रास्ते से टैंक अन्दर आये, उस कोने से फायरिंग की गयी।”
“सन्त कहाँ थे उस समय?”
“वो सामने देखो। वो अकाल तख्त है, वहाँ। यह अब दुबारा बनाया गया है।” मैंने बताया।
हनीफा कुछ देर चुप रही। फिर बोली, “कौन जालिम है और कौन निर्दोष, कौन कह सकता है।” मैंने उसके चेहरे की ओर देखा, होंठों में कुछ बोल रही थी वह। फिर, उसने इक्यावन रुपये का परशाद लिया, अन्दर जाकर चढ़ाया और कुछ देर कीर्तन सुनने के लिए बैठी रही। आसपास को गौर से निहारती रही।
वक्त की बंदिश को महसूस करते हुए हम बाहर आये। आसपास के भीड़-भड़क्के को वह बड़ी दिलचस्पी से देख रही थी।
“यह वो अमृतसर नहीं, जो अब तक मेरे जेहन था। तब तो साधारण-सा शहर था यह।” वह बोली।
“अब तो लाहौर भी वो लाहौर नहीं होगा, वह भी बदल गया होगा।” मैंने पूछा।
“हाँ।” उसने कहा, “पर बंदे की जेहनीयत सदियों तक नहीं बदलती। बहुत कुछ बासा, सड़ा-गला उठाये घूमता है आदमी अपने साथ।”
“यह भी दुरुस्त है।” मैंने कहा।
ऊँचे पुल से मैं नीचे की ओर उतरा तो उसने पूछा, “हम छेहराटे की ओर नहीं मुड़े?”
“नहीं, अटारी की तरफ मुड़े हैं।” मैंने हँसते हुए बताया।
“एक ही बात है, या कोई दूसरा रास्ता है यह?” उसने गौर से इधर-उधर देखा।
“नहीं, वही है, जी.टी. रोड। पेशावर से कलकत्ता, लाहौर से अमृतसर, वाहगे से अटारी जाने वाली। सड़क तो सीधी है, सिर्फ फाटक है बीच में।” मैं भावुकता में बोल उठा।
पुतलीघर चौक, खालसा कालेज, युनिवर्सिटी के पास से गुजरे हम। छेहरटा चौक से गुजरते हुए उसने पूछा, “यहीं कहीं नरायण गढ़ होगा। मेरी एक बुआ रहती थी वहाँ- बचन कौर।”
“यह आगे नरायण गढ़ ही है। फूफा जी का नाम याद है?”
“शायद सरदूल सिंह या सुलक्खन सिंह... याद नहीं ठीक से। और पता नहीं, उनके बाद कौन होगा? कोई होगा भी या नहीं?”
नरायण गढ़ पीछे रह गया। अब उसकी नज़र आगे टिक गयी थी। “इस रोड से आगे थाना आएगा, घरिंडा। उस थाने में सरगम अपने बाप के साथ आती है एक दिन। किसी मुज़रिम को उसका बाप पीटता है तो चीखें मारती हुई बाहर दौड़ती है वह।”
मैं मुस्कराया, “तब सुरजीत के दार जी यहाँ पोस्टिड थे।”
“हाँ, हम अटारी रहते थे। किराये पर। मेरा जन्म अटारी ही हुआ। दो घरों में हम रहे। वे घर अभी भी मेरे सपनों में आते हैं।
अटारी की सीमा में पहुँचते ही हनीफा का चेहरा खिलने लगा था। भीड़े बाजार में मैंने कार घुसा ली। एक जगह वह बोली, “रोक तो कार यहाँ। शायद यही जगह है वह।” एक साइड पर कार रोकी तो वह बाहर निकलकर इधर-उधर देखने लगी, “बाहर आ, तुझे दिखाऊँ अपना पहला घर।”
मैं बाहर आया और उसके साथ ही ऊपर की ओर देखने लगा। दुकानदार हमें विशेष नज़रों से देखने लगे। सोचते होंगे, ग्राहक तो लगते नहीं, कुछ खोजने आए हैं शायद।
“बिलकुल यही है।” बेहद उत्साहित होकर वह कह रही थी। “वो खिड़की है जहाँ खड़ी होकर मैं नीचे देखा करती थी। एक फकीर गुजरा करता था यहाँ से, उसकी प्रतीक्षा किया करती थी रोज। कोई गीत गाया करता था वह...पता नहीं क्या था वह। इधर एक गली हुआ करती थी। शायद, यही है, अन्दर मंदिर है कोई ?”
