खुशबू / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Gadya Kosh से
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दोनों भाइयों को पढ़ाने–लिखाने में उसकी उम्र के खुशनुमा साल चुपचाप बीत गए। तीस वर्ष की हो गई शाहीन इस तरह से। दोनों भाई नौकरी पाकर अलग–अलग शहरों में जा बसे।

अब घर में बूढ़ी माँ है और जवानी के पड़ाव को पीछे छोड़ने को मजबूर वह। खूबसूरत चेहरे पर सिलवटें पड़ने लगीं। कनपटी के पास कुछ सफेद बाल भी झलकने लगे। आईने में चेहरा देखते ही शाहीन के मन में एक हूक–सी उठी–कितनी अकेली हो गई है मेरे जि़न्दगी। किस बीहड़ में खो गए मिठास भरे सपने।

भाइयों की चिट्ठियाँ कभी–कभार ही आती हैं। दोनों अपनी गृहस्थी में ही डूबे रहते हैं। उदासी की हालत में वह पत्र–व्यवहार बंद कर चुकी है। सोचते–सोचते शाहीन उद्वेलित हो उठी। आँखों में आँसू भर आए। आज स्कूल जाने का भी मन नहीं था। घर में भी रहे तो माँ की हाय–तौबा कहाँ तक सुने? उसने आँखें पोंछीं और रिक्शा से उतरकर अपने शरीर को ठेलते हुए गेट की तरफ कदम बढ़ाए। पहली घंटी बज चुकी थी। तभी दीदीजी–दीदीजी की आवाज़ से उसका ध्यान भंग हुआ।

‘‘दीदीजी, यह फूल मैं आपके लिए लाई हूँ।’’ दूसरी कक्षा की एक लड़की हाथ में गुलाब का फूल लिए उसी तरफ बढ़ी।

शाहीन की दृष्टि उसके चेहरे पर गई। वह मंद–मंद मुस्करा रही थी। उसने गुलाब का फूल शाहीन की तरफ बढ़ा दिया। शाहीन ने गुलाब का फूल उसके हाथ से लेकर उसके गाल थपथपा दिए।

गुलाब की खुशबू उसके नथुनों में समाती जा रही थी। वह स्वयं को इस समय बहुत हल्का महसूस कर रही थी। उसने रजिस्टर उठाया और उपस्थिति लेने के लिए गुनगुनाती हुई कक्षा की तरफ तेजी से बढ़ गई।