“पता नहीं।” मैंने कहा। पर समीप ही आ खड़े हुए एक बुजुर्ग ने हामी भरी, “हाँ, है मंदिर।”
“है न बाबा जी?” हनीफा खुश हो गयी, “वहाँ रामलीला हुआ करती थी।”
“अभी भी हुआ करती है।” बुजुर्ग ने बताया।
“कमाल हो गया।” हनीफा हैरान थी, “आओ तो देखें ज़रा।”
सामने वाली हलवाई की दुकान वाला मेरे करीब आया, “कैसे सरदार जी...?”
“इन बीबी जी के बचपन का गाँव है यह। यहीं जन्मे-पले। कम से कम सत्तावन साल के बाद आये हैं।” मैंने बताया। मेरी बात सुनकर बुजुर्ग ने आँखें चौड़ी कीं, “कौन था बीबी तुम्हारा बाप?”
“थानेदार भजन सिंह को जानते हो?” वह बोली।
एक क्षण के लिए बुजुर्ग ने गोता लगाया और अगले क्षण बाहर निकल आया, “उसकी तो बीबी जी बड़ी धाक थी। चोर-उचक्के उसका नाम सुनकर काँप जाते थे...। तो तुम उनकी बेटी हो...तेरा नाम जीता तो नहीं?”
“हाँ बाबा जी।” हनीफा को लगा मानो इस गाँव में उसकी जड़ अभी भी हरी थी। उसके घर को देखने के लिए हम सीढ़ियाँ चढ़े। घर के कमरों को देखती वह आनन्द-विभोर हो गयी, “यह अल्मारी वही है, जहाँ मेरी सहेली ने मुझे बन्द कर दिया था और खुद बाहर दौड़ गयी थी। मैं चीखती-चिल्लाती रही थी, पर मेरी कौन सुनता? मर ही जाती अगर माँ आ कर अल्मारी न खोलती।”
घर का मालिक हैरान हो रहा था। उसकी हैरानगी को भांपते हुए हनीफा बोली, “यह मेरा घर है, पर आप अब रहो यहाँ।”
छतों, दीवारों को निहारती हनीफा बाहर निकली। सीढ़ियाँ उतरे और आगे बढ़े। बुजुर्ग को हमने संग ले लिया। कदम-कदम पर वह रुक जाती और दरवाजों-झरोखों को देखती बीती यादों में उतर जाती।
“इस ऊँची इमारत के बिलकुल ऊपर से एक लड़की ने छलांग लगाकर खुदकुशी की थी। इस जगह लाश पड़ी थी उसकी।” एक जगह रुककर उसने बताया।
मैंने बुजुर्ग की ओर देखा जो दिमाग पर जोर डाल रहा था, “हाँ, हुआ था यह वाकया, सच है।”
“क्यों हुआ था?” मैंने पूछा।
“ऐसी घटनाओं के पीछे एक-से ही कारण होते हैं।” वह बोली, “पंडितों की बेटी थी वह। किसी मुसलमान लड़के से ब्याह करना चाहती थी। जब मज़हबी तवाज़न न बना तो ऐसा होना ही था।”
“बिलकुल यही बात थी।” बुजुर्ग ने कहा, “बीबी तेरी तो बड़ी याददाश्त है।”
इस बार बुजुर्ग रुका, “यह है अपना गरीबखाना। आओ, कुछ खा-पीकर चलो।”
उसे 'हाँ-ना' में जवाब देने से पहले हनीफा फिर स्मृतियों में उतर गयी, “यहाँ विवाह हुआ था एक। इस चबूतरे पर दुल्हन को बिठाया गया था। बड़ी सुन्दर थी वह दुल्हन।” एक पुरानी कुइंया के चबूतरे की ओर देखकर वह बोली।
बुजुर्ग की आँखें चमकीं, “मेरा ही हुआ था।”
“वह दुल्हन कहाँ है, सुर्ख लिबास वाली, गोरी-चिट्टी?” हनीफा खुश हो गयी।
“घर में ही है। आओ मिलवाऊँ।”
हम अन्दर गये। बुजुर्ग ने अपनी पत्नी को बुलाया और हमसे मिलवाया। हनीफा ने उसे कसकर गले से लगा लिया। फिर बोली, “तुम तो बूढ़े हो गये इतनी जल्दी।”
“समय का रंग है। तुम भी तो हो ही गये हो।” वह बोली।
पर हनीफा नहीं मानी, “मैं तो अभी जवान हूँ। बुढ़ापे को करीब नहीं फटकने देती। फिर आज तो बिलकुल ही नहीं, आज तो मेरी उम्र तेरह साल से अधिक है ही नहीं।” उसकी बात ने सभी को हँसा दिया।
वहाँ हमने ठंडा शर्बत पिया। फिर घाटी की ओर मुड़े। अंधी ड्योढ़ी देखकर तो मैं भी हैरान रह गया। कमाल की कारीगिरी थी। कमाल की ओट थी।
हनीफा ने बताया, “इस जगह की यह ओट आशिकों के लिए जन्नत जैसी है। लड़कियाँ-लड़के यहाँ मिला करते थे।”
बुजुर्ग ने कहा, “अभी भी कौन-सा कम मिलते हैं।”
मैंने वहाँ के कोनों, ओटों और अँधेरों को देखा। आगे खुली जगह थी। हनीफा बता रही थी, “यहाँ हम खेला करते थे। वो सामने वाली डाट पर कबूतरों के झुंड बैठते। सरदारों की बहुएँ घघरे पहने यहाँ से गुजरतीं। पीछे-पीछे नौकरानियाँ उनके घघरों को उठाकर चलतीं।”
नानक शाही ईंट की बिल्डिंगों के खंडहरों को देखते हम हनीफा की अगवाई में उसके दूसरे घर की ओर जा रहे थे। इस घर का मालिक एक स्कूल अध्यापक था, जो संयोग से मेरा परिचित निकल आया। मैंने उसे हनीफा से मिलवाया। अन्दर घर में घुसे तो वह एक बार फिर यादों की पिटारी खोल बैठी। पुराने कमरों को खुलवाकर देखा। दरवाजों, शीशों के रंग तक याद थे उसे। स्कूल अध्यापक अमरजीत पुरी दिलचस्पी से हमारे बीच शामिल हो गया। ऊपर छत पर जाकर वह सामने चौबारे की ओर देखने लगी। फिर, मेरे करीब होकर हल्के से फुसफुसाई, “नावल का एक चैप्टर यहाँ भी खुलता है, याद है?”
“कौन-सा भला?” मैंने अपनी स्मृति पर जोर मारा।
“जब सरगम को जमींदारों का लड़का चौबारे पर खड़ा होकर देखता है। यहाँ खड़ी हुआ करती थी मैं और वह, उस सामने वाली छत पर, मेरी ओर देखता। शिखर दोपहरी, कभी बरसते पानी में। एक दिन मेरे लिए अपनी बहन के हाथ उसने एक मुंदरी भेजी। मैंने गुस्से में आकर मुंदरी लौटा दी।”
“ज़रा बताओ तो कौन था वह?” अमरजीत भी हमारे रंग में रंग गया।
“सरूप सिंह नाम था उसका। रूपा-रूपा कहते थे।” हनीफा ने बताया।
“तो आप सरूप सिंह नंबरदार की बात कर रहे हो।” अमरजीत बोला।
“हाँ, वही होगा। यह चौबारा पहले उनके पास ही था।” बुजुर्ग ने तसदीक की।
वातावरण में बढ़ती रोमांचकता देखकर अमरजीत स्कूटर उठाकर घर से निकल गया।
“उसकी बहनें मेरी सहेलियाँ थीं। कभी-कभार उधर जाती थी मैं। वह घर में होता तो मेरे माथे पर बल पड़ जाते, ना होता तो घर खाली लगता। एक दिन मुझे गली में घेर कर खड़ा हो गया और 'आई लव यू... आई लव यू' कहता रहा। मैंने डराया-धमकाया कि दार जी को बताऊँगी। मेरे दार जी का बड़ा दबदबा था। वह डर गया और मेरे पैर छूता रहा। माफियाँ मांगता रहा।” चौबारे की ओर देखती हनीफा हँस रही थी।
“फिर कब तक चला यह सिलसिला?” मैंने पूछा।
“बस, एक-डेढ़ साल। छियालीस में दार जी की बदली लायलपुर हो गयी। वहाँ रहे सालभर। जब हल्ले शुरू हुए, तब दार जी दंगाइयों से निपटते हुए मारे गये। घर बार छोड़कर मैं और माँ एक काफिले के साथ आ रही थीं कि हमला हो गया। मुझे बचाते हुए माँ मारी गयी और मैं...।”
हनीफा शून्य को घूरने लगी। अमरजीत की पत्नी चाय ले आयी। चाय खत्म होने से पहले अमरजीत एक सियाने से व्यक्ति को लेकर आ गया। ऊपर आकर उसने हनीफा को हाथ जोड़कर 'सतिश्री अकाल' कहा। हनीफा बोली, “पहचानो तो?”
“तुम जीता, पहचान लिया मैंने।” सरूप सिंह बोला।
“याद है, तुमने मेरे लिए एक मुंदरी भेजी थी और मैंने लौटा दी थी। लाओ, दे दो अब। मैं वो मुंदरी लेने आई हूँ।” उसने हाथ आगे बढ़ाया।
चेहरे पर शर्मिन्दगी का भाव लाकर सरूप सिंह बोला, “वह तो बचपन की बातें थीं बहन जी।” हनीफा ठहाका लगाकर हँसी। फिज़ा तो पहले ही सुंगधित हुई पड़ी थी। कुछ समय घर-परिवार की बातें होती रहीं। सरूप सिंह हमें अपने घर ले जाने के लिए जिद्द कर रहा था। लेकिन, हमें वापस लौटने की जल्दी थी।
अमरजीत के घर से निकल हम उस तरफ बढ़े, जिधर हमारी कार खड़ी थी। सरूप सिंह ने याचना-सी की, “अगर घर नहीं चलना तो मेरी ओर से कोई चीज ही ले जाओ। बताओ क्या लेकर दूँ?”
हनीफा सामने वाली दुकान पर ठक-ठक कर रहे ठठियार की ओर देख रही थी। बोली, “चलो, तवा लेकर दो एक।”
“तवा?” मेरे और अमरजीत के मुँह से एक साथ निकला।
“तुमने मुझसे पूछा, मैंने बता दिया। आगे तुम्हारी इच्छा।” हनीफा ने कहा।
सरूप सिंह ने दुकान से तवा लिया, अखबार में लपेटा और हनीफा को दे दिया। उसने उसे माथे से लगाकर स्वीकार कर लिया।
“दोबारा कभी आना।” सरूप सिंह भी भावातिरेक में बोला। पर इसका जवाब किसके पास था? कार आगे खिसकी और अटारी पीछे रह गया। सुनहरी फ्रेम वाली ऐनक के नीचे से हनीफा ने दुपट्टे से आँसू पोंछे। मैंने ऐसा प्रदर्शन किया जैसे मैंने कुछ देखा ही न हो।